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पहला अध्ययन
द्रुमपुष्पिका
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*धर्म सर्वोत्कृष्ट मंगल, अहिंसा तप त्याग है,
देव भी नमते जिसे, नित धर्म से अनुराग है ॥ १ ॥
यथा द्रुम के पुष्प का रस, स्वल्प पीता है भ्रमर,
नही सुम को म्लान करता, और भरता निज उदर ॥२॥
मुक्त ऐसे श्रमण होते, साधु-जन इस भुवन मे,
वृत्ति पाएगे वही, जिससे न पर को हो व्यथा,
दान भक्त - गवेषणा रत, विहंगम ज्यों सुमन में ॥ ३ ॥
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जो कि मधुकर - सम अनिश्रित, बुद्ध होते दान्त हैं,
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यथाकृत - रत घूम घर-घर भ्रमर पुष्पो पर यथा ॥४॥
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रक्त नाना-पिण्ड में, इससे कहाते संत है ॥५॥