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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना धैर्य तथा तर्क संचारी भाव हैं । इस प्रकार विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से यहाँ पर दानवीर प्रस्फुटित हो रहा है। शृङ्गार रस
संस्कृत के सभी काव्यशास्त्रियों ने प्राय: शृङ्गार रस को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। भरत शृङ्गार रस को सर्वप्रमुख मानते हैं । रुद्रट इसको बाल एवं वृद्ध-दोनों में समाज, मानव-प्रकृति की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार करते हए, इसके अभाव में काव्य के समस्त सौन्दर्य के खो जाने की आशंका करते हैं । भोज तो सभी रसों के स्थान पर मात्र शृङ्गार को ही रस की संज्ञा देकर इसके महत्व को असीम बना देते हैं। यही कारण है कि संस्कृत काव्य-जगत् में शृङ्गार को सर्वोत्कृष्ट माना गया तथा इसका अधिकाधिक विवेचन हुआ।
शृङ्गार रस रति नामक स्थायी भाव से उत्पन्न होता है। यह अपनी आत्मा की भाँति उज्ज्वल वेश वाला होता है, जैसे कि इस लोक में जो कुछ भी श्वेत, शुद्ध, उज्ज्वल और सुन्दर है, वह शृङ्गार (रति) से उपमित होता है। इसीलिए इस रस के आलम्बन उत्तम प्रकृति के प्रेमी व प्रेमिका होते हैं । यह युवावस्था के प्रकर्ष से सम्बद्ध होता है। विश्वनाथ के अनुसार अनुराग-शून्य वेश्या नायिका के अतिरिक्त अन्य प्रकार की नायिकाएं तथा दक्षिण आदि प्रकार के नायक ही इसके उपयुक्त आलम्बन विभाव होते हैं।
चन्द्रमा, भ्रमर, एकान्त-स्थान आदि इसके उद्दीपन विभाव हैं। अनुराग, भ्रूविक्षेप, कटाक्ष आदि इसके अनुभाव हैं तथा उग्रता, मरण, आलस्य, जुगुप्सा के अतिरिक्त अन्य भाव इसके सञ्चारी (व्यभिचारी) भाव हैं ।६
नायक तथा नायिका के संयोग तथा वियोग के आधार पर शृङ्गार रस के दो भेदों की कल्पना की गयी है-(१)सम्भोग शृङ्गार और (२) विप्रलम्भ शृङ्गार । १. का.रु,चौखम्बा विद्याभवन,वाराणसी,१९६६,१४.३८ २. शृङ्गारप्रकाश,पृ.४७० ३. ना.शा.मनीषा ग्रन्थालय,कलकत्ता-१२,१९६७,६.१५ ४. वही,१.१५ ५. सा.द., ३.१८३-८४ ६. वही,३.१८५