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भगवान् पार्श्वनाथ ।
सच्चे सुखका राजमार्ग निस्टर भावसे जवला रहे थे, रंकसे लेकर -राव तकका कल्याण कर रहे थे । भेद और पक्षसे विलग रहते वे - सबके ही आदर पात्र बन रहे थे । वे अपना और परका उपकार करने में सदा बद्धपरिकर थे । लोभ और ममत्व तो उनको अपने शरीर तक नहीं था । वे वीर थे, पूर्ण निस्टही थे, अपने जैसे आप थे ! परम त्यामके साक्षात् आदर्श थे । परमपूज्य श्रमण थे । उनके चरणों में सब ही नतमस्तक होते थे ! कविकी तान में 1 तान मिलाकर सब यही कहते थे:
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" जस गावत शारद शेष खरो, अघवन्त उधारनको तुमरो । तिहिंतें शरनागत आन परो, विरदावलिकी कछु लाज धरो ॥ दुख वारि प्रभु पार करो, दुरितारि हरो सुखसिंधु भरो । सब क्लेश अशेष हरो हमरो, अब देख दुखी मत देर करो ।। "
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मक्ख लिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य ।
"मसयरि- पूरण रिसिणो उप्पण्णी पासणाहतित्थम्भि | सिरिवीर समवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण ॥। १७६ ।। -बहिणिग्गएण उत्तं मझं एयारसांगधारिस्स । णिग्ग झुणीण, अरुहो णिग्गयविस्सास सीसस्स ॥ १७७॥ ण मुणइ जिणकहियसुयं संपइ दिवखाय गहिय गोयमओ । विप्पोवेयन्भासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ ॥ १७८ ॥