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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य चेतना युगीन समाज-चेतना और काव्य-चेतना के मिले-जुले प्रयासों से संस्कृत काव्य को शब्दाडम्बर-पूर्ण कृत्रिम शैली से विचरण करना पड़ा। साहित्यिक रुचि में पर्याप्त बदलाव आ गये थे और कवियों के मध्य आलङ्कारिक काव्य-सृजन की होड़-सी लगी हुई थी। तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियाँ भी वैसी ही थीं, जिनमें काव्य के आदर्श एक राजदरबारी काव्य की अपेक्षा से ढाले जा चुके थे । सामान्य तथा राजदरबारों की छत्रछाया में ही कवियों को प्रश्रय मिलता था और वैसे राजदरबारी वातावरण में रस-प्रधान काव्य का स्थान अलङ्कार-प्रधान काव्य ने ले लिया था। अलङ्कार-विन्यास सम्बन्धी नाना प्रकार के प्रयोगों का प्रदर्शन कर, सैन्य एवं युद्ध सम्बन्धी अस्त्र-शस्त्रों के बन्ध रचकर कविगण अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करते थे। इसी समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि सन्धान-शैली की काव्य-रचना भी उसी का एक परिणाम थी। बुद्धि-विलास एवं शब्दाडम्बर का एक आदर्श प्रस्तुत करने वाले धनञ्जय के द्विसन्धान-महाकाव्य का प्रयोजन ही यश एवं अर्थ-प्राप्ति रहा था, जो इस तथ्य का द्योतक है कि कवि की आर्थिक अथवा जीविकोपार्जन की अपेक्षाओं ने भी शब्दाडम्बरपूर्ण आलङ्कारिक काव्यों को विशेष प्रोत्साहित किया। द्विसन्धान-महाकाव्य में शब्दालङ्कारों व चित्रालङ्कारों की जितनी समृद्धि एवं विविधता देखने को मिलती है, उसके आधार पर परवर्ती काव्यशास्त्रियों ने अलङ्कारों के विविध भेदों की कल्पना की होगी। महाकाव्य का अन्तिम सर्ग तो विशेष रूप से यमक एवं चित्रालङ्कारों को ही समर्पित किया गया है। वैसे भी पूरे महाकाव्य में धनञ्जय एक साथ दो कथाओं का उपनिबन्धन कर सके हैं, तो उसका मुख्य कारण भी अलङ्कार-प्रयोग ही रहे हैं। द्विसन्धान-महाकाव्य में विभिन्न अलङ्कारों का विन्यास इस प्रकार हुआ हैशब्दालङ्कार
द्विसन्धान-महाकाव्य व्यर्थक शैली की रचना है, अतएव इसमें शब्दालङ्कारों का विन्यास बड़ी कुशलतापूर्वक हुआ है । सन्धान-विधा के काव्यों के लिये यह अभीष्ट भी है। धनञ्जय ने स्वयं व्यर्थक काव्य के लिये कमल, मुरज आदि बन्धों तथा श्लेष आदि शब्दालङ्कारों को सोचते हुए कवि की स्थिति वियोगी के समान उदासीन बतायी है । द्विसन्धान में निम्नलिखित शब्दालङ्कारों का प्रयोग हुआ है
१. द्विस.,१८.१४६ २. द्विस,८.४५