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दूसरा अध्ययन
श्रामण्यपूर्वक *श्रमणता कैसे निभाए, काम-उपरत जो न हो,
सीदता हर कदम पर, सकल्प से वह विवश हो ॥१॥ वसन, भूपण, सुरभि, वनिता और शय्यादिक सभी।
छोडता जो विवश हो, त्यागी न कहलाता कभी ॥२॥ प्राप्त जो प्रिय कान्त भोगो को दिखाता पीठ है।
स्ववश भोग तजे वही, त्यागी कहाता श्रेष्ठ है ॥३॥ समता मे रहते यदि बाहर कभी निकल जाए यह मन ।
वह मेरी न कभी मैं उसका, तजे राग यो सोच श्रमण ॥४॥ निज को तपा, सौकुमार्य तज, काम-विजय से दुख-विजय ।
छेद दोष तज राग सुखी यों, संसृति मे होगा निश्चय ॥५॥ *धूमकेतुक, दुरासद, -, प्रज्वलित पावक मे सही।
अगन्धन कुल सर्प पड़ते, वान्त फिर लेते नही ॥६॥ धिक तुझे है यश.कामिन् ! भोग जीवन के लिए।
वमन पीना चाहता तो, मृत्यु शुभ तेरे लिए ॥७॥ पुत्र अन्धक-वृष्णि का तू, भोज-पुत्री मैं अहो ।
हम न गन्धन-कुल सदृश हो, अचल सयम में रहो ॥८॥ राग - भाव अगर करेगा, नारियो को देखकर।
___ वायु-आहत हट' सदृश, अस्थिर बनेगा शीघ्रतर ॥६॥ वह सुभाषित वचन, उस सयमवती के श्रवण कर ।
धर्म मे स्थिर हुआ ज्यो, अंकुश-प्रशासित गज-प्रवर ॥१०॥ वुद्ध, पडित, विचक्षण, इस भांति करते हैं सदा । ___ भोग से होते अलग जैसे कि पुरुषोत्तम मुदा ॥११॥
१ र नस्पति विशेष ।