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रस-परिपाक
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जितेव्य शत्रु आदि इसके आलम्बन विभाव माने गये हैं । इन जितेव्य शत्रु आदि की चेष्टाएं इसके उद्दीपन विभाव हैं । युद्धादि की सामग्री अथवा अन्यान्य सहायक साधनों का अन्वेषण इसके अनुभाव हैं । धृति, मति, गर्व, स्मृति, तर्क, रोमाञ्च आदि इसके व्यभिचारी भाव हैं । १
द्विसन्धान-महाकाव्य का अङ्गीरस वीर है । दानवीर, धर्मवीर, दयावीर तथा युद्धवीर के भेद से वीर चार प्रकार का माना गया है । २ वीरता के उक्त चारों गुण मनुष्य में प्रदर्शित होते हैं । द्विसन्धान-महाकाव्य में चारों प्रकार का वीर चित्रित हुआ है, किन्तु 'युद्धवीर' का चित्रण विस्तार के साथ हुआ है ।
(क) युद्धवीर
द्विसन्धान-महाकाव्य में युद्धवीर का परिपाक पंचम, षष्ठ, नवम, दशम्, एकादश, चतुर्दश, षोडश, सप्तदश व अष्टादश सर्गों में विशेष रूप से हुआ है । द्विसन्धान-महाकाव्य में युद्धवीर का संयोजन प्राय: शौर्य वर्णन, युद्धगत पराक्रम वर्णन, सैन्य वर्णन तथा युद्ध वर्णनों के प्रसंग में दृष्टिगोचर होता है । इस सन्दर्भ में निम्न वर्णन उल्लेखनीय हैं
शौर्यवर्णन
धनञ्जय ने जरासन्ध के परामर्शदाताओं तथा सुग्रीव के माध्यम से श्रीकृष्ण / रावण के साथ सीधे व अनायास संघर्ष की निरर्थकता का कुशलतापूर्वक वर्णन किया है । कवि ने इन सबके माध्यम से ही जरासन्ध को आक्रमण करने से पूर्व धैर्य तथा युक्ति-कौशल का प्रयोग करने तथा युद्ध-कौशल, शत्रु की सामर्थ्य एवं शक्ति का ज्ञान प्राप्त करने का परामर्श दिया है । इसी प्रसंग में श्रीकृष्ण / रावण शौर्य तथा शक्ति को स्पष्ट किया गया है
वैरन्तुङ्गोवर्धनमिच्छन्ननु दृष्ट्वा
१.
२.
३.
कीर्त्यैकैलासं गतमुच्चैः स्थितिमुग्रः ।
तं यो लोकं वायुरिवोर्ध्वं धरति स्म त्रुट्यत्तन्तुभूतभुजङ्गं भुजदण्डैः ॥ ३
सा.द.,३.२३३-३४
वही,३.२३४
द्विस., १०.३८