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महाकवि धनञ्जय :व्यक्तित्व एवं कृतित्व होंगे, युक्तियुक्त प्रतीत होता है। किन्तु कुछ नये तथ्यों के आधार पर उपाध्ये धनञ्जय को पूर्ववर्ती तथा कविराज को बारहवीं शती के उत्तरार्ध में हुआ स्वीकार करते हैं । (३) ए. वेंकटसुब्बइया का मत (९६०-१००० ई.)
वेंकटसुब्बइया ने 'जर्नल ऑफ बाम्बे ब्रांच रायल एशियाटिक सोसाइटी, भाग ३(न्यू सीरीज)' में 'दी आथर्स ऑफ दी राघवपाण्डवीय एण्ड गद्यचिन्तामणि' शीर्षक से धनञ्जयके काल-निर्धारण पर एक विस्तृत लेख लिखा है । उनके अनुसार धनञ्जय ९६०-१००० ई. के मध्य हुए। अपने मत के समर्थन में उन्होंने निम्नलिखित तथ्य दिये हैं
(१) चालुक्य राजा जयसिंह द्वितीय या जगदेकमल्ल प्रथम (१०१५-१०४२ ई.) के समकालीन पञ्चतन्त्र के कर्ता दुर्गसिंह की भाँति वादिराज अपने पार्श्वनाथचरित में धनञ्जय के राघवपाण्डवीय का उल्लेख करता है । वादिराज ने अपनी इस कृति को कार्तिक सुदी तृतीया, शक सं. ९४७, क्रोधन (बुधवार, २७ अक्टूबर, १०२५ ई.) को पूर्ण किया था। अत: धनञ्जय कृत राघवपाण्डवीय इस तिथि से पूर्व ही लिखा गया होगा।
(२) पार्श्वनाथचरित के अन्त में विद्यमान प्रशस्ति के अनुसार वादिराज चालुक्य राजा जयसिंह -जगदेकमल्ल की राज्यसभा का सदस्य था और नन्दीसंघ के श्रीपालदेव के शिष्य मतिसागर का शिष्य था । श्रवणबेल्गोला ५४(६७), बेलूर ११७, नगर ३५-४० इत्यादि अभिलेखों में यह वादिराज तथा द्रविड़संघ के नन्दीगण के अरुंगुळान्वय के मुनि वादिराज अथवा जगदेकमल्ल-वादिराज को एक ही स्वीकार किया गया । इस वादिराज का तथा इसी श्रेणी के अन्य मुनियों का संक्षिप्त परिचय Dr. Hultzsch ने Zeitschrift der deutschens Morganlandischen Gasellschaft में प्रकाशित किया है। ___ (३) पार्श्वनाथचरित के प्रथम सर्ग के प्रास्ताविक पद्यों में वादिराज ने क्रमश: गृध्रपिच्छ, स्वामी (उमास्वाति), देव (पूज्यपाद), रत्नकरण्डककार (समन्तभद्र), १. द्विसन्धान-महाकाव्य का प्रधान सम्पादकीय,पृ.२७ २. “अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहुः। .
बाणाधनञ्जयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रिया कथम् ॥” पार्श्वनाथचरित,१.२६