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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना हैं । उपवन, चन्द्र-कान्ति, समीर आदि उद्दीपन विभाव हैं । हर्ष, उन्माद, औत्सुक्य आदि व्यभिचारी भाव हैं। आलिङ्गन, नखक्षत आदि अनुभाव हैं । रोमाञ्च, स्वेदादि सात्विक भाव आक्षिप्त हैं जिनके सहयोग से सम्भोग शृङ्गार आस्वादित हो रहा
दोलाक्रीडा
कुचयुगमतुलं कुतोऽस्य भारः किल भवतीति तुलाधिरोपणाय । सह तुलयितुमात्मनोद्यतेव क्षणमपरा व्यलगीत्प्ररोहदोलाम्॥
प्रस्तुत उदाहरण में कवि धनञ्जय ने वन-विहार करते हुए प्रेमी-युगलों में से झूलती विलासिनी प्रेमिका का अत्यन्त मनोहारी वर्णन किया है। वह विलासिनी अपने निरुपम स्तनों को अपनी ही काया के साथ तोलने के लिये और इस स्तन-युगल का भार किस कारण से होता है- यह निश्चय करने के लिये ही दोनों को तुला पर रखने के प्रयोजन से क्षण भर के लिये लटकते हुए वट के प्ररोहों पर झूल गयी थी । यहाँ स्थायी भाव रति है । विलासिनी प्रेमिका आलम्बन है । आश्रय प्रेमी आक्षिप्त है। उपवन, वनविहार तथा दोलाक्रीडा उद्दीपन विभाव हैं। हर्ष, उन्माद, चपलता, औत्सुक्य आदि व्यभिचारी भाव हैं । रोमाञ्च आदि सात्विक भाव हैं। इनसे सम्भोग शृङ्गार की अनुभूति हो रही है। पुष्पावचय
निकटसुलभमुद्गमं विहाय श्लथबलिनीव विदूरगं ललचे। प्रथयितुमुदरं परा स्त्रिया हि प्रियतमविभ्रमगन्धनोऽन्यसङ्गः ॥२
यहाँ वन-विहार के प्रसंग में नायिकाओं द्वारा विभिन्न प्रकार के पुष्प तोड़े जाने के वर्णन में एक नायिका का हृदयहारी चित्रण प्रस्तुत है । इस कामिनी ने समीप ही विकसित सुलभ पुष्प को छोड़कर बहुत ऊपर खिले हुए पुष्प को तोड़ने का प्रयत्न किया। इस प्रयत्न के लिये उसे अपनी नीवी शिथिल करनी पड़ी, ऐसा प्रतीत होता था जैसे अपने प्रिय वल्लभ को अपनी कुश कटि दिखाने का प्रयत्न कर रही हो। यहाँ रति स्थायी भाव है। नायिका आलम्बन विभाव है और प्रिय वल्लभ आश्रय है । उपवन, वनविहार, नायिका की चेष्टाएं उद्दीपन विभाव हैं । हर्ष, उन्माद, १. द्विस,१५.१२ २. वही,१५.१०