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अलङ्कार - विन्यास
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यहाँ चारों पादों के आरम्भ में 'प्रभावतो' पद के समान अक्षरों का समावेश होने के कारण 'व्यपेत-आदि यमक' है । इसी प्रकार इस 'व्यपेत - आदि यमक' का एक अन्य उदाहरण द्रष्टव्य है
स हस्ताभ्यां चमूहस्तौ सहस्ताभ्यामपीडयत् । बिभ्रज्जिषुः प्रताग्नौ बिभ्रत्संधित्सुतामिव ॥ १
यहाँ प्रथम व द्वितीय पादों के आदि में 'सहस्ताभ्याम्' तथा तृतीय व चतुर्थ पादों के आदि में 'बिभ्रत्' पदों के समान अक्षरों का समावेश हुआ है, अत:‘व्यपेत-आदि यमक' है । इस उदाहरण में एक विशेषता यह है कि इसके प्रथम तथा द्वितीय पादों में आवृत्त वर्णसमुदाय एकजातीय तथा तृतीय व चतुर्थ पादों में आवृत्त वर्णसमुदाय अन्यजातीय है । इस प्रकार आवृत्त वर्णसमुदायों के अनेकजातीय होने से यह अनेकजातीय अथवा विजातीय यमक का उदाहरण है । २ भोज ने इस प्रकार के उदाहरणों में द्विपाद यमकद्वय अर्थात् मिश्र यमक की स्थिति मानी है । द्विसन्धान - महाकाव्य में ऐसे यमक के लिए १८.३९,७९, १००, १०६, ११७ तथा १४० क्रमाङ्क वाले पद्य भी देखने योग्य हैं ।
संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने आदि यमक को विभिन्न पादों में विभिन्न रूपों में यमकित कर इसके अनेक भेद किये हैं । द्विसन्धान- महाकाव्य में उपलब्ध उन भेदों का विवरण इस प्रकार है
(i) अव्यपेत प्रथमपादगत आदि यमक
१.
२.
३.
४.
सितासिताम्भोरुहसारितान्तराः प्रवृत्तपाठीनविवर्त्तनक्रियाः ।
समायता यत्र विभान्ति दीर्घिकाः कटाक्षलीला इव वारयोषिताम् ॥४
(ii) अव्यपेत द्वितीय पादगत आदि यमक
देवं किं बहुनानेन साधुनासाधुनाथवा । निष्पश्चिममिदं पश्य नेत्रमात्राखिलेन्द्रियः ॥ ५
द्विस.,१८.१३
तु. - काव्या, ३.३०
द्रष्टव्य- सर. कण्ठा., २.११६
द्विस., १.२६
वही, ७.६४