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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना महत्व देते दृष्टिगत होते हैं । उन्होंने न तो काव्य की अन्तिम परिणति निर्वाण-प्राप्ति से जोड़ी है और न ही अन्य जैन महाकाव्यों के समान इसे शान्त रस पर्यवसायी बनाने का ही कोई प्रयास किया है। स्वयं कवि के शब्दों में काव्य का प्रयोजन अर्थ-प्राप्ति स्वीकार किया गया है और महाकाव्य की परिणति राम अथवा कृष्ण द्वारा निष्कण्टक राज्य करने तक सीमित है । इन सभी तथ्यों के आलोक में यह कहना युक्तिसङ्गत होगा कि आलोच्य काव्य शान्त रस को मात्र एक अङ्ग अथवा गौण रस के रूप में मान्यता देता है और इसका प्रधान रस वीर ही है । वीर काव्य की प्रेरणा से अनुप्रेरित द्विसन्धान-महाकाव्य का अस्थिपञ्जर वीर रस से निर्मित है तो शृङ्गार इसकी मांसपेशियाँ है । धनञ्जय ने अपने महाकाव्य की साजसज्जा के लिये अजन्ता एवं एलोरा की चित्रकला एवं मूर्तिकला, वात्स्यायन के कामसूत्र आदि से प्रेरणा प्राप्त की है तथा शृङ्गार को अत्यधिक महत्व दिया है। दूसरी ओर तत्कालीन युद्धप्रधान राजनैतिक वातावरण से वीर काव्योचित सामग्री का चयन कर द्विसन्धान को वीर रस से विशेष पुष्ट किया है । शेष सभी रस अवान्तर रूप से ही वर्णित हैं।