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द्विसन्धान का महाकाव्यत्व (i) मुख-सन्धि
जहाँ बीज अर्थात् प्रमुख उपाय की सम्यक्-उत्पत्ति हो और प्रसंगवश आये अनेक रस उत्पन्न हों, वह 'मुख-सन्धि' कहलाती है। यह काव्य में शरीरानुगत अर्थात् प्रारभ्भानुगत होती है ।१ द्विसन्धान-महाकाव्य में चतुर्थ सर्ग पर्यन्त 'मख-सन्धि' है। इसमें राघवों/पाण्डवों की उत्पत्ति तथा रामचन्द्र/युधिष्ठिर के राज्याभिषेक की तैयारी से 'बीज' या प्रमुख उपाय की सम्यक् उत्पत्ति होती है। अयोध्या/ हस्तिनापुर नगरी वर्णन तथा दशरथ/पाण्डुराज शासन-वर्णन के प्रसङ्गों से नाना रसों की उत्पत्ति होती है । राम/पाण्डवों का वन-गमन 'प्रारम्भ' है । इस प्रकार शरीरानुगत या प्रारम्भानुगत होने के कारण चतुर्थ सर्ग पर्यन्त 'मुख-सन्धि'
(ii) प्रतिमुख-सन्धि
जहाँ दृष्ट और नष्ट की भाँति बीज का कहीं-कहीं उद्घाटन हो और वह सर्वत्र न्यस्त हो, उसे 'प्रतिमुख-सन्धि' कहते हैं । द्विसन्धान-महाकाव्य के पञ्चम से सप्तम सर्ग पर्यन्त 'प्रतिमुख-सन्धि' है। शम्बुकुमार/कीचकवध तथा खर-दूषण-संहार/गोधन पर घेरे की समाप्ति आदि घटनाओं द्वारा अनुकूल वातावरण पाकर निर्विघ्न राज्य-प्राप्ति रूप फल के प्रति अभिमुख राघव/पाण्डव जन्म आदि बीज रूप कथानक उद्घाटित होता हुआ-सा प्रतीत होकर दृष्ट ज्ञात होता है, पर रावण द्वारा सीता अपहरण/शरद् ऋतु का आरम्भ आदि अवरोधक शक्ति के कारण नष्ट होता हुआ-सा प्रतीत होता है। इस प्रकार पञ्चम से सप्तम सर्ग तक सर्वत्र न्यस्त होकर मुख-सन्धि के प्रधान-लक्ष्य का किञ्चित् विकास होने के कारण 'प्रतिमुख-सन्धि' है।
१. 'यत्र बीजसमुत्पत्तिर्नानार्थरससम्भवा ।
काव्ये शरीरानुगता सन्मुखं परिकीर्तितम् ॥',ना.शा.,१६.३९ २. 'बीजस्योद्घाटनं यत्र दृष्टनष्टमिव क्वचित्।
मुखन्यस्तस्य सर्वत्र तदै प्रतिमुखं स्मृतम् ॥',वही,१६.४०