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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना इसी प्रकार धनञ्जय ने नैतिक विलक्षणता के प्रसङ्ग में भी रौद्र रस का सुन्दर समन्वय किया है। मानवीय प्रतिक्रियाओं का गहन ज्ञान रखने वाले कवि धनञ्जय ने राम/कृष्ण दूत हनुमान/श्रीशैल द्वारा सीता को वापिस लौटाने के लिये अथवा कृष्ण के साथ न लड़ने के लिये कहे जाने पर रावण/ जरासन्ध के क्रोध का अत्यन्त प्रभावपूर्ण ढंग से वर्णन किया हैइत्युक्तेऽस्मिन्यादमुपात्तं मणिपीठात्
प्रापय्योसं सव्यगतासिस्थितदृष्टिः । न्यस्यन्नक्ष्णोरिन्द्रियवर्गं सकलं तु
क्षोभात्कायं कोपविवृत्तिं गमयन्नु ।। सभ्रूयुग्मं वैरिविरुद्धं घटयन्नु
स्विद्यन्क्रोधक्वाथितलावण्यरसो नु । रुद्धः स्थित्वाधोरणमुख्यैर्द्विरदो नु
प्रोचे विष्णोरित्यरिरग्नि विवमन्नु ॥ प्रस्तुत प्रसंग में अपमान, वाक्पारुष्य, मात्सर्य आदि उद्दीपन विभावों से क्रोध स्थायी भाव उद्भूत हुआ है । दूत हनुमान/श्रीशैल आलम्बन विभाव है तथा रावण/जरासन्ध आश्रय है । भृकुटि-भङ्ग, ललकारना, आरक्त नेत्र, आक्षेपक्रूर दृष्टि आदि अनुभाव हैं । उग्रता, आवेग, रोमाञ्च, स्वेद आदि व्यभिचारी भाव हैं । इनके सहयोग से रौद्र रस की अभिव्यञ्जना हुई है।
सामान्यत: ऐसा माना जाता है कि क्रोध की मूल प्रवृत्ति समाज के लिये अत्यावश्यक है। यदि एक व्यक्ति विरोध किये बिना अन्य पुरुष की क्रूरता को सहता रहे तो दुष्ट व्यक्ति न तो कभी अपना दोष मानेगा और न ही उन्हें सुधारेगा। समाज में यदि कोई मनुष्य किसी अन्य के प्रति दुष्टता करता है तो उसे दण्ड मिलना ही चाहिए । इस प्रकार का एक सुन्दर उदाहरण धनञ्जय कृत द्विसन्धान में उपलब्ध होता है, जिसमें साहसगति के अन्याय की ओर संकेत किया गया है । कवि ने राम के क्रोध और उसकी योद्धा जैसी सामर्थ्य का रोचक वर्णन किया है और चित्रित किया है कि शत्रु को कैसे वश में किया जाता है । इस प्रसंग में राम की यम से
१. द्विस,१३.२१-२२