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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य चेतना आवृत्ति होने के कारण यह व्यपेतः अन्त यमक भी कहा जा सकता है। द्विसन्धान-महाकाव्य का निम्नलिखित पद्य इसका उदाहरण हैभान्त्येतस्मिन्मणिकृततरङ्गाभोगास्तत्सारूप्यान्नहततरङ्गाभोगाः। क्रीडास्थानै रुचिरमहीनामुच्चैरुद्धान्तानां सुचिरमही नामुच्चैः।।
यहाँ प्रथम और द्वितीय पादों के अन्त में 'तरङ्गाभोगा:' तथा तृतीय और चतुर्थ पादों के अन्त में 'चिरमहीनामुच्चै: 'पदों के समान अक्षरों का समावेश हुआ है, अत: व्यपेत-चतुष्पादगत अन्त यमक है । इस उदाहरण के प्रथम तथा द्वितीय पादों में आवृत्त वर्णसमुदाय अन्यजातीय है । इस प्रकार आवृत्त वर्णसमुदायों के अनेकजातीय होने से इसे अनेकजातीय या विजातीय यमक भी कहा जा सकता है । इस प्रकार के उदाहरणों में द्विपाद यमकद्वय अर्थात् मिश्रयमक की स्थिति भी मानी जा सकती है। द्विसन्धान-महाकाव्य में इस प्रकार के प्रयोग के लिये पद्य ८.४० तथा ८.४४ भी द्रष्टव्य हैं।
संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने इसके भी पादगत आवृत्ति के आधार पर अनेक भेद किये हैं। द्विसन्धान में उपलब्ध उन भेदों के उदाहरण इस प्रकार हैं(i)अव्यपेत प्रथमपादगत अन्त यमक द्विषन्मारी चोद्यप्रबलरथवेगो दिशि दिशि
स्वयं गजेन्द्रोणो रणशिरसि केनाथ विधृतः । सदाप्युच्छ्वासेनोच्छ्वसिति भुवन यस्य सकलं
स कैर्वायों दुर्योधन इह बलेनेन्द्रजिदसौ ॥२ (ii) अव्यपेत द्वितीयपादगत अन्त यमक
पदघातजातदरि मुक्तधरं स धराधरं सुकृतवान्कृतवान् ।
विजहाति वा बलवता निहत: श्लथमण्डल: किल न क: पृथिवीम् ॥३ १. द्विस.,८७ २. वही,११.३७ ३. वही,१२.३७