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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
गायों का बिना प्रयत्न के भागना आदि अनुभाव हैं। गर्व, आवेग आदि व्यभिचारी भाव हैं, जिनके सहयोग से वीर रस का परिपाक हो रहा है
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एक अन्य प्रसङ्ग में धनञ्जय ने वीर रस के उद्रेक का अद्भुत चित्रण किया है । यहाँ उनका कथन है कि शत्रु राजाओं की ज्या की टंकार से शुद्ध वीर रस का उद्रेक हो गया तथा इस उद्रेक से सपक्षी राजाओं के इकहरे शरीर हठात् रोमांचित हो उठे, यह रोमांच ऐसा था जैसे घन-गर्जन के साथ-साथ वृष्टि के सिञ्चन से बेलें अङ्कुरित हो उठती हैं
उत्कर्ण्य मौर्वीनिनंद नृपाणां तनूलता कण्टकिताऽनुरागात् । उत्सेकतो वीररसैकसारादभूद्विरुढेव समं रिपूणाम् ॥१
सैन्य- वर्णन
धनञ्जय ने अपने कवित्वमय ओज तथा इतिहास के पूर्वनिर्धारित ज्ञान के साथ राम / कृष्ण के विरुद्ध रावण / जरासन्ध के अव्यवस्थित सैन्य- प्रयाण का वर्णन किया है—
रथो बरूथस्य हयस्य वाजी गजः करेणोः पदिकः पदातेः । दुर्मन्त्रितं ध्यानमिवात्मबिम्बं स्वस्यैव संनद्धमिवाग्रतोऽभूत् ॥२
धनञ्जय ने इस वर्णन में बताया है कि शत्रु को उलझाने के लिये किस प्रकार सारथि अपने रथ एक दूसरे की ओर दौड़ा रहे थे, कैसे घोड़े सवारों सहित एक दूसरे से आगे जा रहे थे, कैसे हाथी हथिनियों को पीछे छोड़ रहे थे और कैसे पदाति एक दूसरे के सम्मुख पहुँचकर जूझ रहे थे। समस्त वर्णन युद्ध-कला सम्बन्धी ज्ञान तथा युद्ध-भूमि में होने वाली गतिविधियों का सूचक है, जो कवि के सैन्य विज्ञान की जानकारी को द्योतित करता है । कवि द्वारा प्रतिनायक की ऐसी दुस्साहसी समस्त सेना को उस 'कुध्यान' के समकक्ष बताया गया है, जिसमें खोटे मन्त्र के जाप से इष्ट देवता का साक्षात्कार न होकर अपना ही प्रतिबिम्ब सम्मुख आता है । यह उपमा युद्ध के पूर्वनिश्चित भाग्य की सूचिका है।
इसी प्रकार राम / कृष्ण की सेनाओं का युद्ध के लिये प्रस्थान भी अत्यन्त वीर रसोत्पादक बन पड़ा है । कवि धनञ्जय कहते हैं कि मदोन्मत्त हाथी के मस्तक
१. द्विस., १६.२०
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द्विस, १६.८