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षष्ठ अध्याय
अलङ्कार-विन्यास
काव्य की आत्मा रस मानने वाले विश्वनाथ आदि रसवादी आचार्यों की दृष्टि में अलङ्कारों को गौण स्थान दिया गया है। इन्हें काव्य के अस्थिर धर्म के रूप में अङ्गदादिवत् काव्य का उत्कर्षाधायक स्वीकार करते हुए रस का उपकारक मात्र माना गया है। सिद्धान्तत: भले ही रस की तुलना में अलङ्कारों का स्थान कुछ न्यून रहा हो, परन्तु इन्हें कदापि द्वितीय श्रेणी का काव्याङ्ग नहीं स्वीकार किया जा सकता । दण्डी ने वाचामुत्तमभूषणम् कहकर अलङ्कारों की श्रेष्ठता को मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है । भामह, उद्भट, रुद्रट,प्रतिहारेन्दुराज आदि काव्यशास्त्री काव्य में अलङ्कारों के विशेष महत्व को स्वीकार करते हैं। जयदेव के चन्द्रालोक में अलङ्कार को काव्य का सर्वस्व स्वीकार करते हुए कहा गया है कि अलङ्कारहीन शब्दार्थ को काव्य मानना वैसा ही है, जैसे अग्नि को अनुष्ण मानना ।
रामायण, महाभारत आदि महाकाव्यों में अलङ्कार-विन्यास की अनुपम छटा देखी जा सकती है । अश्वघोष, कालिदास प्रभृति महाकवियों ने भी काव्य-सृजन के अवसर पर अलङ्कार-विधान को पर्याप्त महत्ता प्रदान की है। सातवीं शताब्दी से उत्तरोत्तर अलङ्कार-प्रयोग विशेष चमत्कृत शैली में उभर कर आया है । भारवि इस शैली के प्रमुख प्रणेता माने जाते हैं। शब्दालङ्कारों तथा चित्रालङ्कारों के प्रयोग को जो वरीयता भारवि के काव्य में मिली है, उससे पूर्व अलङ्कारों को वैसा महत्व कभी किसी कवि ने नहीं दिया था।
१. शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माःशोभातिशायिनः।
रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गदादिवत् ॥,सा.द.१०.१ २. चन्द्रालोक,१.८