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सन्धान - कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
धुनी सधातुस्यन्देव वै रराजे समं ततः ॥ १
प्रस्तुत प्रसङ्ग में नायक तथा प्रतिनायक दोनों का अदम्य उत्साह स्थायी भाव है । नायक व प्रतिनायक परस्पर आलम्बन व आश्रय हैं। चक्र-प्रहार तथा ग्रीवा-भेदन उद्दीपन विभाव हैं । भेरी नाद का श्रवण तथा मङ्गलपाठियों द्वारा भटों का गुणगान अनुभाव हैं । गर्व, औत्सुक्य, उग्रता, असूया आदि व्यभिचारी भावों से वीर रस सुतरां आस्वादित हो रहा है ।
(ख) दानवीर
सन्धान-कवि धनञ्जय ने अपने द्विसन्धान-महाकाव्य में दानवीरता के सुन्दर उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं । राम / युधिष्ठिर के जन्म के अवसर पर धनञ्जय दशरथ या पाण्डु की दानवीरता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि राजा दशरथ अथवा पाण्डु ने पुत्र-जन्म की सूचना देने वालों को इस प्रकार पुरस्कार दिया कि उनके शरीर पर भावी राजकुमार के लिये राजचिह्न मात्र रह गये । कारण यह था कि महापुरुष प्रसन्न होने पर वही वस्तु किसी को देते हैं, जो उनकी अपनी होती है—
निवेदयद्भ्यः सुतजन्म राजा स राज्यचिह्नं सुतराज्यभाव्यम् । हित्वैतदेकं धृतवान्नकिञ्चिद्देयं हि तुष्टैरपि नान्यदीयम् ॥२
प्रस्तुत उदाहरण में पुरस्कार बाँटने का 'उत्साह' स्थायी भाव है । पुत्र-जन्म की सूचना देने वाले आलम्बन विभाव तथा दशरथ / पाण्डु आश्रय है । दान के द्वारा मिलने वाला यशोलाभ उद्दीपन विभाव है । पुरस्कार दने के साथ परवस्तु न देकर स्ववस्तु ही देना अनुभाव है । हर्ष, गर्व, औत्सुक्य, विवेक आदि व्यभिचारी भाव हैं । परिणामस्वरूप दानवीर अनुभवजन्य है ।
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(ग) धर्मवीर
द्विसन्धान-महाकाव्य में धर्मवीरता का सुन्दर चित्रण भी यत्र-तत्र उपलब्ध होता है । रावण/जरासन्ध से युद्ध-काल में क्या नीति अपनायी जाए? इस विषय पर विचार करते हुए जाम्बवन्त / बलराम राम / श्रीकृष्ण को पूर्णतः धर्मानुकूल विधि का आचरण करने की सलाह देते हैं-नीति के अनुकूल शत्रु की विभिन्न प्रकृतियों से प्रेरित होकर ही शत्रु के प्रति अभियान करना चाहिए । किन्तु इसमें बन्धुता अथवा
१. द्विस. १८९१-९८
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द्विस., ३.१६