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रस-परिपाक
१२३ बन्धुओं का संहार नहीं होना चाहिए । तदनुकूल वासुदेव लक्ष्मण/कृष्ण श्रुतज्ञानियों से साम अथवा दण्ड का उचित ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा उसका प्रयोग करते हैं
विगणय्य परस्य चात्मन: प्रकृतीनां समवस्थितिं पराम्। अमुयोपचिता: कयापि चेद्विषतेऽसूयियिषन्ति सूरयः ।। तत्संहारो मा स्म भूद्वन्धुताया: सिद्धादेशव्यक्तये सिद्धशैलम् । नीत्वा विष्णुं तं परीक्षामहेऽमी ज्ञात्वा दण्डं साम वा योजयामः ॥
प्रस्तुत सन्दर्भ में 'उत्साह' स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव वासुदेव-लक्ष्मण/श्रीकृष्ण का शत्रुपक्ष है व वासुदेव/श्रीकृष्ण स्वयं आश्रय है । शत्रु के प्रति राजा की नीति के अनुकूल व्यवहार उद्दीपन विभाव है । राजा की श्रुतज्ञानियों में निष्ठा तथा गम्भीरता अनुभाव हैं । धर्मयुक्त मति, तर्क आदि संचारी भावों के सहयोग से धर्मवीर का परिपोषण हो रहा है । (घ) दयावीर
वीर रस के प्रभेदों में 'दयावीर' को भी उचित स्थान प्राप्त हुआ है । धनञ्जय विरचित द्विसन्धान-महाकाव्य में इसका प्रयोग एकाधिक स्थानों पर देखा जा सकता है । जिस प्रकार समुद्र कूड़े-कचरे को बाहर फेंक देता है तथा नीचे की ओर बहने वाली नदियों को अपना लेता है, उसी प्रकार दशरश/पाण्डु कर्कश तथा निर्दय मित्र को भी दण्ड देता था तथा चरणों में नत शत्रु को भी सहानुभूतिपूर्वक अपना लेता था
सुहज्जनं क्रशयति य: स्म कर्कशं पदानतं द्विषमपि तं व्यगाहत । निजं मलं क्षिपति हि वार्द्धिरुद्धतं नदीनदं समुपनतं विगाहते ॥२
यहाँ 'उत्साह' स्थायी भाव है। चरणों में नत होने वाला शत्रु आलम्बन विभाव है तथा दशरथ/ पाण्डु आश्रय है । कर्कश तथा निर्दय मित्र को दण्ड देना उद्दीपन विभाव है । शत्रु का चरणों में नतमस्तक होना अनुभाव है । नतमस्तक होने वाले शत्रु के प्रति आविर्भूत सहानुभूति में धैर्य तथा तर्कपूर्ण बुद्धि सहयोगी है, अत: १. द्विस,११.३९-४० २. वही,२.२४