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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार |
[ २१९ " भगवान जिनेन्द्र अजय्य हैं । दूसरोंसे जीते नहीं जा सकते इस बात का विचार न कर धरणेन्द्र उनकी रक्षा के लिये प्रवृत्त होगया । कृतज्ञता इसीका नाम है । " (पा० च० पृ० ३९४)
दुष्ट संवर उनके आनेपर और भी भयानकतासे उपसर्ग करने लगा, जिससे बनके मृग आदि जंतु भी बुरी तरह व्याकुल होने लगे । पर वह अपने विकट भावको पूरी तरह कार्य रूपमें परिणत करने में जरा भी शिथिल न हुआ। पहलेकी तरह उपसर्ग करने में वह तुला ही रहा । कवि कहते हैं :
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'किलकिलंत बेताल, काल कज्जल छवि सज्जहिं । भौं कराल विकराल भाल मदगज जिमि गज्जहिं ।। मुंडमाल गल धरहिं, लाल लोयननि डरहिं जन । मुख फुलिंग फुंकरहिं, करहिं निर्दय धुनि हन हन ॥ इहि विध अनेक दुर्भेषधारि, कमठजीव उपसर्ग किय । तिहुँलोकचंद जिनचंद्र प्रति, धूलि डाल निजसीस लिय ।।"
सचमुच संवर देवने उन जिनेन्द्रचंद्र भगवान पर उपसर्ग करके चन्द्रमा पर मट्टी फेंकनेका ही कार्य किया था ! वह उपसर्ग उन भगवानका कुछ भी न बिगाड़ सका; प्रत्युत उनके ध्यानको एकाग्र बनानेनें ही सहायक हुआ; परन्तु उस संवरदेवने अवश्य ही अपने आत्माके लिये कांटे बोलिये- वृथा ही पाप संचय कर लिया ! भगवान उपसर्ग दशामें और भी दृढ़तापूर्वक समाधिलीन रहे । वास्तवमें मनीषी पुरुष भयानक उपद्रवके होते हुये भी अपने इष्टपथ से विचलित नहीं होते हैं। अनेकों घोर संकट उनके मगमें खड़े पड़े हों, पर वे उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सक्ते हैं । फिर |