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सन्धान - कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
मधुपान-गोष्ठी, रतिक्रीडा आदि के माध्यम से तत्कालीन सामन्तवादी शृङ्गारिक रसभावना को उद्दीप्त करने के काव्यशास्त्रीय औचित्य को विशेष स्वर प्रदान किया ।
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द्विसन्धान- महाकाव्य की रस- संयोजना पर यदि उक्त परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए, तो ऐसा प्रतीत होता है कि द्विसन्धान में भी वीर और शृङ्गार रस की प्रधानतया अवतारणा हुई है । द्विसन्धान में युद्ध-कला और सैन्यगतिविधियों का प्रधान रूप से चित्रण हुआ है । इनके साथ ही शृङ्गार रस को विशेष पोषण मिला है । कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि द्विसन्धान- महाकाव्य पर शृङ्गार हावी है, परन्तु समग्र महाकाव्य में 'वीर' और 'शृङ्गार' दोनों में से किसी एक को प्रधानता देनी हो तो 'वीर रस' को ही प्रधानता देनी होगी । फलत: प्रस्तुत महाकाव्य का अङ्गी रस 'वीर' है और शृङ्गार का स्थान उसके पश्चात् आता है । भयानक, रौद्र, बीभत्स, करुण आदि रसों की भी अङ्गत्वेन विशेष परिपुष्टि हुई है । द्विसन्धानमहाकाव्य में विविध रसों का संयोजन इस प्रकार हुआ है
वीर रस
‘वीर रस' का स्थायी भाव उत्साह है । २ यह उत्तम प्रकृति तथा कुलीन हृदय वाले मनुष्यों में ही सम्भव है एवं उच्च वर्गों में ही विशेष रूप से होता है । कारण यह है कि उचित प्रकार का उत्साह उन्हीं में दिखायी देता है । इसकी अनुभूति भी कुलीन पात्र द्वारा इसके प्रस्तुतीकरण से सम्बद्ध होती है । इस उत्साह की समीचीनता उसके प्रेरक तत्व पर अवलम्बित होती है । ३
वीर रस आनन्दोत्पादक रसों की श्रेणी में आता है । इसका स्थायी भाव 'उत्साह' भयानक रस के स्थायीभाव 'भय' का प्रतिद्वन्दी कहा जा सकता है 1 भयानक रस में शीघ्रातिशीघ्र भयानक स्थिति की उपेक्षा और उससे छुटकारा पाने का प्रयत्न रहता है । किन्तु वीर रस में स्थिति का उत्साह एवं आनन्दपूर्वक सामना किया जाता है । इस प्रकार वीर रस 'उत्साह' एवं 'आनन्द' दो तत्त्वों से युक्त है । इसका वर्ण गौर है तथा इसके देवता महेन्द्र हैं । *
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१. तु. ——उद्यानसलिलक्रीडामधुपानरतोत्सवैः’,वही,१.१६
२.
'अथ वीरो नामोत्तमप्रकृतिरुत्साहात्मकः 'ना. शा., पृ. ८८
३. Pandey, K.C. : Comparative Aesthetics, Vol. I, Varanasi, 1952, p. 212 सा.द.,३.२३२
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