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भगवान् पार्श्वनाथ ।
घुसने से रोका; किन्तु शिष्योंके आग्रह से यह नगरी में चले गए और वहां पश्चिम परकोटेके पास पवित्र स्थानपर आसन मोड़कर बैठ गए | चामुण्डदेवीको यह बात बुरी लगी । उसने इनपर घोर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। अनेक प्रकारके उपद्रव होने लगे, पर तो भी यह मुनिराज अपने ध्यान से विचलित न हुए । प्रत्युत इनका ध्यान बढ़ता गया और अन्तमें इन्होंने कर्मोंका नाशकर मोक्षarat प्राप्त किया । विद्युच्चर मुनिराज के पादपद्मोंसे तामृलिप्ति नगरी पवित्र हो गई वह निर्वाण स्थान बन गया । यह राजपुत्र विद्युच्चर मुनि भी भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थमें हुए माने जाते हैं। ( देखो बंगाल, विहार जैन स्मारक ट० १२१ )
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राजा वसुपाल और चित्रकार ! 'पादपद्मद्वयं नत्वा जिनेन्द्रस्य शुभप्रदम् । उपघानकथावक्ष्ये यतः सौख्यं भजाम्यहम् ||'
- ब्रह्मनेमिदत्त ।
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श्री पार्श्वनाथ भगवान की मनोज्ञ प्रतिमापर चतुर कारीगरने बड़ी सुन्दरता से लेप चढ़ाया; परन्तु रातके बीच में वह स्वयमेव ही उतर पड़ा। चित्रकार बड़ा विस्मित हुआ ! उसने समझा कि कोई त्रुटि होगई होगी, इसी कारण यह लेप उतर पड़ा है। परंतु दूसरे दिन और तीसरे दिन भी यही घटना घटित हुई । चित्रकार बड़े असमंजस में पड़ गया ! कई दिन उसे ऐसे ही बीत गये । उसकी समझमें न आया कि ऐसा क्यों होता है ?