________________
[२२] ऋग्वेदकी प्रजापति परमेष्ठिनवाली ऋचाओंका सम्बन्ध जैनधर्मसे बतलाया है। 'छान्दोग्य उपनिषद् के उल्लेखसे प्रजापतिका जैनसंबंध
और भी स्पष्ट होनाता है । वहां वह नारदके प्रश्नके उत्तरमें कहते हुए आत्मविद्याके समक्ष चारों वेदोंको कुछ भी नहीं मानते हैं।' इस प्रकार वेदोंके इन सब उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कि उनके समयमें भी जैनधर्म एक प्रचलित धर्म था। तिसपर हिन्दू 'भागवत' में जो ऋषभदेवको आठवां अवतार माना है, उससे उनका अस्तित्व वेदोंसे भी प्राचीन ठहरता है क्योंकि उनमें १५वें वामन अवतारका उल्लेख मौजूद है । यही बात है कि हिन्दू प्रॉ. स्वामी विरुपाक्ष बडियर धर्मभूषण, पंडित, वेदतीर्थ, विद्यानिधि, एम० ए० लिखते हैं कि जैन शास्त्रानुसार 'ऋषभदेवजीका नाती मारीचि प्रतिवादी था और वेद उसके तत्त्वानुसार होनेके कारण ही ऋग्वेद आदि अन्थोंकी ख्याति उसीके ज्ञान द्वारा हुई है। फलतः मारीचि ऋषिके स्त्रोत्र, वेदपुराण आदि ग्रन्थों में हैं और स्थानर पर जैन तीर्थकरोंका उल्लेख पाया जाता है। तो कोई कारण नहीं कि हम वैदिक कालमें जैनधर्मका अस्तित्व न मानें । अस्तु !
बहुधा वेदोंके उपरोक्त जैन विषयक उल्लेखोंके सम्बन्धमें यह आपत्तिकी जाती है कि निरुक्त और भाष्यसे उनका जैन सम्बन्ध प्रगट नहीं है। किन्तु इस विषयमें हमें यह भूल न जाना चाहिये कि वेदोंके जो भाष्य आदि उपलब्ध हैं वह अर्वाचीन हैं। वेदोंका वास्तविक अर्थ और उनकी ऐतिहासिक परिपाटी बहुत पहले ही लुप्त होचुकी थी। भगवान पार्श्वनाथजीके समकालीन (ई० पू०
१-वीर भाग ५ पृ० २४० ॥२-अजैन विद्वानोंकी सम्मतियां पृ० ३१)