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महाकवि धनञ्जय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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रत्नत्रय की संज्ञा से अभिहित किया है ।१ काव्य प्रतिभा सम्पन्न होने पर भी वह अपने गुणों के प्रति सजग है और स्वयं को वाल्मीकि और व्यास का सम्मिलित रूप मानता है ।२ धनञ्जय ने द्व्यर्थक सन्धान विधा में इतनी निपुणता प्राप्त की कि सज्जनों के समूह में उस 'धन' तथा 'जय' रूप फल का लाभ हुआ । वादिराज भी अपने पार्श्वनाथचरित में उसकी एकाधिक सन्धान शैली में प्रवीणता का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि अनेक प्रकार के अर्थ वाले और हृदय में बारम्बार चुभने वाले धनञ्जय के शब्द कर्णप्रिय कैसे होंगे ? ४
धनञ्जय जैन धर्म के प्रति आस्थावान था, इसीलिए उसने द्विसन्धान-महाकाव्य के प्रारम्भ में मङ्गल- श्लोक में तीर्थंकर नेमिनाथ की अभ्यर्थना की है ।५ डॉ. के.बी. पाठक पम्प - रामायण में निर्दिष्ट श्रुतकीर्ति त्रैविद्य और धनञ्जय में ऐक्य स्थापित कर उसे जैन मुनि सिद्ध करते हैं । ६ ए. वेंकटसुब्बइया धनञ्जय और कोल्हापुर जैन बसदि के कार्यकारी पुरोहित में ऐक्य स्थापित कर उसे कोल्हापुर जैन बसदि का कार्यकारी पुरोहित बताते हैं । ७ नाथूराम प्रेमी, वी. वी. मिराशी प्रभृति विद्वान् धनञ्जय को पम्प द्वारा निर्दिष्ट श्रुतकीर्ति त्रैविद्य तथा कोल्हापुर जैन बसदि के कार्यकारी पुरोहित से पृथक् मानकर उसके गृहस्थ होने की सम्भावना प्रकट करते हैं । द्विसन्धान-महाकाव्य में धनञ्जय के गुरु का उल्लेख तो प्राप्त होता है, किन्तु उसे कहीं भी मुनि नहीं कहा गया, अत: उसे श्रावक मानना ही श्रेयस्कर प्रतीत होता है । गुरु के श्रावक होने पर शिष्य का श्रावक होना युक्तियुक्त भी प्रतीत होता
है
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धनञ्जय की कृतियाँ
१.
धनञ्जय को निम्नलिखित पाँच कृतियों का कर्ता माना जाता है
५.
६.
७.
प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।
द्विसन्धानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥” धनञ्जयनाममाला, २०१
२.
निघण्टु, २.४९
३. सूक्तिमुक्तावली, पृ. ४६
४.
पार्श्वनाथचरित १.२६
द्विस.,१.१
JBBRAS भाग २१,१९०४,पृ.१-३
वही, भाग ३ (न्यू सिरीज़), १९३७, पृ.१३६-३८