________________
१६१
अलङ्कार-विन्यास (viii) व्यपेत प्रथम-द्वितीय पादगत मध्य यमक
उपसान्त्वय कृत्यमात्मनस्तमकृत्यं नयवृद्धिमृद्धिभिः ।
उभयं परकीयमात्मसात् कुरु नीते: प्रथमोऽयमुद्यम: ॥१ . (ix) व्यपेत द्वितीय-चतुर्थ पादगत मध्य यमक
इत्याशक्य चिराज्जज्ञे संतप्तै रुकैः शिखी।
दृष्ट्या शूरैः पराच्छेदि भिदेयं भीरु धीरयोः ॥२ (x) व्यपेत तृतीय-चतुर्थ पादगत मध्य यमक
शिष्टैर्जुष्टं रक्षितं दण्डनीत्या दृष्टं चौच्चैर्यच्च पुण्यग्रहेण ।
कार्यद्वारं श्रीगृहद्वारभूतं तस्मिन्मूढं दिग्विमूढं निराहुः ॥२ (ग) अन्त यमक
इस भेद के भी व्यपेत एवं अव्यपेत आवृत्ति के आधार पर कई भेद किये जा सकते हैं । द्विसन्धान में उपलब्ध इसके उदाहरण इस प्रकार हैं
न गुणैर्वधूभिरमितो रमितो न विलेपनं निजगृहे जगृहे। विभवेषु नो वशमित: शमित: स गतो यतित्वमुदितो मुदितः ।।
यहाँ प्रत्येक पाद के अन्त में 'रमितो', 'जगृहे', 'शमित:', तथा 'मुदित:' वर्णसमुदायों की व्यवधानरहित आवृत्ति हुई है, अत: यहाँ अव्यपेत-अन्त यमक है । भरत ने इस प्रकार के यमक को पादान्ताप्रेडित यमक कहा है। इस सन्दर्भ में द्विसन्धान-महाकाव्य का पद्य ६.३९ भी द्रष्टव्य है ।
इसी प्रकार भरत 'चारों पादों के अन्त मे जहाँ समान अक्षर हों, उसे पादान्त यमक मानते हैं ।५ भामह ने इसे समस्त पाद यमक माना है।६ व्यवधानयुक्त १. द्विस,४.१६ २. वही,१८.३८ ३. वही,११.४ ४. वही,८.५६ ५. 'चतुर्णा यत्र पादानामन्ते स्यात्सममक्षरम् ।
तद्वै पादान्तयमकं विज्ञेयं नामतो यथा ॥'ना.शा.१६.६६ ६. तु. का.भा,२.१५