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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
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छठी शती के वैयाकरण कवि भट्टि का रावणवध या भट्टिकाव्य इस शैली का प्रथम महाकाव्य है । इसमें रामजन्म से राज्याभिषेक तक की राम-कथा के वर्णन के साथ-साथ व्याकरण और अलंकार के प्रयोग भी बताये गये हैं । कवि ने निश्चित योजना के अनुसार काव्य को प्रकीर्ण, अधिकार, प्रसन्न तथा तिङन्त—चार में विभक्त किया है। प्रथम दो तथा अन्तिम काण्डों में व्याकरण के नियमों की प्रायोगिक व्याख्या है, तृतीय काण्ड अलंकारशास्त्र से सम्बद्ध है । यह काव्य इतना लोकप्रिय हुआ कि जावा और बाली तक में इसका प्रचार हुआ और इसकी दर्जनों टीकाएं लिखी गयीं । वस्तुतः यह काव्य के साथ व्याकरणशास्त्र का ग्रन्थ भी है, इसीलिए इसे शास्त्र - काव्य भी कहा जाता है । भट्टि की निम्नलिखित उक्ति विकल्पनामात्र नहीं हैं ।
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दीपतुल्यः प्रबन्धोयं शब्दलक्षण चक्षुषाम् । हस्तादर्श इवान्धानां भवेद् व्याकरणाद्वते ॥ १
शास्त्रकाव्य के उदाहरणस्वरूप क्षेमेन्द्र ने भट्टिकाव्य के साथ भट्टिभीम (भूम अथवा भौमक) के रावणार्जुनीय का उल्लेख किया है। २ रावणार्जुनीय के २७ सर्गों में लंकापति रावण तथा कार्तवीर्य अर्जुन के युद्ध-वर्णन के साथ-साथ अष्टाध्यायी के क्रमानुसार व्याकरण के सिद्ध प्रयोग दिखाये गये हैं। दिवाकर के लक्षणादर्श में भी समस्त पाणिनीय शास्त्र के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । हलायुध का कविरहस्य राष्ट्रकूट के नरेश कृष्णराज तृतीय (९४०-५३ई.) की प्रशस्ति है, किन्तु वास्तव में काव्य के माध्यम से धातुरूपों की तालिका प्रस्तुत करना कवि को अभीष्ट है । इस शैली का एक अन्य काव्य केरल प्रान्त के कवि वासुदेव का वासुदेवविजय है । इसके तीन सर्गों में कवि के इष्टदेव कृष्ण वासुदेव की स्तुति के साथ-साथ पाणिनि-सूत्रों के दृष्टान्त प्रस्तुत किये गये हैं । केरल के एक अन्य कवि नारायण ने परिशिष्ट रूप में तीन सर्गों का धातुबहुल धातुकाव्य लिखकर इसकी पूर्ति की है । धातुकाव्य के कथानक का अन्त कंसवध से होता है ।
जैन कवियों ने भी साहित्य की इस विधा को समृद्ध बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मूल कवि के प्रतिज्ञा-गांगेय में कातन्त्र-व्याकरण के नियमों के प्रायोगिक उदाहरणों के साथ भीष्म पितामह का चरित वर्णित है । इसकी
१. भट्टिकाव्य, २२,३३ २. सुवृत्ततिलक, ३.४