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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना रोमांचक महाकाव्य और रोमांचक कथा में इतना अधिक अभेद होते हुए भी उनकी अन्तरात्मा और स्थापन-पद्धति में अन्तर होता है । रोमांचक महाकाव्य में कथावस्तु रोमांचक होते हुए भी उसे प्रस्तुत करने का ढंग महाकाव्य का होता है। इसके विपरीत रोमांचक कथाओं में कथानक असंयमित, जटिल और विविध घटनाओं और अवान्तर-कथाओं से भरा होता है; उसका उद्देश्य मात्र-मनोरंजन या किसी धार्मिक या नैतिक तथ्य का उदाहरण प्रस्तुत करना रहता है।
प्राकृत में चरित काव्यों के अतिरिक्त अनेक पद्यबद्ध कथाकाव्य भी लिखे गये हैं, जिनमें से अधिकांश तो रोमांचक कथा मात्र हैं, किन्तु कुछ को रोमांचक महाकाव्य भी कहा जा सकता है। दसवीं शती के पूर्व लिखी गयी कथाओं में पादलिप्त की विलासवईकहा, जिसका मूल रूप अब अप्राप्य है, उद्योतन की कुवलयमाला और हरिभद्र की समराइच्चकहा प्रमुख हैं। इनमें से कोई महाकाव्य-कोटि में नहीं आती। दसवीं शती से प्राकृत और अपभ्रंश में ऐसे कथात्मक काव्य लिखे जाने लगे जिनमें महाकाव्य और कथा दोनों के लक्षण विद्यमान हैं । कुतूहल की लीलावती ऐसा ही महत्त्वपूर्ण काव्य है । यद्यपि कवि इसे स्वयं कथा कहता है, तथापि इसमें महाकाव्य के कई तत्त्व पाये जाते हैं, इसीलिए . इसे रोमांचक महाकाव्य माना जा सकता है। मुनि जिनविजय भी इसे महाकाव्य ही कहते हैं । डॉ. ए एन. उपाध्ये भी इसमें उपलब्ध महाकाव्य के तत्त्वों के आधार पर एनसाइक्लोपीडिया ऑफ लिटरेचर में प्राकृत साहित्य के सन्दर्भ में लीलावती को अलंकृत रोमांचक महाकाव्य मानकर लीलावती की भूमिका में दिये गये अपने मत में संशोधन करते हैं ।
लीलावती के अतिरिक्त प्राकृत में महेश्वर सूरि का पंचमीकहा (११वीं शती), धनेश्वर का सुरसन्दरीचरिय (१०३८ ई.), वर्धमान का मनोरमाचरित (१०४३ई.), महेन्द्र सूरि का नर्मदासुन्दरीकथा (१२१६ ई), गुणसमृद्धिमहत्तरा लिखित अंजणा-सुन्दरीचरिय और किसी अज्ञात कवि का कालकाचार्यकथानक आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं। पंचमीकहा, मनोरमाचरित और कालकाचार्यकथानक के अतिरिक्त शेष को रोमांचक महाकाव्य माना जा सकता है।
१.
Encyclopaedia of Literature, Vol. I, p.489