________________
द्विसन्धान का महाकाव्यत्व
१०५
हस्तिनापुर/ अयोध्या नगरी का वर्णन तथा द्वितीय सर्ग में पाण्डव / राघव वंश की
प्रशंसा हुई है ।
९. अन्तया समाप्ति
महाकाव्य के अन्त के सम्बन्ध में रुद्रट का मत है कि नायक का अभ्युदय दिखाकर महाकाव्य की समाप्ति कर देनी चाहिए । इस मन्तव्य के अनुरूप द्विसन्धान-महाकाव्य की समाप्ति राम / श्रीकृष्ण को निष्कण्टक राज्यप्राप्ति से होती है।
धनञ्जय के उत्तरवर्ती हेमचन्द्र ने महाकाव्य- समाप्ति पर विस्तारपूर्वक चिन्तन किया है । उनका कथन है कि महाकाव्य के अन्त में कवि को अपना उद्देश्य प्रकट करना चाहिए, अपना तथा अपने इष्टदेव का नाम व्यक्त करना चाहिए और मङ्गलवाची शब्दों का प्रयोग करके महाकाव्य की समाप्ति करनी चाहिए। स्पष्ट है हेमचन्द्र ने जैन महाकाव्यों को देखकर ही यह नियम निर्धारित किया है। जैन महाकाव्यों में ग्रन्थ के अन्त में कवि परिचय गुरु-परम्परा आदि का वर्णन मिलता है । द्विसन्धान-महाकाव्य भी इसका अपवाद नहीं है । इसके अन्तिम पद्य में धनञ्जय ने अपने उद्देश्य तथा उसकी पूर्ति के विषय में स्पष्ट रूप से कहा है कि 'सन्धान-विधा में रचित द्विसन्धान-महाकाव्य के कारण धनञ्जय की स्थायी कीर्ति हुई है तथा उसकी यह कृति गाम्भीर्य, माधुर्य, प्रसाद आदि काव्य-गुणों द्वारा समुद्र की गहराई, निर्ममता आदि गुणों का भरपूर उपहास करती है' । उद्देश्य - कथन के साथ-साथ कवि ने अपना‘धनञ्जय' नाम तथा अपने माता-पिता के 'श्रीदेवी' व 'वसुदेव' नाम भी व्यक्त किये हैं। इष्टदेव के रूप में अपने गुरु 'दशरथ' के नाम का स्मरण किया है। इन तत्वों के साथ-साथ 'श्री' जैसे मङ्गलवाची शब्दों का प्रयोग करके ही इस महाकाव्य समाप्ति की गयी है । ४
१. 'कृच्छ्रेण साधु कुर्यादभ्युदयं नायकस्यान्ते ॥', वही, १६.१८
२. द्रष्टव्य-द्विस, १८.१३३-४६
३. 'स्वाभिप्रायस्वनामेष्टनाममङ्गलाङ्कितसमाप्तित्वमिति ।', अलं. चू., पृ. ४५७
४.
'नीत्या यो गुरुणा दिशो दशरथेनोपात्तवान्नन्दनः
श्रीदेव्या वसुदेवतः प्रतिजगन्यायस्य मार्गे स्थितः । तस्य स्थायिधनञ्जयस्य कृतितः प्रादुष्षदुच्चैर्यशो गाम्भीर्यादिगुणापनोदविधिनेवाम्भोनिधींल्लङ्घते ॥', द्विस, १८.१४६