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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य चेतना ने इस प्रकार के यमक को आवली यमक कहा है । द्विसन्धान में उपलब्ध इस अलंकार का इस प्रकार विन्यास हुआ है
सरित: सरितो नगानगानवतीर्ण: स बहूपकारकः । विषयान्विषयानपेक्षितां वशवर्तीव गतो न्यशामयत् ।।२
यहाँ ‘सरित:' तथा 'नगान्' पदों की प्रथम पाद में सूक्ष्म रूप से पादव्यापी अव्यपेत आवृत्ति है तथा तृतीय पाद में 'विषयान्' की आवृति हुई है, अत; अस्थान यमक है । भोज द्वारा परिगणित अस्थान यमक के विभिन्न भेदों में इस प्रकार का यमक पादगत सूक्ष्म अव्यपेत अस्थान यमक कहा गया है।
अमुत्र मकरैः करैर्विरचिता चिता विनियतायताप्य च नभः । नभस्वदयुतायुता दिशमितामिता समहिमा हिमा जलततिः ॥२
यहाँ प्रत्येक पाद में 'करैः' इत्यादि पदों की अव्यपेत आवृत्ति हुई है तथा सन्धि में पादविच्छेद हो जाने से 'चिता' आदि पदों में व्यपेत यमक बन जाता है, किन्तु उसी को सन्दंश के रूप में आवृत्त करने से व्यपेतत्व निवृत्त हो जाता है, जबकि अव्यपेत मध्य यमक तो बना ही रहता है और सामूहिक रूप में अव्यपेत यमक है ही तथा स्वल्प वर्णों की आवृत्ति हुई है । भोज ने इस प्रकार के यमक विन्यास को पादसन्धिगत स्वान्यभेदानुच्छेदक सूक्ष्म अव्यपेत अस्थान यमक कहा है।
सुसहायतया सुसहायतया मधुरं मधुरञ्जितयाजितया।
शमित: शमित: सहित: सहित: प्रतिवासरवासरति प्रययौ ॥
यहाँ ‘सुसहायतया', 'मधुरं', 'जितया', 'शमित:' ‘सहित:',और वासर' पदों की सम्पूर्ण श्लोक व्याप्त आवृत्तियाँ होने से नियत-स्थानता नहीं रह पायी है और ये आवृत्तियाँ स्थूलरूप से होने के कारण व्यवधानरहित हैं, इसलिए यहाँ श्लोकगत स्थूल अव्यपेत अस्थान यमक हैं।
क्वचनातिपातमटवीमटवीं सधुनी धुनीमभिनिवेशमगात्। सलतागृहान्वसतिरम्यतया तरसाभिपादमभिपादमगात् ।।
१. का.भा.,२.९ २. द्विस,४.४५ ३. वही,८.२४ ४. वही,८५३ ५. वही, १२.८