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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना जाने हि मृत्स्नाम्यवहारमात्रं मातुः प्रकाश्यच्छलमन्तरात्मा।
समुद्रवेलाजलासिक्तसीमां गर्भस्थित: स ग्रसते स्म भूमिम् ।।
यहाँ दशरथ अथवा पाण्डुराज की पत्नियों को मिट्टी खाते हुए देखकर उसी प्रकार के हेत्वन्तर की कल्पना की गयी है, जिस प्रकार रघुवंश में सुदक्षिणा को मिट्टी खाते हुए देखकर गर्भस्थ शिशु के राज्यभोग की कल्पना चरितार्थ हुई है।
द्विवं नरुत्वानिव मोक्ष्यते भुवं दिगन्तविश्रान्तरथो हि तत्सुतः ।
अतोभिलाषे प्रथमं तथाविधे मनो बबन्धान्यरसान् विलढ्य सा ।। द्विसन्धान के अन्य अनेक प्रसंग रघुवंश से भावसाम्य रखते हैं। उदाहरणार्थ द्विस. ३.११ और रघुवंश २.१३ में रामजन्म सम्बन्धी नक्षत्रों की स्थिति का शोभावर्णन परस्पर साम्यता लिये हुए है । द्विसन्धान ३.१२ और रघु. ३.१५ में राजपत्र के जन्म होने पर नक्षत्रों की तेजहीनता का वर्णन भी एक दूसरे से मिलता है। दोनों महाकाव्यों में तृतीय सर्ग का सोलहवां पद्य पुत्र जन्म के उस हर्षातिरेक का चित्रण करता है, जब राजा द्वारा पुत्रोत्पत्ति के समाचार लाने वाले सेवक को राजचिन्हों को छोड़कर शेष सभी आभूषणादि पुरस्कार स्वरूप प्रदान कर दिये गये। इस वर्णन में रघुवंश और द्विसन्धान का भावसाम्य तो मिलता ही है, विशेष द्रष्टव्य यह है कि दोनों काव्यों में इस वर्णन-साम्य के लिए तृतीय सर्ग का सोलहवां पद्य ही चुना गया। द्विस. ३.१७ तथा रघुवंश ३.१९ में भी जन्मोत्सव का वर्णन एक जैसा ही है। इसी प्रकार द्विस. ३.१४ का दिश: प्रसेदुर्विमलं नमो भूत् रघुवंश के दिश: प्रसेदु मरुतो ववुः सुखा: भावसाम्य एवं शब्दसाम्य दोनों लिये हुए है।
द्विसन्धान के युद्धवर्णन (१६.८) तथा रघुवंश की चतुरङ्गिणी सेना का वर्णन (७.३७) भी पर्याप्य साम्यता लिये हुए है। मेघदूत और द्विसन्धान-महाकाव्य
द्विसन्धान-महाकाव्य में मेघदूत से साम्य रखने वाले अंश भी उपलब्ध होते हैं। यथा
१. द्विस.,३७ २. रघुवंश,३.४