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महाकवि धनञ्जय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
(२) अभिनवपम्प (नागचन्द्र, शक सं. १०६७) ने अपने रामचन्द्रचरित अथवा पम्परामायण के पद्य १.२५ में जैनाचार्य श्रुतकीर्ति विद्य और गतप्रत्यागत शैली में रचित उसके राघवपाण्डवीय का उल्लेख किया है ।
(३) तेर्दाळ् अभिलेख का कर्ता राघवपाण्डवीय के विषय में अनभिज्ञ है, जबकि श्रवणबेल्गोला का शिलालेख नं. ४० अभिनवपम्प के पद्यों को श्रुतकीर्ति विद्य के पद्य रूप में उल्लेख करता है और श्रुतकीर्ति की पहचान तेर्दाळ् अभिलेख में उल्लिखित श्रुतकीर्ति से करता है । अत: यह निष्कर्ष निकालना सहज है कि श्रुतकीर्ति विद्य की कृति शक सं. १०४५ में नहीं रची गयी होगी और यह भी कि यह शक सं. १०६७ और १०८५ में प्रसिद्ध हुई होगी।
(४) वर्धमान (वि.सं. ११९७ या शक सं. १०६२) ने अपने गणरत्नमहोदधि में राघवपाण्डवीय का अनेक बार उद्धरण दिया है । चालुक्य राजा जगदेकमल्ल द्वितीय (शक सं. १०६२-७२) के समकालीन दुर्गसिंह के अनुसार धनञ्जय राघवपाण्डवीय की रचना से सरस्वती के स्वामी अथवा बृहस्पति बन गये । यह कथन श्रुतकीर्ति के सन्दर्भ में होना चाहिए, जिनका समय शक सं. १०४५ है । इस आधार पर यह मानना अयुक्तिसंगत होगा कि शक. सं. १०४५ से १०६२ के मध्य अल्पकाल में दिगम्बर सम्प्रदाय के दो लेखकों द्वारा एक ही शीर्षक से दो व्यर्थक संस्कृत काव्य लिखे गये हों।
अतएव, उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि धनञ्जय श्रुतकीर्ति का अपरनाम था और उनके ग्रन्थ का काल शक. स. १०४५ (११२३ ई.) से १०६२ (११४०ई.) के मध्य निर्धारित किया जा सकता है। डॉ. पाठक के समर्थक साहित्यिक इतिहासकार
एम. विन्टरनित्ज़, ए.बी. कीथ, एस. के. डे प्रभृति साहित्यिक इतिहासकारों ने डॉ. पाठक के मत को अपने संस्कृत साहित्य के इतिहासों में उद्धृत करके उसका समर्थन किया। एम. विन्टरनित्ज़ १९२२ ई. में लिपज़िग से प्रकाशित अपने 'गेशिस्ते देर् इन्द्रिशेन लिरेचर' (भारतीय साहित्य का इतिहास), भाग ३ (जर्मन १. द्रष्टव्य -जैनशिलालेखसंग्रह, भाग १,१९२८,पृ.,२७-२८ २. गणरत्नमहोदधि,४६,१०५१,१८.२२ ३. अनुपमकविव्रजं जीयेने राघवपांडवीयमं पेद्रु यशोवनिताधीश्वरनादं धनञ्जयं
वाग्वधूपियं केवळने ॥ कन्नड़ पञ्चतन्त्र,८