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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना प्रस्तुत प्रसङ्ग में धनञ्जय एक प्रेमी युगल के प्रगाढ़ आलिङ्गन का वर्णन करते हुए कहता है कि आलिङ्गन करते समय प्रियतम के द्वारा पहले दबाया गया और बाद में छोड़ दिया गया कल्याणाङ्गी नायिका का कुचयुग्म हृदय के उच्छ्वास की ऊष्मा के साथ-साथ फैलते हए के समान काफी देर में ऊपर उठा था । यहाँ स्थायी भाव रति है। प्रेमी और प्रेमिका परस्पर आलम्बन विभाव हैं । कुचयुग्म, अनुवृत्त चन्द्रमा की कान्ति आदि उद्दीपन विभाव हैं । हर्ष,उन्माद, औत्सुक्य आदि व्यभिचारी भाव हैं । आलिङ्गन अनुभाव है । रोमाञ्च, स्वेद आदि सात्विक भाव आक्षिप्त हैं। इनके सहयोग से सम्भोग शृङ्गार की अभिव्यक्ति हो रही है।
कवि धनञ्जय ने आलिङ्गन के सन्दर्भ में स्तनों की भूमिका का अत्यन्त उद्दीपक चित्रण किया है
परिषजति परस्परं समेत्य प्रतिमिथुने कुचमण्डलं बबाधे।
भजति हि निजकर्कशं न पीड़ा कमपरमध्यगतापवारकं वा ॥
अभिप्राय यह है कि प्रेमी तथा प्रेमिका को निकट आकर एक-दूसरे को गाढ़ आलिङ्गन करने में मध्य में आया हुआ स्तन-मण्डल बाधा पहुँचा रहा है । सत्य ही है, स्वयं की कठोरता अथवा दो के मध्य आया हुआ तीसरा (बाधक) सदा ही कष्टदायक होता है । एक अन्य स्थल पर कवि स्तनचक्र की संघर्षरत दो पक्षों के मध्य मध्यस्थ के रूप में कल्पना करता है
मध्यस्थितं मण्डलधर्मबद्धं मित्रं जिगीष्वोरिव पीड्यमानम् । सन्देहभावि स्तनचक्रमासीत् साधारणं तत्प्रिययोर्मुहूर्तम् ॥२
अर्थात् दोनों प्रेमियों के आलिङ्गन के समय बीच में दबा वर्तुलाकार नैसर्गिक स्तनचक्र क्षणभर के लिये सन्देह में पड़ गया था, क्योंकि उस समय वह दो विजिगीषुओं के मध्यस्थ मित्र की स्थिति में था । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार एक मित्र राजा को संघर्षरत दो पक्षों के मध्य मध्यस्थ बनने पर दोनों पक्षों के आक्रमण सहने पड़ते हैं, उसी प्रकार आलिङ्गन रूपी संघर्ष के समय मध्यस्थ मित्र राजा के ७. द्विस,१७६१ १. वही,१५.१९ २. वही,१७.६३