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सन्धान - कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
जा सकते हैं । महाकाव्य की इन्हीं आद्य अवस्थाओं से भारतीय महाकाव्य परम्परा पल्लवित हुई, जिसकी अनवच्छिन्न परम्परा अद्यपर्यन्त सतत प्रवहमान है । विश्व के सभी महाकाव्यों को सामान्यतः विकसनशील महाकाव्य तथा अलंकृत महाकाव्य — इन दो धाराओं में विभाजित किया जा सकता है । विकसनशील महाकाव्यों का सृजन गाथाचक्रों के माध्यम से होता है । इस प्रकार के महाकाव्य प्रारम्भिक वीर युग तथा सामन्ती वीर युग में विकसित हुए । भारत में रामायण और महाभारत इसी श्रेणी के महाकाव्य हैं । जैन परम्परा की दृष्टि से जैन पुराणों को विकसनशील महाकाव्यों के समकक्ष रखा जा सकता है । अलंकृत महाकाव्य प्राय: विकसनशील महाकाव्यों से कथा वस्तु लेकर रचे जाते हैं । इनमें काव्य-सौष्ठव के प्रति विशेष आग्रह होता था । कालान्तर में नैसर्गिकता का ह्रास होने के कारण इन्हें अनुकृत अथवा दरबारी महाकाव्य भी कहा जाने लगा । इस श्रेणी के महाकाव्यों को चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- (१) पौराणिक शैली के महाकाव्य, (२) ऐतिहासिक शैली के महाकाव्य, (३) रोमांचक या कथात्मक महाकाव्य तथा (४) शास्त्रीय महाकाव्य । इन चारों वर्गों में से अन्तिम अर्थात् शास्त्रीय महाकाव्य ही संस्कृत काव्यशास्त्रीय मान्यताओं को शुद्ध रूप से प्रतिष्ठापित करने वाले हुए । ये महाकाव्य पुनः रससिद्ध रूढ़िबद्ध, शास्त्रकाव्य अथवा सन्धान- काव्य के रूप में वर्गीकृत किये जा सकते हैं । रससिद्ध काव्यों में अश्वघोष, कालिदास आदि के महाकाव्य या खण्डकाव्य आते हैं । भारवि प्रभृति परवर्ती कवियों के काव्य रूढ़िबद्ध काव्यों में आते हैं । सन्धान-काव्य उक्त दोनों वर्गों से विलक्षण नानार्थक महाकाव्यों
एक अन्य श्रेणी है । इनमें एकाधिक कथानकों को श्लेष, यमक आदि विभिन्न अलंकारों के बल पर गुम्फित किया जाता है । यद्यपि सन्धान-शैली में काव्य-रचना की प्रवृत्ति प्राकृत आदि भाषाओं में पाँचवीं छठी शती में ही प्रारम्भ हो चुकी थी, तथापि संस्कृत महाकाव्यों के सन्दर्भ में द्विसन्धान - महाकाव्य सन्धान-शैली का आदि-महाकाव्य है । आठवीं शती के इस महाकाव्य के अनन्तर सन्धानात्मक काव्य-शिल्प अपने विकास की चरमावस्था को प्राप्त हुआ और अठारहवीं शती तक द्विसन्धान, त्रिसन्धान, चतुस्सन्धान, सप्तसन्धान, चतुर्विंशतिसन्धान आदि काव्यों एवं महाकाव्यों को लिखने की प्रतिस्पर्धा सी होने लग गयी ।