________________
अलङ्कार-विन्यास
१५५ इन्विमर्देऽमुचतां शरासनं शरानसूनप्यमुचन्नरातयः ।।
अजस्रमत्रं व्यमुचत्प्रियाजनस्तथास्थिता: स्पर्द्धममी न तत्यजुः ।।
यहाँ 'शर' की आवृत्ति हुई है, किन्तु अर्थ एक ही है-बाण । स्वरूप की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है । एक 'आसन' का विशेषण रूप है तथा दूसरा बाण अर्थ में स्वतन्त्र रूप से प्रयुक्त हुआ है। २. यमक
यमक भी अनुप्रास की भाँति आवृत्तिमूलक अलंकार है। स्वर-व्यञ्जन समुदाय की उसी क्रम से आवृत्ति को 'यमक' कहते हैं, किन्तु जिस वर्ण समुदाय की आवृत्ति हो, उसका एक अंश या सर्वांश यदि अनर्थक हो तो भी कोई आपत्ति नहीं, किन्तु उसके किसी एक अंश या सर्वांश के सार्थक होने पर आवृत्त समुदाय की भिन्नार्थकता आवश्यक है । अभिप्राय यह है कि यमक के अन्तर्गत समानार्थक शब्दों की आवृत्ति नहीं हो सकती ।२ द्विसन्धान-महाकाव्य में यमक की योजना अद्भुत प्रकार से हुई है । इसका अन्तिम सर्ग विशेष रूप से यमक अलंकार से अलंकृत है । उदाहरणार्थ निम्न यमक द्रष्टव्य है
अथापरागोऽप्यपरागतां गतः स पश्चिमोऽपि प्रथमो विपश्चिताम्।
अनुज्ञया वीरजिनस्य गौतमो गणाग्रणी: श्रेणिकमित्यवोचत ।
यहाँ 'अपराग' शब्द की आवृत्ति हुई है, जिसका एक स्थान पर 'रजोमलरहित' तथा दूसरे स्थान पर 'वाच्यता' अर्थ है, अतएव यमकालंकार है।
यमक अलंकार का भरत से लेकर अद्यपर्यन्त विभिन्न प्रकार से वर्गीकरण हुआ है, किन्तु सर्वाधिक वैज्ञानिक तथा सूक्ष्म विवेचन भोज ने अपने सरस्वतीकण्ठाभरण में किया है। उनके अनुसार यमक को मुख्य रूप से(१) स्थान यमक, (२) अस्थान यमक तथा (३) पाद यमक- तीन मुख्य भागों मे विभक्त कर उनके पुन: उपभेद किये जा सकते हैं । द्विसन्धान में प्रयुक्त यमक का इन भेदों के आधार पर निम्न प्रकार से विवेचन किया जा सकता है
१. द्विस.,६९ २. सा.द.१०.८ ३. द्विस,१९ ४. सरस्वतीकण्ठाभरण,२५९-६०