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द्विसन्धान का महाकाव्यत्व परवर्ती परम्परा-मुक्त नवीन महाकाव्यों लिये वे अयोग्य सिद्ध हो गये। स्थिर मानदण्ड अपर्याप्त सिद्ध होते गये। यद्यपि संस्कृत के प्राचीन साहित्याचार्यों ने अपने लक्षण-ग्रन्थों में महाकाव्य का स्वरूप स्थिर रखने की चेष्टा की है, तथापि महाकाव्य की सर्वमान्य परिभाषा नहीं बन सकी।
संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य का वर्णन सर्वप्रथम भामह ने किया है। तदुपरान्त दण्डी२ ,रुद्रटरे, आनन्दवर्धन, कुन्तक', भोज, वाग्भट , हेमचन्द्र, अमरचन्द्र सूरि तथा विश्वनाथ ने इसका स्वरूप-विवेचन किया। द्विसन्धान-महाकाव्य के लेखक का अपने से पूर्ववर्ती भामह, दण्डी तथा रुद्रट प्रभृतिकाव्य शास्त्रियों से प्रभावित होना स्वाभाविक ही है । किन्तु लक्षण-ग्रन्थों की रचना में कोई-न-कोई लक्ष्य-ग्रन्थ आदर्श रूप में स्वीकार किया जाता रहा है, इसलिए द्विसन्धान-महाकाव्य के महाकाव्यत्व की समीक्षा करते समय परवर्ती काव्यशास्त्रियों के महाकाव्य-लक्षणों का उल्लेख भी यत्र-तत्र किया गया है । इस प्रकार 'द्विसन्धान-महाकाव्य' के महाकाव्यत्व की परीक्षा निम्न प्रकार से की जा सकती है१. सर्गबद्धता
सामान्यत: महाकाव्य सर्गबद्ध होना चाहिए ।११ दण्डी के मतानुसार सर्ग न अधिक लम्बे और न अधिक छोटे होने चाहिएं ।१२ कुछ विद्वानों ने दण्डी के
१. का.भा.,१.१९-२३
काव्या.,१.१४-१९ ३. का.रु.,१६.२-१९ ४. ध्वन्या.,३.१०-१४ ५. वक्रोक्ति,४.१६-२६ ६. सरस्वती.,५.१२६-३७ ७. का.वा.,पृ.१५ ८. का.हे.,८.६ ९. का.कल्प,१.४५-९४ १०. सा.द.६.३१५-२८ ११. का.भा.,१.१९,काव्या,१.१४,का.रु.,१६:१९ १२. 'सगैरनतिविस्तीर्णैः -',काव्या.,१.१८