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तीसरा अध्ययन
क्षुल्लकाचार *चरित सुस्थित, आत्म-त्रायी, मुक्त ऋषि निर्ग्रन्थ हैं। । . कहे उनके लिए ये सब, अनाचीर्ण नितान्त हैं ।।१।। क्रीतकृत' उद्दिष्ट' फिर नित्याग्र' 'अभिहृत अशन भी। .
। रात्रि-भोजन, स्नान, सौरभ, पुष्प-माला व्यजन भी ॥२॥ वस्तु-सचय, गृहि-अमत्र व किमिच्छक नृप-भोजनम् ।
दन्त-क्षालन,- विमर्दन, तन-विलोकन, सप्रच्छनम् ॥३॥ 'नालिकाष्टापद तथा फिर छत्र-धारण वीसवाँ ।
. चिकित्सा, पादुका, शिखि-आरम्भ है तेबीसवाँ ॥४॥ "पिण्ड-शय्यातर व आसन, पलगों पर बैठना।।
गृहान्तर मे बैठना 'औ गात्र की उद्वर्तना ॥५॥ गृहीं की सेवा पुनः आजीव-वृत्ति तथा यहाँ ।
मिश्र-भोजन भोगना आतुर-स्मरण है फिर कहा ॥६॥ "मूल", अदरक, इक्षुखण्ड व कद, मूल सचित्त है ।
सभी फल औ बीज कच्चे चेतना सयुक्त है ।।७।। नमक सौवर्चल व सैधव रुमा लवण अपक्व भी।
सिन्धु-उद्भव और पाशु-क्षार काला नमक भी॥८॥
१. निर्ग्रन्थ के निमित्त खरीदा गया । २ साधु के निमित्त बनाया गया । ३ आदरपूर्वक निमन्त्रित फर प्रतिदिन दिया जाने वाला आहार। ४ साघु के निमित्त दूर से सम्मुख लाया गया। ५ पखा झेलना। ६. गृहस्थी के पात्र मे भोजन करना। ७. 'कौन क्या चाहता है ?' यो पूछकर दिया जाने वाला भोजन । ८ गृहस्य को कुशल पूछना या शरीर पोछना। ६ नलिका से पासा डालकर जुमा बेसना । १०. शतरंज बसना । ११ मूली। १२. पट!