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महाकवि धनञ्जय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व में उद्धृत श्रुतकीर्ति की कृति का वर्णन गतप्रत्यागत काव्य के रूप में है । अभिप्राय यह है कि इस काव्य के पद्यों को बाएं से दाएं पढ़े जाने पर रामकथा निष्पन्न होती है तथा दाएं से बाएं पढ़े जाने पर पाण्डवकथा । इस प्रकार की गतप्रत्यागत शैली द्विसन्धान-काव्य पर घटित नहीं होती। डॉ. वी.वी. मिराशी' के मतानुसार गतप्रत्यागत की उपर्युक्त व्याख्या समुचित नहीं है । यह काव्यप्रकाश के दशम उल्लास में मम्मटरे द्वारा निर्दिष्ट अनुलोम-प्रतिलोम के समान प्रतीत होती है। एतदनुसार पद्य चाहे बाएं से दाएं पढ़ा जाए या दाएं से बाएं, उसका स्वरूप एक-सा रहता है। धनञ्जय कृत द्विसन्धान-महाकाव्य में इस प्रकार का एक उद्धरण निम्नलिखित है
ततसारतमास्थासु सुभावानभितारधीः ।
धीरताभिनवाभासु सुस्थामा तरसातत ॥३
इस पद्य का पूर्वार्ध बाएं से दाएं तथा पुन: दाएं से बाएं पढ़ा जाए, तो पूर्ण पद्य बन जाता है, इसी प्रकार उत्तरार्ध भी दाएं से बाएं तथा बाएं से दाएं पढ़ा जाए, तो पूर्ण पद्य बन जाता है । पद्य का अर्थ है (अभितारधी:) तीक्ष्ण बुद्धि से (शास्त्रों में) संपृक्त (और) (सुस्थामा) पराक्रमी (विष्णु) ने (धीरतामभिनवाभासु) धैर्य की अभिनव आभा से युक्त (ततसारतमास्थासु) विस्तृत सारतम (मूलतत्व) प्रतिज्ञाओं में (तरसा) शीघ्रतापूर्वक (सुभावान्) सुष्ठु पारिणामों (पवित्र भावों) का (आतत) सञ्चार कर दिया।
द्विसन्धान -महाकाव्य में इस प्रकार के और उदाहरण भी हैं। इस काव्य में कतिपय श्लोक-पाद तथा श्लोकार्ध भी इस शैली के हैं। किन्तु सम्पूर्ण काव्य गतप्रत्यागत शैली का नहीं है। अतएव स्पष्ट है कि पम्प द्वारा निर्दिष्ट श्रुतकीर्ति विद्य को धनञ्जय नहीं माना जा सकता। १. वी.वी.मिराशी:लिटरेरी एण्ड हिस्टोरिकल स्टडीज़ इन इन्डोलाजी,पृ.२८-२९ २. अत्र यमकमनुलोमप्रतिलोनश्च चित्रभेदः पादद्वयगते परस्परापेक्षे ।
काव्यप्रकाश,१०.५६६ ३. द्विस.,१८.१४३ ४. वही,१८.१३८-३९ ५. वही,१८५८ ६. वही,१८.३०