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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना उनके कारण रघुवंशसमग्र महाकाव्य-साहित्य में अद्वितीय स्थान रखता है । रघुवंश संस्कृत महाकाव्य परम्परा को सर्वोच्च चरम बिन्दु पर ले जाकर विरत होता है ।
इस प्रकार उपर्युक्त कवियों के महाकाव्य रससिद्ध या रीतिमुक्त शास्त्रीय महाकाव्य हैं । इन कवियों ने महाकाव्य सम्बन्धी रुढ़ियों का पालन करने के लिये नहीं, अपितु महाकाव्य-लेखन द्वारा महाकाव्य सम्बन्धी रूढ़ियों की स्थापना की। उनका ध्यान विषय-वस्तु के प्रतिपादन और काव्य-सौन्दर्य के निदर्शन की ओर था, न कि रीति-निर्वाह की ओर । इस परम्परा का निर्वाह सातवीं शताब्दी के कवि कुमारदास के जानकीहरण तथा नवीं शताब्दी के गौड़ कवि अभिनन्द के रामचरित में भी हुआ है । इनमें कुमारदास के जानकीहरण पर कालिदास का इतना प्रभाव है कि जनश्रुति उन्हें कालिदास का मित्र बताती है। अभिनन्द के रामचरित पर वाल्मीकि रामायण का प्रभाव स्पष्ट है । इसके अतिरिक्त यह भी हर्षप्रद विषय है कि जैनकुमारसम्भव, नेमिनाथचरित, काव्यमण्डन आदि जैन महाकाव्यों के रचनाकारों ने भी, कम-से-कम शैली की दृष्टि से, कालिदास का अनुगमन किया
प्राकृत के शास्त्रीय महाकाव्यों में प्रवरसेन का सेउबन्ध और वाक्पतिराज का गउडवहो-ये दो महाकाव्य ही उपलब्ध होते हैं। संस्कृत में जिस प्रकार कालिदास के महाकाव्य शास्त्रीय शैली के मानदण्ड के रूप में मान्य हैं, उसी प्रकार प्राकृत के उपर्युक्त दो महाकाव्यों में से प्रवरसेन का सेउबन्धया रावणवहो सर्वोत्कृष्ट रससिद्ध या रीतिमुक्त शास्त्रीय शैली का महाकाव्य कहा जा सकता है । सेउबन्ध सम्भवत: पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध अथवा छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में लिखा गया, यही कारण है कि इसमें सामन्ती संस्कृति के प्रतीक शास्त्रीय महाकाव्य के सभी लक्षण पाये जाते हैं। अपने काव्यगत गुणों के कारण सेउबन्ध को प्रारम्भ से ही प्रतिष्ठित पद प्राप्त रहा है । दण्डी ने इसे 'सागर: सूक्तिरत्नानाम्' कहा है । बाण की प्रख्यात सूक्ति प्रवरसेन के काव्य के महत्त्व की प्राचीन स्वीकृति है
कीर्तिः प्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्ज्वला । सागरस्य परं पारं कपिसेनैव सेतुना।
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आलोचना- १.४,पृ.१४