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रस-परिपाक
१४७ थूकना, मुंह फेरना आदि अनुभाव हैं तथा ग्लानि, आवेग आदि संचारी भाव हैं। इन सभी विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से 'बीभत्स रस' परिपुष्ट हुआ है। शान्त रस
तत्त्व-ज्ञान तथा वैराग्य से 'शान्त रस' की उत्पत्ति मानी गयी है। इसी कारणवश इसमें सांसारिक विषयों से सम्बद्ध किसी भी प्रकार की भावना, आनन्द, सुख, दुःख, प्रेम, लाभ, हानि इत्यादि का नितान्त अभाव रहता है । शान्त अनुभूति को रस स्वीकार करने में भारतीय काव्यशास्त्रियों में पर्याप्त मतभेद दिखायी पड़ता है। यहाँ तक कि भरत के नाट्यशास्त्र में भी शान्त रस का स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
प्रधानत: काव्य का मुख्य उद्देश्य कलात्मक सुख माना गया है, न कि धर्मोपदेश । फिर भी, कुछ धर्म-प्रचारक ऐसे हुए, जिन्होंने काव्य को अपने धर्मप्रचार का माध्यम बनाया। इस प्रकार की विभूतियों में बौद्ध कवि अश्वघोष तथा पउमचरिय के जैन लेखक विमलसूरि का नाम प्रख्यात है । कालान्तर में ये दोनों धर्म ऐसे काव्यों के स्रोत हो गये, जिनमें परम्परा से स्वीकृत कोई भी रस आधिपत्य न रख पाया। इस प्रकार के काव्यों अथवा महाकाव्यों में शान्त रस को प्रमुखता मिली । सम्भवत: यही कारण ऐसा रहा हो कि परवर्ती काव्यशास्त्रियों को शान्त रस की सत्ता स्वीकार करनी पड़ी हो ।
शान्त रस के समर्थक काव्याचार्यों के अनुसार शान्त रस वह है जिससे 'शम' रूप स्थायी भाव का आस्वाद होता है । इसके आश्रय उत्तम प्रकृति के व्यक्ति होते हैं । इसका वर्ण कुन्द श्वेत अथवा इन्द्र श्वेत है । इसके देवता नारायण हैं। अनित्यता अथवा दुःखमयता के कारण समस्त सांसारिक विषयों की नि:सारता का ज्ञान अथवा साक्षात् परमात्मस्वरूप का ज्ञान ही इसका आलम्बन है । पवित्र आश्रय, भगवान की लीला मूर्तियाँ, तीर्थ स्नान, रम्य कानन, साधु-सन्तों का सत्सङ्ग आदि इसके उद्दीपन हैं । रोमाञ्च आदि अनुभाव हैं और निर्वेद, हर्ष, स्मृति आदि व्यभिचारी भाव हैं।
अधिकांश जैन महाकाव्यों का उद्देश्य मोक्ष-प्राप्ति रहा है । इसीलिए, इनके पात्र प्रारम्भ में सांसारिक भोगों मे लिप्त दिखाये जाते हैं, तदनन्तर महाकाव्य के अन्तिम भाग में पूर्णत: तटस्थ होकर मोक्ष-प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील दिखाये जाते १. सा.द.,३.२४५-४८