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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य चेतना
(छ) मध्यान्त यमक
पूर्ववत् इसके भी अव्यपेत आदि आवृत्ति के माध्यम से विभिन्न पादों में विभिन्न रूपों में यमकित होने से अनेक भेद किये जा सकते हैं। द्विसन्धान-महाकाव्य में उपलब्ध इसके उदाहरण इस प्रकार हैं
स धृतव्यजनेन जनेन पुरं परमङ्गलमङ्गलघोषकृता। नगरीमभिरज्जयता जयतादिति वाक्यविभागमितो गमितः ॥१
यहाँ प्रथम और द्वितीय पाद के मध्य में क्रमश: 'जनेन' तथा 'मङ्गल' पदों के वर्णसमुदायों की तथा तृतीय व चतुर्थ पादों के अन्त में 'जयता' तथा 'गमित:' पदों के वर्णसमुदायों की व्यवधानरहित आवृत्ति हुई है। इस प्रकार प्रथम-द्वितीय पादों में मध्य-यमक और तृतीय-चतुर्थ पादों अन्त यमक होने से यहाँ अव्यपेत मध्यान्त यमक है । पुनश्च
अत्र समेता मृदुरसमेता भ्रूकुटिलास्या: स्मग्कुटिलास्याः ।
भूप रमन्ते हानुपरमं ते वेगमनेन व्यभिगमनेन ।
यहाँ चारों पादों के मध्य और अन्त भाग में ‘रसमेता', 'कुटिलास्या:', 'परमन्ते' और 'गमनेन' पदों के वर्णसमुदायों की व्यपेत आवृत्ति हुई है, अत: यहाँ व्यपेत मध्यान्त यमक है । इस सन्दर्भ में द्विसन्धान-महाकाव्य के पद्य ८.३१-३३ भी द्रष्टव्य हैं।
सहसा वल्लकीहस्ता विचेलुः सिद्धकोटयः । दिवि ज्योतिर्गणज्योतिस्तीवं जज्ञेऽतिविद्युति ॥
यहाँ तृतीय पाद के मध्य और अन्त में 'ज्योति:' पद के वर्णसमुदाय की व्यवधानसहित आवृत्ति हुई है, अत: व्यपेत तृतीय पादगत मध्यान्त यमक है । (ज) आदिमध्यान्त यमक
द्विसन्धान-महाकाव्य में इस यमक-विन्यास के उदाहरण अनुपलब्ध हैं। १. द्विस.,८.४८ २. वही,८.३० ३. वही, ७.८