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द्विसन्धान का महाकाव्यत्व
१०१ में योजन हो, उसे 'निर्वहण-सन्धि' कहते हैं । द्विसन्धान-महाकाव्य के षोडश से अष्टादश सर्ग पर्यन्त 'निर्वहण-सन्धि' है। इसमें उपर्युक्त चारों सन्धियों के प्रारम्भादि अर्थों का राम /श्रीकृष्ण की निर्विघ्न राज्यप्राप्ति रूप फल-निष्पत्ति में समानयन होता है, अत: षोडश से अष्टादश सर्ग तक 'निर्वहण-सन्धि' है। ५. अवान्तर-कथा योजना
__ रुद्रट के मतानुसार महाकाव्य में अवान्तर-कथाओं की योजना अवश्य होनी चाहिए, क्योंकि उनके द्वारा जीवन के गम्भीर और व्यापक अनुभवों को उपस्थित करने में सुविधा रहती है। सन्धान-विधा में रचा हुआ होने के कारण यद्यपि द्विसन्धान-महाकाव्य में अवान्तर-कथाओं के लिये अवकाश नहीं है, तथापि लेखक द्वारा कहीं-कहीं सुग्रीव-साहसगति वृत्तान्त जैसी अवान्तर-कथाओं की इसमें समुचित प्रकार से योजना की गयी है। ६. वर्ण्य-विषय
महाकाव्य में प्राकृतिक दृश्यों, जीवन के विविध व्यापारों एवं परिस्थितियों के विशद वर्णन होने चाहिएं । भामह की महाकाव्य-परिभाषा में वर्ण्य-विषयों का स्पष्ट एवं विस्तृत निर्देश उपलब्ध नहीं होता । उन्होंने मन्त्रणा, दूतप्रेषण, सेनाप्रयाण, युद्ध तथा नायकाभ्युदय आदि का ही नामोल्लेखपूर्वक परिगणन किया है । किन्तु दण्डी तथा रुद्रट ने वर्णनीय-विषयों अर्थात् प्राकृतिक दृश्यों, जीवन के विविध व्यापारों एवं परिस्थितियों की विस्तृत सूची अपने-अपने महाकाव्य-लक्षण में परिगणित करायी है। उनके द्वारा वर्णित विषयों में से अधिकांश का उल्लेख यद्यपि द्विसन्धान-महाकाव्य में मिल जाता है, तथापि सन्धान-विधा में रचित इस महाकाव्य के सभी वर्णन विशद नहीं कहे जा सकते । इस महाकाव्य में वर्णित वर्ण्य-विषय तीन श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं
(क) विशद (ख) अविशद तथा (ग) नामोल्लेख । १. 'समानयनमर्थनां मुखाद्यानां सबीजिनाम् ।
नानाभावोत्तराणां यद्भवेन्निर्वहणं तु तत् ॥',ना.शा.,१९.४३ २. 'अस्मिन्नवान्तरप्रकरणानि कुर्वीत ।'का.रु,१६.१९ ३. 'मन्त्रदूतप्रयाणाजिनायकाभ्युदयैश्च यत् ।',का.भा.,१.२० ४. काव्या.१.१६-१७,का.रु,१६९-१५