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चतुर्थ अध्याय
द्विसन्धान का महाकाव्यत्व
पिछले अध्याय में स्पष्ट किया जा चुका है कि द्विसन्धान-महाकाव्य के कर्ता धनञ्जय ने संस्कृत भाषा की नानार्थक प्रवृत्तियों से लाभ उठाकर संस्कृत सन्धान शैली का मार्ग प्रशस्त किया। इस शैली का विन्यास युगानुसारी काव्य-मूल्यों से भी बहुत कुछ प्रभावित रहा है । सामन्तवादी काव्य-मूल्यों की अपेक्षा से महाकाव्यों शृङ्गारिक भोग-विलास एवं कृत्रिम अलंकार - प्रदर्शन को प्रधानता दी जाने लगी थी । इसी प्रकार युद्ध-वर्णन एवं अस्त्र-शस्त्र प्रयोग सम्बन्धी गतिविधियों को विशेष प्रोत्साहित किया जा रहा था। रामायण एवं महाभारत दोनों से सम्बद्ध कथावस्तु
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इन सभी युगीन मूल्यों को आत्मसात करने की पूर्ण योग्यता थी । इसलिए द्विसन्धानकार ने इन दोनों महाकाव्यों की कथावस्तु को आधार बनाया तथा तत्कालीन युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप 'द्विसन्धान' को एक महाकाव्य के रूप में उपनिबद्ध किया । सिद्धान्ततः सन्धान- काव्य-परम्परा शब्द - क्रीडा एवं काव्य कृत्रिम मूल्यों को प्रश्रय देने वाली काव्य - चेतना की चरम परिणति है । संस्कृत काव्य-शास्त्र के आचार्यों ने इसके शिल्प - वैधानिक स्वरूप - निर्धारण के प्रति भी गहन रुचि प्रकट की है । संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने सन्धान-विधा में काव्यतत्त्वों का समावेश आवश्यक माना है । धनञ्जय स्वयं भी सन्धान- काव्य में काव्योचित गुणों को आवश्यक मानते हुए कहते हैं - 'चित्त के लिये आकर्षक तथा क्रमानुसार विकसित, फलत: नवीन शृंगार आदि रसों, शब्दालंकार और अर्थालंकारों से युक्त सुन्दर वर्गों द्वारा गुम्फित रचना प्राचीन होने पर भी आनन्दप्रद होती है । उपजाति आदि छन्द रहते हैं, पद-वाक्य- विन्यास भी पूर्व-परम्परागत होता है, गद्यपद्यमय ही आकार रहता है और सब-के-सब वही पुराने अलंकार-नियम रहते हैं, तो भी केवल अक्षरों के विन्यास को बदल देने से ही रचना सुन्दर हो जाती है । जो वाणी