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अलङ्कार-विन्यास
१६९ __ यहाँ 'अटवी', 'धुनी' तथा 'अभिपादम्' इस अव्यपेत आवृत्ति रूप यमक भेद में अगात्' की सूक्ष्म व्यपेत के रूप में पादान्त आवृत्ति हुई है । इस प्रकार स्थान की नियतता नहीं रह पायी है, अत: स्वान्यभेदगत स्थूल सूक्ष्म अव्यपेत अस्थान यमक है। ३. पाद यमक
जहाँ वर्णसमुदाय की आवृत्ति प्रथम, द्वितीय आदि पादों में अपेक्षित होती है, वहाँ पाद यमक होता है । इसे तीन भागों में बाँटा जाता है
(क) पादाभ्यास यमक (ख) अर्धाभ्यास यमक (ग) महायमक
द्विसन्धान-महाकाव्य में इनका विन्यास इस प्रकार हुआ है(क) पादाभ्यास यमक
जहाँ पद्य के एक-एक पाद को लेकर दो पादों में समानता लायी जाती है, वहाँ पादाभ्यास यमक होता है । भरत ने इस प्रकार के यमक को विक्रान्त यमक कहा है। विभिन्न काव्यशास्त्रियों ने इसके विभिन्न भेद किये हैं। द्विसन्धान में विन्यस्त पादाभ्यास यमक निम्नलिखित हैं(i) प्रथम-तृतीय पादाभ्यास यमक अत्र स्नुताधिकमनोजवधूतमाल
पत्रप्रयुक्तकुसुमांजलिसिक्तमूर्तिः ।। अत्र स्नुताधिकमनोजवधूतमाल
माल्येन तेन सहित: स्वगृहं विवेश ॥२ यहाँ प्रथम पाद की तृतीय में आवृत्ति हुई है, अतएव यहाँ प्रथम-तृतीय पादाभ्यास यमक है । रुद्रट ने इस प्रकार के यमक-विन्यास को सन्दंश यमक नाम दिया है । द्विसन्धान-महाकाव्य के अन्तिम सर्ग में इसका बाहुल्य है, अत: वहाँ पद्य १. 'एकैकं पादमुत्क्षिप्य दौ पादौ सदृशौ यदा।
विक्रान्तयमकं नाम तज्ज्ञेयं नामतो यथा ॥',ना.शा,१६७२ २. द्विस,८५२