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গন্ধ আস্থ
(उत्तरार्द्ध)
"दिगम्बर जैन” पत्रके ग्राहकों को
२२वें वर्षमें भेंट।
सम्पादकबाबू कामताप्रसादजी जैन ।
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भगवान पार्श्वनाथ । (उत्तरार्द्ध)
संपादक ---
बाबू कामताप्रसाद जैन, एम० आर० ए०एस०,
ऑ॰ संपादक " वीर" और " भगवान महावीर ", " सत्यमार्ग ", "भगवान महावीर व म० बुद्ध"; "महाराणी चेलनी” इत्यादि हिन्दी ग्रन्थोंके और " लार्ड महावीर एण्ड सम अदर टीचर्स ऑफ हिज़ टाइम" तथा "महावीर एण्ड बुद्ध" नामक अंग्रेजी पुस्तकों रचयिता - अलीगंज ( एटा )
प्रकाशक
मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, श्री दिगम्बर जैन पुस्तकालय, चन्दावाड़ी - सूरत |
प्रथमावृत्ति ]
वीर सं० २४५५ [ प्रति १०००
" दिर्गेवरजेन” मासिकपत्र के २२वें वर्ष के ग्राहकों को भेंट |
मूल्य - रु० १-८-०
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श्री मंगल-पिन । वामा प्यारे हैं, हिये मध्य आके, वारो सारी शृंखला, ज्ञान लाके जागे मेरी बुद्धि, गाऊँ तुम्हारेनीके नीके सद्गुणोंको निहारे !
प्रेमासक्ता इन्द्र चक्राधि सारे, माके तेरे हैं गुणोंको अपारे ! वैसे पाऊँ पार मैं नार्थ गाके
बौने पाते हाथ कैसे बढ़ाके !! तौभी स्वामी आपमें प्रेम साने, बैठा गाने गीत हूं मैं अज्ञाने ! सेवा तेरे पादकी भक्ति धारे ! हे, तीर्थेश्वर पार्श्व ! तेरे सहारे !
दाया कीजे हे प्रभो हो दयाला! दीजे बोध हे विभो हो कृपाला !! जावे बाधा भाग सारी, उदारो! पाऊँ तेरा 'दर्श' भौसिन्धु तारो!
-लेखक ।
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निवेदन।
- प्रसिद्ध जैन ऐतिहासज्ञ-श्री० बाबू कामताप्रसादनी जैन (आ० संपादक-"वीर" )ने जिसप्रकार आधुनिक शैलीपर तुलनात्मक दृष्टिसे भगवान महावीर, भ० महावीर व बुद्ध, संक्षिप्त जैन इतिहास भादि ग्रंथोंका अतीव खोन व मननपूर्वक संपादन किया है उसीप्रकार प्रस्तुत ग्रन्थका संपादन भी आपने कई वर्षों की खोजपूर्वक करके दिगम्बर जैन इतिहासमें अमर नाम प्राप्त करलिया है; क्योंकि ऐसे तो अनेक तीर्थंकरोंके चरित्र प्रकट होचुके हैं व होंगे परन्तु जिस ढंगपर आप इन ग्रंथों का संपादन कररहे हैं वह जैनइतिहासका अभूतपूर्व मसाला ही है।
हर्ष है कि आपके अन्य ऐतिहासिक अन्योंके अनुसार इस महान ग्रन्थका प्रकाशन भी आज हो रहा है व "दिगम्बर जैन के ग्राहकोंको उपहारमें भी दिया जाचुका है जिससे इसका प्रचार सुलभतासे होरहा है। हमारे परम मित्र बाबू कामताप्रसादजी अपनी ऐसी अमूल्य कति हमें प्रकाशनार्थ देते रहते हैं उसके लिये आपके हम बड़े कृतज्ञ हैं। हमारी यही भावना है कि आप ऐसे
और भी अनेक ग्रन्थों की रचना करके अभूतपूर्व जैन साहित्यका विशेष २ प्रकाश करें।
प्रकाशक।
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कृतज्ञता-ज्ञापन ।
पहले ही उस अनुपम पुण्य अवसर और अलौकिक करण - भावके निकट मैं कृतज्ञता पाशमें वेष्टित हूं; जिनके बलपर प्रस्तुत ग्रन्थ रचनेका साहस मुझे हुआ । मनुष्य अनन्त संसारमें हीन - शक्ति होरहा है, वह परिस्थितिका गुलाम बन रहा है । जिसको वह पकड़े हुये है, उसीपर मर मिटनेके लिये तैयार है । रूढ़ि और धर्ममें सूक्ष्म और बादर अन्तर जो भी है, उसे समझनेवाले विरले ही परीक्षा - प्रधानी हैं । फिर भला गुरुतर महत्वशाली और अपूर्व ग्रन्थ - रत्नोंके होते हुये भी कैसे कोई इस रचना के लिये अवसर और भावकी सराहना करके उन्हें धन्यवादकी सुमनांजलि समर्पित करेगा ! पर प्रभू पार्श्वके पादपद्मों में नतमस्तक होकर वर्तमान लेखक उनका आभार स्वीकार करनेको बाध्य है; क्योंकि उन्हींकी कृपासे मनुष्यों में शक्तिका सञ्चार होता है और वे सत्यके दर्शन कर बाते हैं । प्रस्तुत रचना सत्यकी ओर हमें कितनी ले जायगी ? इसका उत्तर पाठकगण स्वयं ही ढूँढ़ लें । इस विषय में मेरा कुछ लिखना व्यर्थ है । हां, उन महानुभावोंका आमार स्वीकार कर लेना में अपना कर्तव्य समझता हूं, जिनसे मुझे इस ग्रन्थ संकलनमें सहायता प्राप्त हुई है । श्री जैन सिद्धांत भवन, आरा; ऐलक पन्नालाल सरस्वती भण्डार, बम्बई और श्री इम्पीरियल लायब्रेरी, कलकत्ताने आवश्यक साहित्य प्रदान करके मेरा पूरा हाथ बढाया है; मैं इस कृपाके लिये उनका आभारी हूं । साथ ही मैं अपने मित्र श्रीयुत मूलचन्द किसनदासजी कापड़िया के अनुग्रहको नहीं भुला सक्ता हूं । यह ही नहीं कि उनके सदुत्साहसे यह रचना प्रकाशमें आरही है, प्रत्युत इसके निर्माण में भी उन्होंने आवश्यकीय ग्रन्थों और साहित्य पत्रोंको जुटाकर इसकी रचना सुगम - साध्य बना दी । अतएव उन्हें मैं विशेष रूपमें धन्यवाद समर्पित करता हूं । विश्वास हैं, उनके उत्साहका आदर करके विद्वान् पाठक इस रचनाको अपनायेंगे और आशा
है कि इसके द्वारा वे जैनधर्मका मस्तक ऊँचा होता पायंगे । इत्यलम् !
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अलीगंज (एटा ) ता० ११-१०-१९२८
विनीतकामताप्रसाद - जैन |
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स्वर्गीय भाईअम्बाप्रसादजीकी पवित्र स्मृतिमें उत्सर्गीकृत
है !
लेखक |
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विषय-सूची। प्रस्तावना-मंगल विनय
मध्य ऐशियामें जैनधर्म १९९ ।। १-पुरोहित विश्वभूति पृ. १ नागवंशज मध्य ऐशिया२-कमठ और मरुभूति ... ७ । वासी थे ... ...२.१ ३-राजर्षि अरिविंद और १३-भगवानका दीक्षाग्रहण
वनहस्ति ... ... १५ तपश्चरण ... ...२०३ ४-चक्रवर्ती वज्रनाभि और १४-ज्ञानप्राप्ति और धर्मप्रचार २१६ - कुरंग भील ... ... २३ विदेशोंमें भगवानका ५-आनन्दकुमार ... ... २९
विहार ... ...२३१ ६-उस समयकी सुदशा ... ३८ | १५-भगवान्का धर्मोपदेश...२३८ ७-तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति६३ / १६-धर्मोपदेशका प्रभाव ...२८४ ४-बनारस और राजा विश्वसेन ९० वैदिक ऋषियोंपर असर २८९ ९-भगवानका शुभ अवतार १०९ / १७-भगवानके प्रमुख शिष्य ३०५ १. कुमार जीवन और तापस भगवानके गणधर ...३.९ समागम ... ...११९
मुनि पिहिताश्रव ...३११ ११-धरणेन्द्र-पद्मावती कृत
श्वेताम्बर शास्त्रोंमें पार्श्व ज्ञताज्ञापन ... ...१२६
- शिष्य ... ...३२० १२-नागवंशजोका परिचय...१५४ १८-मक्खलिगोशाल, मौद्गलापापण अनय
यन, प्रभृति ... ...३२२ विद्याधरः ... ...१५५ / १९-सागरदत्तआरबन्धुदत्त अटार
१९-सागरदत्त और बन्धुदत्त श्रेष्टी३३३ . आज कलकी दुनिया २०-महाराजा करकण्डु ...३४.
भरतखंडमें... ...१५६ २१-जिनेन्द्रभक्त सेट ...३६१ रावणकी लंकाऔर पाताल १६० २२-विद्युचर मुनि ... ...३६५ मिश्रमें लंका और अबी- २३-राजा वसुपाल और चित्रकार३६९
सिनियामें पाताल लंका १७० | २४-भगवानका निर्वाण लाभ ३७० मध्यभारत वमध्यद्वीपमें २५-भगवान् पार्श्वनाथ और
लंका नहीं ... ...१८३ | महावीरस्वामी ...३७४ मिश्र जैनधर्म ...१८६२६-उपसंहार ... ...४०२ पाताल मध्य ऐशियामें १९४ | २७-ग्रंथकारका परिचय ...४.७ .
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भगवद्भजन
यह नोट पृ० १४०की ८वीं है, यहांकी उधर पढ़ें
कको
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" जैनविजय " प्रिंटिंग प्रेस - सूरत में : मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया 1:
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प्रस्तावना 'जिन गुनकथन अगमविस्तार। बुधिबल कौन लहै कवि पार । श्री जिनेन्द्र भगवानके गुण अपार हैं, वे अनन्त हैं, अचिंत्य
हैं ! योगीजन अपनी समाधिलीन अलौनिमित्त । किक दशामें उनके दर्शन एक झांकी
मात्र कर पाते हैं । बड़े २ ज्ञानी उनके दिव्य चरित्रको प्रगट करनेमें अपना साराका सारा ज्ञानकोष खतम कर डालते हैं, पर उनका चित्रण अधूरा ही रहता है। अनी, स्वयं गणधर महाराज जो उत्कृष्ट मनःपर्ययज्ञानके धारक होते हैं, वे भी उन प्रभूके गुण वर्णन करनेमें असमर्थ रहते हैं । अगाध समुद्रका पारावार एक क्षुद्र मानव कैसे पा सक्ता है ? तिसपर आजकलके अल्पज्ञ मनुष्यके लिये यह बिल्कुल ही असंभव है कि वह ऐसे अपूर्व और अनुपम प्रभूके विषयमें कहनेका कुछ साहस कर सके ! आजसे तीन हजार वर्ष पहले हुये श्रीपार्श्वजिनेन्द्रका दिव्य चरित्र अब क्योंकर पूर्ण और यथार्थ रूपमें लिखा जासक्ता है ? परन्तु हृदयकी भक्ति सब कुछ करा सक्ती है । वह निराली तरंग है जो मनुष्यके हृदय में अपूर्व शक्तिका संचार करती है । हिरणी इसी भक्ति-इसी प्रेमके बलसे सिंहके सामने जा पहुंचती है। अपने बच्चेके प्रेममें वह पगली होजाती है । भक्ति वा प्रेमका यही रहस्य है और यही रहस्य इस ग्रन्थके संकलन होनेमें पूर्ण निमित्त बन रहा है । भक्तिकी लहरमें एक टक बहकर अपना आत्म-कल्याण करना ही यहां इष्ट है । इसकी तन्मयतामें अपने ज्ञान ज्योतिमय आत्म रूपका दर्शन पानेका प्रयाप्त उपहासास्पद नहीं हो सका।
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[२]
"वैसे समयकी परिस्थिति और प्रभू पार्श्वके प्रति आधुनिक विद्वानोंके अयथार्थ उद्गार भी इसमें कारणभूत हैं। फिर जरा यह सोचने की बात है कि प्रभु पार्श्व आखिर एक मनुष्य ही थे - मनुष्यसे ही उनने परमोच्च - परमात्मपद प्राप्त किया था- मनुष्यके लिए एक मनुष्य ही आदर्श होसता है और मनुष्य ही मनुष्यको पहचानता है उससे प्रेम करता है और अपने प्रेमीपर वह सब कुछ न्योछावर कर डालता है । यही कारण है कि इस कालके पूज्य कविगण जैसे श्री... गुणभद्राचार्यजी महाराज, श्री वादिराजसूरिजी, श्री सकलकीर्तिजी, कविवर भूधरदासजी आदि अपने प्रभु-भक्ति प्लवित हृदयकी प्रेमपुष्पांजलि इन प्रभु के चरणकमलों में समर्पित कर चुके हैं। अपना सर्वस्व उनके गुण - गानमें वार चुके हैं। इन महान् कविवरोंका अनुकरण करना धृष्टता जरूर है; पर हृदयकी भक्ति यह संकोच काफूर कर देती है और प्रभूके दर्शन करनेके लिये बिल्कुल उतावला बना देती है । इस उतावलीमें ही यह अविकसित भक्ति-कर्णिका प्रभू पार्श्वके गुणगानमें आत्म लाभके मिससे प्रस्फुटित हुई है । विद्वज्जन इस उतावली के लिये क्षमा प्रदान करें और त्रुटियोंसे सूचित कर अनुग्रहीत बनावें ।
जैनधर्म में माने गये चौवीस तीर्थंकरों में से भगवान् पार्श्वना थी तेवीसवें तीर्थंकर थे । यह इक्ष्वाकु भगवान पार्श्वनाथजी वंशीय क्षत्री कुलके शिरोमणि थे । जब ऐतिहासिक व्यक्ति थे । यह एक युवक राजकुमार थे तबही से इन्होंने उस समयके विकृत धार्मिक वातावरणको सुधारनेका प्रयत्न किया था। जैनपुराणों में उन प्रभुका
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[३]
विशद चरित्र लिखा हुआ मिलता है। इन्हीं ग्रंथोंके आधारसे एवं
अन्य जैनेतर शास्त्रों और ऐतिहासिक साधनों द्वारा यह पुस्तक लिखी गई है । इसमें जो कुछ है वह सब पुरातन है; केवल इसका रूप-रंग और वेश-भूषा आधुनिक है। शायद किन्हीं लोगोंकी अब भी यह धारणा हो कि एक पौराणिक अथवा कामनिक पुरुषकी जीवनीमें ऐतिहासिकताकी झलक कहांसे आसक्ती है ? और इस मिथ्या धारणाके कारण वह हमारे इस प्रयासको अनावश्यक समझें ! किन्तु उनकी यह धारणा सारहीन है। प्रभु पार्श्व कोई काल्पनिक व्यक्ति नहीं थे । पौराणिक बातोंको कोरा ठपाल बता देना भारी धृष्टता और नीच कृतघ्नतासे भरी हुई अश्रद्धा है । भारतीय पुराणलेखक गण्यमान्य ऋषि थे । उन्होंने कोरी कवि कल्पनाओंसे ही अपने पुराणग्रन्थों काला नहीं किया है; जबकि वह उनको एक 'इतिहास' के रूपमें लिख रहे थे। वेशक हिंदू पुराणों में ओतप्रोत अलंकार भरा हुआ मिलना है; परन्तु इसपर भी उनमें ऐतिहासिकताका अभाव नहीं है। तिस्तपर जैनपुराण तो अलंकारवादसे बहुत करके अछूते हैं और उनमें मौलिक घटनाओंका समावेश ही अधिक है। उनकी रचना स्वतंत्र और यथार्थ है । किसी अन्य संप्रदायके शास्त्रोंकी नकल करने का आभास सहसा उनमें नहीं मिलता है । साथ ही वे बाचीन भी हैं। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्तके समयसे जैन वाङ्मय नियमितरूपमें
१-पुराणमितिवृत्तमाख्यायिकोदाहरणं धर्मशास्त्रमर्यशास्त्रं चेतिहास:-कोटिल्य । २-रेपसन, एन्शियेन्ट इन्डिया पृ० ७० । ३-जैनसूत्र S. B. XXII. Intro-P. IX.
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[४] गुरुशिष्य परम्परा प्रणालीपर बड़ी होशियारीके साथ चला आरहा था । उसमें अज्ञात भूलका होना असंभव था। उपरांत ईसाकी प्रारंभिक शताब्दियोंमें वही तत्कालीन ऋषियोंकी दृढ़स्मृति परसे लिपिबद्ध कर लिया गया था। अवश्य ही ऋषियोंकी स्मृति शक्तिकी हीनताके कारण उस समय वह सर्वांगरूपमें उपलब्ध नहीं हुआ; परन्तु जो कुछ उपलब्ध था वह बिल्कुल ठीक और यथार्थ था । इस अवस्थामें जैन मान्यताको असंगत बतलानेके लिए कोई कारण दृष्टि नहीं पड़ता। इसलिये श्री पार्श्वनाथ भगवानको भी एक काल्पनिक व्यक्ति नहीं ख्याल किया जासक्ता है । ___ भारत वसुन्धराके गर्भसे जो प्राचीन पुरातत्व प्राप्त हुआ है, उससे भी यह। प्रमाणित होता है कि प्राचीन भारतमें अवश्य ही श्री पार्श्वनाथजी नामक एक महापुरुष होगये हैं; जो जैनियोंके तेवीसवें तीर्थकर थे। ओड़ीसा प्रान्तमें उदयगिरि खण्डगिरि नामक स्थान "हाथींगुफा" का शिलालेखके कारण बहुप्रख्यात है। यहांका शिल्पकार्य जैन सम्राट् भिक्षुरान महामेघवाहन खारवेल द्वारा निर्मापित कराया गया था, जिनका समय ईसवीसनसे २१२ वर्ष पूर्वका निश्रित । इभ शिल्पकार्यमें भगवान पार्श्वनाथजीकी एकसे अधिक नग्न मूर्तियां और उनके पवित्र जीवनकी प्रायः सब ही मुख्य घटनायें बहुत ही चातुर्यसे उकेरी हुई मिलती हैं। अब यदि भगवान पार्श्वनाथ नामक कोई महापुरुष वास्तवमें हुआ ही न होता तो आजसे सवादोहनार वर्ष पहलेके मनुष्य उनकी मूर्तियां और
१. संक्षिा जैन इतिहास पृ. ७०। २-हिन्दी विश्वकोष भा० १ पृ० ५८९ । ३-बंगाल, बिहार, ओड़ीसा जैन स्मारक पृ० ८९ ।
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[५] जीवन घटनायें किस तरह निर्मित करा सक्ते ? उस समय उनको गुजरे इतना भारी जमाना भी नहीं हुआ था कि लोग अपनी कल्पनाको काममें ले आते ! बल्कि बात तो यथार्थमें यही है कि ईसासे पूर्व आठवीं शताब्दिमें भगवान् पार्श्वनाथनी अवश्य हुये थे; जैसे कि जैन ग्रंथोंसे प्रमाणित है। मथुराके कंकालीटीलेसे भी ईसवीकी पहली शताब्दिकी बनी हुई भगवान् पार्श्वनाथकी नग्न मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं और वहांपर एक ईंटोंका बना हुआ बहुप्राचीन जैन स्तूप भी था; जिसका समय बुल्हर और विन्सेन्ट स्मिथ प्रभृति विद्वान् भगवान् पार्श्वनाथका समवर्ती बतलाते हैं। अब यदि २४३ तीर्थकर भगवान महावीरजी (पांचवी शताब्दि ईसासे पूर्व) के पहले भगवान् पार्श्वनाथनी नहीं हुवे तो फिर उस समयका जैनस्तूप कहांसे आगया ? अतः मानना पड़ता है कि भगवान पार्श्वनाथनी अवश्य ही एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे !
उधर जैनेतर साहित्यपर दृष्टि डालनेसे भी हमें बौद्ध साहित्यसे भगवान महावीरके पहिले एक जैन तीर्थंकरका होना प्रमाणित होता है । मज्झिमनिकायमें लिखा है कि निगन्थ पुत्र सच्चकने म० बुद्धसे वाद किया था । अब यदि जैनधर्म भगवान महावीरनीसे पहलेका न होता, जो म० बुद्धके समकालीन थे, तौ फिर एक जैनका लड़का ( निगन्थ पुत्त ) म० बुद्धका समकालीन नहीं होसक्ता था। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि भगवान् महावीरनीके पहले भी कोई महापुरुष जैनधर्मका प्रणेता होगया था । बौडसा
१-जैनस्तूप एण्ड अदर एण्टीक्वटीज आफ मथुरा पृ० १३ । २-भगवान् महावीर और म० बुद्ध पृ० १९९ ।
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हित्यमें केवल यही एक उल्लेख नहीं है, बल्कि और भी कई उल्लेख हैं जिनसे भगवान् पार्श्वनाथके अस्तित्व और उनके शिष्यों आदिका परिचय मिलता है। अतएव इसतरह भी हम जैनमान्यताको ठीक पाते हैं। ऐसे ही उत्कट प्रमाणोंको देखकर आधुनिक विद्वानोंने भी
भगवान् पार्श्वनाथजीको एक ऐतिहासिक आधुनिक विद्वान भीश्री महापुरुष माना है । वह कोई काल्पनिक पार्थको ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं थे, यह बात प्रायः सब ही पुरुष मानते हैं। विद्वान मानने लगे हैं । यहांपर उनमेंसे
कुछका अभिमत उद्धृत कर देना अनुचित न होगा। पहले ही प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् डा० टी० के० लड्डू बी० ए०, पी० एच० डी०, एम. आर० ए० एस०
आदिको ले लीजिए। आप अपने बनारसवाले व्याख्यानमें कहते हैं:-" यह प्रायः निश्चित है कि जैनधर्म बौद्धमतसे प्राचीन है
और इसके संस्थापक चाहे पार्श्वनाथ हों और चाहे अन्य कोई तीर्थकर जो महावीरजीसे पहले हुए हों।" प्रख्यात् दार्शनिक विद्वान् साहित्याचार्य ला० कन्नोमल एम० ए० जज एक लेखमें
१-भगवान् महावीर और म० बुद्धका परिशिष्ट । वौद्ध शास्त्रोंमें जैनोंका उल्लेख निगन्थरूपमें हुआ है । स्वयं जैनग्रंथोंमें भी जैनमुनि 'निगथ' के नामसे परिचित हुये हैं । (मूलाचार पृ० १३) 'निगंथ' का संस्कृतरूप 'निर्ग्रन्थ' है, जिसका भाव निर (=नहीं+ग्रंथ (=ग्रंथि = गांठ) अर्थात् ग्रंथियोंसे रहित है । जैकोवी और बुल्हरने निगंथोंका भाव जैमोंसे प्रमाणित किया है । (देखों जैनसूत्र S. B. E. की भूमिका ।
२-जैन लॉ० पृ० २२३ ।
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[७] भगवान् पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकता स्वीकार करते हुये लिखते हैं कि " श्री पार्श्वनाथजी जैनोंके तेईसवें तीर्थंकर हैं । इनका समय इसासे ८०० वर्ष पूर्वका है।" इसी तरह हिन्दी विश्वकोष' के योग्य सम्पादक श्रीमान् नगेन्द्रनाथ वसु, प्राच्यविद्यामहार्णव, सिद्धान्तवारिधि, शब्दरत्नाकर "हरिवंशपुराण" के परिचयमें लिखते हैं कि "जैनधर्म कितना प्राचीन है, इस विषयमें आलोचना करनेका यह स्थान नहीं है; तब इतना कह देना ही बस होगा कि जैन संप्रदायके २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथस्वामी स्वीप्टाब्दसे ७७७ वर्ष पहले मोक्ष पधारे थे।" एक अन्य लब्धकीर्ति बंगाली विद्वान् डॉ. विमलचरण लॉ० एम० ए०, पी० एच० डी०, एफ० आर० हिस्ट० एस० आदि अपनी पुस्तक 'क्षत्रिय छैन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया' (ए० ८२ में) वैशालीमें जैनधर्मका प्रचार भगवान् महावीरसे पहलेका बतलाते हुये लिखते हैं कि " पार्श्वनाथनी द्वारा स्थापित हुये धर्मका प्रचार भारतके उत्तर-पूर्वी क्षत्रियोंमें और खासकर वैशालीके निवासियोंमें था।" दक्षिण भारतीय विद्वान् प्रॉ० एम० एस० रामास्वामी एंगर एम० ए० लिखते हैं कि "भगवान् महावीरके निकटवर्ती पूर्वन पार्श्वनाथ थे, जिनका जन्म ईसासे पहले ८७७ में हुआ था। उनका मोक्षकाल ईसासे पूर्व ७७७ में माना जाता है । किन्तु इनके उपरान्त एक विश्वसनीय जैन इतिहासको पाना कठिन है। " इसी अपेक्षा
१-जैनधर्म विषयमें अजैन विद्वानोंकी सम्मतियां पृ० ५१ । २-हरिवंशपुराण भूमिका पृ० ६ । ३-स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म भा० १ पृ. १२।
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[<]
प्रसिद्ध राधास्वामी महर्षि श्री शिवव्रतलालजी वर्मन एम० ए०, एल० एल० डी० श्री पार्श्वनाथका अस्तित्व स्वीकार करके कहते हैं कि " जैनियोंमें से कोई पार्श्वनाथकी पूजा करता है, कोई महावीरस्वामीकी, इन सबमें मतभेद बहुत कुछ नहीं है ।"" श्री डॉ० वेनीमाधव बारुआ डी० लिट० भी श्री पार्श्वनाथजीको महावीरस्वामीका पूर्वागामी तीर्थंकर स्वीकार करते हैं । "
इस तरह पर भारतीय विद्वानों की दृष्टिमें भगवान् पार्श्वनाथ एक वास्तविक महापुरुष प्रमाणित हुये हैं । यही हाल पाश्चात्य विद्वानोंका है । उनमें बहुप्रसिद्ध प्रो० डॉ० हर्मन जैकोबीके मन्तव्यपर ही पहले दृष्टिपात कर लीजिये । उन्होंने " जैनसूत्रों " की भूमिका में जैन धर्मको बौद्धमतसे प्राचीन सिद्ध करते हुये लिखा है कि "पा एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे, यह बात अब प्रायः सबको स्वीकार है । "
(That Parsva was a historical person, is now admitted by all, as very probable. Jaina Sutras. S. B. E. XLV. Intro. p. XXI).
इसी व्याख्याकी पुष्टि डॉ० जार्ल चारपेन्टियर पी० एच० डी० " उत्तराध्ययन सूत्र” की भूमिका (ष्ट० २१) में निम्न शब्दों द्वारा करते हैं:
"We ought also to remember both that the Jain religion is certainly older than Mahavira, his reputed predecessor Parsva having almost certainly existed as a real person, and that, consequently, the main points of the original doctrine may have been codified long before Mahavira. " ( The Uttra dhyayan Sutra, Upsala ed Intro. P. 21).
१ - जैनधर्मका महत्व पृ० १४ । २- हिस्ट्री ऑफ दी प्री० बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० ३७७ ।
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[९]
अर्थात् - "हमें यह दोनों बातें याद रखना जरूरी हैं कि सचमुच जैनधर्म महावीरजी से प्राचीन है । इनके सुप्रख्यात पूर्वागामी श्री पार्श्व अवश्य ही एक वास्तविक पुरुषके रूपमें विद्यमान रहे थे । और इसीलिये जैन सिद्धान्तकी मुख्य बातें महावीरजी के बहुत पहले ही निर्णीत होगई थीं ।"
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हालही में बरलिन विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० डॉ० हेल्मुथ वॉन ग्लासेनाप्प पी० एच० डी० ने भी जैन मान्यताको विश्वसनीय स्वीकार करके भगवान् पार्श्वनाथजीकी ऐतिहासिकता सारपूर्ण बतलाई है ।गत वेम्बली प्रदर्शनी के समय एक धर्म सम्मेलन हुआ था, उसके विवरणमें जैनधर्मकी प्राचीनता के विषय में लिखते हुये सर पैट्रिक फैगन के० सी० आई० ई०, सी० एस० आई ने भी यही प्रकट किया है कि “जैन तीर्थंकरों में से अंतिम दो - पार्श्वनाथ और महावीर, निस्संदेह वास्तविक व्यक्ति थे; क्योंकि उनका उल्लेख ऐसे साहित्य ग्रन्थों में है जो ऐतिहासिक हैं । " यही बात मि० ई० पी० राइस सा० स्वीकार करते हैं । (They may be regarded as historical) श्रीमती सिन्कलेपर स्टीवेन्सन भी पार्श्वनाथजीको ऐतिहासिक पुरुष मानतीं हैं। फ्रांस के प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ विद्वान डॉ० गिरनोट तो स्पष्ट रीति से उनको ऐतिहासिक पुरुष घोषित करते हैं । ("There can no longer be any doubt that Parsvanatha was historical personage")" इसी प्रकार अंग्रेजीके महत्वपूर्ण कोष-ग्रंथ "इंसाइ
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१ - डर जैनिसमस पृ० १९-२१ । २ - रिलीजन्स ऑफ दी इम्पायर पृ० २०३ । ३ - कनारीज लिटरेचर पृ० २० । ४-हार्ट ऑफ जैनीज्म पृ० ४८ । ५- ऐसे ऑन दी जैन बाइब्लोप्रेफी ।
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[१०]
क्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड ईथिक्स" में (भा० ७ ० ४६५ ) जैनधर्मकी प्राचीनता सिद्ध करते हुए कहा गया है कि - "२३ वें तीर्थंकर पार्श्व बहुतायतसे जैनधर्म के संस्थापक कहे जासक्ते हैं ।" परन्तु इससे भी स्पष्ट उल्लेख "हार्मसवर्थ हिस्ट्री ऑफ दी वर्लड" भा० २ ० १९९८ में इसप्रकार है:
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“ They ( The Jains ) believe in a great number of prophets of their faith anterior to Nataputta (Sri Mahavira Vardhamana ) and pay special reverence to this last of these, Parsva or Parsvanatha, Herein they are correct, in so far as the latter personality is more than mythical. He was indeed the royal founder of Jainism ( 776 B. C. ? ) while his successor, Mahavira was younger by many generations and can be considered only as a reforner. As early as the time of Gautam, the religious confraternity founded by Parsva, and known as the Nigantha, was a formally established sect, and according to the Buddhist Chronicles, threw numerors difficulties in the way of the rising Buddhism " ( “ Harmsworth's History of the world." Vol. II. P. 1198 ).
अर्थात् - " जैनी नातपुत्त महावीर वर्द्धमानके पहले कई तीर्थकरोंका होना मानते हैं और उनमेंसे अंतिम पार्श्व अथवा पार्श्व - नाथकी विशेष विनय करते हैं । यह वह ठीक करते हैं क्योंकि वह (पार्श्वनाथ जी) पौराणिकसे कुछ अधिक अर्थात् ऐतिहासिक पुरुष है । यही जैनधर्मके राजवंशी प्रणेता थे; जब कि इनके अनुगामी महावीर इनसे कई सन्तति उपरांतके एक सुधारक ही थे । गौतमबुद्ध के समय में ही पार्श्व द्वारा स्थापित धार्मिक संघ, जो 'निगन्थ' नामसे परिचित था, एक पूर्व स्थापित संप्रदाय था और बौद्ध ग्रन्थोंके अनुसार उसने बौद्धधर्मके उत्थान में बहुतसी अड़चने डालीं थीं ।"
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[११] ___ इन अभिमतोंसे भी हमारा उपरोक्त कथन बिलकुल स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे; परन्तु इसके साथ ही यह प्रश्न अगाड़ी आगया है कि क्या पार्श्वनाथ नी ही जैनधर्मके संस्थापक थे, जैसे ऊपरके कितनेक विद्वानोंका मत है । हमारे प्रसिद्ध देशभक्त ला० लाजपतरायनीने तो अपने "भारतवर्षका इतिहास" (भा० १४० १२९)में यह मत जैनियोंका बतला दिया है । किन्तु दर असल बात यह नहीं है । जैन लोग तो अपने धर्मको अनादि निधन मानते हैं । वह यथार्थ सत्य है। इस कारण उसका कभी लोप नहीं होता । पर तो भी वह कालचक्रके अनुसार विक्षिप्त और उदित होता रहता है। इस कालमें जैनधर्मका सर्व प्रथम प्रचार भगवान ऋषभदेव या
वृषभदेवने किया था और उनके बाद श्रीपार्श्वनाथजी जैनधर्मके कालान्तरसे २३ तीर्थकर और हुये थे। संस्थापक नहीं हैं। इन सबका समय आजकलके माने हुये
प्राचीन और इतिहासातीत कालमें जाकर बैठता है । हम अगाड़ी इस बातको स्वतंत्र प्रमाणों द्वारा प्रगट करेंगे कि जैनधर्मका अस्तित्व वैदिक काल एवं उससे भी पहले विद्यमान था । इस दशामें हम भगवान् पार्श्वनाथको जैनधर्मका संस्थापक स्वीकार नहीं कर सक्ते । प्रत्युत कई विद्वान तो पार्श्वनाथजीके पूर्वागामी तीर्थंकरोंको भी ऐतिहासिक पुरुष स्वीकार करते हैं। श्री नगेन्द्रनाथ वसु, प्राच्य विद्यामहार्णव एम० आर० ए.
___ एस० आदि स्पष्ट लिखते हैं कि-"उन बाइसवें तीर्थंकर श्रीने- (पार्श्वनाथजी)से पहले बाईसवें तीर्थंकर
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[१२]
श्री नेमिनाथस्वामी भगवान श्री कृष्णके संपर्क भ्राता ( ताऊ के लड़के ) थे । ..... भगवान् श्री कृष्णको यदि हम ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं तो हमें बलात् उनके साथ होनेवाले २२वें तीर्थंकर श्रीनेमिनाथको भी ऐतिहासिक पुरुष मानना पड़ेगा। यही बान डॉ० फुहररने "एपीये फिका इंडिका ( भा० १४० ३८९ और भा० २ ० २०६ - २०७ ) में लिखी है कि- " जैनियोंके २२वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथजी ऐतिहासिक पुरुष माने गये हैं । भगवद्गीता के परिशिष्ट में श्रीयुत वरवे स्वीकार करते हैं कि नेमिनाथ श्रीकृष्णके भाई थे । जब जैनियोंके २२वें तीर्थंकर श्रीकृष्णके समकालीन थे तो शेष इक्कीस श्रीकृष्ण से कितने वर्ष पहले होने चाहिये, यह पाठक स्वयं अनुमान कर सक्ते हैं ।" इसी कारण श्रीयुत प्रो० तुकाराम कृष्णशर्मा लहु बी० ए०, पी० एच० डी०, एम० आर० ए० एस, एम० ए० एस ०, इत्यादिने कहा है कि "सबसे पहिले इस भारतवर्ष में "ऋषभदेवजी" नामके महर्षि उत्पन्न हुए । वे दयावान भद्र परिणामी पहले तीर्थंकर हुए जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्थाको देखकर 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी मोक्ष शास्त्रका उपदेश किया । बस यह ही जिन दर्शन इस कल्प में हुआ । इसके पश्चात् अजितनाथसे लेकर महावीर तक तेईस तीर्थंकर अपने२ समय में अज्ञानी जीवोंका मोह अन्धकार नाश करते रहे ।" " इसीलिये श्रीयुत वरदाकांत मुख्यो
मिनाथजी एक ऐति हासिक पुरुष और
शेष तीर्थकर |
१ - हरिवंशपुराण भूमिका पृ० ६ । २-अजैन विद्वानोंकी सम्मतियां (व्यावर) पृ० २८ ।
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[१३]
पाध्याय एम० ए०ने ठीक कहा है कि पार्श्वनाथजी जैनधर्मके आदि प्रचारक नहीं थे, परन्तु इसका प्रथम प्रचार ऋषभदेवजीने किया था। इसकी पुष्टिके प्रमाणोंका अभाव नहीं है ।"' हठात् डॉ० हर्मन जैकोबीको भी यह प्रगट करना पड़ा है किः
“ But there is nothing th prove that Parsva was the founder of Jainism. Jaina tradition is unanimous in making Rishabha the first Tirthankara (as its founder)......there may be something historical in the tradition which makes him the first Tirthankara."-( Indian Antiquary. VOI, IX. P. 163.:) ___अर्थात-'पार्श्वको जैनधर्मका प्रणेता या संस्थापक सिद्ध करनेके लिए कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। जैन मान्यता स्पष्ट रीतिसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको इसका संस्थापक बतलाती है। जैनियोंकी इस मान्यतामें कुछ ऐतिहासिक सत्य हो सक्ता है।' इस प्रकार पाश्चात्य विद्वानों का पूर्वोक्त मत उन्हींके बचनोंसे बाधित है तौभी हम स्वतंत्र रीतिसे जैनधर्मकी प्राचीनतापर प्रकाश डालेंगे; जिससे कि विद्वत्समाजसे यह भ्रम दूर होजाय कि जैनधर्मके संस्थापक श्री पार्श्वनाथजी अथवा महावीर थे । जैनधर्मकी विशेष प्राचीनता स्वयं उसके कतिपय सिद्धांतोंसे
ही प्रगट है। उसमें जो वनस्पति, जैनधर्मकी प्राचीनता पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पदार्थोमें उसके सिद्धान्तोंसे जीवित शक्तिका होना बतलाया गया . प्रकट है। है, वह उसकी बहु प्राचीनताका द्योतक
है । क्योंकि Euthology विद्याका मत इस सिद्धांतके विषयमें है कि वह सर्व प्राचीन मनुष्योंका मत
१-पूर्व पृ० १८ ।
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[ १४ (Animistic belief) है । इसके साथ ही जैनसिद्धान्तमें तत्वों वा द्रव्योंका वर्णन करते समय गुणोंका प्रथक् विवेचन नहीं किया गया अर्थात् गुणोंको स्वयं एक तत्त्व वा द्रव्य नहीं माना गया है। इससे प्रगट है कि जैनधर्म वैशेषिक दर्शनसे बहुत प्राचीन है, जैसे डा. जैकोबी प्रगट करते हैं।' इन दोनों बातोंके अतिरिक्त जैनियोंकी आदर्शपूजा और अणुवाद भी उसकी बहु प्राचीनताको प्रमाणित करते हैं । जैनी उन महान् पुरुषोंकी पूजा करते हैं जो सर्वोत्कृष्ट, सर्वज्ञ और सर्वहितैषी थे । इस प्रकारकी पूना प्राचीन मनुष्योंमें ही प्रचलित थी। सचमुच " जो धर्म अत्यन्त सरल होगा वह अपनेसे अधिक जटिल धर्मसे प्राचीन समझा जायगा ।" और यह मानी हुई बात है, जैसे कि मेजर जनरल फरलान्ग साहब कहते हैं कि "जैनधर्मसे सरल-पूना में, व्यवहारमें और सिद्धांतमें और कौनसा धर्म होसक्ता है ?" यही हाल अणुवाद सिद्धान्तका है । 'इन्साइक्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एन्ड ई थक्स' भाग २४० १९९-२०० का निम्न अंश ही इस विषयमें पर्याप्त है
"In the oldest philosophical speculations of the Brahmans, as preserved in the Upanishada, we find no trace of an atomic theory; and it is therefore controverted in the Vedanta Sutra, which claims systematically to interpret the teachings of the Upanishads. Nor it is acknowledged in thc Sankhya and Yoga philosophies, which have the next claim to be considered orthodox; i. e. to be in keeping with the Vedas; for even the Vedanta Sutra allows them the title of Smritis. But the atomic
१-जैनसूत्र S. B. E. Intro -Carlyle. Heroes & Hero worship. 3-Thomas, Jainism-Early Faith of Asoka.
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[१५] theory makes an integral part of the Vaisesika, and it is acknowledged by the Nyaya, two Brahmanical philosophies, which have originated by secular scholars ( Pandits), rather than by divine or religious men. Among the hetrodox, it has been adopted by the Jains, and...also by the Ajivikas......... We place the Jains first because they seem to have worked out their system from the most primitive notions about matter. -( ERE. Vol. II. PP. 199-200).
भावार्थ-'ब्राह्मणोंके प्राचीनसे प्राचीन सैद्धांतिक ग्रंथोंमें, जैसे कि वे उपनिषदोंमें बताये गये हैं, कोई भी उल्लेख अणुसिद्धान्तका नहीं है । और इसीलिये वेदान्तसूत्र में इसका खण्डन किया गया है, जो उपनिषद शिक्षाओंको व्यवस्थित रंतिसे बतलाने का दावा करता है । वेदोंके समान मान्य सांख्य और योगदर्शनोंमें भी इस सिद्धान्तका कोई उल्लेख नहीं है किन्तु वैशेषिक और न्याय दर्शनोंमें यह स्वीकार किया गया है पर यह दोनों दर्शन अर्वाचीन पंडितोंकी रचनायें हैं-न कि किसी दैवी या धार्मिक पुरुष की । वेद विरोधी मतोमें जैन और आजीविकों को यह सिद्धान्त मान्य था ।.... जैनोंको ही हम पहले मुख्य स्थान देते हैं; क्योंकि उन्होंने अपने सिद्धान्तको पुद्गल सम्बन्धी अतीव प्र.चीन (most primitive) मतोंके अनुपार निर्दिष्ट किया है । ' इसतरह अणुसिद्धान्त भी जैनियोंके धर्मको अत्यन्त प्राचीन सिद्ध करता है । इस अवस्थामें उसका प्रारम्भ भगवान नेमिनाथ या पार्श्वनाथ अथवा महावीरसे हुआ बतलाना कोरी शेखचिल्लीकी कहानी होगी। उसका प्रारंभ जैसे कि जैनियोंकी मान्यता है, एक बहुत प्राचीनकालमें भगवान ऋषभदेव द्वारा ही हुआ था । इसी कारण प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ विद्वान्
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[१६]
पुरातत्वविदोंका जैसे डॉ० ग्लासेनाप्पको यह स्वीकार करना पड़ा है कि " संभवतः आर्योका यही (जैनधर्म) सबसे प्राचीन तात्विक दर्शन है और अपनी जन्मभूमिमें यह आजतक बिना किसी रहोबदलके चला आता है।" इस कालमें जैनधर्मका सर्व प्रथम उपदेश भगवान् ऋषभ
देवने ही एक अतीव प्राचीनकालमें पुरातत्वकी साक्षी। दिया था, यह बात पुरातन भारतीय
पुरातत्वसे भी सिद्ध होती है । जैनमंदिरोंमें ऋषभदेवजीकी अनेक प्रतिमायें 'चौथेकाल' अर्थात् भगवान् महावीर या उनसे पूर्ववर्ती कालकी बतलाई जाती है। सचमुच उनमें कोई लेख न रहनेसे और उनकी बनावट अस्पष्ट और असंस्कृत होनेके कारण उन्हें उक्त प्रकार प्राचीन मानना कुछ अनुचित नहीं है। तिसपर जब हम राजा खारवेलके हाथीगुफावाले लेखमें एक नन्दवंशी राजा द्वारा श्री. ऋषभदेवनीकी मूर्तिको कलिंगसे पाटलीपुत्र ले जानेका उल्लेख पाते हैं, तो इस व्याख्याको
और भी विश्वसनीय पाते हैं। नन्दवंशके पहलेसे श्री ऋषभदेवकी मुर्तियां बनने लगीं थीं, यह बात हाथीगुफाके उक्त प्राचीन शिलालेखसे प्रमाणित है । फिर खंडगिरिकी गुफाओंमें भी श्री ऋषभदेवकी मूर्तियां उकेरी हुई हैं और मथुराके कंकाली टीले ईसासे पूर्व और बादकी प्रथम शताब्दियोंके प्रारंभिक कालकी जैन मूर्तियां निकली हैं, जिनमें कई एक श्री ऋषभदेवजीकी हैं। इस तरह
१ बंगाल, विहार, ओड़ीसाके जैनस्मारक पृ० १३८ । २-जैनस्तूप एण्ड अधर एण्टीक्वटीज़ आक मथुरा पृ० २१-३०। .
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उपरोक्त वर्णनसे यह स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेवके अस्तित्वको आजसे ढाई हजार वर्ष पहलेके लोग स्वीकार करते थे और उन्हें जैनियों का 'आदिपुरुष' मानते थे । हाथीगुफाक उपरोक्त शिलालेखमें उनका उल्लेख 'अनिन'के रूपमें हुआ है। अतएव पुरातन पुरातत्व भी श्री ऋषभदेवीको जैनधर्मका इस युगकालीन आदि प्रचारक सिद्ध करता है। . बौद्ध साहित्यसे भी यह प्रमाणित है कि जैनधर्म म° बुद्धके
जन्मकालमें एक सुसंगठित धर्म था और बौद्ध ग्रंथ भी श्रीऋषभ- वह 'निगन्थ धम्म'के नामसे बहुत पहदेवको जैनधर्मका प्रणेता लेसे चला आरहा था। हम पहले ही बतलाते हैं। कह चुके हैं कि बौद्ध ग्रन्थोंमें जैनियोंके
सम्बन्धमें अनेक सारगर्भित उल्लेख मौजूद हैं । 'अंगुत्तरनिकाय' में एक सूची म० बुद्ध के समयके साधुओंकी दी है और उसमें 'निगन्थों' (जैनियों )को आनीवकोंके बाद दूसरे नम्बरपर गिना है। यदि जैनी प्राचीन न होते तो उनकी गणना इस तरह दूसरे नंबरपर नहीं होसक्ती थी। इसके साथ ही हम यह भी जानते हैं कि आनीविक मतकी सृष्टि भगवान पार्श्वनाथके तीर्थ मक्खलिगोशाल नामक एक भ्रष्ट जैन मुनि द्वारा ही मुख्यतासे हुई थी, जैसे कि प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान बताया गया है। इस दशामें आजीविकों को पहले और उनके बाद जैनोंको गिनना
१-स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म भाग २ पृ० ४। डायोलाग्स ऑफ दी बुद्ध (3. B. B. Vol. II.) Intro. to Kassupa-Sihanda-Satta.
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[१८] असंगत है। परन्तु यह संभवतः इस कारणसे है कि जैनी उस समयके पहले 'निगन्थ' नामसे परिचित न होकर किसी अन्य नामसे विख्यात् होंगे । सचमुच श्वेतांबर शास्त्रों में उस कालसे पहलेके जैन मुनि 'कुमारपुत्त निगन्थ' नामसे परिचित मिलते हैं। 'श्रमण' रूपसे भी जैन मुनि पहले विख्यात थे । 'कल्पसूत्र' में जैनधर्मको 'श्रमण धर्म' ही लिखा है । यही बात दि० जैन ग्रन्थोंसे भी प्रमाणित है । इसके साथ ही हम अगाड़ी यह भी देखेंगे कि वैदिक कालमें जैन लोग 'व्रात्य' नामसे भी परिचित थे । यह बात हिन्दू विद्वान् मानते हैं कि वैदिक मत अहिंसा प्रधान नहीं था-प्रारम्भसे ही उसमें हिंसक विधान मौजूद थे और जैनधर्ममें अहिंसा ही मुख्य है, जिसकी छाप वैदिक धर्मपर आखिर पड़ी थी। अतएव जबतक वैदिक मतमें अहिंसादि व्रतोंको अपनाया नहीं गया था, तबतक उनका अपने प्रतिपक्षी जैनियों को उनके अहिंसा आदि पांच व्रतोंके कारण "व्रात्य" नामसे उल्लेख करना सर्वथा उचित था। संभवतः भगवान पार्श्वनाथके समय तक जैनी "व्रात्य" और "समण" नामसे ही परिचित रहे थे और इसके उपरांत वे मुख्यतः "निगंथ" नामसे विख्यात हुये । यही कारण है कि उपरोक्त बौद्ध ग्रंथमें उन्हें आजीविकोंके बाद दूसरे नम्बर पर गिना गया है। जो हो, बौद्ध
..१-उत्तराध्ययन व्या० २३ । २-कल्पसूत्र (Stwenson' पृ० ८३ । ३-महर्षि शिवव्रतलाल. एम० ए०का "जैनधर्म और वैदिक धर्म" वीर वर्ष ५पृ० २३५ और प्रिन्सिपल्स ऑफ हिन्दु ईथिक्स पृ० ४४३-४८७ । ४-लाजपतराय, "भारतवर्षका इतिहास" भाग १ पृ० १२९ और भारतगौरव लो. तिलकका व्याख्यान-अजैन विद्वानोंकी सम्मनियां पृ० १० ।
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_ [१९] ग्रंथके इस उल्लेखसे जैनधर्म म० बुद्ध और उनके बौद्धधर्मसे बहुत पहलेका प्रमाणित होता है। फिर बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति सर्वज्ञ आप्तके उदाहरणमें ऋषभ और महावीर वईमानका उल्लेख करते हैं। (न्यायबिन्दु अ० ३) इसमें जैनियोंके २४ तीर्थंकरों से आदि अन्तके जैन तीर्थंकरोंका उल्लेख करके व्याख्याकी सार्थकता स्वीकार की गई है । इसी तरह बौद्धाचार्य आर्यदेव भी जैनधर्मके आदि प्रचारक श्री ऋषभदेवको ही बतलाते हैं।' बौद्धोंके प्राचीन ग्रन्थ 'धम्मपदम्' में भी अस्पष्ट रीतिसे श्रीऋषभदेव और महावीरजीका उल्लेख आया है । एक विद्वान् उसके निम्न गाथाका सम्बन्ध जैनधर्मसे . प्रगट करते हैं और कहते हैं कि इसमेंके 'उसभं' और 'वीर' शब्द खासकर जैन तीर्थकरों के नाम अपेक्षा लिखे गए हैं -
"उसभं पवरं वीरं महेसिं विजिताविनं । अनेजं नहातकं बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ ४२२ ॥"
-धम्मपदम् । इसप्रकार बौद्ध साहित्यसे भी यही प्रकट है कि इस जमाने में जैनधर्मका प्रचार भगवान ऋषभदेव द्वारा हुआ था; जिनके समयका पता लगाना इतिहासके लिए इससमय एक दुष्कर कार्य है।
१-सत् शास्त्र "वीर" वर्ष ४ पृ० ३५३ ।।
२-इन्डियन हिस्टारीकल क्वार्टी भाग ३ पृ. ४७३-४७५ 'अगेस्ता डिक्शनरौं में 'ऋषभ' शब्दकी उत्पत्ति अवेस्तन (Avestan) शब्द 'अरशम' ( =नर )से लिखी है, जिसके अर्थ पुरुष, बैल, बहादुर आदि होते हैं। इसी तरह 'वीर' के अर्थ भी बहादुर लिखे हैं। सारांश मि० गोविन्द पैने उक्त पत्रिकामें इन दोनों शब्दोंको यहु प्राचीन सिद्ध किता है। अवेस्तन भाषामें अर्हत् शब्द भी मिलता है ।
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[ २० ]
अब यदि ब्राह्मण साहित्य पर दृष्टि डाली जाय तो प्रगटतः उसमें भी जैन व्याख्याको विश्वसनीय वेदोंमें जैन उल्लेख ! बतलाया हुआ मिलता है। ब्राह्मण साहित्यमें सर्व प्राचीन पुस्तकें वेद माने गये हैं और इनमें ऋग्वेद संसार भर में सर्व प्राचीन पुस्तक बतलाई गई है । अतएव यहां पर हम पहले इन वेदोंमें ही जैन उल्लेखों को देख लेना उचित समझते हैं। यह प्रायः सबको ही मान्य है कि जैनियोंके आप्तदेव 'अर्हत्' अथवा 'अर्हन्' नामसे परिचित हैं। सिवाय बौद्धों और किसी भी मतने इस शब्दका व्यवहार नहीं किया है; किन्तु बौद्धों निकट भी इसके अर्थ एक आप्तदेवसे नहीं हैप्रत्युत उनके एक खास तरहके साधुओं का उल्लेख 'अर्हत' रूप में होता है । अतएव जैनियोंके ही 'उपासनीय आप्त अईन' नामसे उल्लेखित मिलते हैं और इन्हीं 'अर्हन्' का उल्लेख ऋग्वेद संहिता (अ० २ ० १७) में हुआ है ।' कालीदासजीके 'हनुमान नाटक ' (अ० १ श्लो० ३ ) में भी यही कहा गया है कि 'अर्हन्' जैनियोंके उपासनीय देव हैं । अगाड़ी ऋग्संहिता में (१०/१३६ - २ ) मुनयः वातवसनाः रूपमें भी दिगम्बर जैन मुनियोंका उल्लेख मिलता है। डॉ० अलब्रेट वेबरने वेदके यह शब्द जैन मुनियोंके लिये व्यवहृत हुये स्वीकार किये हैं । ऋष, सुपार्श्व, " नेमि आदि नाम
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१ - पूर्व प्रमाण । २ - मेक्षमूलर द्वारा सम्पादित, लन्दन १८५४की छपी, भा० २ ० ५७९ । ३ - इन्डियन एण्टीक्वरी भा० ३० १९०१ और जिनेन्द्रमत दर्पण पृ० २१ । ४ ऋग्वेद ३०-३, ३६-७, ३८-७ । ५ - यजुर्वेद - ॐ सुपार्श्वमिन्द्रहवे ।' ६ - वाजस्यनु प्रसव आवभूवना च वि भुवनानि सर्वतः । सनेमिराजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टिवर्धयनमानो ॥ अस्मेस्वाहा ॥ अ० ९ मं० २५ ॥
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[२१] भी ऋग्वेद और यजुर्वेदमें आये हैं ' और यह नाम जैन तीर्थकरोंकि हैं । प्रत्युत चौवीस तीर्थकरों और श्री महावीरजीके उल्लेख भी ऋग्वेद और यजुर्वेदमें बतलाये गये हैं।* ऋग्वेदमें ऐसे 'श्रमणों' का भी जिक्र है, जो यज्ञोंमें होनेवाली हिंसाका विरोध करते थे। यह श्रमण जैनोंके सिवाय और कोई नहीं होसक्ते; क्योंकि जैनधर्म स्पष्ट रीतिसे यज्ञोंमें होनेवाली हिंसाका विरोधक प्रारम्भसे रहा है और वह श्रमण धर्म भी कहलाता है अन्यत्र प्रस्तुत पुस्तकमें हमने
१-हिस्टॉरीकल ग्लीनिनिग्स पृ०.७६ ।
* श्रीयुत पं० अजितकुमारजी शास्त्रीने 'सत्यार्थ दर्पण में (पृ० ९१) ऋग्वेद आदिसे निम्न उद्धरण दिये हैं, इनसे जैन तीर्थंकरोंका व्यक्तित्व प्रमाणित है:
"ॐ त्रैलोक्यप्रतिष्ठितान् चतुर्विशतितीर्थकरान् ऋषभाद्या वर्चमानान्तान् सिद्धान् शरणं प्रपद्ये । ॐ पवित्रं नग्नमुपविप्रसामहे एषां नग्नों (नग्नये) जातिर्येषां वीरा । येषा नग्मं सुनग्नं ब्रह्म सुब्रह्मचारिणं उदितेन मनसा देवस्य महर्षयो महर्षिभिजहेति या जकस्य य जंतस्य च सा एषा रक्षा भवतु शांतिर्भवतु, तुष्टिर्भवतु, शक्तिर्भवतु, स्वस्तिर्भवतु, श्रद्धाभवत, निर्व्याजं भवतु ।" (कोषु मूलमंत्र एष इति विधिकंदल्यां )। . "ज्ञातारमिन्दं ऋषभं वदन्ति अतिचारमिन्द्र तमरिष्टनेमि । भवे भवे सुभवं सुपार्श्वमिन्द्रं हवे तु शक्रं अजितं जिनेन्द्रं तवर्द्धमानं पुरुहूवमिन्द्र स्वाहा ॥ नमं सुवीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्भ सनातनम् । दयातु दीर्घायुस्त्वाय बलायवर्चसे सुप्रजास्त्वाय रक्ष रक्ष रिष्टनेमि स्वाहा ।" (बृहदारण्यकें).
"आतिथ्यरूपं मासरं महावीरस्य नग्नहु । रूपामुपासादामेतत्तियौ रात्रौः सुरासुताः ॥” यजुर्वेद अ० १९८० १४ "समिद्रस्य प्रमहसाऽग्रे वन्दे तव श्रियं । वृषभो गम्मवानसिममध्वरेष्विध्यसे ॥" ऋग्वेद ४० ४.भ० ३ व.६. स्ने ३-३-१४-२।।
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[२२] ऋग्वेदकी प्रजापति परमेष्ठिनवाली ऋचाओंका सम्बन्ध जैनधर्मसे बतलाया है। 'छान्दोग्य उपनिषद् के उल्लेखसे प्रजापतिका जैनसंबंध
और भी स्पष्ट होनाता है । वहां वह नारदके प्रश्नके उत्तरमें कहते हुए आत्मविद्याके समक्ष चारों वेदोंको कुछ भी नहीं मानते हैं।' इस प्रकार वेदोंके इन सब उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कि उनके समयमें भी जैनधर्म एक प्रचलित धर्म था। तिसपर हिन्दू 'भागवत' में जो ऋषभदेवको आठवां अवतार माना है, उससे उनका अस्तित्व वेदोंसे भी प्राचीन ठहरता है क्योंकि उनमें १५वें वामन अवतारका उल्लेख मौजूद है । यही बात है कि हिन्दू प्रॉ. स्वामी विरुपाक्ष बडियर धर्मभूषण, पंडित, वेदतीर्थ, विद्यानिधि, एम० ए० लिखते हैं कि जैन शास्त्रानुसार 'ऋषभदेवजीका नाती मारीचि प्रतिवादी था और वेद उसके तत्त्वानुसार होनेके कारण ही ऋग्वेद आदि अन्थोंकी ख्याति उसीके ज्ञान द्वारा हुई है। फलतः मारीचि ऋषिके स्त्रोत्र, वेदपुराण आदि ग्रन्थों में हैं और स्थानर पर जैन तीर्थकरोंका उल्लेख पाया जाता है। तो कोई कारण नहीं कि हम वैदिक कालमें जैनधर्मका अस्तित्व न मानें । अस्तु !
बहुधा वेदोंके उपरोक्त जैन विषयक उल्लेखोंके सम्बन्धमें यह आपत्तिकी जाती है कि निरुक्त और भाष्यसे उनका जैन सम्बन्ध प्रगट नहीं है। किन्तु इस विषयमें हमें यह भूल न जाना चाहिये कि वेदोंके जो भाष्य आदि उपलब्ध हैं वह अर्वाचीन हैं। वेदोंका वास्तविक अर्थ और उनकी ऐतिहासिक परिपाटी बहुत पहले ही लुप्त होचुकी थी। भगवान पार्श्वनाथजीके समकालीन (ई० पू०
१-वीर भाग ५ पृ० २४० ॥२-अजैन विद्वानोंकी सम्मतियां पृ० ३१)
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[ २३ ]
9वीं शताब्दि ) वैदिक विद्वान् कौत्स्य वेदोंकी असम्बंधता देखकर भौंचकासा रह गया था और उसने वेदोंको अनर्थक बतलाया था (अनर्थका हि मंत्राः । यास्क, निरुक्त १५ - १) यास्कका ज्ञान भी वेदोंके विषय में उससे कुछ ज्यादा अच्छा नहीं था । (निरुक्त १६/२) फिर ईस्वी चौदहवीं शताब्दिमें आकर सायण भी ऋग्भाष्य में वैदिक मान्यता के अर्थको ठीकर नहीं पाता है । ( स्थाणुरयम् भारहारः किलाभूर्वित्य वेदं न विज्ञानाति योऽर्थम् ।) इस दशा में यह कैसे कहा जासक्ता है कि वेदों में ऋषभ नेमि, अर्हन् आदि जैनत्व द्योतक शब्दों का अर्थ जो आजकल किया जाता है वहां ठीक है ? स्वयं ब्राह्मण विद्वान ही उनको जैनत्व सूचक बतलाते हैं। उधर प्राचीन जैन विद्वान उनका उल्लेख जैनधर्मकी प्राचीनता के प्रमाण रूपमें करते मिलते हैं । तिसपर स्वयं भाष्यकार सायण वैदिक अर्थको स्पष्ट करनेके लिये पुराणादिको प्रमाणभूत मानता है और पुराणादिमें ऋषभ, अर्हन् आदि शब्द स्पष्ट जैनत्व सूचक मिलते हैं । अतः वेदोंमें जैनोंका उल्लेख होना प्राकृत सुसंगत है ।
वेदोंके बाद रामायण में भी जैन उल्लेख मौजूद है; जिससे स्पष्ट है कि 'रामायण काल' में भी जैन
धर्म विद्यमान था । रामायणके बालकाण्ड ( सर्ग १४ श्लो० २२ ) के मध्य राजा दशरथका श्रमणको आहार देने का उल्लेख
है । ( " तापसा भुञ्जते चापि श्रमणा भुञ्जते तथा । ") श्रमण शब्दका अर्थ भूषण टीकामें दिगम्बर साधु किया गया है । ( " श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वातवसनाः । " ) अतएव यह श्रमण दिगम्बर जैन
रामायण कालमें जैनधर्म |
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साधु ही थे । इसके साथ ही 'योगवाशिष्ट में जो श्री रामचंद्रजीके मुखसे 'जिन' (जिनदेव, जिनकी अपेक्षा 'जैन ' नाम है)के समान होनेकी इच्छा प्रगट कराई गई है, इससे उक्त वक्तव्यकी
और भी अधिक पुष्टि होती है।' वाल्मीकीय रामायणमें है कि रामचन्द्रनी राजसूय यज्ञ करनेको रानी हुये थे, परन्तु भरतनीने उन्हें अहिंसाधर्मका महत्व समझाकर ऐसा करनेसे रोक दिया था। (देखो प्रिंसपिल्स आफ हिन्दू ईथक्त ए० ४४६) रामचन्द्रनीके 'श्वसुर जनक बहुप्रसिद्ध हैं । जैन पुराणोंसे जाना जाता है कि वह पहले वेदानुयायी थे; परन्तु उपरांत जैनधर्मका प्रभाव उनपर पड़ा था और वे जैनधर्मके ज्ञाता हुये थे। हमें हिन्दू शास्त्रोंमें भी एक जनक राजाका उल्लेख इसी तरह मिलता है, किन्तु वह काशीराज बतलाये गये हैं। कहा है कि एकवार महर्षि गार्य उनके पास पहुंचे और उन्हें उपदेश देने लगे। पर वह उनको अधिक उपदेश दे न सके; प्रत्युत उन्होंने स्वयं ब्राह्मण होते हुये भी उन क्षत्रीरानसे ब्राह्मधर्म-आत्मधर्मका उपदेश ग्रहण किया था। जैनधर्म क्षत्रियोंद्वारा प्रतिपादित आत्मधर्म ही है। अतएव रामायणके जमानेमें भी जैनधर्म वर्तमान था। रामायणके बाद महाभारत कालमें भी जैनधर्मके चिन्ह मिलते
हैं। 'महाभारत' के अश्वमेघपर्वकी अनुमहाभारतके समय गीता अ० ४८ श्लो० २से १२ तकमें जैन धर्म। जैन और बौद्धके अलगर होनेकी साक्षी
है। इसके अतिरिक्त महाभारतके आदि १-योगवाशिष्टं अ. १५ श्लोक ८ और जैनइतिहास सीरीज भाग १ पृ. १०-१३।२-उत्तरपुराण पृ० ३३५ । ३-विश्वकोष भाग पृ० २०२।
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पर्व अ० ३ श्लो० २६-२७ में भी जैन मुनियोंका उल्लेख 'नग्न · क्षपणक' के रूप में है । 'अद्वैत ब्रह्मसिद्धि' नामक हिन्दू ग्रन्थके कर्त्ता क्षपणक के अर्थ जैन मुनि करते हैं । यथा: " क्षपणका जैन मार्ग सिद्धांत प्रवर्तका इति केचित । " ( ४० १६९ ) अन्य श्रोतोंसे भी - क्षपणक के अर्थ यही मिलते हैं।' इसके साथ ही महाभारत शांति पर्व, मोक्षधर्म अ० २१९ श्लो० ६ में सप्तभंगी नयका उल्लेख है । फिर इसी पर्वके अ० २६३ पर नीलकंठ टीकामें ऋषभदेवके पवित्र चरणका प्रभाव आतों वा जैनोंपर पड़ा कहा गया है। इन उल्लेखोंसे महाभारतकालमें भी जैन धर्मका प्रचलित होना सिद्ध है । भगवान् पार्श्वनाथ के पहलेसे उपनिषधोंका बहु प्रचार होरहा था और उस समय भी जैनधर्मका अस्तिउपनिषदों में जैनधर्म । त्व यहां प्रमाणित है । उपनिषधोंसे यह बात प्रगट है कि वेदोंके साथ ही कोई वेदविरोधी ऐसे तत्ववेत्ता अवश्य थे जिनकी 'ब्रह्मविद्या' (आत्मविद्या) के आधारपर उपनिषधोंकी रचना हुई थी । श्रीयुत उमेशचन्द्रजी भट्टाचार्य ने यह व्याख्या अन्यत्र अच्छी तरह प्रमाणित कर दी है। उनका कहना है कि इस समय उस ब्रह्मविद्याका प्रायः सर्वथा लोप है। उसके बचे-खुचे कुछ चिन्ह उपनिषधोंमें ही यत्रतत्र मिलते हैं । उस समय वेदों और उपनिषधोंके अतिरिक्त ब्रह्मविद्या विषयक साहित्य 'लोक' नामसे अलग प्रचलित था । अब तनिक विचारने की बात है कि उपरोक्त ब्रह्मवादी कौन थे ? यदि
सीरीज़ भा० १ पृ० १३ ॥
१- पञ्चतंत्र ५।१ । २-जैन इतिहास ३ - इंडियन हिस्टोरीकल क्वारटल भा० ३ पृ० ३०७–३१५ ।
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.[२६] हम 'ब्रह्म' शब्दको जीव-अनीवका द्योतक माने जैसा कि प्रगट किया गया है तो उसका सामंजस्य जैन सिद्धान्तसे ठीक बैठता है ! उपनिषध कालमें जैनधर्मका मस्तक अवश्य ऊँचा रहा था, यह बात 'मुण्डकोपनिषद' एवं 'अथर्ववेद' के उल्लेखोंसे प्रमाणित है; जैसे कि हम अगाड़ी देखेंगे। जर्मनीके प्रसिद्ध विद्वान् हर्टलसा ने यह सिद्ध किया है कि 'मुण्डकोपनिषद' में करीब२ ठीक जैनसिद्वांत जैसा वर्णन मिलता है और जैनोंके पारिभाषिक शब्द भी वहां व्यवहृत हुये हैं। तिसपर जैनोंके 'पउमचरिय' नामक प्राचीन ग्रन्थसे 'मुण्डकोपनिषद' के कर्ता ऋषि अंगरिस जैनोंके मुनिपदसे भ्रष्ट हुये प्रगट होते हैं । उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें वैदिक धर्मको जैनधर्मसे मिलता जुलता बनानेका प्रयत्न इसीलिये किया था कि वैदिक धर्मावलम्बी जैनधर्मकी ओर अधिक आकृष्ट न हो। प्राचीन 'ब्रह्मविदों' के 'श्लोक साहित्य' के जो यत्रतत्र अंश मिलते हैं; उनका यदि विशेष अध्ययन किया जाय तो हमें विश्वास है कि उनकी शिक्षा जैनधर्मके विरुद्ध नहीं पड़ेगी । ' कठोपनिषद' में (२-६-१६) प्राप्त 'श्लोक साहित्य' का एक अंश हमने देखा है और उसमें जैनधर्मसे कुछ भी विरोध नहीं है । जैन मान्यताके मनुसार यह प्रगट है कि जैन-वाणी (द्वादशांग श्रुतज्ञान)की सर्व प्रथम रचना इस कालमें ऋषभदेव द्वारा हुई थी और वह श्लोक
१-वीर वर्ष ५ पृ. २३८ । २-इन्डो-ईरेनियन मूल प्रन्थ और संशोधन भा० ३ व 'धर्मध्वज' वर्ष ५ अंक १ पृ. ९ । ३-विशेषके लिये देखो 'वीर' वर्ष ६ में प्रकट होनेवाला 'ऋषि अंगरिस और जैनधर्म' शीर्षक लेख ।
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[२७].
बद्ध थी । जैन शास्त्रोंमें उसकी अलगर श्लोक संख्या दी हुई है । " अतः इससे यह संभव है कि उस समय जैन श्रुत ही श्लोकसाहित्य' के नामसे परिचित हो । शायद इसमें भाषा विषयक आपत्ति हो, क्योंकि जैनश्रुत अर्द्धमागधी भाषामय बताया गया है। किंतु अर्धमागधीका उल्लेख भगवान महावीरजीके श्रुतज्ञानके मम्बन्ध में है और उसकी अर्धमागधी भाषा मागधदेश अपेक्षा ही बताई गई है । इस दशामें यह नहीं कहा जासक्ता कि भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित श्रुतज्ञान किस भाषा में ग्रन्थबद्ध था ? बहुत संभव है कि वह प्राचीन संस्कृत से मिलती जुलती भाषा में हो । भगवान ऋषभदेव द्वारा एक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ रचे जानेका उल्लेख मिलता ही है। इस प्रकार उपनिषदोंसे भी तत्कालीन जैन धर्म अस्तित्वका पता चलता है ।
भारतीय वैयाकरणों में शाकटायन बहु प्रसिद्ध और बहु प्राचीन हैं । इन्होंने अपने व्याकरण में जैनधर्मका शाकटायनकी साक्षी । उल्लेख किया है। बल्कि यह स्वयं जैन थे, यह बात प्रॉ० गुम्टव आपर्टने अपने " शाकटायन व्याकरण" (मद्रास सन् १८९३ ) की भूमिकामे अच्छी तरह सिद्ध की है। वह लिखते हैं, "पाणनिने अग्ने व्याकरण में शाकटायनका बहुत जगह वर्णन किया है। पातंजलि ने भी अपने
१ - जैनसिद्वांत भास्कर भा० १ किरण १ पृ० ५६-५७ । २-'मागध्यावंतिका प्राच्या शौरसैन्यर्धमागधी वाहीकी दक्षिणात्या च भाषाः सप्त प्रकीर्तिताः । चर्चासमाधान पृ० ३९-४० देखो । ३ - संक्षिप्त जैन इतिहास भा० १ पृ० १३ ।
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[२८] महाभाष्यमें शाकटायनका प्रमाण दिया है। शाकटायनके बनाये हुये उणादि मूत्र वैयाकरणोंमें भलेप्रकार प्रचलित हैं। शाकटायनका नाम ऋग्वेदके प्रातिशाख्य, शुक्लयजुर्वेद और यास्कके निरुक्तमें भी आया है । बोपदेवके 'कवि-कल द्रुम' में जहां आठ प्रसिद्ध वैयाकरणोंका वर्णन है उनमें शाकटायनका भी नाम है । इनमें से केवल इन्द्रका ही नाम शाकटायनने अपने व्याकरणमें लिया है। शाकटायनके बनाये हुये शब्दानुशासनके हरएक पाठके शुरू में यह वाक्य है-"महाश्रमण संघाधिपतेः श्रुतकेवलिदेशीचार्यम्य शाकटायनस्य" इससे स्पष्ट है कि शाकटायन जैन मुनि थे । इनके 'उणादिमुत्र' में “ इण सिज् जिदीकुष्यवियोनक" सूत्र २८९ पाद ३ है; जिसका अर्थ सिद्धांतकौमुदीके कर्ताने 'मिनोर्हन्' किया है । इसका भाव जैनधर्मके संस्थापकसे है क्योंकि हिन्दू ग्रन्थोंमें जैनधर्मके संस्थापकका उल्लेख सर्वत्र 'जिन' व अर्हन' रूपमें किया गया है। यह शाकटायन निरुक्तिके कर्ता यास्कके पहिले हुये थे और यास्क पाणिनिसे कितनी ही शताब्दियों पहले हुए, जो महाभाप्यके का पातजलिके पहले विद्यमान थे । अब पातनंलिको कोई तो ईसासे पूर्व २री शताब्दिका बताते हैं। और कोई ईसासे पहले ८वीं या २०
* किन्तु अब किन्हीं विद्वानोंका मत है कि प्राचीन शाकटायन जैन नहीं थे । जैन शाकटायन तो राष्ट्रकूट वंशी राजा अमोघवर्षके समयमें हुए वताए जाते हैं। १-इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ॥ २-जिनेतामत दर्पण भा. १, पृ. ५-६ । ३-जैन इतिहास सीरीज मा० १ पृ. १३-१४ ।
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[२१] वीं शताब्दिमें हुआ बतलाते हैं । किन्तु जो हो, इससे यह स्पष्ट है कि वैयाकरण शाकटायन ऋग्वेदके प्रतिशाख्योंके पहले होचुके थे और इस दशामें भी जैनधर्म बहु प्राचीन सिद्ध होता है । हिन्दुओंके पुराण ग्रन्थोंसे भी जैनधर्मकी प्राचीनता स्वयंसिद्ध
है। उनके सर्व प्राचीन विष्णुपुराणमें हिन्दपुराणोंमें जैन- जैन तीर्थकर सुमतिनाथका उल्लेख है। धर्मकी साक्षी। तथापि उसमें जैनधर्मकी उत्पत्ति देव
और असुरोंके युद्धके परिणाम स्वरूप स्वयं विष्णुके शरीरसे उत्पन्न मायामोह नामक पुरुषके द्वारा बहु प्राचीनकाल में हुई बतलाई गई है । मायामोह मुण्डेसिर, नग्नरूप,. हाथमें मयूरपिच्छ लिये और तपस्या करते नर्मदा तटपर अवस्थित असुरोंके आश्रममें पहुंचे और उनको जैनधर्मरत किया, यह भी इस पुराणमें लिखा है । यह असुर 'आईत' कहलाये । ( देखोबंगाली आवृत्ति, अंश ३ अ० १७-१८), भागवतपुराणमें जैनधर्मके प्रणेता श्री ऋषभदेवजीका विशेष वर्णन है । उनको वहां २२ अवतारोंमें आठवां बतलाया है। उनकी वंशपरम्परा सम्बंधमें लिखा है कि १४ मनु हुये, जिनमें स्वयंभू मनु पहले थे। ब्रह्माने जब देखा कि मनुष्य संख्या नहीं बढ़ी तो उसने स्वयंभूमनु और सत्यरूपाको पैदा किया और सत्यरूपा स्वयंभूमनुकी पत्नी हुई। प्रियव्रत नामक पुत्र हुआ; निसके आग्नीन्ध और उमके नाभि हुये । नाभिका विवाह मरुदेवीसे हुआ और इनसे श्री ऋषभदेव
१-हिस्ट्री एण्ड लिट्रेचर ऑफ जैनीज्म पृ० १० । २-इन्डियन एन्टीक्वेरी भा०९पृ० १६३।
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हुये।' भागवतमें स्पष्ट रीतिसे इन ऋषभदेवको स्वयं भगवान् कैवज्यपति लिखा है । तथा उनको दिगम्बर वेष और जैनधर्मका चलानेवाला बतलाया है। इस उल्लेखसे प्रगट है कि सृष्टि के प्रारम्भमें, जैसे हिन्दू मानते हैं, जब ब्रह्माने स्वयंभृमनु और सत्यरूपाको उत्पन्न किया तो ऋषभदेव तब उनसे पांचवीं पीढ़ीमें हुये और "पहले सतयुगके अन्तमें हुये और २८ सतयुग इस अरसे तक व्यतीत होगये ।" इस प्रकार ऋषभदेवका अस्तित्व एक अतीव प्राचीनकालमें प्रगट होता है और यह सर्वमान्य है कि भागवतोक्त ऋषभदेव ही जैनोंके प्रथम तीर्थकर है। उनके मातापिताका नाम
और शेष वर्णन भागवतमें भी प्रायः वैसा ही है जैसा जैनशास्त्रोंमें है । भागवतके अतिरिक्त 'वराहपुराण' और 'अग्निपुराण' में भी ऋषभदेवका उल्लेख विद्यमान है। प्रभासपुराण' में तो केवल ऋषभदेवका ही नहीं बल्कि २२वें तीर्थकर श्री नेमिनाथनीका उल्लेख भी मौजूद है। इनके अतिरिक्त हिंदू 'पद्मपुराण' में वेदानुयायी राजा वेणके जैन होनेका वर्णन मिलता है । जब वह राज्य कररहे
१-भागवत स्कन्ध ५ अ० ३-६ । २-भागवत स्कन्ध २ अ० ७ (व्यकंटेश्वर प्रेप) पृ० ७६ । ३-जिनेन्द्रमत दर्पण भा० १ पृ० १० । ४-हिन्दी विश्वकोष भा० ३ पृ. ४४४ और डॉ. स्टीवेन्सन, कल्पसूत्रकी भूमिका पृ० १६ । ५-तस्य भरतस्य पिता ऋषभः हेमादक्षिणं वर्ष महद्भारतं नाम शशास। ६-ऋषभो मरुदेव्याग्न ऋषभादूभरतोऽभवत् । भरताभारतं वषे भरतात्समीतस्त्वभूत् ॥ ७-कैलाशे विमले रम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः ।
चकार स्वावतारं च सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ॥ ५९ ॥ 8वतादौ जिनो नेमियुगादिविमलाचले । ऋषीणां या श्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥
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[११]
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थे तब एक दिगंबर जैन मुनि उनके पास आये थे और उन्हें देव, शास्त्र, गुरुका स्वरूप समझाकर जैनधर्मका श्रद्धानी बनाया था ।' 'वामनपुराण' में वेणको ब्रह्मासे छठी पीढ़ीमें हुआ बताया है । इससे भी जैनधर्मकी प्राचीनता प्रमाणित है । 'शिवपुराण' में ' अर्हन् भगवान् का शुभ नाम पापनाशक और जगत सुखदायक बतलाया गया है । नागपुराण में कहा है कि जो फल ६८ तीर्थोके यात्रा करमें होता है, वह फल आदिनाथ (ऋषभदेव ) के स्मरण करनेसे होता है । इस प्रकार पुराणग्रन्थोंसे भी जैनधर्मकी प्राचीनता स्पष्ट है । इन पुराणोंके कथन बहुप्राचीन कथानकोंके आधारपर हैं और उनमें सत्यांश मौजूद है; यह बात आधुनिक विद्वान भी स्वीकार करते हैं । *
१ - अं० जैनगजट भा० १४ पृ० ८९ - वेणस्य पातकाचारे सर्वमेव चदाम्यहम् ॥ तस्मिन्-छासतिं धर्मज्ञे प्रजापाले महात्मनि । पुरुषः कश्चिदायातो ब्रह्मौिधरस्तथा ॥ नमरूपो महाकायः सितमुण्डो महाप्रभः । मार्जनीं शिखिपत्राणां कक्षायां स हि धारयन् ॥ पठमानो महच्छास्त्रं वेदशास्त्रविदूषकम् । यत्रवेणी महाराजस्तत्रोपायात्वरान्वितः ॥ अर्हन्तो देवता यत्र निर्ग्रन्थों गुरुरुच्यते । दया वै परमो धर्मस्तत्र मोक्षः प्रदृश्यते ॥ एवं वेणस्य वै राज्ञ: सृष्टिरेव महात्मनः । धर्माचारं परित्यज्य कथं पापे मतिर्भवेत् ॥ R. C. Dutt, Hindu Shastras Pt. VIII. pp. 213-22
२-अं० जैनगजट भा० १४ पृ० १६२ हाथीगुफावाले शिलालेख में जैन सम्राट्के वीरत्वकी उपमा राजा वेप से दी है। इससे भी राजा वेणका जैन होना प्रगट है । (देखो जर्नल आफ दी बिहार एण्ड ओरिसा रिसर्च सोसाइटी, भा० १३ पृ० २२४ | ३ - सत्यार्थ दर्पण पृ० ८९ ।
४- पूर्व प्र० पृ० ८७ यथा: - 'अकषष्टिषु तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् । आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् ॥”
*Macdonell's History of Sanskrit.
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अबतकके विवेचनसे जैनधर्मकी प्राचीनताका बोध पूर्णरूपेण
होगया है; परन्तु हम पूर्वमें यह बतला 'वास प्राचीन जैनोंका आये हैं कि भगवान महावीरनीक पहले द्योतक है। जैनोंका उल्लेख 'व्रात्य' रूपमें उसी
तरह होता था, जिस तरह उपरांत वे 'निर्ग्रन्थ ' और 'अहंत' नामसे प्रख्यात् हुये थे और अब जैन नामसे जाहिर हैं। इसलिये यहांपर हमको अपने इस कथनकी सार्थकता भी प्रकट कर देना उचित है। इसके लिये हमें दक्षिणी जैन विद्वान् प्रो० ए० चक्रवर्ती महोदयके महत्वपूर्ण लेखका आश्रय लेना पड़ेगा, जो अंग्रेजी जैनगनट (भा० २१ नं. ६) में प्रकाशित हुआ है । इस साहाय्यके लिये हम प्रोफेसर साहबके विशेष
आभारी हैं। वैदिक साहित्यमें 'व्रात्य' शब्दका प्रयोग विशेष मिलता है और उससे उन लोगोंका आभास मिलता है जो वेदविरोधी थे
और जिनको उपनयन आदि संस्कार नहीं होते थे । मनु व्रात्य विषयमें यही कहते हैं कि "वे लोग जो द्विजों द्वारा उनकी समातीय पत्नियोंसे उत्पन्न हुये हों, किन्तु जो धार्मिक नियमों का पालन न कर सकनेके कारण सावित्रीसे प्रथक कर दिये गये हों, व्रात्य हैं।" (मनु० १०।२०) यह मुख्यता क्षत्री थे । मनुनी एक व्रात्य क्षत्रीसे ही झल्ल, मल्ल, लिच्छवि, नात, करण, खस और द्राविड़ वंशोंकी उत्पत्ति बतलाते हैं । ( मनु० १०२२ ) व्रात्य लोगोंका पहनावा भी प्रथकरूपका था। उनकी एक खास तरहकी पगड़ी (नियनह) थी-वे एक वल्लम और एक खास प्रकारका धनुष (ज्यहोद) रखते थे-एक लाल कपड़ा पहनते और रथमें चलते थे।
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[३३] उनका एक चांदीका आभूषण 'निश्क' नामका था। वे मुख्यतः दो विभागों-हीन और ज्येष्ठमें विभक्त थे । यद्यपि वे संस्कारोंसे रहित समझ लिये जाते थे, परन्तु वैदिक आर्य उनको पुनः अपने में वापस ले लेते थे। उनके वापस लेनेकी खास क्रियायें 'व्रात्यस्तोम' नामसे थीं। आधुनिक विद्वान् प्रॉ० वेबर सा ने इन्हें उपरान्तकी बौड जातियों सदृश भाना है और बतलाया है कि यह बौद्धोंके समान कोई ब्राह्मणविरोधी लोग थे। किन्तु प्रॉ० साहबका यह अनुमान भ्रान्तमय है, क्योंकि बौद्धधर्मका जन्म ब्राह्मण साहित्यसे बहुत पीछेका है। इसी तरह अन्य विद्वानोंका इन्हें कोई विदेशी असभ्य जाति अथवा रुद्रशिव सम्प्रदाय बतलाना भी भ्रांतिसे खाली नहीं है। सचमुच यह व्रात्य लोग आर्य थे और विशेषतः क्षत्री आर्य थे; क्योंकि वैदिक ग्रन्थोंमें कहा है कि व्रात्य न ब्राह्मणोंकी क्रियायोंको पालते थे और न कृषि या व्यापार ही करते थे। इसलिये व्रात्य न तो ब्राह्मण थे और न वैश्य थे। वे योडा थे, क्षत्री थे। अस्तु, पूर्व पृष्ठोंमें हम यह बतला ही आये हैं कि वेदोंमें खासकर ऋग्वेद संहितामें ऋषभ अथवा वृषभ, अरिष्टनेमि आदि जैन तीर्थकरों के नाम खूब मिलते हैं और भागवत, विष्णु र आदि पुराणों के अनुसार यह ऋषभदेव जैनधर्मके मादि संस्थापक और क्षत्री वंशके थे यह भी प्रगट है । जैन शास्त्र भी इन तीर्थंकरोंको क्षत्री वंशोद्भव ही बतलाते हैं। इतना ही क्यों उनके अनुसार आर्य मर्यादाकी सृष्टि इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रीयों द्वारा ही हुई हैं । ऋग्वेदके वृषभ
१-Indischen Studien I. 32. २-विष्णुपुराण २-१ । ३-आदिपुराण और उत्तरपुराण देखो।
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[३४ अथवा ऋषभदेवका इक्ष्वाक्वंश और पुरुकुल है। महाकवि कालिदास भी इक्ष्वाक्वंशी राजाओंके राजर्षि होनेकी साक्षी देते हैं। जैनतीर्थंकरोंमें बीस इसी वंशके थे और शेष चार अन्य हरिवंश आदिके थे । उपनिषदों में जिस आत्मविद्या और नियमोंका वर्णन है, वह भी इन्हीं इक्ष्वाक्वंशी क्षत्रियोंके प्रभावका परिणाम है। संभवतः काशी, कौशल, विदेह आदि पूर्वीय देशोंके आर्य पश्चिमके कुरुपाञ्चाल आर्योंके पहलेसे हैं । और इन प्रदेशोंमें जैनधर्मका प्रभाव म० बुद्धके पहलेसे विद्यमान था । तिसपर मनुने जिन झल्ल, मल्ल, लिच्छवि, नात, द्राविड़ आदि जातियोंको व्रात्यक्षत्रीकी संतान लिखा है, वह प्रायः सब ही जैनधर्मकी मुख्य उपासक मिलती हैं । मल्ल क्षत्रियोंकी राजधानी पावासे ही अंतिम तीर्थकर महावीरस्वामीने निर्वाण लाभ किया था। भगवान महावीर तबतक वहां पहुंचे नहीं थे, परन्तु तो भी वह उनके अनन्यभक्त थे और भगवान्को अपने नगरमें देखनेके इच्छुक थे । इससे प्रकट है कि उनमें जैनधर्मका श्रद्धान भगवान् महावीरसे पहलेका विद्यमान था । लिच्छवि क्षत्रियों में भी जैनधर्मकी विशेष मान्यता थी। वे पहलेसे जैनधर्मानुयायी थे; क्योंकि उनके प्रमुख राना चेटकको जैनग्रन्थोंने पहलेसे ही जैनधर्मका श्रद्धानी लिखा है। यही राजा भगवान महावीरके मातुल थे । नात अथवा नाथवंशमें
१-शैशवेभ्यस्तविद्यानां, यौवने विषयैशिनाम् ।
बाधके मुनिवृत्तिनां, योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥ २-भगवान् महावीर और म० बुद्ध का परिशिष्ट और मज्झिमनिकाय , भाग १ पृ. २ । ३-पूर्व प्र. पृ. ९८ । ४-पूर्व पृ. ६ ।
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[१५]
तो स्वयं भगवान महावीर का जन्म ही हुआ था । और भगवानके T माता-पिता एवं अन्य परिजन पहले से ही जैनधर्मके श्रद्धानी थे। द्राविडलोगों ने जैन धर्मका बहु प्रचार रहा है, यह सर्व प्रकट है । -लात्यायन सूत्रोंसे यह प्रकट ही है कि व्रात्योंका मुख्यस्थान बिहार था, जो जैनतीर्थंकरों के कार्यका भी लीलास्थल रहा है। अतएव इन बातों को देखने से ही यह ठीक जंचता है कि व्रात्यलोग जैन थे, अथवा जैनोंका प्राचीन नाम 'वात्य' था |
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किन्तु इतने परसे ही सन्तोष कर लेना ठीक नहीं है । अगाड़ी यह बात प्रगट है कि वेदोंसे
वेदोंके अरुणमुख यति एक यज्ञ विरोधी दलका अस्तित्व सिद्ध भी जैन थे । है, जो यति कहलाते थे । यही यति 1 'अरुणमुख' कहे गये हैं अर्थात् इनके
मुखमें का पाठ नहीं था । तथापि यह वेदों के यज्ञविधान के भी विरोधी थे, क्योंकि इसी कारण इन्द्रने इन्हें सजा दी थी । ताण्डिय ब्राह्मण में (१४/२/५/२८) यह यूं लिखी हैं:
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'इन्द्रो यभ्यः प्रयच्छ तम् अस्ती लावग अभ्यवदतसोऽशुद्ध मन्यत स एतत् शुद्धाशुद्धियं अपश्यत्तेन अशुद्वयव ।'
अत्- "इन्द्रने यतियों को गीदड़ों के सम्मुख डाल दिया । एक दुर्वाग ने उससे कहा - ( टीकाकार के अनुसार उसे ब्राह्मण हत्याका ती बताते हुये ) " उसने अपने आपको अशुद्ध
१- त्रि क्लैन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया पृ० ८२ । २ - जर्नल रायल ऐशियाटिक सोसाइटी, बबई, No. LIII, भाग १९
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[३६] नाना । उसने 'शुद्धाशुद्धिये मंत्र (एक खास श्रमण कथन) देखा
और वह पवित्र ह'गया । " यही कथा इसी ग्रन्थमें (१८।१।९) फिर कही गई है और इसमें उक्त मंत्र देखनेके स्थानमें इन्द्रको प्रनापतिके पास गया लिखा है, जिनने उसे ' उपहव्य ' दिया था । इन्द्र और यतियोंकी यह कथा ऐतरेय ब्राह्मण ( ७२८)
और तान्द्रय ब्राह्मण (११४ और १३।६।१७) में भी दी गई है । ऐतरेय ब्राह्मणमें इन्द्र यतियोंका भेड़ियोंके डालने और अरु. गमुखोंके मारने आदिके कारण सोमरस पान करनेसे वंचित हुआ लिखा है । और 'तन्ड्य ब्राह्मण' में कहा गया है कि इन्द्रने यतियोंको गीदड़ोंके डाल दिया, पर तौभी तीन-एथुरश्मि, बृहद. गिरि और रयोवन बच रहे । इन्द्रने इन्हें पाल पोस बड़ा किया और युवा होनेपर उन्हें वरदान दिया । पृथुरश्मिने राज्यबलकी आकांक्षा की-सो 'पर्थरस्म' समनके द्वारा इन्द्रने उसे रानवल
१-जैनोंकी देव शास्त्र गुरूपूजामें जो निम्न मंत्र हैं, वह शायद इसी 'शुद्धाशुद्धिय' मंत्रके द्योतक है, जिसको टीकाकार भी श्रमण मंत्र बतलाता है:
" अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । ध्यायेत्पंचनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १ ॥ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यंतरे शुचिः॥२॥" २-यहां इन्द्रको 'शुद्धाशुद्धिय' मंत्र, जो जैनमंत्र प्रतीत होता है, के स्थानपर प्रजापतिके पास जाते लिखा सो यह भी हमारे इस वक्तव्यका • पोषक है कि प्रजापति जैनधर्म प्रणेताका सूचक है। अथर्ववेदके महाब्रात्य प्रजापति भी जैन और संभवतः श्री ऋषभदेव हैं । इससे भी प्रजापतिका जैन सम्बन्ध प्रकट है।
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[ ३७ ]
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दिया । बृहदूगिरीने ब्राह्मण गौरव पाने की अभिलाषा की, सो इंद्रने "बृहद गिरि' समनके बल उसे वह गौरव दिया । और रयोवजने पशुधन चाहा, इंद्रने 'रयोवनीय' समनके द्वारा उसे पशुवन भेंट किया | इस ग्रन्थके टीकाकार इन यतियोंकों वह व्यक्ति बतलाते हैं जो वेदविरुद्ध नियमों का पालन करते थे यज्ञोंके विरोधी थे और कर्मकाण्डके निषेधक थे। इनमें ऐसे ब्राह्मण थे जो 'ज्योतिप्तोम' आदि यज्ञ न करके अन्य प्रकार जीवन यापन करते थे । इन उल्लेखों में (१) यतियों को यज्ञ विरोधी सन्यासी लिखा है, जो यज्ञ मंत्रों का भी उच्चारण नहीं करते थे; (२) वैदिक आर्यों में उनकी प्रसिद्धि नहीं थी और वे इन्द्र एवं इन्द्रभक्तों द्वारा प्रताड़ित हुये 'थे; (३) किन्तु जिस उद्देश्य के लिए यह यती खड़े हुये थे, वह एक समय इतना प्रबल होगया कि इन्द्रपूजा और सोमयज्ञ बन्द हो गये । * स्वयं इंद्रपर हत्याओंके पातक लगाए गए । ( ४ ) इस झगड़ेके अन्त में यज्ञवादकी विजय हुई और इन्द्रपूजा एवं यज्ञोंकी पुनरावृत्ति हुई । (५) यह यती जैन यतियों के समान हैं; क्योंकि
* 'मत्स्यपुराण' के निम्न वर्णनसे भी यह बात प्रमाणित होती है कि एक समय अवश्य ही जैनधर्मकी इतनी प्रबलता होगई थी कि इन्द्रका मान और विनय जाता रहा था:
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इन्द्र राज्य विहीन बृहस्पतिके पास अपनी फरियाद लेकर पहुंचा । बृहस्पति गृहशांति और पौष्टिक कर्मद्वारा इन्द्रको वलिष्ट बनाया । और धर्मके आश्रयसे उसने रजिपुत्रों को, (जिनने इन्द्रको राज्यच्युत किया था) मोहित किया ! बृहस्पतिने ख़ूब ही रजिपुत्रोंको वेदत्रय भ्रष्ट किया । इसपर इन्द्रने उन वेद बाह्य और हेतुवादी रजिपुत्रोंको वज्रसे नष्ट कर - दिया । " ( मत्स्य पु० आनन्दाश्रम० अ० २४ लो० २८-४८ ।
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[३८] टीकाकार सायण इन यातियोंके कपालको 'महा खजूरफल' के समान अर्थात् बिल्कुल घुटी हुई बतलाते हैं । जैसि कि वस्तुतः जैन यतियोंकी होती है । हिन्दू पद्मपुराण आदि ग्रन्थोंमें जैन मुनियोंका वर्णन करते हुये उन्हें 'सितमुण्डो' बतलाया है । इससे अहिंसाधर्मके अनुयायी जैनोंका अस्तित्व उपरांतके वैदिक कालमें सिद्ध होता है । इसतरह भी 'व्रात्यों' का जैन होना प्रकट है; क्योंकि उपरोक्त उल्लेखोंसे उस समय जैन यतियोंका होना प्रमाणित है । अस्तु; जैनाचार ग्रन्थों में चारित्रके दो भेद (१) अणुव्रत और (२)
___ महाव्रत किये गये हैं । अणुव्रत गृहव्रतोंको पालनेकी मुख्य- स्थोंके लिए हैं और महाव्रतोंका पालन तासे जैनोंका प्राचीन यतिगण करते हैं। महाव्रतोंको 'अग्रव्रत' नाम व्रात्य है। अथवा 'अनागारव्रत' भी कहते हैं।
जैनधर्म प्रारम्भसे ही अजैनोंको दीक्षित करनेका हामी रहा है । आर्य और अनार्य सब ही उसमें दीक्षित किये जाचुके हैं। गृहस्थों अथवा श्रावकोंके लिये ग्यारह प्रतिमाओं (दौ)का विधान है और सबसे नीची अवस्थामें केवल जैनधर्मका श्रद्धानी होना पर्याप्त है-उसमें व्रतों तकका अभ्यास नहीं किया जाता है इसलिए यह अव्रतदशा . कहलाती है। ब्राह्मण अन्थों में इनका उल्लेख व्रत्व धन पानेके योग्य पुरुषके रूपमें हुआ है । इनसे बढ़कर व्रती श्रावक हैं यह कुछ व्रतोंका पालन करते हैं। फिर श्रावक प्रतिमाओंमें विशेष २ व्रतों जैसे सामायिक,
१-वीर वर्ष ४ पृ. ३७७-३८१ व ४२३-४२७ ।
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[३९] प्रोषधोपवासादिके अनुसार उपरोक्त शेष भेद निर्दिष्ट हैं । अंतिम ग्यारहवीं प्रतिमावाले चेल खण्डधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। इनके बाद यति हैं जो बिलकुल नग्न रहते और निर्जन स्थानोंमें ज्ञान ध्यानमई जीवन व्यतीत करते हैं; जैसे कि प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान बता दिया गया है । यूनानी लोगोंने जिन साधुओंका उल्लेख 'जैम्नोसोफिस्ट्स' (Gymnosophists) नामसे किया है, वह यही है । श्रावक इन यतियोंको उनकी आहारकी वेलापर आहारदान देकर बड़ा पुण्य संचय करते हैं । अथर्ववेदमें जो गृहस्थके एक व्रात्यको पड़गाहने और उसके फल स्वरूप विविध लाभ पानेका वर्णन है वह बिलकुल जैन यतिको आहारदान देनेकी विधि और फलके विवरणके समान है। जैन तीर्थकर ही सर्वोच्च यति हैं, जो मार्ग प्रभावना (धर्मोद्योत) करनेके लिये अद्वितीय हैं। इन तीर्थंकरोंकी भक्ति देव देवेन्द्र करते हैं। उनके पंचकल्याणक करने, समवशरण रचने आदिका वर्णन पाठक प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान पढ़ेंगे। इन सब बातोंको ध्यानमें रखनेसे ही हम 'वात्यों का यथार्थ भाव समझ सकें और उन्हें जैन ही पायेंगे; जैसे कि पहले ही हम प्रगट कर चुके हैं । 'व्रात्य' शब्द व्रतोंको पालन करनेके कारण निर्दिष्ट हुआ है, यह पहले ही कहा जाचुका है । कोषकारोंका अभिमत भी यही है और 'प्रश्नोपनिषद' (२-११)के अग्निके प्रति 'व्रत्यस्त्वम्' उल्लेखसे भी यही प्रगट है। शंकर इसकी टीका, कहते हैं कि 'वह स्वभावसे शुद्ध है।' ( स्वभावतः एव शुद्ध इति अभिप्रायः) इससे केवल विनयभावको लेना ठीक नहीं, बल्कि इससे यह भी प्रगट है कि व्रात्य लोगोंमें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य
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[४०] द्विजोंके अतिरिक्त अन्य अनार्य लोग भी संमिलित हैं । जैसे कि जैनोंमें वस्तुतः थे । मनुने ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य इन तीन तरहके ब्रात्योंका उल्लेख किया ही है । अब जब कि ब्रात्यमतका उद्देश्य चेदों के विरुद्ध बहु प्रचार करनेका था तो यह नितान्त आवश्यक है कि वे ऐसी भाषामें अपने सिद्धान्तोंको प्रगट करते जो सरल
और जनप्रिय होती। सचमुच व्रात्योंकी भाषा जैनोंकी प्राकृत भाषाके समान ही थी क्योंकि उनके विषयमें कहा गया है कि'जो बोलनेमें सुगम है उसको वे कठिन बतलाते हैं।' (अधुरुक्तम् वाक्यम् दुरुक्तम् आहुः) इस उल्लेखसे साफ जाहिर है कि वे संस्कृत नहीं बोलते थे । अतएव इस साञ्जमस्यसे भी 'व्रात्यों' का जैन होना सिद्ध है । मध्यकालमें भी जैन लोग 'व्रती' ( Verteis) नामसे परिचित थे ।* . ब्राह्मण ग्रंथोंमें व्रात्योंका उल्लेख 'गरगिर' रूपमें भी हुआ है;
जिसका अर्थ सायण उन लोगोंसे करता 'गरगिर' शब्द भी है जो विष भक्षण करते थे । ब्राह्मणके व्रात्योंको जैन मूल श्लोकके साथ यह व्याख्या वाक्य सूचक है। भी है कि "ब्रह्मदयं जन्यं अन्नुम अदंति।"
सायण इसके अर्थ करता है कि "वे ब्राह्मणों के लिये खास तौरसे बनाये गये भोजनको खाते हैं।" लात्यायन सूत्रोंके टीकाकार अग्निस्वामी लिखते हैं कि “गरगिर व एते ए ब्रह्मा जन्ममंत्रम् अदंति ।" सचमुच यहां कुछ गड़बड़ ____* सूरीश्वर और सम्राट्, पृ. ३९८-३९९ और डिस्क्रिपशन ऑफ एशिया पृ० ११५ व २१३ ।
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[४१ 'घोटाला है। 'गरगिर' का अर्थ विषभक्षक अथवा विषाक्तभाषीके हो सक्ते हैं । दोनों ही तरह यह शब्द उपहास सूचक है । सायणके अर्थ इस आधारपर अवलंवित हैं कि आगन्तुक रूपमें व्रात्य वह भोजन भी ग्रहण कर लेते हैं जो ब्राह्मणों के लिये बना हो; अर्थात् उनकी दृष्टिसे जिसको (आहारदानको) ग्रहण करनेका अधिकार केवल ब्राह्मणों हीको था, इस दशामें व्रात्योंद्वारा अपने इस अधिकारका अपहरण होता देखकर ब्राह्मणोंने उपरोक्त शब्दका व्यवहार उनके लिए भर्त्सनामय आक्षेपमें किया है और यदि उक्त शब्दका अर्थ अग्निस्वामीके अनुसार माना जाय तो उसके अर्थ "विषाक्त भाषी" के होंगे, क्योंकि वे (व्रात्य) उस मंत्रका उच्चारण नहीं करेंगे जिसके प्रारम्भमें 'ब्रह्म' शब्द होगा। इससे प्रगट है कि व्रात्य ब्रह्मवादियोंके विरोधी थे और वे वैदिक मंत्रोंका उच्चारण नहीं करते थे। यह दूसरे अर्थ ही समुचित प्रतीत होते हैं क्योंकि 'जिन' या 'अर्हन्त' को निर्दिष्ट करनेमें इसका बहु व्यवहार हुआ मिलता है। जिनसेनाचार्य अपने 'जिन सहस्रनाम में निम्नशब्दोंका उल्लेख करते हैं:-"ग्रामपतिः, दिव्यभाषापतिः, वाग्मीः, वाचस्पतिः, वागीश्वरः, निरुक्तवाक्, प्रवक्तवचसामीसः, मंत्रवित, मंत्रकृत इत्यादि ।" इन उल्लेखोंसे एक अन्य प्रकारके मंत्रोंका होना स्पष्ट है, जिनका सम्बंध वैदिक मंत्रोंसे सिवाय विपरीतताके और कुछ न था। सचमुच तीर्थकरोंके द्वारा निर्दिष्ट हुए मंत्रोंका ही प्रयोग 'व्रात्यों' (जैनों) द्वारा होना उपयुक्त है; जो उनके लिये उतने ही प्रमाणीक थे जितने कि वैदिक मंत्र वेदानुयायियोंके लिए थे । अतएव उनका वेदमंत्रोंको उच्चारण न करना युक्तियुक्त और सुसंगत है और इस दशामें
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[१२] उनका उल्लेख प्रतिपक्षियों द्वारा 'गरगिर' रूपमें होना भी ठीक है। इस विवेचनका सम्बंध 'अरुणमुख' शब्दसे भी ठीक बैठता है। जिसका प्रयोग उन यतियोंके लिये हुआ था जो जैन थे, जैसे पहले कहा जाचुका है । इस कथनका समर्थन इन शब्दोंसे भी होता है जो जैन भावको प्रगट करते हैं; यथाः-ऋषभ, आदिजिन, महावतपतिः, महायतिः, महाव्रतः, यतीन्द्रः, ढव्रतः, यतिः, अतीन्द्रः, इन्द्राचर्यः आदि । इनसे केवल यतियों और व्रतियोंका अस्तित्व ही जैन शास्त्रोंमें प्रगट नहीं होता, बल्कि इनसे यह भी प्रगट है कि इस धर्मके प्रभावके सामने इन्द्र सम्प्रदाय-वैदिक मतका ह्रास हुआ था । ' अदन्डयम् दन्डेण अनन्तश्चरंति ' अर्थात् 'वे उसको दण्ड देकर रहते जिसको दण्ड नहीं देना चाहिये।' इस उल्लेखसे प्रगट है कि व्रती पुरुष जहां रहते हैं वहां इन्द्र-यज्ञोंके विरुद्ध आज्ञायें निकालते हैं, क्योंकि उसमें हिंसा होती है। ऐतरेय ब्राह्मण एवं अन्य वैदिक साहित्यमें ऐसे बहुतसे उल्लेख हैं जिनमें विविध राजाओं द्वारा उनके राज्योंमें यज्ञोंके करने देनेका निषेध मौजूद है । सतपथ ब्राह्मण और वजसनेय संहितासे भी यही प्रगट है जिनमें कौशल-विदेह देशके पूर्वी आर्योंको मिथ्या धर्मानुयायी और वैदिक यज्ञोंका विरोधी लिखा है और यहां जैनधर्मका बहु प्रचार प्राचीनकालसे था। व्रात्योंके खास वस्त्र, पगड़ी, रथ आदि जो कहे गये हैं; वह
एक साधारण और स्थानीय वर्णन है पगड़ी, रथ, ज्यहाद और उनका सम्बंध केवल ग्रहस्थ एवं
आदि शब्दोंकी गृहपति व्रात्यों (जैनों )से है। किन्तु
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[ ४३]
विवेचना |
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'धनुष' (ज्योद) कुछ विशेष अर्थ रखता है ।' टीकाकारने उसे ' अयोग्यं धनुष लिखा है । बहुधा वह धनुष प्रत्यंचा रहित अथवा नुमाइशी धनुष बताया गया है । इससे क्या मतलब सघता था, यह कहा नहीं. गया है तो भी यह ठीक है कि धनुष शस्त्र रूपमें क्षत्रियों का एक मुख्य चिन्ह है, परन्तु ऐसे निकम्मे धनुषको वह क्यों रखते थे ? इससे यही भाव समझ पड़ता है कि वह इन अहिंसा धर्मानुयायी. क्षत्री पुरुषोंके लिये केवल उनके क्षत्रियत्वका बोधक एक चिन्ह मात्र था । यह तो स्पष्ट ही है कि उनके गुरुओंने उनसे अहिंसाव्रत ग्रहण कराया होगा, उस समय उनके लिये अपने जातीय कर्मको त्याग कर ब्रह्मचारी होजाना और खाली हाथों रहना जरूर अखरा होगा । जिस तरह आजकल सिख लोग केवल नुमायशी ढंगपर 'किरपान' को रखते हैं, उसी तरह वह क्षत्री भी जो अहिंसाव्रतधारी थे, अपने हाथमें अपना कुलचिन्ह 'धनुष' प्रत्यंचा रहित
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१ - यह ध्यान रहे कि व्रात्य शब्द श्रावक और साधु दोनोंका सूचक उसी तरह है, जैसे बौद्धकाल में 'निर्ग्रन्थ', मध्यकालमें "आर्हत" और आज - कल जैन " शब्द हैं । तिसपर पगड़ी, रथ, धनुष, एक लाल कपड़ा पहननेका उल्लेख गृहपतिके सम्बन्धमें हुआ है । (J. R. A. S. 1921) इस कारण इन वस्तुओंका सम्बन्ध केवल 'हीन व्रात्यों' ( श्रावकों ) से स्त्रमझना चाहिये | 'ज्येष्ठ व्रात्य' (साधु) तो बिलकुल दिगम्बर ही प्रगट: किये गये हैं । जैसे कि हमने भी भगवान् पार्श्वनाथ एवं उनके पूर्वके तीर्थकरोको नग्न वेषधारी प्रगट किया है । सम्भव है कि अयोग्य धनु-षको उनके हाथमें बतलाना उपहास सूचक हो । जैसे आजकल कोई लोग अहिंसा धर्मको राजनीतिका विरोधी बतलाते हैं ।
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[४ ] रखते थे । यह उपरोल्लिखित प्रॉ० सा० का अनुमान है । इसके अतिरिक्त हीन, ज्येष्ठ, गृहपति, अनुचनः, स्थिवरः, समनिचमेद्रः, निंदितः आदि शब्द जो व्रात्योंके सम्बन्धमें व्यवहृत हुये हैं; इनका भी खुलासा कर देना आवश्यक है । हीन और ज्येष्ठसे तो भाव संभवतः अणुव्रतों और महाव्रतोंसे होगा और गृहपति गृहस्थ श्रावकोंका आचार्य या नेता होता है । इसे विशेष धनवान और विद्वान् बताया है । इस शब्दका प्रयोग जैन शास्त्रों, जैसे श्वे० उवास्गदशाओंमें हुआ मिलता है । बाकीके तीन शब्दोंका व्यवहार ज्येष्ठ व्रात्योंके प्रति हुआ है । इनका अर्थ लगाने में सब ही टीकाकार भ्रांतिसे बच न सके हैं, यह बात प्रॉ० चक्रवर्ती सा० बतलाते हैं। वह अगाड़ी कहते हैं कि 'अनुचनः' का अर्थ तो हो टीका
कारोंने ठीक लगाया है, जिसका मतलब ज्येष्ठ व्रात्य दिगम्बर एक धर्मशास्त्र ज्ञाता विद्वान्से है। स्थजैन मुनि थे। विर शब्द भी साफ है जिसके अर्थ
गुरुसे हैं और इसका व्यवहार जैनशास्त्रोंमें खूब हुआ मिलता है । जैन गुरुओंकी शिष्य परम्परा 'स्थिविरावली' नामसे प्रख्यात है । जिन सहस्रनाममें भी इसका प्रयोग हुआ मिलता है। किन्तु वैदिक टीकाकारोंने इसे भी नहीं समझ पाया है, क्योंकि यह समनिचमेद्र शब्दके साथ प्रयोजित हुआ है। इस शब्दका शब्दार्थ 'पुरुषलिंगसे रहित' होनेका है । टीकाकार भी यही कहते हैं; यथाः-"अपेतप्रजननाः ।" भला व्रात्योंके लिये ऐसा घृणित वक्तव्य क्यों घोषित किया गया ? सामान्यतः जो पुरुष सामाजिक रीतिके अनुसार सवस्त्र होगा, तो सचमुच उसके प्रति
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[४५] कोई भी ऐसे शब्दोंका प्रयोग नहीं कर सक्ता है। इसलिए इनक शब्दोंके प्रयोगसे उस पुरुषका भाव निकलता है जिसने सम्पूर्ण सांसारिक सम्बंधोंको त्याग दिया हो, जो ग्रहस्थ न हो और यतिः जीवनको पहुंच कर दिगम्बर साधु होगया हो। 'सम' शब्दके अग्रप्रयोगसे लक्षित है कि वह कामवासनासे रहित है । अतएव यह वर्णन ठीक है और वह व्रात्यों अथवा व्रतीयोंमें ज्येष्ठ ( मुनि )के पदके लिये आवश्यक है । सायण इस शब्दकी व्याख्या करते हुये 'समनिचमेद्रों' की एक प्राचीन सम्प्रदायका उल्लेख करते हैं, जो 'देव सम्बंधिनः' थे और जिनके लिये एक खास व्रात्यरतोत्र रचा गया था। इससे प्रगट है कि यह प्राचीन संप्रदाय थी और शुद्ध भी थी। शेष 'निंदितः' शब्दका व्यवहार व्रात्योंमें सर्व निम्नभेदका द्योतक है । यह पहले ही कहा जाचुका है कि व्रात्यों (नैनों )में अहानी पुरुष सबसे नीची अवस्थामें होते हैं और उनमें अनार्य लोग भी दीक्षित कर लिये जाते हैं। सचमुच अवती श्रावकोंमें ऐसे सब ही तरहके श्रद्धानी लोग संमिलित होते हैं। जैनशास्त्रोंमें इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं । समाजसे बहिष्कृत और पातकी पुरुष भी पश्चात्ताप करने और आत्मोन्नतिके भाव प्रगट करनेपर जैनाचार्यों द्वारा धर्म मार्गपर लगा लिये जाते हैं । अतएव 'निंदितः' शब्दसे ऐसे पुरुषोंको भी व्रात्यों (वैदिक कालके जैनों में निर्दिष्ट किया गया है। क्योंकि वे व्रती पुरुषोंके संसर्गमें रहते थे और उस समय सब प्रकारके जैनोंके लिये यही शब्द (वात्य) व्यवहृत होता था। इन्हीं निंदित पुरुषोंके . कारण ब्रात्य शब्दके ओछे भाव भी वैदिक शास्त्रोंमें प्रगट किये गये मिलते हैं।
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[ १६ ]
ere 'अथर्ववेद' में जो व्रात्य उल्लेख हैं उनको ले लीजिये । यह तो विदित ही है कि 'बहुत असें अथर्ववेद और जैनधर्म | तक अथर्ववेद वेद ही नहीं माना जाता रहा है। इसकी वेद रूपमें मान्यता वैदिकमतके मेल मिलाप और पारस्परिक ऐक्य भावकी द्योतक है। सचमुच इसमें उस समयका जिक्र है कि जब आर्य लोग सामाजिक महत्ता को ढीली करके द्राविड़ साहित्य और सभ्यताकी ओर उदारता से पग बढ़ा रहे थे । ऐसे समय स्वभावतः आर्योंके विविध मतों में परस्पर ऐक्य और मेलमिलापके भाव जागृत होना चाहिये थे । तिसपर व्रात्योंके बढ़ते प्रभावको देखकर ऐसा होना जरूरी था । 'अथर्ववेद' अंगरिस नामक ऋषिकी रचना बताई जाती है और 'जैनोंके 'पउमचरिय' में इन अंगरिसका जैन मुनिपदसे भ्रष्ट होकर अपने मतका प्रचार करना लिखा है । इस दशा में अथर्ववेद में जैनध
के सम्बंध में जो बहुत कुछ बातें मिलती हैं वह कुछ अनोखी नहीं हैं। अथर्ववेद १५ वें स्कन्धमें यही भाव प्रदर्शित हैं। वहां एक महाव्रात्यकी गौरव गरिमाका बखान किया गया है। यह महाव्रात्य वेद लेखककी दृष्टिमें किसी खास स्थानका कोई क्षत्रिय व्रात्य था | व्रात्य (जैन) धर्मकी प्रधानता के समय समाजमें क्षत्रियोंका आसन ऊँचा होना स्वाभाविक है और सचमुच ईसासे पूर्व छठी, सातवीं शताब्दियों बल्कि इससे भी पहले से क्षत्रियोंकी प्रधानताके चिन्ह उस समय भारत में मिलते थे । उस समयका प्रधान धर्म, क्षत्रियधर्म (जैनधर्म ) था; परन्तु इसके अर्थ यह भी नहीं हैं कि उसमें ब्राह्मणोंके लिये कोई स्थान ही न था । प्रत्युत भगवान्
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[ ४७ ]
- महावीरजी के प्रधान और प्रमुख गणधर गौतमखामी ब्राह्मण ही थे । उपनिषदों में जो वर्णन है उससे भी प्रगट होता है कि काशी, कौशल, विदेहके ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंकी प्रधानताको स्वीकार कर लिया था ।
इमी प्रधान भावके कारण व्रात्योंमें मुख्य क्षत्रिय साधुका गुणगान करना प्राकृत सुसंगत होगया था । अथर्ववेद के १५ वें स्कन्धमें जिस महावात्यका गुणानुवाद वर्णित है, वह सिवाय वृषभ या ऋषभदेवके और नहीं हैं । उसमें जो वर्णन है वह जैनाचार्य जिनसेन के आदिपुराणमें वर्णित श्री ऋषभदेवके चारित्र के समान ही है । अवश्य ही आदिपुराण अथर्ववेद से उपरांत कालकी रचना है, पर उसका आधार बहु प्राचीन है । अथर्ववेद में पहले ही महाव्रात्य प्रजापतिका अपनेको स्वर्णमय देखते लिखा है । वह 'एकम् महत् ज्येष्ठं ब्रह्म तपः सत्यम्' या 'दे होगये । उनकी समानता वहां ईशम और महादेवसे भी की है। जिन सहस्रनाममें भी वृषभदेव के ऐसे ही नाम ; प्रजापति, महादेव, महेश, महेन्द्रवन्दप, कनकप्रभ, म तप्तचामिकरच्छविः, निष्टाप्तकनकच्छायाः, हिण्यवर्ण, स्वणामाः, गतकुम्भनिवप्रभाः । अथर्ववेदके इस प्रारम्भसे ही
मिलते हैं
स्वर्णवर्ण.
अथर्ववेद के महाव्रात्य श्री ऋषभदेव थे ।
१ - यां भी प्रजापतिको एक महात्रात्य अर्थात् दि० जैन साधु बतलाया है, जो सम्भवतः श्री ऋषभदेव ही थे । अतएव इस उल्लेख से भी प्रजापति परमेष्ठिन्की वैदिक ऋचाओं में हमारा जैन सम्बन्ध प्रगट करना ठीक है।
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[४८] हमें वृषभदेवके दर्शन होनाते हैं, जो व्रतोंको सर्व प्रथम प्रगट करनेवाले थे, सर्व प्रथम तपश्चरणका अभ्यास और सत्य का उपदेश देनेवाले थे और जिन्होंकी वंदना देवदेवेन्द्रोंने की थी। जैन दृष्टि से "तपश्चरणकी मुख्यता कायोत्सर्ग आसन द्वारा सर्दी गर्मी एवं अन्य कठिनाइयोंको सहते हुये ध्यानमग्न स्थित रहनेमें स्वीकृत है। वृषभदेव इसी आसनमें तपस्यालीन रहे थे। अनेक जैन मंदिरोंमें आज भी उनकी मूर्ति कायोत्सर्ग रूपमें मिलती है । तीर्थकर भगवानके लिए देव निर्मित समवशरणका निक भी पहले होचुका है। अथर्ववेदमें अगाड़ी तीसरे प्रपतकमें वृषभदेवकी इस जीवन घटना अर्थात् कायोत्सर्ग तपस्या करने और फिर केवली हो देवों द्वारा रचे गये समोशरणमें बैठने का भी उल्लेख है। उसमें लिखा है कि "वह एक वर्ष तक सीधे खड़े रहे; देवोंने उनसे कहा, "व्रात्य, अब आप क्यों खड़े हैं ?"....उनने उत्तरमें कहा, "उनको मेरे लिये एक आसन लाने दो।" उस व्रात्यके लिये वे आसन लाये; उस आसनपर व्रात्य आरूढ़ होगए । उनके देवगण सेवक थे। इत्यादि इस व्रात्यके सम्बंध भी पगड़ी, धनुष और रथका उल्लेख है। इससे केवल महाव्रात्य प्रभुको एक क्षत्रियव्रात्य प्रगट करनेका ही भाव है । इसीलिए क्षत्री व्रात्योंके साधारण जीवन क्रियाओंपगड़ी आदिका उल्लेख चिन्ह रूप में कर दिया है। इन महाव्रात्यके सम्बंधमें अलौकिक बातोंका भी उल्लेख है। सारांशतः इन महापुरुमको गौरवविशिष्ट और वैदिक देवताओंसे भी उच्चतम प्रगट किया गया है। कितने ही बैदिक देवता इनके सेवक बताये गये हैं। यह महाव्रात्य सर्व दिशाओं में विचरते और उनके पीछे देवोंको जाते
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[४९]
एवं दिकपालोंको उनका सेवक होते भी बताया गया है। यह सब कथन एक जैन तीर्थकरके जीवन कथनके बिल्कुल ही समान है; जिनकी भक्ति और सेवा देव-देवेन्द्र करते हैं । उनके समोशरणके साथ अनेक देव रहते और दिक्पाल विविध रीतिसे सेवा कार्य करते हैं । दशवें पर्ययमें व्रात्यके राजाओं और गृहस्थोंके पास जाने और भिक्षा पाने तथा ग्रहस्थ उनको कैसे पड़गावें इस सबका उल्लेख है । यह जैन यतियों और तीर्थंकरोंके सम्बन्धमें ठीक है; परन्तु तीर्थंकरों और सामान्य केवलियोंके लिये केवली पद पानेके बाद यह बातें संभवित नहीं होती। अथर्ववेदमें किसी नियमित रूपमें यह कथन नहीं है बल्कि सामान्य रीतिसे अपनी र वेधानुसार उसका लेखक इन सब बातोंको निर्दिष्ट करता मालूम होता है । व्रात्यको आहारदान देनेके फलरूप पुण्य और सम्पत्तिको पाना भी बतलाया गया है और यह भी जैन दृष्टिके अनुकूल है । इन सब बातोंके देखनेसे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अथर्ववेद में जिन महाव्रात्यका वर्णन है वह कोई जैन तीर्थंकर हैं और बहुत करके वह स्वयं भगवान ऋषभदेवनी ही हैं। अंगरिसने उनका चित्रण इस ढंगसे किया है कि वह वैदिक देवता प्रगट होने लगें । इस प्रकारके चित्रणसे उसका बड़ा लाभ यह था कि वह जैनधर्मके महत्त्वको कम कर सका था। मुसलमानोंके प्रकर्षके समय हिन्दू मतमें मूर्तिपूजाका खंडन इसी कारण हुआ था कि मुसलमानोंका प्रभाव हिन्दुओंपर न पड़े। इस प्रकार इस कथनसे अब यह बिल्कुल प्रमाणित है कि
जैनधर्म वैदिक कालमें मौजूद था, जैसे
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[१०] प्राचीनता प्रकट करनेकी हम पूर्व पृष्ठोंमें भी बतला आये हैं और आवश्यकता। वह उस समय "व्रात्य" नामसे परिचित
था। सिंध प्रान्तके मोहन जोडेरो नामक स्थानसे जो गत वर्षों में ई० पूर्व करीब तीन चार हजार वर्षों की चीजें मिली हैं, वे भारतीय असुर सभ्यताकी द्योतक मानी गई हैं। उनमें ऐसी मुद्रायें भी मिली हैं, जिनपर पद्मासन मूर्ति अंकित है। विद्वान इन सिक्कोंको बौद्ध अनुमान करते हैं; किन्तु जब बौद्धधर्मकी उत्पत्ति ई० पूर्व छठी शताब्दिमें मानी जाती और बौद्धोंमें मूर्ति प्रथा ईस्वीसन्के प्रारम्भिक काल में प्रचलित हुई कही जती है, तब उक्त मुद्रा बौद्ध न होकर जैन होना चाहिये । उसका जैन होना अन्यथा भी संभवित है । 'विष्णुपुराण' से यह स्पष्ट ही है कि असुर लोगों में जैनधर्म का प्रचार होगया था। और उधर जैन शास्त्रोंसे कलतक सिन्ध प्रान्तमें कई एक तीर्थ होनेका वर्णन मिलता है; जिनका आज पता तक नहीं है। अस्तु; उक्त मुद्राका जैन होना भी जैनधर्मके प्राचीन अस्तित्वका समर्थक है। अतएव भगवान पार्श्वनाथको जैनधर्मका 'संस्थापक मानना नितान्त भ्रांतिपूर्ण है; किन्तु संभव है कि यहांपर कोई पाठक महोदय जैनधर्मकी प्राचीनताको प्रगट करनेवाले, हमारे अब तकके कथनको अनावश्यक खयाल करें और वह कहें कि किसी धर्मकी प्राचीनता उसकी अच्छाईमें कारणभूत नहीं होसक्ती ! वेशक उनका कहना किसी हद तक ठीक है परन्तु हमारे उक्त प्रयासको अनावश्यक बताना हमारे प्रति तो अन्याय ही है; परन्तु साथ ही उसके लिखे जानेके उद्देश्यसे अनभिज्ञताका द्योतक भी है।
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आवश्यक्ता ही आविष्कारकी जननी मानी गई है। जैनधर्म सं विद्वानोंके अयथार्थ उल्लेखोंने ही हमें बाध्य किया है कि हन जैनधर्मकी प्राचीनताको स्पष्ट करदें । साहित्य के लिये यह गौरवकी बात है कि वह नितान्त स्वच्छ, निर्भ्रान्त और यथार्थ हो । इस हेतु साहित्य हितके नाते भी हमारा यह प्रयास अनावश्यक नहीं है । तिसपर जैनधर्मकी यह बहु प्राचीनता उसके महत्वको बढ़ानेवाली ही है। बेशक उसके सिद्धांत और आचार विचार उसकी
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खूबी प्रगट करते ही हैं, परन्तु वह आर्योंका सर्व प्राचीनमत है, यह भी उसके लिये कुछ कम गौरव या महत्वकी बात नहीं है । अस्तु;
राजा विश्वसेन |
अब यह बिलकुल स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथनी न तो जैनधर्म के संस्थापक थे और न वे कोई काल्पनिक पुरुष थे । प्रत्युत वे ईसा पूर्व आठवीं शताब्दिमें हुये एक ऐतिहासिक महापुरुष थे । इस अवस्थामें इन अनुपम महापुरुषके गौरवमय जीवनचरित्रका दिग्दर्शन कर लेना समुचित और आवश्यक है । यह हम पहले ही बतला चुके हैं कि इन अनुपम तीर्थंकरका जीवन वृत्तांत जैन ग्रन्थोंमें मिलता है और यह क्षत्रिय राजकुमार थे । प्रस्तुत पुस्तकको पढ़ने से पाठकों को स्वयं मालूम होजायगा कि वे इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री राजा विश्वसेन अथवा अश्वसेन और उनकी रानी ब्रह्मादेवीके सुपुत्र थे और उनका जन्म बनारस में हुआ था । ब्राह्मण ग्रन्थों में उपरोक्त नामका कोई राजा नहीं मिलता है । हां, अश्वसेन नामक एक नागवंशी राजा का पता ब्राह्मण साहित्य में
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[१२] . चलता है। परन्तु उसे बनारसके उपरोक्त राजा अश्वसेन स्वीकार कर लेना जरा कठिन है क्योंकि वह नागवंशी हैं। इतनेपर भी जैन शास्त्रोंमें राजा अश्वसेनको उग्रवंशी बतलाना इस बातको सम्भव कर देता है कि वह नागवंशी हों, क्योंकि प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान बता दिया गया है कि 'उग्र' का सम्बन्ध 'नागों'की 'उख' नामक जातिसे प्रगट होता है । जो हो, ब्राह्मण ग्रन्थोंके अतिरिक्त बौद्धग्रन्थोंसे भी इसी नामके समान एक राजाका पता चलता है। दीघनिकायके परिशिष्टमें सात राजाजोंका नामोल्लेख है और उन्हें 'भरत' कहा गया है । इससे यह तो स्पष्ट ही है कि वह अयोध्याके राजा भरतके वंशज अर्थात इक्ष्वाक्वंशी थे । इन राजाओंमें एक वस्तभू (विश्वभू) नामक भी है । इस नामकी सादृश्यता विश्वसेन है ! किन्तु यह नहीं बताया गया है कि वह कहांके राजा थे अतएव संभव है कि यह बनारसके राना विश्वसेन हों। सारां. शतः भगवान पार्श्वनाथ और उनके पिताका अस्तित्व भारतीय साहित्य में मिलता है। भगवान पार्श्वनाथके जीवन सम्बन्धमें रचे गए साहित्यपर
यदि हम दृष्टि डालें, तो हमें कहना भगवान पार्श्वनाथजी होगा कि वह आनकल भारतेतर सासंबंधी साहित्य । हित्यमें भी उपलब्ध हैं। अमेरिकाके
बाल्टीमोर विश्वविद्यालयके संस्कृत प्रोफेसर श्री मारिस ब्लूमफील्डने श्री भावदेवसुरि कृत 'पार्श्वचरित'का
१-कैब्रिज हिस्ट्री ऑफ इन्डिया भाग १ पृ. १५४ । २-पूर्व पुस्तक पृ० १७४ ।
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अंग्रेजी अनुवाद अपनी विस्तृत भूमिका और टिप्पणियों सहित प्रकट किया है । यह “ Life and Stories of Jaina Saviour Parshvanatha " नामसे सर्वत्र प्रचलित है । दूसरा उल्लेखनीय ग्रन्थ जर्मन भाषामें “ Der Jainismus'' नामक है । इसके रचयिता बरलिन विश्वविद्यालयके प्रख्यात विद्वान् प्रा. डा० हेल्मुथ वॉन ग्लासेनाप्प हैं। आपने जैनधर्मका परिचय लिखते हुये, भगवान पार्श्वनाथनीके जीवनपर भी प्रकाश डाला है । इनके अतिरिक्त विदेशोंमें प्रकट हुई जैनधर्म सम्बंधी पुस्तकोंमें इनका उल्लेख सामान्य रूपसे भले ही हो, पर विशेष रूपसे नहीं है। इधर भारतीय साहित्यमें भगवान् पार्श्वनाथ नीके सम्बन्धमें दिगम्बर
और श्वेतांबर जैनोंके साहित्य ग्रन्थ हैं । श्वेताम्बर जैन अपने कल्पसूत्र आदि ग्रन्थोंको मौर्यकालीन श्री भद्रबाहु स्वामीकी यथावत रचना मानते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं जंचता । प्रत्युत यह कहना पड़ेगा कि यह क्षमाश्रमणके समय या उनसे कुछ पहलेकी रचनायें हैं; जब कि यह लिपिबद्ध हुई थीं। अस्तु; अबतक हमारे ज्ञानमें इस विषयके निम्न ग्रन्थ आये हैं:--
. दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थ ।।
१. प्रथमानुयोग-५००० मध्यम पद ( अर्धमागधी) महावीरस्वामी द्वारा प्रतिपादित ( अप्राप्य )।
२. पार्धनाथचरित-श्री वादिराजसूरि प्रणीत (८६९ ई.) यह माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें मूल संस्कृत और जैन सि०प्र० संस्था कलकत्ता द्वारा हिन्दी अनुवाद सहित प्रकट हो चुका है।
३. पार्श्वनाथपुराण-श्रीसकलकीर्ति आचार्यकृत (सं० १४९५)
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मूल संस्कृत और हिन्दी टीका स० । मुद्रित अप्राप्य है । प्रसिद्ध जैन भंडारोंमें इ० लि० मिलता है ।
४. पार्श्वनाथपुराण - (मूल सं०) भ० चन्द्रकीर्ति प्रथित (सं० १६५४) ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन बंबई और जैन मंदिर
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इटावा आदिमें प्राप्त है ।
५. पार्श्वाभ्युदय काव्य - श्री जिनसेनाचार्य (६५८ - ६७२ ई०) मूल और संस्कृत टीका सहित बंबईसे मुद्रित होचुका है । ६. उत्तरपुराण - श्री गुणभद्राचार्य ( ७४२ ई०) मूल संस्कृत और हिन्दी अनुवाद सहित इन्दौर से प्रकट होचुका है ।
७. पार्श्वपुराण - (सं०) वादिचंद्र प्रणीत ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवनकी चतुर्थ वार्षिक रिपोर्टके ट० ९ ( ग्रन्थसूची ) पर इसका उल्लेख है । (सं० १६८३)
८. उत्तरपुराण - प्राकृत (अपभ्रंश) में श्री पुष्पदंत कविद्वारा प्रणीत (९६५ ई०) ।
९. पार्श्वपुराण - प्रा० ( अपभ्रंश) पद्मकीर्ति विरचित । समय अज्ञात | इसकी एक प्रति सं० १४७३ फाल्गुण वदी ९ बुद्धवाकी लिपि की हुई कार आके भंडार में है ।
१०. पार्श्वनाथपुराण - छंदोबद्ध हिन्दी - कविवर भूधरदासजी कृत । (सं० १७८९) बंबई से मुद्रित हुआ है ।
११. उत्तरपुराण - छंदोबद्ध हिन्दी कवि खुशालचंदकृत । ( सं० १७९९ ) ।
१२. पार्श्वजीवन कवित्त - (हिन्दी) अलीगंज (एटा) के जैन मंदिरके एक गुटका में अपूर्ण लिखे हुए हैं।
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१३. भगवान पार्श्वनाथ - हिंदीमें मास्टर छोटेलाल द्वारा अनुवादित (मुद्रित ) ।
१४. हरिवंशपुराण - (हिन्दी) जिनसेनाचार्य के मूल ग्रन्थका हिंदी अनुवाद कलकत्तेकी जैन संस्था द्वारा प्रगट हुआ है । इसमें भी अन्य तीर्थंकरोंके साथ पार्श्वचरित लिखा हुआ है ।
।
१५. पार्श्वनाथपुराण - कनड़ी में पार्श्व पंडित ग्रथित (१२०१ ई०) आरके जैन सिद्धांत भवनकी ग्रन्थसूची में भी एक कनड़ी पार्श्वपुराणका उल्लेख है । मालूम नहीं कि वह यही पुराण है । १६. पार्श्वनिर्वाण काव्य - (सं०) वादिराज कवि प्रणीत और चारुकीर्ति कृत टीका । ( देखो दि० जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थष्ट० ९ और २५ ) ।
१७. चिंतामणि पार्श्वनाथकल्प - (सं०) धर्मघोषकृत (उपरोक्त ग्रन्थ ८० १३) ।
१८. पार्श्वनाथ भगवान - बंगला भाषा में श्रीयुत हरिसत्य भट्टाचार्य एम० ए० द्वारा 'जिनवाणी' पत्रिकामें प्रकाशित ।
१९. तीर्थंकर चरित्रे - (मराठी) तात्या नेमिनाथ पांगलकृत । २०. नागेंद्र कथा - पुण्याश्नव कथाकोष - ब० नेमिदत्त विरचिंत (सं० ) ।
२१. चामुण्डरायपुराण - श्री चामुण्डरायकृत (१० शताब्दि ) २२. लार्ड पार्श्वनाथ - अंग्रेजी में मि० हरिसत्य भट्टाचार्य कृत । 'जैन मित्रमंडल, बिल्ली' द्वारा प्रकाशित ।
श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थः-
१. कल्पसूत्र - श्रीभद्रबाहु प्रणीत (अर्धमागधी) (S. B. E.)
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२. पार्श्वनाथ चरित्र - ( सं०) श्री उदयवीर गणि (सं० १५०२) ३. पार्श्वनाथचरित्र - ( सं ० ) श्री माणिक्यचंद्र (सं० १२७६) ४. पार्श्वनाथ काव्य - (सं०) श्रीपद्मसुन्दरकृत । ५. पार्श्वनाथ चरित्र - (सं०) श्रीभावदेवसूरि |
६. शत्रुञ्जयमाहात्म्य - (सं०) के पहलेके ९७ श्लोकोंमें । ७. उत्तराध्ययन सूत्र वृत्ति - (सं०) श्रीलक्ष्मीवल्लभकृत । ८. पार्श्वनाथचरित्र - (प्रा० ) देवभद्रसूरि (सं० ११६८) - बीकानेर ग्रन्थ सूची (G. O. S) पृ० ४७ |
९. चतुर्विंशति जिनचरितम् - ( सं ० ) अमरचंद्रसूरि (पूर्व ० ४० ६९ ) १०. मगसीपार्श्वनाथ - मानविजयकृत ( ऐ० प० स० भवन,
बम्बई ) ।
११. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र - श्रीहेमचंद्राचार्यकृत | इन ग्रन्थोंके अतिरिक्त दोनों संप्रदायों में भगवान पार्श्वनाथजीके सम्बंध में अनेक स्तोत्र और पूजा ग्रन्थ भी प्रचलित हैं । इनमें से दिगम्बर संप्रदाय के विशेष उल्लेखनीय स्तोत्र और पूजा ग्रन्थ निम्नप्रकार हैं:
१. कल्याणमंदिरस्तोत्र - श्री कुमुदचंद्रकृत । २. पार्श्वनाथस्तोत्रं - पद्मप्रभदेव विरचितं । ३. चिंतामणिपार्श्वनाथस्तोत्र - प्राकृत भाषामें । ४. पार्श्वनाथस्तोत्र सटीक - पद्मनंदीकृत | ५. पार्श्वनाथ स्तोत्र - ( सं ० ) विद्यानन्दीस्वामीकृत | ६. पार्श्वनाथ अष्टक - आराके सिद्धांत भवनकी सूची में है ।
७. पार्श्व पूजा - श्रीवृन्दावनजी, मनरंगलालजी प्रभृतिकृत (हिंदी)
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८. कलिकुण्ड पार्श्वनाथपूजा-संस्कृतमें हैं। ९. पार्श्वयज्ञ-देशभक्त पं० अर्जुनलालनी सेठी प्रणीत् ।
श्वेतांबर संप्रदायके कतिपय स्तोत्र निम्नप्रकार हैं, किन्तु उनके कोई पूना ग्रन्थ हैं यह विदित नहीं है:
१. गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवन-(सं०) ऐ० ५० दि जैन भवन -सूची वर्ष १ ४० ७९ ।
२. पार्श्वनाथस्तोत्रं-(सं०) पूर्व० वर्ष २ ट० ५७. ३. पार्श्वस्तोत्रम्-(प्रा.) जैसलमेरकी सूची ० ६५ ।.
उपरोक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त अलीगंज (एटा)के श्रीशांतिनाथ 'दि० जैन मंदिरके भण्डारमें एक गुटका सं० १६०८ भाद्र वदी १३का लिखा हुआ मौजूद है। उसमें भगवान पार्श्वनाथके विषयमें निम्नप्रकार ६२ बातें कहीं गई हैं:
श्री पार्श्वनाथ जिन ६२ स्थान कथयतिः
१. श्री पार्श्वनाथ नाम, २. प्राणत विमानात्, ३. नगरी वाणारसी, ४. पिता अश्वसेन राजा, ५. माता वाम्मादेवी, ६. गर्भ वैसाख वदी २, ७. जन्म पौष वदी ११, ८. नक्षत्र विशाखा, ९. शरीर हरितवर्ण, १०. उच्चत्त हस्त ९, ११. आव वरिष १००, १२. कुमारकाल ३०, १३. राज्यकाल।।०, १४. अधिक पूर्वाग।०, १५. तप पौष वदी ११, १६. तपकाल वरिष ७०, १७. हीन पूर्वाग॥०, १८. छद्मस्थ मास ४, १९. केवल चैत्र वदी ४, २०. केवल बेला पूर्वान्हे, २१. केवलकाल पूर्वाणि, २२. पूर्वागानि॥०, २३. वरिष ६९, २४. मास ८, २५. दिन।।०, २६. समवशरण जो० १, २७. गणधर १०, २८. सर्वसंघ १६०००, २९.
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पूर्वधर ३५०, ३०. सिष्य १०९०० ३१. अवधिज्ञानी १४४, ३२. केवलज्ञानी १०००, ३३. मनःपर्यय ज्ञानी ७५०, ३४.. वैक्रियक १०००, ३५. वादिन् ६००, ३६. उग्रवंश, ३७.. राना सहतप, ३००, ३८. राना सहमोक्ष ३६, ३९. सिद्धषेत्र सम्मेदगिरि, ४०. लांछन धरणेन्द्र, ४१. जिनांतर वर्ष २५०, ४२. हीन ॥०, ४३. अनुबंधकेवली ३, ४४, संततकेवली ॥३, ४५. अर्जिका ३८०००, ४६. श्रावक १०००००, ४७. श्राविका ३०००००, ४८. जतीसिद्धगति ६२००, ४९. अनुत्तरगत ८८००, ५०. सौधर्म अनुत्तरगत १०००, ५१. वृक्षनाम धवलसर, ५२. वृक्षउच्च ध० १०८, ५३. पारणादिन ३ पाष, ५४. नगरी द्वारावहपुरी, ५५. दानपति धनदत्तु, ५६. चरु गोषीरं, ५७. रत्नवृष्टि ५८. जक्ष धरणेंद्र, ५९. जक्षणी पद्मावती, ६०. मोक्ष श्रावण शु० ७, ६१. मोक्षासन बैठो, ६२. योगध्यान मास १ ।" इस प्रकारका यह साहित्य है जिसमें भगवान पार्श्वनाथनीकी
जीवन घटनायें संकलित हैं। इन एवं चरित्र ग्रंथों में परस्पर अन्य श्रोतोंके आधारसे ही हमने भी अन्तर क्यों है ? प्रस्तुत ग्रंथकी रचना की है। इस
___साहाय्यके लिये हम इन सब ग्रन्थकारोंके मतीव कृतज्ञ हैं । किंतु यहांपर यह देख लेना भी समुचित है कि क्या इन सब ग्रन्थोंमें एक समान ही कथन है अथवा उसमें कुछ अंतर भी है । यह तो मानना पड़ेगा कि भगवानका जीवन चरित्र एक ही रूपका रहा होगा। उनके जीवनकी एक ही घटना।
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[१९] दूसरे रूपमैं मिल नहीं सक्ती । और इसलिये उनके जीवनचरित्र सम्बन्धमें जो भी ग्रंथ उपलब्ध हों, उनमें कोई भी अन्तर नहीं होना चाहिए। किंतु बात दरअसल यूं नहीं है। इन सारे ग्रन्थोंमें एक दूसरेसे विभिन्नता मौजूद है । और यह विभिन्नता केवल रचनाभेदकी नहीं है। प्रत्युत जीवन घटनाओंकी है । दिगंबर और श्वेतांबर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें आम्नाय भेदके अनुकूल विपरीतता रहना प्राकत सुसंगत है; परन्तु स्वयं दिगंबर संप्रदायके ग्रन्थोंमें भी न्यून रूपमें यही बात देखनेको मिलती है । बेशक उनमें जीवन घटनाओंमें अन्तर नहीं है। परन्तु विवरणमें है । लेकिन प्रश्न यह है ऐसा क्यों है ? इसके उत्तरमें हम स्वयं कुछ न कहकर प्रसिद्ध विद्वान् स्व. पं० टोडरमलनीके निम्न शब्दोंको उद्धत कर देना पर्याप्त समझते हैं
__ "ऐसे विरोध लिये कथन कालदोषसे भये हैं। इस काल विर्षे प्रत्यक्षज्ञानी व बहुश्रुतीनिका तो अभाव भया और स्तोकबुद्धि ग्रन्थ करनेके अधिकारी भये, तिनको भ्रमसे कोई अर्थ अन्यथा भासा तिसको तैसा लिखा अथवा इस काल विर्षे कई जैनमत बिर्षे भी कषायी भये हैं। कोई कारण पाय अन्यथा कथन उन्होंने मिलाये हैं । इसलिये जैनशास्त्रोंके विर्षे विरोध भासने लगा । सो जहां विरोध भासे तहां इतना करना कि इस कथनवाला बहुत प्रामाणिक है या इस कथनवाला बहुत प्रामाणिक है। ऐसा विचार कर बड़े आचार्यादिकनिकरि कहा कथन प्रमाण करना । इत्यादि"
-मोक्षमार्ग प्रकाशक अधि० ८। अतएव काल महाराजकी कपासे प्रत्येक ग्रंथकारने निस
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। ६०
भाधारसे जो बात ठीक समझी, उसको दिगम्बर शास्त्रोंमें प्रगट कर दी। उनके लिये और कोई सामान्य अन्तर है। उपाय शेष न था । यह हम भी पहले स्वी
कार कर चुके हैं कि आजकलके अल्पज्ञ मानवोंके लिये यह संभव नहीं है कि वह पुरातनकालमें हुये महापुरुषोंके जीवनचरित्र यथाविधि ठीक लिख सकें । जो कुछ उपलब्ध साहित्य और अनुमान प्रमाणसे उचित प्रतीत होगा वह उसीको लिख देंगे । किन्तु इसके यह भी अर्थ नहीं है कि जिनवाणी पूर्वापर विरोधित है । यह किसी तरह भी संभव नहीं है । जैन सिद्धान्त अथवा दर्शन ग्रंथ बड़ी होशियारीके साथ सम्भालकर रक्खे गये हैं । यही कारण है कि उनमें किंचित भी अन्तर नहीं पड़ा है । जो जैन सिद्धान्त भगवान महावीरजीके समय एवं उनसे पहले जैनधर्ममें स्वीकृत थे, वही आज भी जैनधर्ममें मोजूद हैं । यह हमारा कोरा कथन ही नहीं है। प्रत्युत जैनग्रंथोंका आभ्यन्तर स्वरूप और बौद्धादि ग्रन्थोंकी साक्षी इसमें प्रमाणभूत है । इसके लिये हमारा " भगवान महावीर और म० बुद्ध" नामक ग्रंथ देखना चाहिये । अस्तु, जैनसिद्धान्तके अक्षुण्ण रहते हुये भी, यद्यपि उसमें भी विकृति लानेके प्रयत्न हुये थे जिसके फलरूप श्वेताम्बरादि आम्नाय निग्रन्थ संघमें भी मौजूद हैं, जैनपुराण ग्रंथोंमें भेद मौजूद है । यह क्यों और कैसे है यह ऊपर बताया ही जाचुका है । अतएव यहांपर हम पहिले दि. जैन संप्रदायके 'पार्श्वचरितों' में परस्पर भेदको देखनेका प्रयत्न करेंगे । सचमुच यह प्रभेद कुछ विशेष नहीं है । इससे भगवानके जीवनचरित्रमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है यह सामान्य
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है और उपेक्षा करने योग्य है । किन्तु इसपर भी उसको प्रगट कर देना साहित्यिक स्पष्टता के लिये आवश्यक है । अतएव उस ओर दृष्टि डालने पर हमें पहले ही भगवान् पार्श्वनाथनीके प्रथम भवांतर वर्णनमें अन्तर मिलता है । श्री गुणभद्राचार्य, सकलकीर्ति, चंद्रकीर्ति, (१।११९ - ११७) और भूधरदास (१-१०२) कृत ग्रन्थों में कमठके भाई मरुभूतिको उसकी खबर किसी राह चलते भीलसे पाने का कि नहीं है; परन्तु वादिराजसूरिजी के ग्रन्थ में (सर्ग २ श्लो० ६३-६४ ) यह विशेषता है। श्री जिनसेनजी के ' पाश्वभ्युदय काव्य ' में पूर्वभवों का उल्लेख वर्तमान रूपमें है । अगाड़ी अरविंदराजा मुनि समागमका उल्लेख प्रायः सबमें मिलता हैं; परंतु वादिराजसु रिजीके ग्रन्थमें उन मुनिराजका नाम 'स्वयंप्रभ और उनके आगमन की सुचना माली द्वारा राजापर पहुंचानेका विशेष उल्लेख है । (स० २ श्लो० १०२) मरुभूति की मृत्यु उपरांत सलकीवन में हाथी उत्पन्न होने का उल्लेख भी सबमें है; किंतु वादिराजसूरिजी ग्रंथ में यहां भी विशेष रूपमें उस हाथी के माता पिताका नाम वर्बरी और पृथ्वीघोष लिखा है (स० ३ श्लो० ३८-३९ ) फिर राजा अरविंदके मुनि होजानेपर, उन्हें एकदा वैश्यसंघ साथ तीर्थोंकी वन्दना निमित्त जाते हुये और सल्लकी वन में शशिगुप्त आदि श्रावकोंको उपदेश देते, इस ग्रन्थ में लिखा है । (म० ३ श्लो० ६१ - ६१ ) किन्तु सकलकीर्तिनी (२/१६१७), गुणभद्राचार्यजी (७३ | १४) चंद्रकीर्तिजी ( २४/२ ) के ग्रन्थोंमें उन्हें संघ सहित श्री सम्मेदशिखरजीकी यात्रा के लिये जाते लिखा है । उत्तरपुराण (७३/२४), सकलकीर्तिजीके पार्श्व
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[६२] चरित (२।५३) में वज्रघोष गजराजको सहस्रार स्वर्गमें स्वयंप्रभ देव होते लिखा है; किंतु वादिराजमूरिने उसे महाशुक्र स्वर्गमें शशिप्रभदेव लिखा है । (३।१०८) इन्होंने लोकोत्तमपुरके राजाका नाम विद्युद्वेग और उसके पुत्र का नाम रश्मिवेग लिखा है (४।२७); परंतु उत्तरपुराण (७३।२४-२५), सकलकीर्तिनी (२।१०), चंद्रकीर्तिजी (३।१४०) और भूधरदासनी(२।६९-७१)ने राजाका नाम विद्युत्गति और पुत्र का नाम अग्निवेग बताया है । चन्द्रकीर्तिजीने पिताकी आज्ञानुसार अग्निवेगका किसी विद्याधरसे संग्रामकरनेका भी उल्लेख किया है । (६।४) वादिराजसूरिनीने विजया रानीके सबको विजय करनेवाला दोहला होते लिखा है। (४।१२-१४) उत्तरपुराणमें न दोहला है और न स्वप्नोंका जिक्र है (७३।३१-३२)। किन्तु शेष सबमें स्वप्न देखनेका उल्लेख है । वादिराजनीके ग्रन्थमें वजनाभि चक्रवर्तीको सूखा वृक्ष देखकर विरक्त होते और क्षेमकर मुनिके पास जाते लिखा है ( १७२-७३ ) किन्तु उत्ता पुराण (७३-३४), सकलकीर्तिनी (५/३), चन्द्रकीर्तिनी ( ५।२-४ )
और भूधरदास नी (३।७४)ने उनको क्षेमंकर मुनिका उपदेश सुनकर विरक्त होते बताया है। अगाड़ी सकलकीर्तिनी (५।९४), चंद्रकीर्तिनी (१८८-९०) और भूधरदासनीने (३।१०७) वजनामि मुनिको वनमें रहते हुये कुरङ्ग भील द्वारा उपसर्गीकत होते लिखा है । परन्तु पार्श्वचरित (८,८०)में वनके स्थानपर विपुलाचल पर्वत बताया है और उत्तरपुराणमें (७३।३८) वन और पर्वत किसीका भी उल्लेख नहीं है । अगाड़ी वादिराजमरिनी राजा आनंदको निनयज्ञ (जिनेन्द्र पूना) करते और मुनि आगमन हुआ बतलाते हैं।
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• (९/१ - ३) उनने मंत्रीकी प्रेरणाका उल्लेख नहीं किया है और न मुनिवरका नाम बताया है । किन्तु उत्तरपुराण (७३।४४-४५), सकलकीर्तिजी (७१३९-४१), चंद्रकीर्ति ( ६४५ - १० ) और भूधरदासजी (४।१८ - २४ ) ने स्वामिहित मंत्रीकी प्रेरणा से आनंद • राजाको जिनयज्ञ रचते और विपुलमती मुनिराजको आते लिखा है । उत्तरपुराण (७३|१८-६०) सकलकीर्ति और भूधरदासजी (४ |६०) ने राजा आनंद के समय से सूर्य पूजाका प्रचार हुआ लिखा है। किंतु वादिराजसूरिजी के ग्रन्थमें (स०९ ) और चंद्रकीर्तिजीके चरित (६/८१ - ८८ ) में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । वादिराजजीने राजा आनंदको सफेद बाल देखकर निधिगुप्त मुनिराजके समीप दीक्षा लेते लिखा है । ( ९/३४-३८) किंतु चंद्रकीर्तिजीने यद्यपि सफेद बाल देखनेकी बात लिखी है । परन्तु मुनिका नाम सागरदत्त लिखा है । ( ६ ९३ व १२४ ) और सकलकीर्तिजीने मुनिका नाम समुद्रदत्त बतलाया है ( ८ (२६), यही नाम उत्तरपुराण में भी है । (७३ | ६१) भूधरदासजीने सागरदत्त लिखा है । नाम अगाड़ी वादिराजसूरिजीने भगवान के पिताका नाम विश्वसेन (९/६९) और माता ब्रह्मदत्ता (९/७८) बताई हैं; परन्तु उनने इनके कुलवंशका उल्लेख नहीं किया है । उतरपुराण में राजा-रानीका नाम क्रमशः विश्वसेन और ब्रह्मा देवी (७३/७४) लिखा है, तथा उनका वंश उग्र (७३|९५) और गोत्र कश्यप (७३/७४) बताया है । सकलकीर्तिजी, चंद्रकीर्तिनी और भूधरदासजीने काश्यपगोत्र और वंश इक्ष्वाकू लिखा है । परन्तु भूवरदासजीके अतिरिक्त उनने राजाका नाम विश्वसेन बताया है । भूरदास जी उन्हें अश्वसेन
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[६४] बतलाते हैं। (५।६५) हरिवंशपुराणमें भी यही नाम है (ए०५६७) सकलकीर्तिनी रानीका नाम ब्राह्मी (१०४१) और चंद्रकीर्तिनी ब्रह्मा ( ८1५१ ) बतलाते हैं। किंतु हरिवंशपुराणमें उनका नाम वर्मा लिखा है । (ए० ५६७) भूघरदासजी उन्हें वामादेवीके नामसे लिखते हैं.। (५/७१) पाश्र्वाभ्युदय काव्यमें उनकः उग्रवंश लिखा है (श्लो० २) किन्तु आदिपुराण (अ. १६)में आदिवंश इक्ष्वाक्से ही शेष वंशोंकी उत्पत्ति लिखी है। शायद इसी कारण भगवानको किन्हीं आचार्योने उग्रवंशी और किन्हींने इक्ष्वाक्वंशी लिखा है । वादिराजसुरिजीने भगवानकी गर्भ तिथि नहीं लिख' है । शेष सब ग्रंथोंमें वैशाख कृष्ण द्वितीया विशाखा नक्षत्र (निशात्यये) लिखी हुई है । वादिराजसूरिजी जन्मादि किसी भी तिथिका उल्लेख नहीं करते हैं; किन्तु और सब jथ उनका उल्लेख करते हैं | वादिराजमूरिजी 'भगवानने आठ वर्षकी अवस्थामें अणुव्रत धारण किये थे। इसका भी उल्लेख नहीं करते हैं। उत्तरपुराण और हरिवंशपुराणमें भी यह उल्लेख नहीं है । वादिराजनीने भगवानके पिता द्वारा उनसे विवाह करनेके लिये अनुरोध किया था, उसका उल्लेख महीपाल साधुसे मिलनेका बाद किया है और उससे ही उन्हें वैराग्यकी प्राप्ति होते लिखी है (११।१-१४) परन्तु उभमें अयोध्याके राजा जयसेन द्वारा भेट भेननेका निक नहीं है । उत्तर पुगणमें ( ७३ १२० ) जयसेनका उल्लेख है । परन्तु उसमें भी राजा विश्वसेनका भगवानसे विवाह करने के लिए कहनेका निकर नहीं है। शेष हरिवंशपुराणको छोड़कर सब ग्रन्थोंमें यह उल्लेख है। वादिराजसुरिके चरित्र में ज्योतिषीदेवका नाम भृतानंद और शेष
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[ ६५ ]
ग्रंथोंमें सेवर है । इस ग्रंथ में भगवान के दीक्षावृक्षका भी नाम नहीं लिखा हुआ है । हरिवंशपुराण में उसका नाम धव है । (ट० ६६७) सकलकीर्तिमी और भूवरदासनीने उसे बड़का पेड़ बतकाया है। उत्तरपुराण और चन्द्रकीर्ति कृत चरित्रमें केवल शिलाका उल्लेख है । (चंद्रकांत शिलातले ) । हरिवंश में दीक्षावन अश्ववनके. स्थानपर मनोरम वन है । तीनसौ राजाओंके साथ दीक्षित होना भी वादिराजजी और गुणभद्राचार्यजीने नहीं लिखा है । शेष सबने लिखा है । जिनसेनाचार्यने उनकी संख्या ६०६ बताई है (८७५-७६) पार्श्वभगवान पारणाके लिए गुल्मखेटपुर में गए थे, यह बात उत्तरपुराण (७३ | १३२) वादिराजसूरिचरित (११।४५ ) सकलकीर्तिपुराण, चंद्रकीर्तिचरित् (१२/१० ) और भूधरदासनी (८/३) ने स्वीकार की है; किन्तु हरिवंगपुराणमें यह काम्याकृतनगर बताया गया है ( पृ० १६९) दातारका नाम सकलकीर्तिजी और भूवरदासजीने ब्रह्मदत्त लिखा है; परन्तु वादिराजजीने घर्मो - दय (११।४ ), और गुणभद्राचार्यने (७३|१३३), जिनसेनाचार्य (g० १६९) और चंद्रकीर्तिजी (१२।१३) ने धन्य राजा लिखा है । केवलज्ञानकी तिथि अन्य ग्रन्थोंमें चैत्र कृष्णा चतुर्दशी लिखी है; ; परन्तु हरिवंशपुराण में चैत्र वदी चौथको दोपहरके पहले केवलज्ञान हुआ लिखा है । ( ० १६९) उत्तरपुराण सकलकीर्तिकृत पुराण, चन्द्रकी र्तिकृत चरित और भूधरदास प्रथितपुराणमें १६००० साधुओंकी संख्या इस तरह बताई हैं:
(१) दश गणधर, (२) ३५० पूर्वधारी (३) १०९०० शिक्षक साधु, (४) १४०० अवधिज्ञानी, (६) १००० केवलज्ञानी,
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(६) १००० विक्रियाधारी, (७) ७५० मनःपर्ययज्ञानी, (८) ६०० वादी। - हरिवंशपुराणमें इनकी संख्या निम्न प्रकार लिखी है और वादिराजमूरिने लिखी नहीं है:
(१) १० गणधर, (२) ३५० वादी, (३) १०९०. शिक्षक, (४।१४०० अवधिज्ञानी, (५) १००० केवलज्ञानी, (६) १००० विक्रियाधारी, (७, ७५० विपुलमती : ८) ६०० वादी। हरिवंशपुराणमें आर्यिका ३८०००, श्रावक एक लाख और तीन लाख श्राविकायें लिखी हैं। उत्तरपुराण, सकलकीर्तिकृत पुराण, चन्द्रकीर्तिकृत चरित और भूधरदासनी प्रणीत पुराणमें श्रावक और श्राविकाओं की संख्या हरिवंशपुराणके समान लिखी हैं; परन्तु आर्यिकाओं की संख्या भूघरदामजीके अतिरिक्त सबने ३६००० लिखी है । भूधरदासनीने २६००० बतलाई है। उत्तर पुराण, सकलकीर्ति, चन्द्रकीर्ति और भूधरदासनीके ग्रन्थोंमें भगवानको मोक्ष लाभ प्रतिमायोगसे प्रातःकाल हुआ लिखा है; किन्तु हरिवंशपुराणमें कायोत्सर्गरूपसे सायंकालको हुआ बतलाया है। भूधरदासनी ३६ मुनीश्वरों के साथ मोक्ष गये बतलाते हैं; जिनसेनाचार्य इनकी संख्या ५३६ लिखते हैं । हरिवंशपुराणमें भगवानके कुल ६०२०० शिष्योंको मोक्ष गया लिखा है और उनके बाद तीन केवलज्ञानियों का होना बतलाया है। इस तरहपर संक्षेपमें दिगम्बर ग्रन्थों का परस्पर भेद निर्दिष्ट किया गया है । यह विशेष नहीं है । साधारण है और इसलिए कुछ भी नहीं है.। श्वेतांबर संप्रदायके ग्रंथों के समान वह नहीं है । श्वेतांबर संप्रदायके ग्रंथों में परस्पर एक दूप
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[६७]
रेसे बहत विरोध है । जो बातें उनके प्राचीन ग्रंथोंमें नहीं हैं, वह अर्वाचीन ग्रन्थों में हैं । किन्तु दिगम्बर शास्त्रोंमें ऐसी बात नहीं है। उनमें प्राचीन घटनाक्रममें किंचित भी भेद नहीं मिलता है। श्वे. ग्रंथोंमें सर्व प्राचीन कल्पसूत्र हैं; और उसमें भगवानके विवाह करनेका उल्लेख बिलकुल नहीं है, परन्तु किन्हीं दिगम्बर जैन शास्त्रोंसे भी उपरांतके रचे हुए श्वे शास्त्रोंमें भगवानके विवाह करनेका उल्लेख है । यह संभवतः श्वे. दि के पारस्परिक सांप्रदायिक विद्वेषके परिणाम स्वरूप है । अस्तु; जो हो यहांपर श्वेतांबरोंके ग्रन्थोंमें जो परस्पर भेद है उसको भी प्रगट कर देना अनुचित न होगा। कल्पसूत्रमें (१४९-१६९) विवाहके अतिरिक्त भगवानके
पूर्वभवोंका भी उल्लेख नहीं है । उसमें श्वेताम्बर शास्त्रों में कमठ और नागरान 'धरण' (धरणेन्द्र) परस्पर विशेष का भी निकर कहीं नहीं है। शेष माता अन्तर है। पिता, जन्म, नगर, आयु आदिमें अन्य
. चरित्रोंमें समानता है । किन्तु भावदेवसूरिनीके चरित्र और कल्पसूत्रमें जो उनके शिष्योंका वर्णन दिया है, उसमें विशेष अन्तर है। कल्पसूत्रमें आठ गण और आठ गणधर(१) आर्यघोष, (२) शुभ, (३) वशिष्ठ, (४) ब्रह्मचारिण, (६) सौम्य, (६) श्रीधर, (७) वीरभद्र, (८) और यशप्स लिखे हैं । भावदेवसूरिने दश गणधर-(१) आर्यदत्त, (२) आर्यघोष, (३) वशिष्ठ, (४) ब्रह्मनामक, (५) सोम, (६) श्रीधर, (७) वारिषेण, (८) भद्रयशस, (९) जय, (१०) और विनय बताये हैं । (६)
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[ ६८ ]
१३५० - १३६०) कल्पसूत्रमें आर्यदत्तकी संरक्षतामें १६००० श्रमण, पुष्पकला आर्थिकाकी प्रमुखता में ३८००० आर्यिकायें, १६४००० श्रावक और ३२७००० श्राविकायें बतलाये हैं । भावदेवसू र ग्रन्थमें यह संख्या इस रूपमें देखनेको नहीं मिली है । शत्रुञ्जय माहात्म्य (१४१ - ९७ ) में भी पूर्वभवों का वर्णन नहीं है । उसमें प्राप्त रूप से भगवानका चरित्र प्रारम्भ किया गया है। इसमें कम उल्लेख संक्षेप में है । (१४-४२. दशभवारतिः कठासुरः), विवाहका उल्लेख इसमें भी है; परन्तु इसमें पार्श्वनाथनीकी पत्नी प्रभावतीको प्रसेनजितुके स्थान पर नरवर्मनकी पुत्री लिखा है । प्रसेनजित नरवर्मनका पुत्र । भावदेवसूरिजीने प्रभावतीको प्रसेनजितकी पुत्री लिखा है ( १ / १४५ .... ) किन्तु बौद्धादि ग्रन्थोंसे प्रगट है कि प्रसेनजित म बुद्धके समकालीन थे ।' इस अवस्थामें न वह और न उनके पिना भगवान पार्श्वनाथजी के समय में पहुंच सक्ते हैं । इस कारण उनका यह कथन निःमार प्रतीत होता है कि भगवान् पार्श्वनाथनका विवाह हुआ था । उनके कल्पसूत्रादि प्राचीन ग्रंथों में इसका कोई उल्लेख नहीं है, यह हम पहले ही कह चुके हैं । किंतु इनके उपयन्तके ग्रन्थोंमें पूर्वभव वर्णन आदिके विशेष उल्लेख संभव्रतः दिगम्बर सम्पदायक ग्रन्थोंके आधारपर इस ढंगसे लिखे गए होंगे कि वह स्वतंत्र और यथार्थ प्रतीत हों । अतएव निम्न में दि० और श्वे० ग्रन्थोंमें जो परस्पर भेद है उसको देख लेना भी आदश्यक है ।
C:
० के भावदेवसूरिकृत पार्श्वचरितसे ही हम इस प्रभेदका १- क्षत्रिय क्लेन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया, पृ० १२८ - १२९ ।
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[६९]
निरीक्षण करते हैं। पहले मरुभूतिभवमें दिगंबर और श्वेतांबर विश्वभूतिके साधु हो स्वर्गवासी होनेपर शास्त्रों में परस्पर भेद। कमठ और मरुभूतिको विशेष शोक करते
और हरिश्चंद्र नामक माधुसे प्रतिबो धेत होनेका जो उल्लेख भावदेवमुरिने किया है वह दिगम्बर शास्त्रों में नहीं है । फिर उनने मरुभूतिकी स्त्री वसुन्धराको कामसे जनरित
और कमठके साथ उसके गुप्त प्रेमको मरुभूति भेष बदलकर जान लेने तथा रानासे उसे दंडित कराने इत्यादिक बातें कहीं हैं वह भी दिगंबर शास्त्रोंमें नहीं हैं । दिगम्बरशास्त्रोंमें वसुन्धरा पहले शीलवान् ही बतलाई गई है और मरुभूतिको भ्रातृप्रेममें संलग्न तथा राजाका कमठके अन्यायके लिए उसे दंड देनेपर मरुभूतिका उसे क्षमा करने आदिकी प्रार्थना करते वतलाया गया है । दि. शास्त्र में राना अरिविन्द और मरुभूतिक एक संग्रामपर जानेका विशेष उल्लेख है। राजा अरिविन्दके मुनि हो जानेपर श्वेतांबराचार्य उन्हें मागरदत्त श्रेष्टी आदिको जैनधर्मी बनाते और उनके साथ जाते हुये हाथीका उनपर आक्रमण करते लिखते हैं; परन्तु दि० शास्त्र तीर्थयात्रापर जानेका उल्लेख करते हैं । दिगम्बर शास्त्र अग्निवेगका जन्म स्थान पुष्कलावती देशका लोकोत्तरपुर नगर और उसकी माताका नाम बिद्युत्माला बतलाते हैं; परन्तु श्वे. शास्त्रमें तिलकानगर और तिल कापती अथवा कनकतिलका माता बताई गई हैं। इनमें अग्निवेगका नाम किरणवेग है। वह अपने पुत्र हिमगिरिको राज्य दे मुनि हुआ दि० शास्त्र बताते हैं । श्वे. कहते हैं कि उसके पुत्र का नाम किरणतेनस था और वह मुनि हो वैतान्यपर्वतपर एक मूर्ति के सहारे
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[७.] तपस्या करता रहा। श्वेतांबराचार्य अगाड़ी वजनाभिको जन्मसे मिथ्यात्वी और साधु लोकचंद्र द्वारा सम्यक्त्वी लाभ करते बतलाते हैं। वह उसके पुत्रका नाम शक्रायुध कहते हैं। दिगम्वर शास्त्र उनको जन्मसे जैनी बतलाते और उनके पुत्रका नामोल्लेख नहीं करते हैं । वजनाभिका जन्मस्थान श्वेतांबर शुभंकरा नगरी बतलाते और उनकी माताका नाम लक्ष्मीवती और स्त्री विजया बताते हैं। दि० शास्त्रोंमें जन्मस्थान अपरविदेहके पद्मदेशका अश्वपुर और उनकी माता व पत्नीके नाम क्रमशः विजया और शुभद्रा प्रगट करते हैं। श्वेताम्बर शास्त्र कुरंगक भीलको ज्वलन पर्वतमें रहते बताते हैं। दिगम्बर शास्त्रोंमें ज्वलन पर्वतका कोई उल्लेख नहीं है। वजनाभिकी कुरंग भीलके हाथसे मृत्यु हुई बताकर श्वे. शास्त्र उसे ललितांग स्वगंमें देव होते और वहांसे चयकर सुरपुरके राजा वजबाहुकी पत्नी सुदर्शनाके गर्भ में आते लिखते हैं। इनकी कोखसे, जन्म पाकर वह उसे स्वर्णबाहु नामक चक्रवर्ती राजा होते लिखते हैं किंतु दिगम्बर शास्त्रोंमें वजनाभिको चक्रवर्ती बताया गया है। इस भवमें तो मरुभुतिका जीव मध्यम ग्रैवेविकसे चयकर आनन्द नामक महामण्डलीक राजा हुआ था, यह दिगंबर शास्त्र कहते हैं । किंतु दोनों सम्प्रदायके ग्रंथोंमें इनके पिताका नाम वज्रबाहु ही है । दिगम्बर शास्त्र इनको अयोध्याका राजा बताते हैं और इनकी रानीका नाम प्रभाकरी लिखते हैं। श्वे. शास्त्र यह भी कहते हैं कि स्वर्णबाहुको एक दफे उनका घोड़ा ले भागा और वह साधुओंके एक आश्रममें पहुंचे। वहां रत्नपुरके विद्याधर राजाकी कन्या पद्मापर वह आसक्त हुये और उसे ले भागे । इस पद्माके सम्बंधियोंकी सहायतासे वह
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[ १ ]
चक्रवर्ती राजा हुये बताये गये हैं । पद्मा हरणकी कथा बहुत कुछ संस्कृतके शकुन्तला नाटककी वार्तासे मिलती जुलती है । दिगम्बर शास्त्रों में यह कुछ भी उल्लेख नहीं है। इसके स्थानपर उनमें आनन्द राजाको पूजा करते और उनके सूर्यविमानस्थ मंदिरोंकी पूजा करने से 'सूर्य पूजा' का प्रारम्भ होता लिखा है | आनन्द मुनि होनेपर कमठके जीव शेरने उनकी जीवनलीला समाप्त कर दी थी। वे भौतिक शरीर छोड़कर आनत स्वर्गमें देव हुये । श्वे ० शास्त्र स्वर्णबाहुके मुनि होने और शेर द्वारा मारे जानेको तो स्वीकार करते हैं, परन्तु उन्हें महाप्रभा विमान में देव होते लिखते हैं। यहांसे चयकर यह जीव इक्ष्वाकुवंशी राजा अश्वसेन और रानी वामाके यहां बनारस में श्री पार्श्वनामक राजकुमार होते हैं, यह बात दोनों संप्रदाय के शास्त्र स्वीकार करते हैं । किन्तु श्वे० शास्त्र में जो उनका पार्श्व नाम इस कारण पड़ा बताया है कि उनकी माता ने अपने 'पार्श्व' (बगल में एक सर्पको देखा था, दिगंबर शास्त्रोंके कथनसे प्रतिकूल है। उनमें इन्द्रने भगवानका चमकता हुआ पार्श्व देखकर उनका नाम पात्र रक्खा था, यह लिखा है । दि० शास्त्र उनके विवाह की वार्तासे भी सहमत नहीं हैं । श्वे० शास्त्र में कमठके जीवको नर्क से निकलकर रोर नामक ब्राह्मणका कठ नामका पुत्र होते बतलाया है । पर दिगंबर शास्त्र कहते हैं कि कमठका जीव नर्क में से निकलकर संसार में किंचित रुलकर महीपालपुरका राजा महीपाल हुआ, जो भगवान पार्श्वनाथका इस भवमें नाना था । इसप्रकार पार्श्वजीके अंतिम संसारी जीवनमें कमठसे उनका सम्बंध पुनः उनके प्रथम भव जैसा होजाता है । आखिर में दोनों
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[१]
संप्रदाय के शास्त्र कमठ जीवको पंचाग्नि तपता हुआ साधु और उससे भगवान पार्श्वका समागम लिखते हैं । इ० शास्त्र सर्पको पाताल लोक में धारण नामक राजा और कमठ जीवको मेघमालिन असुर होता लिखते हैं । दि० शास्त्र सर्पको घरणेन्द्र और कमठ जीवको संवर नामक ज्योतिषीदेव हुआ बतलाते हैं । दोनों संप्रदाय भगवानको तीस वर्ष की अवस्था में दीक्षा धारण करते प्रगट करते हैं; किंतु खे० शास्त्रोंमें दीक्षावृक्ष अशोक है और दि० शास्त्रों में वह बड़का पेड़ बताया गया है । उसी तरह उनके दीक्षा लेनेका कारण भी दोनों आम्नायोंके ग्रंथों में विभिन्न है । दिगम्बर शास्त्र छद्मस्थावस्थामें उन्हें मौन धारण किए हुए बताते हैं; परंतु भावदेवसूरिके चरितमें उन्हें तब भी उपदेश देते लिखा है । यह बात उनके आचारांगसूत्र के कथनसे भी बाधित है; जिसमें तीर्थंकर भगवानको इस दशा में मौनवृत गृहण किए हुए विचरते लिखा है । उपरांत श्वेताम्बराचार्य असुरद्वारा भगवान पर उपसर्ग हुआ बतलाते हैं और उसके अन्तमें उसे भगवानकी शरण में आया कहते हैं । किन्तु दि० शास्त्र समोशरण में उसे सम्यक्त्तत्वकी प्राप्ति हुई बतलाते हैं । उपसर्ग होनेके बाद वह काशी पहुंचे थे, यह श्वे. कहते हैं । परन्तु दिगंबर शास्त्रों में यह घटना स्वयं काशी में हुई बताई गई है । मोक्ष पानेपर भगवान् के निर्वाण स्थान पर देवेन्द्र ने रत्नजटित स्तूप बनाया था, यह भी श्वे ० शास्त्र कहते हैं । दिगंबर ग्रन्थों में शायद कोई ऐसा उल्लेख नहीं है । कल्पसूत्र में गर्मतिथि चैत्रकृष्णा ४ समय अर्धरात्रि लिखी है । दि• शास्त्र में यह वैशाखकृष्ण २ समय अर्धरात्रि बताई गई है । हां,
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[५३] दोनों संप्रदायके ग्रन्थों में भगवान के पांचोंकल्याणकोंको विशाखा नक्षत्रमें घटित हुआ बतलाया गया है । जन्मतिथि भी दि शास्त्रमें श्वे के पौषकृष्ण १०के स्थानपर पौषकृष्ण एकादशी है । हां, दीक्षातिथि दोनों संप्रदायोंमें एक मानी गई है । पालक का नाम कल्पसूत्रमें 'विशाला' और दि० शास्त्रमें 'विमला' है । दीक्षा समय दि० शास्त्र भगवानको दिगंबर मुनि हुआ बतलाते हैं; परन्तु श्वे. शास्त्र उन्हें देवदूष्य वस्त्र धारण करते हुये लिखते हैं; यद्यपि उनका यह कथन निःसार है, क्योंकि पहले तो उन्हींके शास्त्रोंमें साधुकी सर्वोच्चदशा नग्न बताई है और उसका अभ्यास तीर्थंकरोंने किया, ऐसा लिखा है । तिसपर इसके अतिरिक्त बौद्ध और वैदिक मतोंके ग्रंथोंसे भी भगवान् महावीरसे पहले के जैन साधुओं का भेष नग्न ही प्रमाणित होता है। वैदिककालके जैन यति अथवा ज्येष्ठ व्रात्य नन होते थे, यह हम किंचित् ऊपर देख ही चुके हैं । अस्तु; श्वे के इस कथनपर सहसा विश्वास नहीं किया जासक्ता । अगाड़ी दि. शास्त्र भगवान् की छद्मस्थावस्था ४ मास और केवलज्ञान प्राप्तिकी तिथि चैत्रकृष्ण चतुर्दशी कहते हैं । श्वे • यह अवधि ८३ दिनकी
और उक्त तिथि चैत्र कृष्ण चतुर्थी बतलाते हैं । दिगंबर शास्त्रमें गण और गणधर दश बताये गए हैं; जैसे भावदेवमूरिने भी बताये हैं, परन्तु कल्पसूत्र में वे ८ ही हैं । मुनियोंकी संख्या दिगम्बर शास्त्रोंमें भी १६० ० ० बताई गई है; परन्तु आर्यिकाओंकी संख्या श्वे से विपरीत उनमें ३६००० है । श्रावक भी एकलाख और श्राविका तीनलाख बताये गए हैं । सम्मेदशिखरसे मुक्त हुए दि.
१-भगवान महावीर और म• बुद्ध पृ. ६४-६५ ।
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[७] शास्त्र भी स्वीकार करते हैं, परन्तु उनका कथन है कि भगवान्ने एक मासका योग साधन किया था और श्रावन सुदी ७ को ३६. मुनीश्वरोंके साथ मुक्तिलाभ किया था। कल्पसूत्रमें उन्हें श्रावण शुक्ला को ८३ व्यक्तियों सहित निर्वाणपद पाते लिखा है । इस प्रकार दोनों आनायके शास्त्रोंमें भगवान् पाश्वकी जीवनीमें परस्पर भेद है। श्वेताम्बरोंके अर्वाचीन ग्रंथों, जैसे भावदेवमूरिके चरितमें जो पूर्वभव वर्णन है, वह संभवतः दिगम्बर शास्त्रोंसे लिया गया है क्योंकि उसमें कुछ विशेष अन्तर नहीं है और वह वर्णन उनके प्राचीन ग्रन्थों में नहीं मिलता है । तिसपर भावदेवसुरि नो दिगंबराम्नायके अनुसार दश गणधर बतलाते हैं, वह भी इसी आधारका सूचक है । परन्तु इसको निर्णयात्मक रूपसे स्वीकार करना जरा कठिन है। किन्तु अनुमान श्वे० कथनको दिगम्बर शास्त्रोंका ऋणी बतलाता है। यह भी ध्यान रहे कि भावदेवमूरि आदिके पार्श्वचरित दिगम्बरोंके पार्श्वचरित आदिसे उपरांतकी रचना है । अस्तु; भगवान पार्श्वनाथनीके पूर्वभव वर्णनमें निस प्रकार मरुभूति
और कमठके भवसे परस्पर दो जीवोंमें भारतीय साहित्यमें दशमें भक्तक शत्रुता चली आई बतलाई ऐसी अन्य गई है, वह जीवोंके कषायभावोंकी तीव्रता कथायें और उसके कटुकफलकी द्योतक है और
. भारतीय साहित्यमें ऐसे ही अन्य उल्लेख भी मिलते हैं । चित्त और सम्भूतकी कथा इसी तरह दो जीवोंका जन्मान्तरतक एक दूसरेका सहायक प्रकट करती है। सनत्कुमारकी
१-ब्रह्मदत्तकथा-वाइना जर्नल ऑफ ओरियन्टल स्टडीज, भा०५व ६।
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[ ७५ ]
कथा तो बिल्कुल पार्श्वनाथजीके पूर्वभववर्णन के ढंगकी है ।' उसमें भी वैरभावी मुख्यता है । यही हाल प्रद्युम्नसूरिकी समगदित्य कथाका है; जिसमें राजकुमार गुणसेन और ब्राह्मण अग्निशर्मन् के पारस्परिक विद्वेषका खासा दिग्दर्शन कराया गया है। बौद्धोंके 'धम्मपद' में (२९१) भी एक कथा इसी जन्मजन्मांतर में वैरभावकी द्योतक है। इसी प्रकारकी एक कथा 'कथाकोष' में दो ब्राह्मण भाइयोंकी दी हुई है; जिसमें एक भाईने लोभके वशीभूत हो दूसरे भाईके प्राण लेनेकी ठानी थी । आखिर पांच भवोंतक यह वैर चलता रहा था। सारांशतः इस ढंगकी कथायें भारतीय साहित्य में बहुतायत से मिलती हैं । परंतु हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि मरुभूति और कमठ जैसी पार्श्वकथासे सुन्दर और अनुपम कथा शायद अन्यत्र नहीं है । इसके लिए हम 'पार्श्वाभ्युदय काव्य' केटीकाकार योगिरा पंडिताचार्यके इस श्लोकको उपस्थित किये विना नहीं रहेंगे:
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श्री पार्श्वात्साधुः साधुः कमठात्खलतः खलः । पार्श्वाभ्युदयतः काव्यं न च कचिदपीष्यते ॥ १७ ॥ '
अर्थात् - 'श्री पार्श्वनाथसे बढ़कर कोई साधु, कमठसे बढ़कर कोई दुष्ट और पार्श्वाभ्युदयसे बढ़कर कोई काव्य नहीं दिखलाई देता है ।' निष्पक्ष विद्वान के लिये इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है । यहांपर स्थान और अवसर नहीं है कि हम पार्श्वाभ्युदय जैसे अनुपम साहित्यग्रंथों का रसास्वादन अपने पाठकों को करा सकें। १ - कथाकोष, पृ० ३१ - लाइफ एण्ड स्टोरीज ऑफ पार्श्वनाथ, भू० पृ० १३ ।
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[७६] किन्तु उपरोल्लिखित विवरणसे पाठक यह न समझ लें, कि
ईसाकी ५वीं या ६ठी शताब्दिके पहले जैन पुराण ग्रंथ प्राचीन- कोई जैनग्रन्थ भगवान पार्श्वनाथनीके कालसे उपलब्ध है। दिव्य चरित्रको प्रकाशमें लानेके लिए
रचा ही न गया था । यह बात नहीं है; क्योंकि भगवान महावीरस्वामीकी दिव्यध्वनिसे प्रगट हुए और श्री इन्द्रभूति गौतमगणधर द्वारा ग्रथित प्रथमानुयोगका अस्तित्व ईसासे पूर्वकी प्रथम शताव्दि तक रहा था; और उसको लुप्त होता हुआ देखकर ही पूर्वाचार्योने उस समयके उपलब्ध अंशसे ग्रन्थोंको रचकर उन्हें लिपिबद्ध करना प्रारंभ कर दिया था। उसके पहले आगम ग्रंथ ऋषियोंकी स्मृतिमें सुरक्षित रहते थे, यह हम पहले बतला चुके हैं । अतएव इस आधारसे बने हुये प्राचीन पुराण ग्रंथों के अस्तित्वका पता हमें श्री जिनसेनाचार्यनीके कथनसे चलता है । वे लिखते हैं:
" नमः पुराणकारेभ्यो यद्वक्राब्जे सरस्वती। येषामन्यकवित्वस्य सूत्रपातायिंत वचः ॥ ४१ ॥ धर्मसूत्रानुगा हृद्या यस्य वाङ्मणयोऽमलाः। कथालङ्कारतां भेजुः काणभिक्षुर्जयत्यसौ ॥५१॥"
यहां पहले श्लोक द्वारा प्राचीन पुराणकारोंको नमस्कार किया है; जिनके वचनोंके आधारसे दूसरोंने ग्रंथ बनाये हैं और दूस. रेमें काणभिक्षु नामक कविकी प्रशंसा की है, जिसने कोई कथा ग्रन्थ बनाया था । इतना ही क्यों ? श्री जिनसेनाचार्यजीके पहले . एक महापुराण गद्यमें श्री कवि परमेश्वर द्वारा रचा हुआ मौजूद
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[ ७७ ]
था, जिसमें २४ तीर्थंकर और अवशेष शलाका पुरुषोंके चरित्र.. वर्णित थे। श्री जिनसेनाचार्य इस बात को स्पष्ट प्रकट करते हैं:' कविपरमेश्वर निगदितगद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम् । सकलछन्दोलङ्क तिलक्ष्यं सूक्ष्मार्थगूढपदरचनम् ॥ '
अतएव इन उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य प्रणीत उपरोक्त चरित्रग्रन्थोंके अतिरिक्त प्राचीनकाल में और भी ऐसे पुराण ग्रंथ मौजूद थे जिनमें श्री पार्श्वनाथजीका चरित्र वर्णित था । किंतु साम्प्रदायिक विद्वेष और कालमहाराजकी कृपा से वह आज उपलब्ध नहीं है ।
साथ ही यहां पर हम यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते हैं कि पार्श्वचरित्र में जो कमठ जीवके कमठ जीवका वैर यथार्थ वैरभावका वर्णन है, वह यथार्थ है । है - रहस्यपूर्ण अलंकार केवल कवियोंने अपने काव्यग्रन्थोंको नहीं है। सुललित बनाने के लिये इसका अविष्कार. नहीं किया था । दिगम्बर जैन संप्रदा यके प्राचीनसे प्राचीन ग्रन्थ में इस विषयका उल्लेख मौजूद है । कमठके जीव अरने भगवान पर उपसर्ग किया अंत में भगवानको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। संप्रदाय में एक स्पष्ट घटना के तौरपर प्रख्यात है। इतना ही क्यों ? प्रत्युत भगवान पार्श्वनाथजीकी जितनी भी प्रतिमायें मिलतीं हैं; वह सर्पफणयुक्त मिलतीं हैं। और वे इस घटना की प्रगट साक्षी हैं। वह फणमण्डल बहुधा सात अथवा नौ फणोंका होता है; परन्तु : सौ फणावाली प्रतिमायें भी मिली है। उड़ीसा और मथुराकी
था और उसके
यह बात जैन
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[ ८ प्राचीन प्रतिमायें भी इसी रूपकी हैं किंवा विविध स्तोत्रोंमें इस घटनाका उल्लेख किया हुआ मिलता है। विक्रमकी दूसरी शताब्दिके दिगम्बर जैनाचार्य श्रीसमन्तभद्रस्वामी इस घटनाका उल्लेख निम्नप्रकार करते हैं:'बृहत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडिरिङ्गरुचोपसमिणाम् । जुगूह नागो धरणो धराधरं विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा॥'
इसी तरह श्री सिद्धसेन दिवाकर प्रणीत कल्याणमंदिर स्तोत्रमें भी यही उल्लेख मौजूद है; यथाः'यस्य स्वयं सुरगुरुगरिमाम्बुराशेः, स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्नविभु
विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतोस्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये।। 'प्राग्भारसम्मृतनभांसि रजांसि रोषादुत्थापितानि कमठेन शठेन
यानि । छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं
दुरात्मा ।। ३१॥' सोमचंद्रकी कठमहोदधि (श्वे०)में भी इस घटनाका उल्लेख है । अतएव इस घटनामें संशय करना वृथा है । जैन समाजमें भगवान् पार्श्वनाथके सम्बन्ध में कई पवित्रस्थान
तीर्थरूपमें माने जाते हैं । सम्मेदशिखर पार्श्वनाथजी सम्बन्धी तो निर्वाणस्थान होनेके कारण बहुप्रख्यात .. तीर्थस्थान। है परन्तु इसके अतिरिक्त और स्थान भी .
तीर्थरूपमें पूजे जाते हैं । बनारस गर्भ - जन्म और केवलज्ञान स्थानरूपमें प्रसिद्ध है। किन्तु दिगम्बर संप
दायमें न मालूम अहिच्छत्रको किस आधारसे केवलज्ञान स्थान माना
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[७९) नाता है ? हमारे ख्यालसे वहांपर एक नागराजने भगवानकी विनय और भक्ति की थी और उनकी पवित्र स्मृतिमें एक मंदिर
और स्वर्णलेपयुक्त प्रतिबिंब बनवाई थी, उसीके उपलक्षमें यह स्थान पूज्य माना जाने लगा है । पार्श्वनाथनीके सम्बन्धमें शास्त्र इसके अतिरिक्त और कोई उल्लेख नहीं करते हैं। कलिकुण्ड अथवा कलिकुण्ड पार्श्वनाथ नामक तीर्थ भी दोनों संप्रदायोंमें मान्य है । यहांपर करकण्डु महारानाने अनेक जिनमंदिर और रत्नमई पार्श्वप्रतिमा बनवाये थे, यह दिगम्बर शास्त्रोंका कथन है। इसके अतिरिक्त श्वेतांबर संप्रदायमें कुकुंटेश्वर, स्तंभनक, मथुरा, शंखपुर, नागहद, लाटहद और स्वर्णगिरि नामक स्थान पार्श्वनाथनीके सम्पर्कसे पवित्र हुये तीर्थ माने जाते हैं । दिगंबर संप्रदायमें भी उपरोक्त के अलावा श्री खण्डगिरि उदयगिरि, रानगृही (विपुलाचल पर्वत), खजुराहा, अतिशयक्षेत्र कुरगमा (झांसी), बालाबेट अतिशयक्षेत्र, ग्वालियर, भातकुली ( अमरावती), अंतरीक्ष पार्श्वनाथ (सिरपुर), कुंडलपुर, कुकुटेश्वर, (इन्दौर), द्रोणागिरि, नैनागिरि, मुक्तागिरि, विनोलिया
अतिशयक्षेत्र, फालोदी पार्श्वनाथ, चौरलेश्वर अतिशयक्षेत्र, मक्सी पार्श्वनाथ, श्री विघ्नेश्वर पार्श्वनाथ, कचनेर अतिशयक्षेत्र, तेरपुर (धाराशिव), बाबानगर अतिशयक्षेत्र, अमीनरा पार्श्वनाथ अतिशयक्षेत्र, श्रीक्षेत्र तिरुमलै, मूड़बद्री, श्रवणबेलगोला इत्यादि स्थानोंसे भगवान पार्श्वनाथनीका विशेष सम्बंध माना जाता है । इस प्रकार प्रकट है कि प्राचीनकालसे ही भगवान पार्श्वनाथनीके पवित्र । स्मारकमें अनेक स्थान पवित्र माने जाने लगे थे और अनेक चैत्य,
मंदिर, विहार व गुफायें. भी बन गये थे।
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[ ] अन्तमें हमें प्रस्तुत पुस्तकके विषयमें कुछ अधिक नहीं
कहना है । इसमें जो कुछ है वह पाठप्रस्तुत ग्रन्थ। कोंके सामने है । बेशक उसमें नवीनता
शायद ही कुछ हो-पुरातन भाव और चरित्रको ही इसमें स्थान दिया गया है । हां; ऐतिहासिक रीतिसे विवेचना करने का ढंग उल्लेखनीय है । इसे हमारी समाजके कृतिपय विद्वान् शायद पसंद भी नहीं करेंगे । परंतु सत्यको खोजके. लिये यह ऐतिहासिक ढंग परमावश्यक है। इसी ऐतिहासिक प्रसंगमें जो बातें हमने श्वेतांबरादि संप्रदायोंके विषय में कहीं है, वह भी केवल सत्य खोजके भावको लेकर लिखी गई हैं। इसमें विवश ऐसी परिस्थिति होती है. निसे एक इतिहास लेखक मेटने
और सर्वप्रिय बनाने में असमर्थ रहता है । इससे हमाग भाक किसीका दिल दुखाने का नहीं है और न उनकी मान्यताओं को हेय प्रगट करने का है। इसके साथ ही जो इसमें जैन ग्रन्थों में उल्लेखित स्थानों को यथासंभव आनकी दुनियां में खोन निकालने का प्रयत्न किया गया है, वह अनोखा है और इस विषयका प्रथम प्रयास है । आशा है, विद्वजन इसपर निष्पक्ष हो विचार करेंगे और उचित सम्मति हारा अनुग्रहीत करेंगे। भगवान पार्श्वनाथनीके पवित्र जीवन चरित्रको प्रकट करनेवाले इस ग्रन्थको मैं लिख सका हूं यह केवल धर्मका ही प्रभाव है । वरन् मुझ जैसे अल्पज्ञकी क्या सामर्थ्य थी जो इस गहन बिषयमें अपनी अयोग्य लेखनीका प्रवेश करा सक्ता ! अस्तु; जय, प्रभु, पालकी जय ! पात्रनि० दिवस २४६४] विनीत-कामताप्रसाद जैन ।
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भगवान् पार्श्वनाथ ।
( उत्तराई )
भगवानू का दीक्षाग्रहण और तपश्चरण ।
साकेत नगरे सोऽथ जयसेनाख्य भूपतिः । धर्मप्रीत्यान्यदासौ प्राहिणोछी पार्श्व सन्निध ।। निःसृष्टार्थ महादूत कृत्स्न कार्यकरं हितं । भगलादेशसंजातहयादिपाभृतः समं ।।
--श्री सकलकीर्तिः । राजकुमार पार्श्वनाथ आनन्दसे कालयापन कर रहे थे। पिताके राजकार्यमें वे उनका हाथ बटाये हुये थे । युवावस्थाको प्राप्त होचुके थे । युवक वयसके ओन पूर्ण रसने. उनके शरीरको ऐसा खिला दिया था कि मानों कामदेव भी वहां आते खिन रहा है। भगवान तो जन्मसे ही अतीव सुन्दर और सुदृढ़ शरीरके धारी थे, पर इस समय उनकी शोभा देखे नहीं बनती थी । नीलाकाशमें जैसे शरद-पूनोंका चन्द्रमा अपनी सानी नहीं रखता, वैसे ही भगवानके नीलवर्णके सुन्दर शरीरमें यौवन अन्यत्र उस उपमाको नहीं पाता था । भगवान् जिस ओरसे होकर निकल जाते थे उस ओरके. लोग उनके रूप सौन्दर्यपर बावले होजाते थे। स्त्रियोंको यह भी पता नहीं रहता था कि हमारा अंचल वक्षःस्थलसे कब स्खलित
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२०४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
होगया है और हमारी लोकलज्जा क्या है ? जैन शास्त्रोंमें भगवानके विषय में ऐसा ही वर्णन मिलता है । '
१
एक रोज यौवनसम्पन्न राजकुमार पार्श्वको देखकर उनके पिताको पुत्रके विवाह करनेकी सुध आई। सचमुच भारतीय मर्यादा अनुमार पहले ब्रह्मचर्य आश्रम में पूर्ण दक्षता प्राप्त कर चुकने पर और युवा होजाने पर ही लोग गृहस्थाश्रममें प्रवेश करते थे । आजकलकी तरह नन्हें २ बालकोंके विवाह उस जमाने में नहीं होते थे अनमेल और वृद्धविवाहों का भी अस्तित्व उससमय इस धरातल पर नहीं था; क्योंकि लोग गृहस्थ आश्रमका उपभोग करके वानप्रस्थ आश्रमका अभ्यास करने लगते थे । इसप्रकार के नियमित और मंयमी सामाजिक वातावरणमें ही आर्यसंतान फल फूल रही थी और संसारभर में वह अपनी समानतामें एक थी । उसी पुरातन आदर्श अर्य जनता के गुणगान आज भी सारा संसार मुक्तकंठसे करता है किन्तु उन्हीं की संतान आजके भारतीयों में कोई कौड़ी मोल नहीं पूंछता ! आर्यवंशज होते हुये भी वह अपने पूर्वजों की मर्यादा लांछित बना रहे हैं । सचमुच जबतक भारतीय समाजका सामाजिक जीवन प्राचीन आदर्शनीवन नहीं बन जायगा तबतक उसकी उन्नति होना अशक्य है । भगवान पार्श्वनाथके भक्त जैनी भो आज अपने पूर्वनों आदर्शजीवनसे कोसों दूर हैं; यही कारण है कि उनके जीवन हीन और संकटापन्न बन रहे हैं । विवाह नियमकी अवहेलना वह बुरीतरह कर रहे हैं । बाल, अनमेल और वृद्धविवाह जैसी कुप्रथाओं का उनमें बहु प्रचार है। जहां
१ - पार्श्वनाथ चरित १० ३६६-३६७ ।
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [ २०५
पहले उनके पूर्वज अपने पुत्र-पुत्रियों को युवावस्था प्राप्त करने क जैन उपाध्यायोंके सुपुर्द करके धार्मिक और लौकिक ज्ञानमें पारंगत बनाते थे, वहां अब उनको नन्हींसी उमरसे ही गृहस्थीकी झंझट में फंसादिया जाता है । वे बालक अपरिपक्क शरीर और अधूरे ज्ञानको ही रखकर गृहस्थीका महान बोझा अपने कोमल कंधोंपर लेकर चलने को बाध्य किये जाते हैं; जिसका परिणाम यह होता है कि वे गृहस्थ - धर्मका समुचित पालन करनेमें असफल रहते हैं । धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थका वह भली भांति पालन ही नहीं कर सक्ते हैं। वह तो पहले ही नामको पुरुष रह जाते हैं । इस दशा में वृद्धावस्था तक उनकी वही असंयमी दशा बनी रहती है और वानप्रस्थधर्म एवं सन्यास धर्मका पालन करना उनके लिये मुहाल होजाता है । इसके साथ ही अपने पूर्वजों के खिलाफ आजके जैनियोंने अपनेको अलग र टोलियों में सीमित कर रक्खा है, जिससे विव
क्षेत्र संकुचित होगया है और योग्य वर कन्याओंके ठीक सम्बंध नहीं मिलते हैं । इससे भी सामाजिक हास बहुत कुछ हो रहा है । किन्तु पूर्वकालके जैनियोंमें यह बात नहीं थी । उनका विवाहक्षेत्र विशद था और उनके जीवन आदर्शरूप थे । आज उनके पद'चिह्नोंपर चलने में ही हमारा कल्याण है । अस्तु; उस समय के आदर्श सामाजिक जीवनके अनुसार ही जब भगवान् पार्श्वनाथ पूर्ण युवा होगये तो उनके पिताने उनका विवाह करना आवश्यक
समझा था ।
राजा विश्वसेनने राजकुमार पार्श्वके समक्ष जब विवाहका प्रस्ताव रक्खा, तो वे सकुचा गये । उन्होंने अपने बल - पराक्रम
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२०६..: भगवान पार्श्वनाथ । और योग्यतापर दृष्ट डाली, कर्तव्याकर्तव्यकी ओर निगाह फेरी। पिताने कहा-वंश वेल को अगाड़ी चलानेके लिये भगवान ऋषभ. नाथकी तरह तुम भी विवाह करलो परंतु रानकुमार पार्श्वने ऋषभदेवसे को अपनी तुलना की तो उनको इस प्रस्तावसे सहमत होना कठिन होगया । उन्होंने कहा-'मैं ऋषभदेवके समान नहीं हूं, मात्र सौवर्षकी मेरो आयु है, जिसमेंसे सोलह वर्ष तो व्यतीत होचुके हैं और तीस वर्षमें संयम धारण करनेका अवसर आजायगा। इसलिए नरगन ! अब मुझे इस झंझटमें न फसाइये । देखिये चहुंओरका वातावरण कैसा असंयमी बन रहा है। लोग ब्रह्मचर्यके महत्वकोही नहीं समझते हैं। गृहत्यागी लोगतक पुत्रोत्पत्तिकी आशासे विवाह करना अपना धर्म माने हुये हैं। गृहवास छोड़कर जंगलों में आकर वसे हुये लोग भी आन इंद्रियनिग्रहसे मुंह मोड़ रहे हैं। इसलिये है पिता नौ ! कर्तव्य मुझे बाध्य कररहा है कि मैं आपके प्रस्तावको अम्वीकार करूँ । अल्पकाल और अल्प सुखके लिये आप ही. बताइये मैं क्यों कर इस झंझटमें पडूं ? इस अल्प प्रयोजनके लिये अपने कर्तव्यको कैसे ठुकरा दूं ?' ..
राजकुमार पात्रके इस प्रकार सारपूर्ण वक्तव्यको सुनकर राजा विश्वसेन चुप होगये; परन्तु इस घटनाने उन्हें मर्माहत बना दिया । वह मन ही मन विलखते हुये नेत्रोंमें ही आंसुओंको छुपा ले गये । पुत्र का विवाह करनेकी लालसा किसे नहीं होती है और उस लालसापर कहीं पानी फिर जाय तो अपार दुःखका अनुभव क्यों नहीं होगा ? किन्तु राना विश्वसेन बुद्धिमान थे। वह कर्तव्य अकर्तव्य और हिताहितको जानते थे। पार्श्वनाथनीके मार्मिक
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भगबानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [२०७ शब्दोंका उनके पास कोई समुचित उत्तर नहीं था। उन्होंने समझ लिया कि इनके द्वारा तीनों लोकका कल्याण होनेवाला है; इसलिये इनके परमार्थ भावपर अवलंबित निश्चयमें अडंगा डालना वृथा है । राजकुमार पार्श्व इसके उपरांत श्रावकोंके व्रतोंका पालन करते हुये रहने लगे। ___एक दिवसकी बात है कि वह प्रसन्नचित्त राज-सभामें बैठे हुये थे, उसी समय द्वारपालने आकर सूचना दी कि अयोध्याके नरेश राजा जयसेनका दूत उनके लिये प्रेमोपहार लेकर आया है
और सेवामें उपस्थित होनेकी प्रार्थना कर रहा है । द्वारपालका यह निवेदन स्वीकृत हुआ और उसने राज अनुमति पाकर दूतको सभामें भेज दिया । दूतने प्रणाम करके जो कुछ भेट राजा जयसेनने भेनी थी वह राजकुमारको नजर कर दी । इस भेटमें भगलीदेशके सुन्दर घोड़े आदि अनेक वस्तुयें थीं। भेटकी ओर निगाह फेरते हुये राजकुमार पार्श्वने दूतसे अयोध्या नगरका पूर्व महत्व वर्णन करनेको कहा । दूत तो चतुर था ही, उसने भगवान् ऋषभदेवसे लगाकर उस समय तकका समस्त वृत्तांत अयोध्याका कह सुनाया । तीर्थंकरोंके अनुपम कल्याणकोंका जिक्र भी उसने किया। राजकुमारने दूतको पुरस्कृत करके विदा किया; परन्तु उसके चले जानेपर भी वह उसके शब्दोंको न भुला सके । अयोध्याके विवरणको सुनकर उनके हृदयमें वैराग्यकी लहर उमड़ पड़ी। नाचीज दूतके बचन उनके वैराग्यका कारण बन गये ।
राजकुमार पार्श्वनाथका चित्त संसारसे विरक्त होगया-उनको संसारकी सब वस्तुएं निःसार जंचने लगीं। उनमें उनको अब जरा
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२०८] भगवान पार्श्वनाथ । मी ममत्व न रहा ! सांसारिक सम्पत्ति और विषयभोग उनको महादुःखदायी भासने लगे। विवेक नेत्रोंके बल वह उनमें दुःख ही दुःख भरा देखने लगे! वे ज्ञानवान थे। तीन ज्ञानके धारी जन्मसे थे-वे इंद्रियननित विषय-सुखोंके इन्द्रायण सरीखे असली रूपको जानते थे ! फिर भला उनके लिये यह कैसे सम्भव था कि वह और अधिक समय गृहस्थ अवस्थामें बने रहते ! विषसे अनभिज्ञ मनुष्य भले ही विष भक्षण कर ले; परन्तु जो विषको जानता है वह उसको कैसे खा सक्ता है ? राजकुमार पार्श्वनाथ जन्मसे ही निर्मल सम्यग्दर्शनके ज्ञाता थे-गृहस्थ दशामें भी वे संयमी जीवन व्यतीत करनेके इच्छुक थे, वे उत्तम मार्गका ही अनुसरण करना जानते थे, इसलिये उन्हें अपने स्वरूप रूप मुक्ति-धाम पानेकी योजना करना प्राकृत आवश्यक थी। वैराग्यका गाढ़ा रंग उनके मनको सखोर कर देगा, यह सर्वथा सुसंगत था । अनेक दोषोंके घर स्वरूप और त्याज्य विषयभोगोंसे पीछा छुड़ा लेना और परमार्थ सिद्धिके मग लग जाना ही बुद्धिमानोंका कार्य है। राजकुमार पार्श्वनाथने सोचा कि जब स्वर्गोके सुखोंसे विषयतृष्णाकी तृप्ति न हुई, तो अब मनुष्यपदमें उसकी शांति क्या होगी ? एक कवि यही लिखते हैं:
'जो सागरके जलसेती, न बुझी तिसना तिस एती। सो डाभ-अनीके पानी, पीवत अब कसे जानी ? इंधनसौं आगि न धापै, नदियौं नहिं समापै । यों भोग विषै अति भारी, तृपते न कभी तन धारी!" यही विचार करके राजकुमार पार्श्वनाथ संसारसे बिल्कुल
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण। [२०९ विरक्त होगये । वे अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओंका चितवन कर रहे थे कि इतने में अपने कर्तव्य के परे हुये लौकांतिक देव वहांपर आपहुंचे और भगवान के वैराग्यकी सगहना करने लगे। कहने लगे कि · पुरुषोत्तम ! यदि अपने जातीय स्वभावके वशीभूत होकर और इस कार्यको अपना कर्तव्य समझकर हम आपके निकट आये हैं; परंतु नाथ ! आपको प्रबुद्ध करने को हममें सामर्थ्य कहां है ? आप स्वयं वस्तुओंके क्षणभंगुर विनाशीक स्वभावसे परिचित हैं। उनसे आपका स्वयमेव विरक्त होना कोई अचरजभरी बात नहीं है। त्रिलोकीनाथ बनने का उद्यम करना यह आपके लिये पहलेसे ही निर्णीत है । यह तो हमारी उतावलो है, मनको व्यग्रता है जो हम आपको वैराग्यप्राप्तिमें सहायक बनने का दम भरकर यहां आपहुंचे हैं । सचमुच हमारी यह क्रिया मूरनको दीपक दिखानेके समान है ! बस, चलिये और महावतोंको धारण कीजिये । आपके इस दिव्य कल्याणकसे ही हमारी आत्माओंको आनन्दका आभास मिलेगा।' इतनी विनयके साथ वे सब ब्रह्मलोकको चले गए।
इधर लौकांतिक देवोंकी इस बिनतीको सुनकर भगवान् वैराग्यरसमें मग्न होगये और दिगम्बरी दीक्षा धारण करने का दृढ़ निश्चय करने लगे। इस परमोच्च भावके उदय होते ही संसारमें फिर एक दफे इतनी प्रबल आनन्द-लहर फैल गई कि वह विद्युत गतिसे भी तेज चलकर संसारके कोने २ में भगवान्के दीक्षा कल्याणकके समाचार पहुंचा आई ! विशिष्ट पुण्य प्रकृतिके प्रभावसे महान पुरुषोंके निकट दिव्य बातें स्वमेव ही होने लगती हैं । भगवान्के तप धारण करनेके समाचार जानकर देवेन्द्र पुलकित वदन होकर
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२१०]. . भगवान पार्श्वनाथ । चट सर्व ही देव देवांगनाओं सहित बनारस नगरमें आया और भगवानका अनेक प्रकारसे जयगान करने लगा। उपरांत सब देवोंने मिलकर भगवान् का अभिषेक किया और उन्हें दिव्य वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत बनाया; निनको धारण करके वे ऐसे ही जान पड़ने लगे कि मानों मोक्षरूपी कन्याको वरनेके लिये साक्षात् दृल्हा ही हों ! फिर देवेन्द्रने भगवानसे निम्नप्रकार प्रार्थना की; यही आचार्य कहते हैं
'अमर्यादवतारोऽयं पारॊर्थकफलस्तव । किं पुनस्त्रिदिवादन्यभोगातिशयहेतवः ॥ निर्वेदस्तेन देवायं फलेन प्रतिमन्यताम् । समुन्मील्यास्त्वया चैताः सतामंतारदृष्टयः ।।'
'हे भगवन् ! देवलोकसे जो आपका अवतार हुआ है, उसका ‘फल पर हितका सम्पादन करना है । इसलिये स्वर्गसे अन्य जितने भर भी भोग हैं वे स्वर्गके भोगोंसे अधिक आपको अच्छे नहीं लग सक्ते । दूसरोंका हित सम्पादन करनेवाले आप, विषय भोगोंमें नहीं फंस सक्ते । इसलिये हे भगवन् ! आपको जो वैराग्य हुआ है उसे सफल बनाइये, दिगम्बरी दीक्षा धारण कीजिये और केवलज्ञान पाकर उपदेश दे भव्यनीवों के अन्तरंग नेत्रों को खोल दीजिये।
(श्री पार्श्वनाथचरित्र ४० ३८१-३८२) इन्द्रने अपने इस निवेदनको पूर्ण करते हुये भगवानको अपने हाथका सहारा दे दिया। भगवान्ने इन्द्रके हाथको ग्रहण करके चट सिंहापन छोड़ दिया ? वहां देर ही किस बातकी थी-वैराग्य तो पहले ही उनको वहांसे उठ चलनेको प्रेरणा कर रहा था। भगवान् तो इधर तप धारण करनेका साधन करने लगे और उधर
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [ २११
रणवासमें जब यह समाचार पहुंचे तो इनकी माता एकदम विह्वल बन गईं ! मां की ममता एक साथ ही उमड़ पड़ी । 'हाय ! पुत्र • नयनोंके तारे मुझे छोड़कर कहां जाते हो' ऐसे ही अनेक रीतिसे विलाप करने लगीं । राजा विश्वसेन भी खिन्नचित्त होगये ! परन्तु प्रबुद्ध भगवानने इनको आश्वासन बंधाया, माताको बड़े ही मधुर शब्दों में समझाया | उन्हें जगत के विनाशीक पदार्थोंका स्वरूप - सुझाया और सांसारिक सम्बन्धोंकी निस्सारता जतलाई ! प्रभुके उपदेशको सुनकर - हितमित पूर्ण बचनोंको ग्रहण करके रानी ब्रह्मदत्ताका हृदय शांत हुआ ।' वह जान गई कि उनके महाभाग्यवान पुत्रका जन्म ही इसी हेतु हुआ है और वे इस अवस्थामें अपनेको धन्य मानने लगीं ।
माता - पिताको समुचित रीतिसे समझा बुझा और ढाढस • अंधाकर भगवान् इन्द्रकी लाई हुई विमला नामक पालकी में बैठकर वनकी ओर प्रस्थान कर गये। पहले नरलोक के भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंने क्रमसे सात२ पैंढ़ तक उस पालकीको उठाया और फिर समस्त देवसंघ उसको उठाकर ले चला ! इस दिव्य अवसरपर आकाश देवदुंदुभीके बजने से घनघोर झंकार से भर गया, देव कन्यायें अनेक प्रकारसे नृत्य करने लगीं और चारों ओर से भगवान के ऊपर पुष्पवृष्टि होने लगी । आखिर भगवान् निकटके
अश्वत्थ' नामक वन में पहुंचे। यहांपर इन्द्रका इशारा पाकर सब ही लोग शांत होगये । भगवान् पालकी से उतर आये । शत्रु
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१-श्री सकलकीर्ति, पाश्वचरित सर्ग १६ श्लोक १३०... और पार्श्वपुराण पृ० ११९ । २ - पार्श्वपुराण पृ० ११९ - पार्श्वचरित पृ० ३८४ ।
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२१२], भगवान पार्श्वनाथ । मित्र और तृण-कंचन सबमें समभाव रखकर उन्होंने अपने सब वस्त्राभूषण उतार डाले। इतनेमें शचीने वहींपर एक वटवृक्षके तले' स्थित चन्द्रकांत शिलाको 'स्वस्तिका' से अलंकृत कर दिया। भगवान् पूर्वकी ओर मुख करके उसी स्फटिकमणी पाषाण शिलापर बिरान गए और हाथ जोड़कर ' नमः सिद्धेभ्यः' कहकर उन्होंने सिद्धोंको नमस्कार किया। फिर बाह्याभ्यंतर परिग्रहको तनकर पंचमुष्टि लोंच किया। इस प्रकार दिगम्बर मुद्राको धारण करके वे ध्यानलीन होगये। नरनारी और देवसमूह भी भगवानकी अभिवंदना करके अपने२ स्थानोंको चले गये। उस दिगम्बर मुद्रामें भगवान् बड़े ही सुन्दर नंचने लगे । कवि भी यही कहते हैं:
'सोहै भूषन वसन बिन, जातरूप जिनदेह । इन्द्र नीलमनिकौं किधौं, तेजपुंज सुभ येह ॥ । पोह प्रथम एकादशी, प्रथम प्रहर शुभ वार । पद्मासन श्री पार्सजिन, लियौ महाव्रत भार ॥ और तीनसै छत्रपति, प्रभु साहस अविलोय । राज छोरि संयम धरयौ, दुख दावानल-तोय ॥ तब सुरेश जिनकेश सुचि, छीरसमुद पहुंचाय । कर थुति साध नियोग सब, गयौ सुरग सुरराय ॥"
भगवान् वीतरागमयी ध्यान अवस्थामें लीन होगये । तीन दिन तक वे वहीं उसी ध्यानमग्न दशामें स्थित रहे । उन्होंने तेला-उपवास कर लिया ! मुनियोंके अट्ठाईस मूलगुण और चौरा
१-पार्श्वपुराण पृ० ११९ । २-चंद्रकीर्ति आचार्य-पार्श्वचरित अ० १० श्लो. ११३ । ३-पार्श्वचरित पृ. ३८४ । ४-पार्श्वपुराण १२० ।
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [ २१३
सीलाख उत्तर गुण उन भगवानने धारण कर लिये । वे मौने सहित योगसाधन में अचल थे । इसी समय उन्हें मन:पर्यय ज्ञानकी प्राप्ति हो गई थी । इसके उपरान्त वे निर्ममत्व, शांतिमुद्रा के धारक, परम दयावान और परम उदास भगवान् शरीरकी रक्षा के लिये योग निरोध कर खड़े होगये और दीक्षावनसे एक ओरको विधि सहित भूमि शोधते हुये चलने लगे और क्रमकर गुल्मखेट नामक नगर में पहुंच गये । वहांके धर्मोदये अथवा धन्य नामक राजाने उनको बड़ी भक्ति से पड़गाहकर - आमंत्रित करके शुद्ध: और सरल आहार कराया था, जिसके पुण्यप्रभावसे उसके राजमह
में देवोंने पंचाश्चर्य किये थे । तीर्थंकर भगवानके समान त्रिलोक पूज्य परमोत्कृष्ट उत्तम पात्रको निर्विघ्न आहारदान देकर उस राजाने अपनी कीर्ति तीनों कालके लिये तीनों लोक में फैलादी ! इस आहारदान से स्वयं राजा धर्मोदय अपनेको संसारसे पार पहुंचा समझने लगा ! वह थोड़ी दूर तक भगवानके साथ गया और फिर भगवान की आज्ञा पाकर अपने राजमहलको लौट आया । भगवान् वनमें जाकर तपश्चरण में लीन होगये !
तपोधन् भगवान् पार्श्वनाथ वनमें आकर प्रतिमायोगसे दुर्द्धर तप तपने लगे और धर्मध्यानमें मग्न रहने लगे। उस समय उनकी परम पवित्र शांत मुद्राके जो भी दर्शन कर लेता था, वह अपने दुःख शोक सब ही भूल जाता था, स्वभावतः वह उनके चरणों में नतमस्तक होजाता था ! परन्तु भगवान तो परमोच्च उद्देश्यकी
१ - पूर्ववत् और पार्श्वचरित पृ० ३८५ । २ - पार्श्वचरित पृ० ३८५ । ३ - हरिवंशपुराण पृ० ५६९ और चंद्रकीर्ति आचार्य, पार्श्वचरित अ० १२. श्लोक १३ ।
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२१४] भगवान पार्श्वनाथ । 'सिद्धिमें तन्मय थे। उन्हें सिवाय निजपद प्राप्त करनेके और कुछ भी ध्यान नहीं था-एकचित्त हो मौन धारण किये हुये वह उसीको प्राप्त करनेकी चेष्टामें प्रयत्नशील थे। कोई भी बाधाकैसा भी प्रलोभन उन्हें उनके इष्टमार्गसे विचलित नहीं कर सका था। वे एक व्यवस्थित और नियमित ढंगसे आत्मोन्नतिके मार्गमें पग बढ़ा रहे थे । वस्तु-स्वभावरूप तत्वोंका चिन्तवन करके और इन्द्रियनिग्रह एवं विविध प्रकारकी तप-क्रियायों द्वारा संयमका पालन करते हुये वेह अपनी आत्माको निर्मल और शुद्धरूप परमशक्तिवान बना रहे थे। वेह उस समय ऐसे प्रतिभाषित होते थे जैसे कल्लोलोंसे रहित निस्तब्ध नील समुद्र ही हो अथवा अडोल सुमेरुगिरिकी शिखिर पर नीलमणिकी सुंदर प्रतिमा ही बिरानमान हों। उनके चहुंओर शांतिका साम्राज्य फैल रहा था। सचमुच‘वरभाव छाड्यौ वन जीव, प्रीत परस्पर करें अतीव । केहरि आदि सतावै नाहिं, निविष भये भुजग वनमांहि ।। सील सनाह सजौ सुचिरूप, उत्तरगुन आभरन अनृप । तपमय धनुष धरयौ निजपान, तीन रतन ये तीखतवान ।। समताभाव चढ़े जगशीस, ध्यान कृपान लियौ कर ईस । चारितरंगमहीमें धीर, कर्मशत्रु विजयी वरवीर ॥"
इसी अवस्थामें भगवान चार मास तक रहे थे और उपरान्त वे काशं के निकट अवस्थित दीक्षावन में पहुंच गये थे। किन्तु श्वेताम्बर संप्रदायके श्री भावदेवमूरि विरचित 'पार्श्वचरितमें ' भगवानका अन्य स्थानोंमें पहुंचनेका भी उल्लेख है। वहां भगवानका पारणा स्थान कोपकटक स्थान बताया गया है और धन्यको
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [ २१५
उस नगरका एक गृहस्थ (Householder) लिखा है । यह कोपकटक नगर आज कलका धन्यकटक नगर अनुमान किया गया है। इस नगर से प्रस्थान करके उपरान्त उनका आगमन कालिगिरिके निकट वाले कादम्बरी वनमें होना लिखा है । वहां वे कुन्द नामक सरोवर के तटपर एक जैन प्रतिमाके निकट विराजमान रहे थे । इसी अवसरपर चम्पाके करकण्डु नामक राजाका यहां आना और भगवानकी विनय करना एवं देवोपनीत प्रतिबिम्बके लिए मंदिर बनवा देनेका उल्लेख है । इस कलिकुण्डसे भगवानको शिवपुरीं पहुंचा बतलाया गया है; जहांके 'कौशाम्ब' नामक वनमें वे कायोत्सर्ग रूप में बिराजमान हुए थे । यहींपर नागराज धरणेन्द्रने आकर भगवानकी पूजा की थी और तीन दिन तक उनपर वह छत्र लगाये रहा था, जिससे यह स्थान " अहिच्छत्र के नाम से विख्यात हुआ था यह कहा गया है। यहां से वे राजपुर पहुंचे जहांके राजाको भगवान के दर्शन करते ही अपने पूर्वभव याद आगए थे । उसने भी भगवानकी विनय की थी और जहां पर भगवान विराजमान थे, वहांपर उसने एक चैत्य बनवा दिया था जो कुक्कटेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुआ था, यह लिखा है । उपरान्त भगवान अन्यत्र विचरते बताये गए हैं और इसी अन्तरालमें कमठके जीवका उनपर उपसर्ग होना कहा है और फिर उनको काशी दीक्षावनमें पहुंचा बतलाया है। दिगम्बर जैनशास्त्रों में यह वर्णन नहीं है और कमठके जीवका दीक्षावन में उपसर्ग करना लिखा है । अस्तु, इसप्रकार हम भगवान के दीक्षा ग्रहण करने के अवसर और तपश्चरण करनेका दिग्दर्शन कर लेते हैं ।
१- बंगाल, बिहार, ओड़ीसा जैन स्मार्क पृ० ७९ । पार्श्व० सर्ग ६ श्लोक १२०-२१४ ।
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२- भावदेवसूरि
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२१६] . भगवान पार्श्वनाथ ।
(१४) মুলাঙ্গালি জ্বী সম্বৰূন্থে ! "बृहत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडिपिङ्गरुचोपसर्गिणम् । जुगूह नागो धरणो धराधरं विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा ॥ स्वयोगनिस्त्रिंशनिशातधारया निशास यो दुर्जयमोहविद्विषम् । अवापदार्हन्समचिन्त्यमदभुतं त्रिलोकपूजातिशयास्पदं पदम् ॥
-श्री समन्तभद्राचार्यः । __बनारसके अश्वत्थ वनमें दिगम्बरमुद्रा धारण किये परम धीर वीर और गम्भीर मुनिरानोंके इन्द्र सुन्दर सुभग नीलवर्णके शरीरको धारण किये हुए कायोत्सर्ग आमनसे बिराजमान हैं ! न किसी जीवसे राग है और न किसीसे द्वेष है। अपनी शुद्धात्माके ध्यानमें वे लीन हैं । किन्तु यह क्या ? इन मुनींद्रकी शांतिमुद्राका द्रोही कौन बन गया ? किसने यह पर्वतोंका प्रहार करना इनपर शुरू कर दिया ? अरे, यहां तो तूफान ही पर्पा होगया ! प्रचंड आंधी चल पड़ी । बड़े२ विशाल पेड़ उखड़२ का इन प्रभुके ऊपर गिरने लगे ! विजलियां चमकने लगी-वजगत होते दिखाई पड़ने लगे। न जाने उस शांतमय बातारणमें यह कोलाहल कहांसे खड़ा होगया? किन्तु जरा देखो तो इस महा भयानक दशामें भी वे मुनिराज पूर्ववत् ध्यानमग्न हैं-वे अपनी योग समाधिसे जरा भी विचलित नहीं हुए हैं। वे ज्योंके त्यों नील इन्द्रमणिकी मनमोहनीय प्रतिमाकी भांति वैसे ही खड़े हुये हैं ! .. पाठक ! जरा संभलिये, इधर देखिये, यह विक्रालरूप धारण किये हुए कौन आरहा है ? क्रोधके आवेशमें इसके नेत्र लाल हो
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ज्ञान प्राप्ति और धर्म प्रचार ।
[ २१७
रहे हैं । मुख क्रूरताको धारण किये हुये हैं और शरीर भयानक - ता को लिये हुये है । यह दीठ पुरुष मुनिराज के समक्ष आकर गरज रहा है । वह कह रहा है कि रे मुनि! मैंने तुझसे यहांसे चले जानेको कहा. पर तू अपने पाखण्डके घमण्ड में कुछ समझता ही नहीं है। पर याद रख मुने ! मेरा नाम शेवरदेव नहीं जो मैं तुझे तेरे इस हठाग्रह के लिए अच्छी तरह न छका ढूं ! न मालूम तुझे मेरे विमानको रोक रखनेमें क्या आनन्द मिलता है। मुने ! अब भी मान जाओ और मेरे विमानके मार्गको छोड़ दो ।'
किन्तु इस देवके इन बचनों का कुछ भी उत्तर उन मुनिराजसे न मिला, वे शब्द उनके कानों तक पहुंचे ही नहीं। उन मुनिराजका उपयोग तो अपने आत्माके निजरूप चिन्तवनमें लग रहा था । उनका इन बाह्य घटनाओंसे सम्बन्ध ही क्या ? शेवरदेवका गर्जना कोरा अरण्यरोदन था । उसकी धृष्टता उन शांत मुनिराजका कुछ न बिगाड़ सकी थी । यह देखकर वह बिलकुल ही आगबबूला होगया । उसके नेत्रोंसे अग्निकी ज्वालायें निकलने लगीं और वह बड़ी भयंकरता से उन मुनिगजपर घोर उपसर्ग करने लगा । अनेक सिंहों और पिशाचों का रूप बनार कर वह उन मुनिराजको त्रास देने लगा । कभी गहन जल वरसाने लगा, कभी शस्त्रोंका प्रहार उनपर करने लगा और कभी अग्निको चहुंओर प्रज्वलित करने लगा !
यह शंवरदेव एक पूर्वभवनें कमठ नामक द्विजपुत्र था और मुनिराज भगवान् पार्श्वनाथके अतिरिक्त और कोई नहीं हैं। शंबरके कमठवाले भवमें भगवान उसके भाई थे और तबही से इनका
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२१८ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
आपसी वैर चला आरहा है, यह पाठकगण भूले न होंगे । उसी पूर्व वैरके वशीभूत होकर जब यह कमठका जीव संवर ज्योतिषीदेव अपने विमान में बैठा हुआ अश्वत्थ वनमेंसे जारहा था, तब मुनिराजके ऊपर नियमानुसार विमानके रुक जानेसे वह अपना पूर्व वैर चुकाने के लिये उपरोक्त प्रकार भगवानपर घोर उपमर्ग करने लगा था | ईसाकी प्रारंभिक शताब्दियों में हुये महान् विद्वान् श्री समंतभद्राचार्यजी इस घटना का उल्लेख इन शब्दों में करते हैं कि"उपसर्ग युक्त जो पार्श्वनाथ हैं उनको धरणेन्द्र नामके सर्पराज अपने पीली विजलीकी भांति चमकते हुये कांतिवान् फण समूहसे वेष्टित किया है ( अर्थात् उपन दूर किया है ) - जिस प्रकार मानो संध्याकी लालिमा नष्ट हो जानेपर उसमें जो पीत विद्युतसे मिला हुआ पीतमेघ पर्वतको आच्छादित करता है । "
( बृहद् स्वयंभू स्तोत्र ८० ७१ )
पापाचारी दुष्ट संवरकी दुष्टाका पता जब धरणेन्द्रको लगा तो वह शीघ्र ही अपनी देवी पद्मावती सहित वहां आये । जिनके प्रतापसे वे नाग-नागिनी भवसे देव - देवी हुये, उनको वह कैसे भुला सक्ते थे ? वे फौरन ही भगवानकी सेवामें आकर उपस्थित हुये थे । उन्होंने भगवान्को नमस्कार किया और मणियोंसे मंडित अपना फण उनके ऊपर फैला दिया । पद्मावतीदेवीने उनपर सफेद छत्र लगाया था। इसी का उल्लेख श्री समन्तभद्राचार्यजीने किया है। एक अन्य आचार्य भी धरणेन्द्रके इस सेवाभाव के विषय में कहते हैं कि' असमालोचयन्नेव जिनस्वाजप्यतां परैः ।
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चक्रे तस्योरगो रक्षामीदक्षा हि कृतज्ञता ॥ ८० ॥
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार |
[ २१९ " भगवान जिनेन्द्र अजय्य हैं । दूसरोंसे जीते नहीं जा सकते इस बात का विचार न कर धरणेन्द्र उनकी रक्षा के लिये प्रवृत्त होगया । कृतज्ञता इसीका नाम है । " (पा० च० पृ० ३९४)
दुष्ट संवर उनके आनेपर और भी भयानकतासे उपसर्ग करने लगा, जिससे बनके मृग आदि जंतु भी बुरी तरह व्याकुल होने लगे । पर वह अपने विकट भावको पूरी तरह कार्य रूपमें परिणत करने में जरा भी शिथिल न हुआ। पहलेकी तरह उपसर्ग करने में वह तुला ही रहा । कवि कहते हैं :
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'किलकिलंत बेताल, काल कज्जल छवि सज्जहिं । भौं कराल विकराल भाल मदगज जिमि गज्जहिं ।। मुंडमाल गल धरहिं, लाल लोयननि डरहिं जन । मुख फुलिंग फुंकरहिं, करहिं निर्दय धुनि हन हन ॥ इहि विध अनेक दुर्भेषधारि, कमठजीव उपसर्ग किय । तिहुँलोकचंद जिनचंद्र प्रति, धूलि डाल निजसीस लिय ।।"
सचमुच संवर देवने उन जिनेन्द्रचंद्र भगवान पर उपसर्ग करके चन्द्रमा पर मट्टी फेंकनेका ही कार्य किया था ! वह उपसर्ग उन भगवानका कुछ भी न बिगाड़ सका; प्रत्युत उनके ध्यानको एकाग्र बनानेनें ही सहायक हुआ; परन्तु उस संवरदेवने अवश्य ही अपने आत्माके लिये कांटे बोलिये- वृथा ही पाप संचय कर लिया ! भगवान उपसर्ग दशामें और भी दृढ़तापूर्वक समाधिलीन रहे । वास्तवमें मनीषी पुरुष भयानक उपद्रवके होते हुये भी अपने इष्टपथ से विचलित नहीं होते हैं। अनेकों घोर संकट उनके मगमें खड़े पड़े हों, पर वे उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सक्ते हैं । फिर |
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२२०] भगवान पार्श्वनाथ । भला तीर्थङ्कर भगवानका विचलित होना बिल्कुल असंभव था ! प्रत्युत इस परीक्षा समयपर-घोर उपसर्ग दशामें भी अपने ध्यानको इतना प्रबल बनानेमें वे सफल हुये थे कि इसी समय उनको केवलज्ञान-सर्वज्ञताकी प्राप्ति होगई थी ! संवर देवके भयानक संकटमय कृत्य उनके लिये फूलमाल हुये थे। वे त्रिलोक्यपूज्य अर्हत्पद-तीर्थंकर अवस्थाको प्राप्त हुये थे । शुद्ध, बुद्ध-जीवन्मुक्त परमात्मा बन गये थे । श्रीसमंतभद्राचार्यजी कहते हैं कि "भगवान पार्श्वनाथने दुर्जय मोह शत्रुको परम शुक्ल ध्यानरूप खड्गकी तीक्ष्ण धारसे मारकरके अचिन्तनीय अद्भुत गुणोंयुक्त स्थान२ पर तीन लोककी पुनाका अतिशय आधार, ऐसा जो "आर्हन्त्य" पद है उसको प्राप्त किया। अर्थात उपसर्ग दूर होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही मोह कर्मको नाशकर केवलज्ञान लक्षणरूप अर्हन्त अवस्था उन्हें प्राप्त होगई।" (बृ. स्वं० स्तोत्र १० ७१)
यह चैत्र कृष्ण चतुर्दशीका पवित्र दिन था । पमय दोपहरसे कुछ पहलेका था। इसी समय पार्श्वनाथ भगवान तीर्थकरपदको प्राप्त हुये थे, स्वयं बुद्ध परमात्मा होगये थे। चराचर वस्तु तीनों लोककी उनके ज्ञान नेत्रोंमें स्पष्ट प्रतिभाषित होने लगी थी। अनन्त दर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्यकी अपूर्व निधि उनको प्राप्त हो गई थी। उनका दिव्य औदारिक शरीर ऐसा चमकने लगा था मानो सहस्र सूर्य-रश्मिका ही प्रकाश हो! दुःख, शोक, क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष आदि सब ही मानवी कमजोरियों को उन्होंने परास्त कर दिया था। वे अब उनके निकट फटकने भी नहीं पाती थीं । वे सशरीरी जीवित परमात्मा होगये थे
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[ २२१
ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार । और उनके इस परमपद प्राप्त करनेका उत्सव मनाने इन्द्र व देव देवांगनायें फिर आये थे । आचार्य कहते हैं कि --
ततः प्रघोषं जयकारतूर्येदिवौकसां उल्लसितं समंतात् । निरम्य निर्मुच्यरूपं तदैव वभूव शत्रुः स च कांदिशीकः ॥
अर्थात् - ' केवलज्ञानके प्रगट होते ही देवोंका बड़े जोर से जय जयकार शब्द होने लगा जिसे सुनते ही भूतानंद ( संवर) का sa एकदम शांत होगया और वह एकदम अवाक् रह गया ! ' और अपनेको अशरण जानकर भगवानकी शरण में आया ! उसे वहीं शांतिका लाभ हुआ । उसे ही क्या, सारे संसारको इस दिव्य अवसर पर आनंदरसका आस्वाद मिल गया था । 'प्रकटी केवल रविकिरन जाम, परिफूल्यो त्रिभुवन कमल ताम । आकास अमल दीसे अनूप, दिसि - विदिसि भई सब कमलरूप ॥
देवोंने आकर भगवानका केवलज्ञान पूजन किया और बड़े ठाठ से भगवानका समोशरण - सभाभवन रच दिया । मानस्तंभ, पीठिका, आदिकर संयुक्त दिव्यमणियों का बना हुआ वह समवसरण तीन लोककी संपदाको भी लज्जित कर रहा था । भगवान के सुन्दर समोशरणको देखकर पाखंडी लोगों को यह भय होता था कि यहां कोई इन्द्रजालकी माया फैला रहा है । परंतु भगवानके निकट आने से यह सब मिथ्या धारणायें दूर भाग जातीं थीं । समवशर
इस
के ठीक मध्य में उत्तमोत्तम पदार्थों से बनी हुई भगवानकी गंधकुटी थी। इसके बीचो बीचमें 'उदयाचल पर्वतकी शिखिरके समान सिंहों से चिह्नित, मणिमयी सिंहासनपर विराजमान परम तेजस्वी भगवान उस समय नम्रीभूत देवोंको ऐसे जान पड़ते थे मानो ये
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२२२] भगवान पार्श्वनाथ । साक्षात् सूर्य हैं ।' उनपर तीन छत्र लग रहे थे और यक्षेन्द्र चंवर ढाल रहे थे। वहां मंदर पवन चल रहा था और समवशरणके. बारह कोठोंमें अलग २ मुनि-आर्यिका, देव-देवांगना, श्रावकश्राविका, पशु-पक्षी आदि भव्यजन बैठे हुये अपूर्व शोभाको प्राप्त हो रहे थे । जिनेन्द्र भगवानके प्रभावसे समवशरणकी भूमि निर्दोष होगई थी। वहां उस समय किसीके परिणामोंमें किसी तरहका भी दोष नहीं था। सब ही जीव साम्यभावसे वहां विराजमान थे। आत्म-बलका प्रत्यक्ष साम्राज्य वहां फैल रहा था । आचार्य कहते हैं कि इसी समय भगवानके प्रमुख शिष्य स्वयंभू नामक गणधर भगवान उनके निकट आकर उनका स्तवन बड़े भक्तिभावसे करने लगे थे, यथादेवस्तदा गणधरः प्रथमं स्वयंभू
र्देवाधिदेवमुपढौक्य कृतप्रणामः । आनम्रमौलिकतया स्थितिमत्सु पश्चा
दिंद्रेषु वस्तुगणने हितमन्वयुक्तं ॥ अर्थात्-"प्रथम गणधर स्वयंभू देवाधिदेव भगवान् जिनेंद्रके पास आये । भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उनके समीपमें बैठ गये तथा अपने पीछे मस्तक नमाकर इन्द्रोंके बैठ जानेपर उन्होंने पदार्थो के विचारमें चित्त लगाया और वे इस प्रकार भगवान् जिनेंद्रकी स्तुति करने लगे।" इत्यायनेकनयवादनिगूढतत्त्वं,
जीवादिवस्तु खलु मात्मदृशामभूमिः । वं विश्वचक्षुरसि देव तव प्रसादात,
सन्निर्णयोस्तु सुलभः स्वयमस्मदाथैः॥
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार ।
[ २२३
अर्थात- 'अनेक नयवादों से जिसका स्वरूप छिपा हुआ है ऐसे जीव अजीव आदि पदार्थ आप सरीखे महानुभावोंके ज्ञानके अगोचर नहीं । यथार्थ रूपसे आपको उनके स्वरूपका ज्ञान है । आप विश्वचक्षु सर्वज्ञ हैं । भगवन्! आपकी कृपासे हमें उनका निर्णय सुलभ रीति से हो सकेगा । ' ( पा० च० पृ० ४०६ -४०७) ।
प्रथम गणधर स्वयंभू के इस प्रकार निवेदन करने पर मेघकी · गर्जना के समान भगवानकी दिव्यध्वनि खिरने लगी । उसमें वस्तु स्वरूपमें अनुपम पदार्थोंका निर्णय होने लगा और सप्तभंगी नमकर परिपूर्ण परमोपादेय उपदेश हुआ। इस दिव्य उपदेशको सब ही जीव अपनी२ भाषामें समझने लगे, यह शास्त्रों में लिखा हुआ है । जिनेन्द्र भगवानके मुखसे यथावत् तत्वोंका स्वरूप जानकर सब ही भव्यजीव आनन्दमग्न होगये । इसी समय भगवानका जिससे अनेक पूर्वभवों से वैर चला आरहा था वह भूतानंद संवर नामक देव भगवानके निकट हीन गर्व होकर अपने वैरको भुला सका ! उसे परम सुखकर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होगई । घरणेन्द्र और पद्मावती भगवान के शासन रक्षक देवता माने जाने लगे और धरणेन्द्र के सम्बन्ध में भगवानने कहा था कि वह मोक्ष जायगा । - इस भविष्य सन्देशको सुनकर उपस्थित प्राणियों के हृदय प्रफुल्लित होगये थे । वह भी भगवानके निकट से विनयपूर्वक यथाशक्ति चारित्र नियमोंको गृहण करने लगे थे। आचार्य कहते हैं कि:--- ' तथा धम्र्मोपदेशेन सभासत्र जिनाधिराट् । पार्श्वः प्रल्हादयामास चंद्रः कैरविणीमिव ॥ १८ ॥ सभासीना जनाः केचित्पीत्वा तद्वचनामृते ।
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. २२४] भगवान पार्श्वनाथ ।
बभूव ग्रंथनिर्मुक्ताः काललब्धा प्रणेदिता ॥ १९ ॥ अनून ललनाः काश्चिद्धम॑ श्रुत्वा जिनोदितं । बभूवुश्चायिकाधीश सर्वसंगविवज्जिताः ॥२०॥ जगृहुः श्रावकाचारं तत्रैकेचिन्नृपादयः । लोकाः प्रसन्नभावेन पीताद्वाक् सुधारसा ॥२१॥२८॥"
जिनराज पार्श्व भगवानके वचनामृतोंको पीकर सभामध्य स्थित प्राणियोंमेंसे कितने हीने तो सर्व परिग्रहका त्याग करके निग्रंथ मुनिका चारित्र धारण कर लिया, किन्हीं ललनाओंने उस जिन प्रणीत कल्याणकारी धर्मको सुनकर संसारी परिजनका सम्बंध त्याग दिया और वे आर्यिका होगई और बहुतेरे राजाओंने श्रावकके व्रतोंको गृहण कर लिया ! तथापि जो किसी प्रकारके भी व्रतोंको धारण करनेमें असमर्थ थे वह भगवान्के वचनोंको प्रसन्नचित्त होकर सुनने लगे । सारांशतः प्रत्येक उपस्थित प्राणीको भगवान्के सदुपदेशसे लाभ हुआ था । वह प्रफुल्ल वदन उनके गुणोंमें लीन था । ब्रह्मचर्य और अहिंसाका भाव भगवान्ने स्वयं अपने चारित्रसे प्रगट कर दिया था, जिसकी उस समय बड़ी भारी भावश्यक्ता थी। इसी कारण उनकी प्रख्याति सर्व लोकमें “जनप्रिय" ( Peoples' Favourite ) के नामसे होगई थी ! सचमुच के भमवान् जनप्रिय ही नहीं थे, बल्कि 'प्राणी मात्रके प्रिय' थे । उन्होंने विश्वात्मक ज्ञानको ( Cosmic Consciousness ) पालिया था। उनमें विश्वप्रेमके साक्षात् दर्शन होते थे !
१. श्री चंद्रकी,चार्य प्रणीत पार्श्वचरित सर्ग २८.. २. कल्पसूत्र (S BE) पृ. २४९.
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२२५ विश्वात्मक ज्ञान और विश्वप्रेमके आगार भगवान् पार्श्वनाथका जब सर्व प्रथम दिव्य उपदेश बनारसके निकट अवस्थित वनमें हुआ तो उनका यश दिगन्तव्यापी होगया । वे भगवान् जो कुछ कहते थे वह प्राकृत रूपमें कहते थे। वहां रागद्वेषको स्थान प्राप्त नहीं था। उनकी क्रियायें भी प्राकृतरूप निरपेक्ष भावसे होती थीं। इसी अनुरूप सर्व लोकोंका कल्याण करनेके लिये उनका विहार भी आर्यखंड में हुआ था । एक तीर्थंकरके लिये यत्र-तत्र भ्रमण करके संसारके दुःखोंसे छट पटाते हुये जीवोंको धर्मका सुखकर पीयूष पिलाना आवश्यक होता है। यह उनकी तीर्थकर प्रकृतिका प्रकट प्रभाव है । इसी अनुरुप भगवान पार्श्वनाथका भी पवित्र विहार और धर्मप्रचार समस्त आर्यखंडमें हुआ था। श्री वादिराजसूरि भी यही कहते हैं:देवस्तु धर्मममृतं वरभव्यशस्यैः,
संग्राहयन प्रविजहार विधाय जिष्णुः । स्वाभाविकः खलु रवेः कमलारबोधी,
दिक्षु भ्रमस्स न विचारपथोपसी ॥४४॥ अर्थात्-'जिस प्रकार कमलोंके खिलानेवाला; दिशाओंमें सूर्यका भ्रमण स्वभावसे ही होता है उसके वैसे भ्रमणमें विचार करनेकी जरूरत नहीं पड़ती उसी प्रकार जयशील भगवान् जिनेन्द्रका भी भव्य जीवरूपी धान्योंके लिये धर्मामृत वर्षानेवाला विहार स्वभावसे ही होने लगा । आज यहां तो कल वहां विहार करना चाहिये इस प्रकार इच्छा पूर्वक उनका विहार न था ।'
(पा. च० ४० ४१६)
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२२६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
इस विहार में भगवान् बिना किसी भेद भावके सब ही जीवोंको समान रूपसे धर्मामृत का पान कराते थे । उनका विहार देवोपनीत समवशरणकी विभूति सहित होता था । जहां जहां भगवान पहुंच जाते थे वहां वहां इन्द्रकी आज्ञासे कुवेर समवशरण की रचना कर देता था । जैन शास्त्रों का कहना है कि तीर्थंकर भगवानका प्रस्थान साधारण मनुष्योंकी तरह नहीं होता है । उनके निकटसे अशुभ रूप चार घातिया कर्मोंका अभाव होगया था । इसलिये उनका परम औदारिक शरीर इतना पवित्र और हमवजन होगया था कि वह पृथ्वी से ऊपर बना रहता था । उसके लिये पृथ्वीका सहारा लेने की आवश्यक्ता नहीं रही थी। इसमें आश्चर्य करनेके लिए बहुत कम स्थान है; क्यों के योगसाधनके बल किंचित् कालके लिये छदमस्थ मनुष्य भी अधर आकाशमें तिष्ठते बतलाये गये हैं । फिर जो महापुरुष साक्षात् योगरूप होगया है, उसके लिये आकाश ही आसन होजाय तो कुछ भी अचरजकी बात नहीं है । योगशास्त्रोंके पारंगत विद्वान् इस क्रियामें कुछ भी अलौकिकता नहीं पायेंगे । वास्तमें इसमें कोई अलौकिकता है भी नहीं; यद्यपि यह ठीक है कि आजकल ऐसे योगी पुरुषोंके दर्शन पा लेना यही नहीं योग शास्त्रों में बताये हुये सामान्य नियमों के पालन में पाण्डित्यप्राप्त मनुष्य ही मुश्किल से देखने में मिलते हैं । इसलिये आजकल के लोग इन बातोंकी गिनती 'करिश्मो' अथवा 'अलौकिक' -बातों में करने लगते हैं और ऐसी बातें उनके गले के नीचे सहसा नहीं उतरती हैं ! किन्तु वह भूलते हैं और आत्माकी अनन्तशक्ति में अपना अविश्वास प्रकट करते हैं । आत्मामें सब कुछ कर
असंभव होगया है ।
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[ २२७
ज्ञानमामि और धर्म प्रचार | सकनेकी महोधशक्ति विद्यमान है। उसके लिये कोई कार्य कठिन
परमात्मपदको प्राप्त
अलौकिकता नहीं
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सहारा लिये विना
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नहीं है । अस्तु आत्मा के स्वाभाविक रूप · हुये भगवान् पार्श्वनाथ के लिये इसमें कुछ भी थी कि वह दिव्य देहके धारक थे, पृथ्वीका ही अधर गमन करते थे और सिंहासनपर अंतरीक्ष विराजमान होकर मेघगर्जनकी भांति धर्मोपदेश देते थे, जिसे हरएक प्राणी अपनी २ भाषा में समझ लेता था । यदि इन बातोंको अलौकिक मान लिया जाय और इस कारण स्वयं भगवान् पार्श्वनाथ मनुष्योंसे विलग कोई लोकोत्तर व्यक्ति मान लिये जांय, तो उनसे हमारा क्या मतलब संघ सक्ता है ? हम मनुष्य हैं । हमारा पथप्रदर्शक भी मनुष्य होना चाहिये । जैनी करीब ढाई हजार वर्षो से इन पार्श्वनाथ भगवान को अपना मार्ग-दर्शक पूज्यनेता मानते आये हैं और वह इनको एक हम आप जैसा मनुष्य ही बतलाते हैं । - इसलिये उनके विषय में अलौकिकताका अनुमान करना वृथा है । वह हमारे समान मनुष्य ही थे; परन्तु वह अपने कितने ही पूर्व भवोंसे ऐसे सद्प्रयत्न करते चले आ रहे थे कि उनकी आत्मा विशेषतर अपने निजी गुणों को प्राप्त करने में सफल हुई थी और उनके भाग्य में पुण्य प्रकृतियोंकी ही अधिकता थी। इसी कारण अपने इस तीर्थंकर भवमें वह जन्मसे ही इतर मनुष्यों से प्रायः - अपनी सब ही क्रियायों में विलक्षणता रखते थे । महापुरुषोंके लिये सचमुच यह विलक्षणता स्वाभाविक है । वह निर्मित करते हैं । साधारण जनताके पीटे हुये - लेना जरूरी नहीं समझते । इसीलिये यह कहा गया है कि
अपना मार्ग स्वयं
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रास्ते का सहारा
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२२८ ] भगवान पार्श्वनाथ । 'होनहार विरवानके होत चीकने पात' और 'महाजनाः येन गताः सा पन्थाः ।' अस्तु; भगवान् पार्श्वनाथ हमारे लिये पूर्णताके एक अनुकरणीय और अनुपम आदर्श हैं। उन्होंने अपने अमली जीवनसे उस समयकी जनताको अपने धर्मोपदेशकी सार्थकता' स्पष्ट कर दी थी। वे ग्राम-ग्राम और खेड़े-खड़ेमें पहुंचकर धर्मका प्राकृत स्वरूप सब ही जीवित प्राणियोंको समझाते थे । उनके निकट कोई खास मनुष्य समुदाय ही केवल धर्म धारण करनेका अधिकारी नहीं था। उन्होंने उस समयकी प्रगतिके विरुद्ध सब ही श्रेणियोंके मनुष्योंको धर्माराधन करनेका अधिकारी बताया था । ऊंच नीचका भेद लोगोंमेंसे हटा दिया था ! प्रत्येक हृदयमें स्वाधीनताकी पवित्र ज्योति जगमगा दी थी ! उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि पराश्रित होकर-दूसरों के मुहताज बनकर तुमको कुछ नहीं मिल सक्ता ! यदि तुम आत्म-स्वातंत्र्यको पानेके इच्छुक होस्वाधीनताके उत्कट पुनारी हो तो दृढ़ता पूर्वक संयमी बनकर अपने पैरोंपर खड़ा होना सीखो। तुमही अपने प्रयत्नोंसे अपनेको स्वाधीन और सुखी बना सकोगे ! उनका यह प्राकृत उपदेश हर समय और हर परिस्थितिके मनुष्योंके लिये परम हितकर है । यह एक नियमित सूत्र है जो तीन लोक और तीन काल में समान रूपसे लागू है । भगवान पार्श्वनाथ अपने इस दिव्यसंदेशको प्राकृतरूपमें दिगन्तव्यापी बनाते हुए समस्त आर्यखंडमें विचरे थे। श्री सकलकीर्ति आचार्य उनके विहारका विवरण इस प्रकार लिखते हैं:
'जिनभानूदये संचरंति साधु मुनीश्वराः। . तदाकुलिंगिनो मंदा नश्यति तस्करा इव ॥ १७ ॥
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार । [२२९ कुरुकौशलकाशी मुह्यावंती पुंड्र मालवान् । अंग बंग कलिंगाख्य पंचालमगधाभिधान ! १८ ।। विदर्भभद्रदेशाख्य दर्शर्णोदीन बहून्जिनः । विहारमहाभूत्या सन्मार्ग देशिनोद्यतः ॥ १९ ॥२३॥
अर्थात्-जिनेन्द्ररूपी भानुके उदय होनेसे साधु मुनीश्वरोंका संचार होगया और कुलिंगी जटिल आदि पाखंड रूप अंधकारका उसी तरह नाश होगया जैसे चोरोंका होजाता है। फिर भगवान्का पवित्र विहार कुरु, कौशल, काशी, अवंती, पुंडू, मालवा, अंग, बंग, कलिंग, पंचाल, मगध, विदर्भ, भद्र, दर्शार्ण आदि देशोंमें महाविभूतिके साथ होगया था । यह सारे ही देश आजकल इसी भारतके अन्तर्गत मिल जाते हैं । इसी तरह एक अन्य आचार्य भगवान्के विहारमें आकर पवित्र हुये देशोंका उल्लेख एक दूसरे रूपमें यूं करते हैं:
'तत्वभेदप्रदानेन श्रीमत्पार्श्वप्रभुर्महान् । जनान् कौशलदेशीयान कुशलान् संव्यध्यद्भश ॥७६ ॥ भिंदन मिथ्यातमोगाढं दिव्यध्वनिप्रदीपकैः। काशीय देशीयकोकान स चक्रे संयमतत्परान ॥७७॥ श्रीमन्मालवदेशीय भव्यलोकसुचातकान । देशनारसधाराभिः प्रीणयाभास तीर्थराट् ॥७८॥ अवतीयान् जनान् सर्वान मिथ्यात्वानलतापितान् । रयानिर्वापयामास पार्श्वचंद्रामृतैः ॥ ७९ ॥ गौर्जराणां जनानां हि पार्श्वसम्राट् जितेंद्रियः। मिथ्यात्वं जर्जरंचक्रे सद्वचः शस्त्रघातनैः॥ ८०॥
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२३०] भगवान पार्श्वनाथ ।
महाव्रतधरान् काश्चिन्महाराष्ट्र जनान् व्यधान् । दीक्षोपदेशदानेन पार्श्वकल्पद्रुमस्तहा ॥ ८१ ॥ पार्श्वभट्टारक श्रीमान् पादन्यासेविहारतः। सर्वान सौराष्ट्र लोकाश्च पवित्रान् चिद्रधेमशं ॥ ८२ ॥ अंगे वंगे कलिंगेऽथ कर्णाटे कोकणे तथा । मेदपादं तथा लाटे लिंतिगे द्राविडे तथा ।। ८३ ॥ काश्मीरे मगधे कच्छे विदर्भ च दशाके । पंचाले पल्लवे वत्से पराभीरे मनोहरे ॥ ८४ ॥ इसायखंड देशेषु व्यक्रीणात्समहाधनी। दर्शनझानचारित्ररत्नान्मेवोतयान्यलं ॥ ८५ ॥ १५ ॥"
भावार्थ-तत्व भेदको प्रदान करनेके लिये महान् प्रभू श्री पार्श्व भगवानने कौशल देशके कुशल पुरुषोंमें विहार किया और अपनी दिव्यध्यनिरूप प्रदीपसे गाढ़ मिथ्यातमकी धिज्जियां उड़ा दी। फिर संयममें तत्पर काशी देशके मनुष्योंमें धर्मचक्रका प्रभाव फैलाया। श्री मालवदेशके निवासी भव्यलोक रूप चातकोंने भी तीर्थराट्के धर्मामृतका पान किया था । अवंतीदेश जो मिथ्यानलसे तप्त था लो पार्श्वरूपी चंद्रके अमृतको पाकर शांत होगया था । गौर्नर देशमें भी जितेन्द्रिय पार्श्वसम्राटके सद्वचनोंके प्रभावसे मिथ्यात्व बिलकुल जर्नरित होगया था। महाराष्ट्र देशवासियोंमें अनेकोंने पार्श्व भगवानसे दीक्षा ग्रहणकी थी। सर्व सौराष्ट्र देशमें भी पार्श्वभट्टारकका विहार हुआ था, जिससे वहां के लोग पवित्र होगए थे। अंग, बंग, कलिंग, कर्नाटक, कौंकन, मेदपाद (मेवाड़)
१-पार्श्वनाथचरित संग १५।
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ज्ञानप्राति और धर्म प्रचार । [२३१ लाट, द्राविड़, काश्मीर, मगध, कच्छ, विदर्भ, शाक, पंचाल, पल्लव, वत्स इत्यादि आर्यखंडके देशोंमें भी भगवान्के उपदेशसे सम्यग्दशन, ज्ञान, चारित्र रत्नोंकी अभिवृद्धि हुई थी।
इस वर्णनमें आये हुए देश भी विशेषकर आजकलके भारतमें ही गर्भित हैं किन्तु पूर्वो खसे इसमें कर्णाटक, कौंकण, मेदपाद, द्राविड़, काश्मोर, शाक और पल्लव देशोंकी अधिक गणना की गई है । कर्णाटक और पौंकण, द्राविड़ और पल्लव देश तो दक्षिण भारतमें आजाते हैं । मेदपाद-मेद अथवा मेड़लोगोंका निवासस्थान आजकलका राजपुताना है। यहांपर बिनौलिया पार्श्वनाथ नामक अतिशय जैनतीर्थ आज भी मेवाड़ रियासतके अंतर्गत विद्यमान है । यह स्थान भगवान पार्श्वनाथके समवशरणके आनेके कारण ही अतिशयक्षेत्रमें परिगणित किया गया है। काश्मीर आजकलका काश्मीर ही हो सक्ता है । यहां भी उस प्राचीन कलमें जैनधर्मका प्रचार हुआ जैनशास्त्रोंसे प्रकट होता है । सिकन्दर आजम के और उपरान्त चीनी यात्रियों के जमाने में जब उत्तर पश्चिमीय सीमाप्रान्तमें एवं स्वयं अफगानिस्तानमें विशाल दि० जैन मुनि मिलते थे तो यह बिलकुल संभव है कि काश्मीरमें भी उनकी गति रही हो! प्राकृत यह ठीक नहीं मालूम देता कि सीमाप्रान्त और मद्रदेश ( मद्रि-पंजाब ) में जैनधर्मका बाहुल्य रहते हुये काश्मीर उससे अछूता बच गया हो । अगाड़ी शाक देशका उल्लेख है । इससे
१-राजपूतानेका इतिहास भाग १ पृ०२.। २-जर्नल आफ दी रायलऐशियाटिक सोसाइटी, जनवरी सन् १८५५ । ३-कनिन्घम, ऐ० जाग. आफ इन्डिया पृ. ६१७॥
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२३२]
भगवान् पार्श्वनाथ । ..
स्पष्ट नहीं है कि किस शाकदेशका भाव यहांपर इष्ट है ? भारतमें म० बुद्धका वंश 'शाक्य ' नामसे प्रसिद्ध है और उनका देश भी 'शाक्यभूमि' से परिचित है । संभव है, भगवान पार्श्वका विहार यहींपर हुआ हो। यह प्रदेश नेपालको तराईमें था और नेपालकी कथानकसे भी ऐसा प्रकट होता है कि भगवान पार्श्वका आगमन वहां हुआ था । उसमें कहा गया है कि काश्यप बुद्ध बनारससे आये थे और स्वयंभू मंदिरमें रहकर उनने उपदेश दिया था। फिर वह गौड़ देश (बंगाल) को चले गए थे। वहांके प्रचण्ड देव नामक राजाने उनको पिण्डपात्र दिया था। बुद्धने उनसे स्वयंभूक्षेत्र ( नेपाल ) जानेको कहा था। सो वह अपना राज्य अपने पुत्र शक्तिदेवको देकर भिक्षु होगया था और शास्त्राध्ययन करने लगा था । उपरांत वह नेपाल गया और शांतिकर नामसे परिचित हुआ। यहां भगवान पार्श्वनाथका उल्लेख गोत्ररूप ( काश्यप ) में किया गया है। उनका बनारससे आना और बंगालको जाना स्पष्ट कर देता है कि सचमुच काश्यप बुद्ध भगवान पार्श्वनाथ ही होंगे; क्योंकि भगवानने धर्मोपदेश बनारससे ही देना प्रारम्भ किया था और वे बंगालमें भी गये थे, यह प्रगट है । आजकलकी खोजसे यह प्रमाणित हुआ है कि श्री पार्श्वनाथनीके धर्म तथा उपदेशका असर अंग-बंग और कलिंगमें फैला हुआ था । भगवान् ताम्रलिप्तसे चलकर कोपक अथवा कोप कटक पहुंचे थे; जो उनके वहां पिण्ड-आहार ग्रहण करनेके कारण उपरांत धन्य कटक कहलाने लगा था और जो आजकलका कोपारी
१-हिस्टरी आफ नेपाल पृ० ८३-८४।
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार ।
[ २३३ - ग्राम है।' इन प्रदेशों में भगवान् पार्श्वनाथकी मान्यता और मूर्तियां भी बहु संख्या में प्राचीन मिलती हैं। कलिंग देशके राजा खारवेल द्वारा निर्मित्त हाथी गुफा आदिमें इन तीर्थंकर भगवान्की सम्पूर्ण जीवनी के चित्र दीवालोंपर अंकित हैं। उन्होंने पौंड़, ताम्रलिप्त आदिमें विशेष रीतिसे अपना विहार किया था। आज भी रांची, -मानभूम आदि जिलोंमें हजारों मनुष्य केवल भगवान् पार्श्वनाथके - नामकी उपासना करते हैं, उनको अपना इष्टदेव मानते हैं - परन्तु उनके धर्म के विषय में और अधिक आज वे कुछ भी नहीं जानते; यद्यपि वे अब भी सराक ( श्रावक ) नामसे प्रख्यात् हैं । इससे स्पष्ट है कि भगवानका विहार बंगाल में भी हुआ था और ऊपर शाक देशमें उनका पहुंचना लिखा ही है, जो नेपालकी तराईका शाक्य प्रदेश ही हो सक्ता है । स्वयं शाक्यवंशी राजा शुद्धोदन के गृहमें जैनधर्मकी मान्यता थी, ऐसा बौद्ध ग्रन्थोंके कथनसे प्रमाणित होता है। इस अवस्था में भगवान् पार्श्वनाथजीका ही नेपालमें धर्म प्रचार करना संभवित होता है, जिसका उल्लेख पूर्वोक्त प्रकार नेपाके इतिहास में किया गया है । शाक्य भूमिके अतिरिक्त किसी अन्य देशका नाम 'शाक' भारतमें तो देखनेको मिलता नहीं है । हां ! इन्डो-ग्रीक राजाओंकी राजधानी शाकल अथवा साकल ( आजकलका स्यालकोट ) अवश्य शाकसे सादृश्यता रखती है और वहां प्रख्यात् राजा मिलिन्द ( Menander) अधिकांश यवनोंके
१–आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ मयूरभंज सन् १९११ और बंगाल प्राचीन जैनस्मार्क पृ० ७९ । २ - बंगाल, ओड़ीसा, विहारके प्राचीन जैनस्मार्क पृ० ८९-९० । ३-पूर्व० पृ० ४२ और १४०-१४७ १० ४१३ ॥ ४ - भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० ३७ ।
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२३४] भगवान पार्श्वनाथ ।.. साथ एक समय जैनधर्मानुयायी थे, यह भी प्रगट है। परन्तु यह साकल और राजा मनेन्द्र अथवा मिलिन्द आदि भगवान् पार्श्वनाथसे एक दीर्घकाल उपरांत भारतीय इतिहासमें स्थान पाते हैं। इसलिये उक्त शास्त्रका शाकदेश साकल नहीं होसक्ता है । इसके अतिरिक्त भारतके बाहर शाकद्वीप (Sythia) में भगवान पार्श्वनाथका विहार हुआहो, तो कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि प्राचीनकालमें भारत और शाकद्वीपका विशेष सम्बंध था। लोगोंका कहना है कि कृष्णके पुत्र शम्ब शाकहीपसे आये थे और वह अपने साथ शाकद्वीपस्थ ब्राह्मणोंको भी लाये थे जो सूर्यकी उपासना करते थे । यही ब्राह्मण आजकलके भोजक हैं,जो जैन सम्प्रदायमें विशेष परिचित हैं । तिसपर मध्य ऐशिया और यूनान तक जैनधर्मके अस्तित्वके चिन्ह मिलते हैं । इसलिये यह भी अनुमान किया जासक्ता है कि भगवानका विहार शाकद्वीपमें हुआ हो, जो जैन दृष्टिसे आर्यखण्डमें आजाता है । अब सिर्फ दक्षिण देशोंके प्रदेश रहे हैं । जैन शास्त्रोंमें यहां भगवान पार्श्वनाथके बहुत पहलेसे जैनधर्मका अस्तित्व बतलाया गया है। किन्तु आजकलके विद्वानोंको ऐसी धारणा होगई है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौके जमाने में श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा ही सर्व प्रथम वहां जैनधर्मका प्रचार हुआ था । इस धारणामें कुछ अधिक वजन है यह दिखता नहीं, क्योंकि जैनेतर शास्त्रोंसे वहां इस कालके बहुत पहलेसे जैनधर्मका प्रचलित होना प्रतिभाषित होता है । तिसपर स्वयं भद्रबाहुस्वामीकी घटनासे ही यह बात प्रमाणित है।
१-'वीर' वर्ष २ पृ० ४१३ । २-टॉडका राजस्थान (वकेटेश्वर प्रेस) भा० १ पृ. २७ ।
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ज्ञानप्राप्त और धर्म प्रचार । [२३५ यदि उनके समयके दुष्कालमें दक्षिणमें जैनी न होते तो वह वहांको प्रस्थान कैसे कर जाते ? क्योंकि जैन मुनि श्रावकोंके यहां सविधिः आहारदान पासक्ते हैं अन्यत्र उसका मिलना कठिन है । इससे यही प्रगट है कि वहांपर जैनधर्म उनके पहलेसे विद्यमान था। 'राजावलीकथे' नामक ग्रन्थमें यही कहा गया है और इस कथनको विद्वान् लोग करीब २ विश्वसनीय बालाते हैं।' तिसपर बौहोंके 'महावंश' नामक ग्रन्थमें ईस्वी सनसे पहले ४३७ के करीब सिंहल लंका (Ceylon ) में अनुरुद्धपुरके बताये जानेका वर्णन दिया हुआ है । उसमें वहांपर 'गिरि ' नामक एक निगन्थ (जैन) उपासकको स्थान देने एवं वहांके राना पांडुगाभय द्वारा निगन्थ कुम्बन्ध ' के लिये एक मंदर बनवानेके उल्लेख आये हैं। इस कथनसे स्पष्ट है कि सिंहल-लंकामें ईसासे पूर्व पांचवीं शताब्दिमें जैनधर्म मौजूद था। इस दशामें दक्षिण भारतका उस समय उसके प्रचारसे अछूता बच जाना कुछ जीको नहीं लगता । इसी कारण कतिपय विद्वान् इस बातको माननेके लिये तैयार हुये हैं कि श्री भद्रबाहस्वामीसे पहले ही जैनधर्मका अस्तित्व दक्षिण भारतमें मौजूद था। यहां पर यह शंका करना भी वृथा है कि जैनधर्म समुद्र मार्गद्वारा सीधा सिंहल-लंकाको पहुंच गया होगा; क्योंकि जब वह जहाजोंद्वारा लंका पहुंच सकता है तो उसी तरह दक्षिण भारतमें भी दाखिल हो सक्ता है । दक्षिण भारतसे भी सामुद्रिक व्यापार तब चलता था । तिसपर जैनशास्त्र स्पष्ट कहते हैं कि वहां पर जैन
.. १-स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म पृ. ३२ । २-महावंश पृ. ४९ । ३-स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनीज्म भाग १ प०३३ ।
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२३६ ] भगवान पार्श्वनाथ । धर्मका अस्तित्व बहुत प्राचीन कालसे है । इसलिये इसमें शंका करना वृथा है कि भगवान पार्श्वनाथका विहार दक्षिण भारतमें हुआ था। उनके वहां पहुंचनेके स्पष्ट प्रमाण वहांपरके उनके आगमनके स्मारक स्वरूप अतिशय तीर्थक्षेत्र आज भी मिलते हैं। कलिकुण्डपार्श्वनाथ नामक तीर्थ दक्षिण भारतमें ही है।' इसीतरह भगव नका विहार मध्यभारतमें भी हुआ था, यह उपरोक्त शास्त्र उद्धरणोंसे प्रमाणत है । प्राचीन 'निर्वाणकांड ' गथासे भी यही प्रकट है:पाबस्स समवरणे सहिया वरदत्त मुणिवरा पंच । रिस्तिदेगिरिसिहरे, णिव्याणगया णमो तेसिं ।।१९।।
यह रेशिंदेगिरि पन्ना राज्यमें है और यहां पहाड़ीपर चालीस दि जैन मंदिर हैं। इनके अतिरिक्त श्वेताम्बराचार्य भावदेवमूरि भगवान पार्श्वका विहार-वर्णन इस प्रकार करते हैं। वह कहते हैं कि पहले भगवान ने गंगा जमनाके किनारेवालों देशों में धर्म प्रचार किया और फिर वह पुंड्रदेशको विहार कर गये थे। वहांके प्रसिंह सगर ताम्रलिप्तिमें उनका विशेष उपदेश हुआ था । उपरांत बारह वर्ष के बाद वे भगशन मध्यभारतकी नागपुरीमें पहुंचे थे
और ने उनका आगमन सम्मेदाचल पर्वतपर हुआ बतलाया गया है । पर वेताम्बराचार्यने केवल उन स्थानोंका उल्लेख किया है, जहांपकी किमी खास घटनाका वर्णन उनको देना इष्ट है। इस
दि. जैन डायरेक्टरी देखो । २-पार्श्वचरित सर्ग ६ श्लो० २५८ ॥ ३-पूर्व क. ८. ओ. १-६ । ४-पूर्व. स. ८...श्लो० ५-६ । ५-पूर्व : ८-१९९. ६-पूर्व० ८-३६३ ।
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. ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२३७ हालतमें उनका अन्य प्रदेशोंको अछूता छोड़ देना ठीक ही है । इसतरह पर जहां२ भगवान पार्श्वनाथका पवित्र विहार हुआ था, वहां वहां का वर्णन जैनशास्त्रोंमें मिलता है। इस पवित्र विहारमें अव्याबाध सुख को दिलानेवाले धर्मका बहु प्रचार हुआ था । भव्यरूपी चातकों के लिये दुर्लभ धर्मामृतकी अपूर्व वर्षा हुई थी। जो भी भगवानके समवशरणमें पहुंच गया वह कृतकृत्य होगया । यही नहीं, जिस ओरसे भगवानका विहार होगया उस ओर कोसोंमें सुकाल फैल गया था-ग्रामीण लोग आनन्दमग्न होगए थे। दुर्भिक्षका वहां पता ही नहीं मिलता था। साक्षात् परमात्मा तीर्थकर भगवानकी पुण्य प्रकृतिसे सबको सब ठौर सुख ही सुख नजर पड़ता था। इस तरह पर भगवान का सर्वत्र सुखकारी धर्मप्रचार और विहार हुआ था। 'बहुदेशन माही प्रभु विहराही भवि जीवन संबोधि दये। मिथ्यामत भारी तिमिर विदारी जिनमत जारी करत भये॥ कछु इच्छा नारी विनि डगधारी होत विहारी परमगुरू । जिन प्राणिन केरा तरव सवेरा तितै नाथ मग होत शुरू। वामाके प्यारे जग उजियारे मनसों थारे पद परसों। जिन परसे सारे पातक जारे और सवारे शिव दरसों॥"
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२३८ ]
भगवान पार्श्वनाथ ।
মুতালা মীদ্বয় ? 'तमोत्तु ममतातीत ममोत्त ममतामृत । ततामितमते तात मतातीतमृतेमित ॥१०॥
--श्री समन्तभद्राचार्यः । 'हे पार्श्वनाथ ! आप ममत्व रहित हैं !' ममता-तस्कर आपसे कोसों दूर रहता है। इसीलिये 'आपका आगमरूपी अमृत सर्वोत्कृष्ट है । आपका केवलज्ञान भी अतिशय विशाल और अपरिमित है ।' उसके धवल आलोकमें अज्ञानतमसे चुंधियाई हुई आंखे यथार्थ सत्य को देखने में समर्थ होती हैं । उस वैज्ञानिक उपदेश के बल ही लोक इस अगाध संसारसागरके पार पहुंचनेका साहस कर पाता है । सचमुच भगवानके वस्तुस्वरूपमय धर्म-पीयूष को पीकर ही महान् संसार-रोगमें ग्रसित मनुष्य उपसे मुक्ति पालेते हैं । इसीलिये हे भगवन् ! — आप सबके बंधु हैं ! जन्मजरा मरण रहित हैं तथा अपरिमित हैं ।' आपके ये चरणयुगल मेरा ही क्या सारे संसारका अज्ञानांधकार दूर करदें यही भावना है । आपके परमपावन चरित्रका अवगाहन करते हुये आपके दिव्योपदेशक दर्शन पालेना भी परम उपादेय और आवश्यक है। भगवान पार्श्वनाथके जीवनचरित्र में यही एक अवसर इतना महत्वशाली है कि इसका प्रभाव उसी क्षण दिगन्तव्यापी हो गया था। तीर्थकर भगवानका सर्वज्ञपदको प्राप्त होना और फिर प्राकृत धर्मामृतकी वर्षा करना बड़ा ही महत्वपूर्ण और प्रभावशाली कार्य है। जिसतरह भगवान महावीरके जीवन में उनके इस दिव्य अवसरका प्रभाव म०
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भगवानका धर्मोपदेश! [२३९ बुद्ध और मक्खलिगोशाल जैसे उत्कट प्रचारकोंपर पड़ा था. वैसे ही भगवान पार्श्वनाथके प्रभावसे उनके समयके धार्मिक वातावरणमें एक क्रांति खड़ी होगई थी, यह हम अगाड़ी देखेंगे । यहां पर तो यह देखना मात्र इष्ट है कि भगवानने अपने धर्मोपदेशमें कहा क्या था ?
जैन मान्यता है कि तीन काल और तीनलोक में जबजब जो जो तीर्थकर होंगे, उनके धर्मो प्रदेश भी वैसे ही एक समान होंगे। उनमें एक दूसरेसे किञ्चित् भी अन्तर नहीं पड़ सक्ता है । यह एक बड़ा ही अटपटा और अनोखा सा दावा है, परन्तु ध्यान देनेसे इसकी सार्थकता प्रकट होजाती है । बेशक यह जीको नहीं लगता कि हर समयके हर तीर्थंकरका धर्मोपदेश एक ही प्रकारका और एक ही ढंगका हो। यदि उनका धर्मोपदेश एक ही प्रकार और एक ही ढंगका हरसमय होता मान लिया जाय, तो फिर विविध तीर्थंकरोंका कालान्तरमें अवतीर्ण होना कुछ महत्वशाली रहता भी नजर नहीं पड़ता, क्योंकि समयकी परिस्थिति हर समय एकसी नहीं रहती और एक अमुक प्रकारकी परिस्थितिके अनुकूल कहा गया उपदेश एक अन्य प्रकारकी परिस्थितिके लिये समुचित नहीं रह सक्ता और यह स्पष्ट है कि प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक काल में संसारी जीवोंकी दशा कभी भी एक समान नहीं रहती है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार उनकी दशा पलटती रहती है। चौथे कालके जीवोंसे आनकलके जीवोंकी आयु, काय, बुद्धि, संह. नन आदि सब बातें बहुत ही अल्प हैं और अबसे अगाडीके जीवोंकी हालत इससे भी बदतर होगी, यह जैन शास्त्रों का कथन है। स्वयं
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२४०] भगवान पार्श्वनाथ । चौथे कालमें भी सर्वदा एकसा समय नहीं रहा था । जो आयु, काय, बल आदि शक्तियां भगवान ऋषभदेवकी थीं, वह भगवान पार्श्वनाथकी नहीं थीं, यह पहले जैनशास्त्रके उद्धरणसे प्रकट हो
चुका है। अस्तु; इस दशामें जैनियोंकी तीर्थंकरोंके एक समान सनातन धर्मोपदेश देनेकी मान्यता कुछ असंगतसी अँचती है और इस दृष्टिसे यह है भी ठीक ! परन्तु तीर्थकर भगवान द्रव्योंका यथावत स्वरूप बतलाते हैं । जो वस्तुका स्वरूप है वही वह निर्दिष्ट करते हैं। वह सर्वज्ञकथित एक वैज्ञानिक भाषण है। इसलिये उसमें अन्तर पड़ना कभी और किसी दशामें भी संभव नहीं है । जो सिद्धान्त और जो तत्व एक तीर्थकरने बता दिये हैं, वही सिद्धान्त और वही तत्व दूसग तीर्थकर भी बतायगा; क्योंकि सब ही तीर्थकर सर्वज्ञ होते हैं और उनकी सर्वज्ञतामें कुछ, भी अन्तर नहीं होता। इसलिए जो बातें एक सर्वज्ञ तीर्थकर बतायगा, उसके विरुद्ध दूसरा सर्वज्ञ कुछ कथन कर ही नहीं सक्ता
और यह प्रत्यक्ष प्रमाणित है। आज भगवान महावीरके बताये हुये जैनधर्ममें सात तत्व बतलाये हुये मिलते हैं । अब यह कभी भी संभव नहीं है कि किसी भी तीर्थकरके धर्मोपदेशमें इन सात तत्वों की संख्या घटा बढ़ा दी जाय अथवा इनका क्रम बदल दिया जाय ! आज यह वैज्ञानिक ढंगसे निर्णीत हैं-जीव-अजीव मुख्य दो द्रव्य इस लोकमें हैं। उपयोग चेतना लक्षणको धारण करनेवाला जीव है और अजीवमें यह लक्षण नहीं है । जीव अजीव पुद्गलके सम्बन्धसे सांसारिक दुःखसागरमें गोते लगा रहा है। अपने मन, वचन, कायकी भली बुरी क्रियायोंकी व.षाय प्रवृत्तिके अनुसार वह
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२४१ उसी प्रकारकी पौद्गलिक शक्तियां, जिनको कर्मवर्गणायें कहते हैं, अपनेमें खींच लेता है। जब यह सुख दुख देनेवाली कर्म वर्गणायें संसारी जीवसे सम्बद्ध होनाती हैं, तब वहां अपनी प्रबलताके अनुसार नियत स्थितिके लिये ठहर जाती हैं । अस्तु; पहले दो तत्त्व तो जीवअनीव हुये और उपरांत कर्मोका आगमन रूप आश्रव और उनका जीवमें स्थिर होने रूप बन्ध यह क्रमसे तीसरे और चौथे तत्व प्रमाणित होते हैं । यहांतक तो प्राणीके सुख दुख भुगतनेका संबंध स्पष्ट किया गया है ; अब अगाड़ी इस उपायका बतलाना ही शेष है कि इस सुख दुखसे कैसे छूटा जाता है ? इसके लिये आवश्यक है कि सुख दुख देनेवाली कर्म वर्गणाओंको आने देने का मार्ग रोक दिया जाय । यही क्रिया पांचवा संवर तत्व है । अब जब कि कर्मों का आना तो रुक गया तब यही कार्य शेष रह जाता है कि सिलकमेंके कर्मोको नष्ट कर दिया जाय । यह छठा निर्नरा तत्ता है। बस जब सब कर्म ही नष्ट होगये तब जीव स्वाधीन और सुखी होनाता है । यह सातवां मोक्ष तत्त्व है । इन सात तत्वोंकी यह वैज्ञानिक लड़ी है और इसमेंका एक भी दाना इधरसे उधर सारी लड़ीको तोड़े विना नहीं किया जासक्ता है । इस कारण यह कभी भी सम्भव नहीं है कि भगवान् महावीरसे पहलेके श्री पार्श्वनाथ अथवा किसी अन्य तीर्थकरने इनसे किसी अन्य प्रकार और ढंगके तत्वों का निरूपण किया हो ! इस अवस्थामें यहां पर एक गोरखधंधासा नेत्रोंके अगाड़ी आ उपस्थित होता है । समय प्रवाहके अनुसार तीर्थंकरोंके धर्मोपदेशमें किंचित् अन्तर पड़ना आवश्यक ठहरता है और वस्तुस्थिति अथवा वैज्ञानिक रूपमें उसका सदा
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२४२ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
सर्वदा एकसा होना जरूरी प्रमाणित होता है । तो फिर यहां क्या बात है ? इसके लिये तीर्थंकर भगवानके बताये हुए स्याद्वाद सिद्धां -तका आश्रय लेना समुचित प्रतीत होता है । प्रत्येक वस्तुमें अनेक गुण हैं और परिमित शक्तिको रखनेवाले मनुष्यके लिये यह संभव नहीं है कि वह एक साथ ही उसके सब गुणोंका निरूपण कर सके । वह अपेक्षा करके ही उनका उल्लेख करेगा । यदि कोई कहे कि कुचला प्राण शोषक है, तो उसका यह कथन सर्वथा सत्य नहीं है, क्योंकि कुचलेमें प्राण पोषक तत्त्व भी मौजूद है । वातरोगमें वह बड़ा ही लाभप्रद है । इसलिये यह नहीं कहा जातक्ता कि कुचला प्राण शोषक ही है । अतएव तीर्थंकर भगवान के धर्मोपदेश के विषय में भी यही बात है । समय प्रवाहकी अपेक्षा उसके विधायक क्रममें किंचित् अन्तर उसी हद तक होतक्ता है जो उसके मूल भावका नाशक न हो और मूल भाव अथवा सैद्धांतिक तत्व सदा सर्वदा एक समान ही रहेंगे । यही बात दिगम्बर और श्वेतांबर -सम्प्रदाय के शास्त्रों में निर्दिष्ट की हुई मिलती है ।
दिगम्बर सम्प्रदाय में श्री वट्टकेर नामक एक प्राचीन और प्रसिद्ध आचार्य हुये हैं । उनका 'मूलाचार' नामका एक यत्याचार विषयक ग्रन्थ विशेष प्रामाणीक और बहु प्रचलित है । इस ग्रंथ में श्री - बट्ट केराचार्य ने सामायिक का वर्णन करते हुये स्पष्ट रीति से कहा है किवावी तित्थयरा सामाइयं संजयं उवदिसंति । छेदोवाणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य ॥ ७-३२ ॥
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अर्थात् - 'अजितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थंकरोंने सामायिक संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगवान ने 'छेदो
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भगवानका धर्मोपदेश! [२४३ पस्थापना' संयमका उपदेश दिया है ।' यहां मूल गाथामें दो जगह 'च' (य) शब्द आया है । इसको लक्ष्य करके प्रसिद्ध जैन विद्वान् पं० युगलकिशोरजी लिखते हैं कि 'एक चकारसे परिहारविशुद्धि आदि चारित्रका भी ग्रहण किया जासक्ता है और तब यह निष्कर्ष निकल सकता है कि ऋषभदेव और महावीर भगवान्ने सामायिकादि पांच प्रकारके चारित्रका प्रतिपादन किया है जिसमें छेदोपस्थापनाकी यहां प्रधानता है | शेष बाईस तीर्थंकरोंने केवल सामायिक चारित्रका प्रतिपादन किया है।' यहांपर यह स्पष्ट है कि यद्यपि वर्तमानकालके २४ तीर्थंकरोंके धर्मोपदेशके मूल भावमें कोई विशेष अन्तर नहीं था । परन्तु उनके विधायक क्रममें भेद अवश्य था ! और यह क्यों था? इसका उत्तर यही है कि समय प्रभावकी बजहसे यह भेद था। यही बात श्री वट्टकराचार्य निम्न दो गाथाओं में बतलाते हैं:'आच खदं विभजिदं विग्णादं चावि सुहदरं होदि । एदेण कारणेण दु महत्वदा पंच पण्णत्ता ॥ ३३ ॥ आदीए दुन्धिसोधणे णिहणे तह मुष्ठ दुरणुपालेया। पुरिमाद्य पच्छिमा विहु कप्पाकप्पं ण जाणंति ॥ ३४ ॥' __ अर्थात्-'पांच महाव्रतों (छेदोषस्थापना)का कथन इस वनहसे किया गया है कि इनके द्वारा सामायिकका दूसरोंको उपदेश देना, स्वयं अनुष्ठान करना पृथक् रूपसे भावनामें लाना सुगम होजाता है और अंतिम तीर्थमें शिष्य जन कठिनतासे निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे अतिशय वक्र-स्वभाव होते हैं। साथ ही
१-जैनहितैषी भाग १२ अंक ७-८ पृ. ३२५-३२६ ।
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२४४ ] भगवान पार्श्वनाथ । इन दोनों समयोंके शिष्य स्पष्ट रूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते हैं । इसलिये आदि और अन्तके तीर्थमें इस छेदोपस्थापनाके उपदेशकी जरूरत पैदा हुई है। यहां यह भी दृष्टव्य है कि आचाबने नं० ३३ की गाथामें छेदो यस्थापनाके लिये पंच महाव्रत शब्द व्यवहृत किया है । वास्तवमें छेदोपस्थापनाकी संज्ञा पंचमहाव्रत भी है और इसमें हिंसादिक भेदसे समस्त सावध कर्मका त्याग करना पड़ता है । श्रीभट्टाकलंकदेव अपनी ' तत्त्वार्थ राजवार्तिक ' में यही लिखते हैं; यथा
"सावा कर्म हिंसादिभेदेन विकल्पनिहात्तिः छेदोपस्थापना।" .. तथापि उन्होंने सामायिककी अपेक्षा व्रत एक ही कहा है और छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा उसके पांच भेद किये हैं; जैसे'सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एकं व्रतं । भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविध व्रतम् ॥'
अस्तु; इस शास्त्रीय उल्लेखसे हमारे पूर्वोक्त वक्तव्यका समर्थन होता है । श्री वट्टकेरस्वामी इन गाथाओंसे कुछ अगाडीवाली गाथाओं द्वारा भी इसी भावको स्पष्ट करते हैं। वह तीर्थंकरोंका. और भी शासन भेद बदलाते हैं । लिखते हैं:--- 'सपडिक्कमणो धम्मो पुरिसस्सय पच्छिमस्स जिणस्स । अवराह पडिकम्मणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥७-१२५॥ जावेदु अप्पण्णो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावेदु पडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२६ ॥ इरिया गोयर मुमिणादि सव्वमाचरदु मा व आचरदु। पुरिम चरिमादु सव्वे सव्वे णियमा पडिक्कमदि ॥१२७॥
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भगवानका धर्मोपदेश! [२४५ . अर्थात्-'पहले और अंतिम तीर्थंकरका धर्म अपराधके होने और न होने की अपेक्षा न करके प्रतिक्रमण सहित प्रवर्तता है । पर मध्यके बाईस तीर्थंकरोंका धर्म अपराधके होनेपर ही प्रतिक्रमणका विधान करता है, क्योंकि उनके समयमें अपराधकी बाहुल्यता नहीं होती । मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके समयमें जिस व्रतमें अपने या दूसरोंके अतीचार लगता है उसी व्रत सम्बन्धी अतीचारके विषयमें प्रतिक्र. मण किया जाता है । विपरीत इसके आदि और अन्तके तीर्थंकरों ( ऋषभ और महावीर ) के शिष्य ईर्या, गोचरी और स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए समस्त अतीचारों का आचरण करो या मत करो उन्हें समस्त प्रतिक्रमण दंडकों का उच्चारण करना होता है । आदि और अन्तके दोनों तीर्थंकरोंके शिष्यों को क्यों समस्त प्रतिक्रमण दंडकोंका उच्चारण करना होता है और क्यों मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके शिष्य उनका आचरण नहीं करते हैं ? इसके उत्तरमें आचार्य महोदय लिखते हैं:=
" मज्झिमयादिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खाय । तम्हादु जमाचरंति तं गरहेता विमुज्ज्ञंति ॥ १२८ ।। पुरिम चरिमादु जम्हा चलचित्ता चेव मोहलत्वाय । तो सब्य पडिक्कमणं अंधलय घोड-दिलुतो ।। १२९ ॥"
___ 'अर्थात-मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके शिप्य विस्मरणशीलतारहित दृदबुद्धि, स्थिरचित्त और मूढ़तारहित परीक्षापूर्वक कार्य करनेवाले होते हैं । इसलिए प्रगट रूपसे वे जिस दोष का आचरण करते हैं उस दोषसे आत्मनिन्दा करते हुए शुद्ध हो जाते हैं । पर आदि
और अन्तके दोनों तीर्थंकरोंके शिष्य चलचित्त और मूढमना होते हैं । शास्त्रका बहुत वार प्रतिपादन करनेपर भी उसे नहीं
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२४६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
जानते। उन्हें क्रमशः ऋजु जड़ और वक्र-जड़ समझना चाहिये । इसलिए उनके समस्त प्रतिक्रमण दंडकों के उच्चारणका विधन बतलाया गया है और इस विषय में अंधे घोड़ेका दृष्टांत दिया गया है ।' *
इस शास्त्रीय उद्धरण से स्पष्ट है कि भगवान महावीर और भगवान पार्श्वनाथने अपने धर्मोपदेशमें चारित्र निरूपण एक दूसरे से विभिन्न रीतिपर किया था । भगवान पार्श्वनाथ का चारित्रनिरूपण सामायिक संयम और कृत अपराध के प्रतिक्रमणरूप हुआ था और भगवान महावीर ने उसका निरूपण प्रथम तीर्थंकर की भांति छेदोपस्थापना अथवा पंचमहाव्रत और सर्वथा समस्त प्रतिक्रमण दंडका उच्चारण करनेरूप किया था । यह एक ऐतिहासिक घटना है, जिसका उल्लेख वराचार्य ने किया है और इसमें समयप्रवाह ही मुख्य कारण है किन्तु इससे मोक्षप्राप्ति के मूल उद्देश्य और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय मार्ग कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है । वह ज्योंका त्यों रहा है, इसलिये यह कहा जा सक्ता है कि दोनों तीर्थंकरों के उपदेशक्रम में कुछ भी अन्तर नहीं था । मूल सिद्धांतों में कभी भी कोई अन्तर नहीं पड़ सक्ता है । यही कारण है कि अगाध जैन साहित्य में कहीं भी प्रायः ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है जिससे एक तीर्थंकरका उपदेश दूसरेके विरुद्ध प्रमाणित हो । इस अवस्था में यह स्वीकार किया जा सक्ता है कि जिस जैनधर्मका प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया था और जो आज हमें प्राप्त है वही धर्म पार्श्वनाथ की दिव्यध्वनिसे निरूपित हुआ था। आजकलके * जैनहितैषी भाग १२ अंक ७-८ पृ० ३२६-३२७.
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भगवानका धर्मोपदेश! [२४७ प्राच्यविद्याअन्वेषकों को भी यही व्याख्या यथार्थ प्रतीत हुई है । उनमें से एकका कथन है कि 'इस ही प्रकारके अथवा इससे मिलने हुए प्रकारके धर्मके मुख्य विचार महावीरस्वामीके पहले भी प्रवर्तते थे, ऐमा मानने में भी कोई बाधा नहीं आती। मूल तत्वों में कोई स्पष्ट फर्क हुआ, ऐसा मानने का कोई कारण ननर नहीं आता और इसलिये महावीरस्वामीके पहले भी जैनदर्शन था, ऐसी जैनों की मान्यता स्वीकार की जासक्ती है ।....इसके लिये हमारे पास कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, परन्तु साथ ही इसके विरुद्ध भी कोई प्रमाण नहीं है । जैनधर्म का स्वरूप ही इस बात की पुष्टि करता है, क्योंकि पुद्गल के अणु आत्मामें कर्म की उत्पत्ति करते हैं, यह इसका मुख्य सिद्धान्त है और इस सिद्धान्त की प्राचीन विशेषताके कारण ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि इसका मूल ई ०. सन्के पहले ८वीं-९वीं शताब्दिमें है ।" अतएव भगवान पार्श्वनाथने भी ऐसा ही धर्मोपदेश दिया था, जैसा कि आज जैनधर्म में मिलता है, यह मान लेना युक्तियुक्त है।
श्वेताम्बर शास्त्रों के कथनसे भी हमारे उपरोक्त मन्तव्यमें कुछ बाधा नहीं आती है । उनका भी कथन दिगम्बर जैन शास्त्रोंके अनुसार इस व्याख्याकी पुष्टि करता है कि मूल में सब तीर्थंकरोंका धर्म एक समान होता है, परन्तु समयानुसार उनके प्रतिपादन क्रममें अथवा चारित्र नियमों में कुछ अन्तर पड़ सकता है, यद्यपि वह मूल
xGlassenapp, Ephemerids Orientales No. P.13, & Cambridge History of India-Anc. India Vol. I. P. 154. १-जैनजगत वर्ष १ ।
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२४८
भगवान् पार्श्वनाथ |
भावके प्रतिकूल और उसको मेटनेवाला नहीं होता है । श्वेताम्बरोंके ' उत्तराध्ययन सूत्र' में ऐसा ही वर्णन हमें ' केशी और गौतम ' के सम्वादरूपमें मिलता है। केशी श्रीपार्श्वनाथजीकी शिष्य परम्पराके एक आचार्य हैं और गौतम भगवान महावीरजीके प्रवान गणधर हैं। इन दोनों महानुभावका संघनहित आकर श्रावस्तीके उद्यानों में ठहरना और फिर परस्पर समाधान करना बताया गया है | वहां लिखा है :
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"पुच्छ भन्ते जहिच्छन्ते केसिं गोयमन्त्री | तओ केसी अणुन्नाए गोयमं इणमब्बवी ।। २२ ॥ चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ वद्धमाणे पासेण य महामुनी || २३ ॥ एगज्जपत्र नाणं विसेसे किं नु कारणं । धम्मे दुबि मेहाविक विप्पञ्चओ न ते ।। २४ ।। तओ केसिं बुवन्तं तु गोयमो इणमब्बवी । पन समिक्ख धम्मतत्तं तत्तविणिच्छियं ॥ २५ ॥ पुरिमा उज्जुजडा उ वंकजडा य पच्छिमा । -मज्ज्ञिमा उज्जुपन्ना उतेण धम्मे दुहा कए || २६ ॥
रमाणां दुव्विसोज्झोउ चरिमाणं दुरणुपालओ । कृप्पो मज्झिमाणं तु सुविसोझो सुपालय ।। २७ ॥ साहु गोयम पना ते छिन्नो मे संसओ इमो ।"
इनका भाव यही है कि ऋषि केशीने गौतमगणधर से पूछा था कि यह क्या कारण है जब कि दोनों तीर्थक्करोंके धर्म एक ही उद्देश्यके लिए हैं तत्र एक में चार व्रत और एक में पांच बताये गये
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२४९ हैं। भगवान पार्श्वनाथनीने 'चाउन्जाम' धर्म मुख्य बतलाया था
और भगवान् महावीर 'पंचमहाव्वय' का प्रतिपादन करते हैं । इसपर गौतम गणधर यह उत्तर देते बतलाये गये हैं कि 'बुद्धि धर्मके सत्यको और यथार्थ वस्तुओं को पहिचानती है । पहलेके ऋषि सरल थे परन्तु समझके कोता थे और पीछे के ऋषि अस्पष्टवादी और समझके कोता (Slov) थे; किन्तु इन दोनोंके मध्यके सरल और बुद्धिमान् थे । इसलिये धर्मके दो रूप हैं । पहलेके मुश्कलसे धर्म व्रतोंको समझते थे और पीछेके मुशकिलसे उनका आचरण कर सके थे; परन्तु मध्यके उनको सुगमतासे समझते और पालते थे ।'' यहां भी वही भाव है । समय प्रवाहके प्रभावको व्यक्त किया गया है; यद्यपि धर्मके मूलभावको बुद्धि नहीं भुलाती है यह स्पष्ट कह दिया गया है । दिगम्बराचार्य के उपरोक्त वक्तव्यके अनुसार यहां भी भगवन् महावीरके चारित्र धर्मका प्रति पादन " पांच महाव्रत " रूप बतलाया गया है। और वह मध्यके २२ तीर्थकरोंके निरूपण क्रमसे उन्हीं कारणोंवश विभिन्न बतलाया है, जिनको दिगम्बराचार्यने प्रकट किया है । यहांपर यदि अन्तर है तो सिर्फ 'चार्यामधर्म' का प्रतेपादन भगवान पार्श्वनाथ द्वारा बतलाने में है। दिगम्बराचार्य भगवान पर्वनाथ एवं मध्यके अन्य तीर्थंकरोंका धर्म सामायिक-संयमरूप बत. लाते हैं और श्वेताम्बरमूत्र में वह चार प्रकारका बतलाया गया है। श्वे के मूलसुत्रमें इस 'चातुर्याम' शब्दकी कुछ भी व्याख्या नहीं की गई है, परन्तु उपरान्तके श्वेताम्बर टीकाकार उसका भाव
१-जैनसूत्र (S B E. ) भाग २ पृ. १२२-१२३ ।
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२५०] भगवान पार्श्वनाथ । अहिंसा, अचौर्य, सत्य और अपरिग्रह व्रतरूप करते हैं । इप्स २०६का भाव मूलमें इसी रूप था, इस बातको प्रकट करनेके लिये कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । हां, यह अवश्य है कि बौद्धशास्त्रोंमें भी इसी चतुर प्रकारके धर्म का निरुपण जैन साधुओं के संबंध किया हुआ मिलता है परन्तु वहां उसके भाव अहिंसादि चार व्रतोंके रूप में नहीं बताये गये हैं; बलिक दिगम्बर संप्रदाय के प्रख्यात आचार्य श्रीसमन्तभद्रस्वामीके निम्न श्लोकसे उसका सामञ्जस्य ठीक बैठ जाता हुआ वहां मिलता है:‘विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तप वी स प्रशस्यते ॥ १०॥"
इस इलोकमें तपस्वी अथवा मुनि वह बतलाया गया है जो विषयोंकी आशा और आकांक्षासे रहित हो, निराम्भ हो, अपरिग्रही
और ज्ञ न ध्यानमय तपको धारण किये हुये तपोरत्न ही हो । यहां निग्रंथ मुनिके चार ही विशेषण गिनाये गये हैं और यह ठीक वैसे ही हैं जैसे कि बौद्धशास्त्र में बताये गये हैं। बौद्धशास्त्र में यह उल्लेख साधु अवस्था ( सामन्न फल ) को विविध मतोंके अनुसार प्रगट करते हुये आया है। इसलिये यहां र ऋषियों की दशाको स्पष्ट करनेका भाव है और इसी भाव में ऋषियों के चार विशेषण दिगंबर जैनाचार्यने उक्त प्रकार गिनाये हैं। अतएव निग्नथ धर्ममें चातुर्याम धर्म का भाव उक्त प्रकार था, यह बौ दशास्त्रके उल्लेखसे स्पष्ट है । इसका विषद विवेचन हमने अन्यत्र प्रगट किया है । अतएव
१-दीघनिकाय ( P. T. S.) भाग १ पृ. ५७-५८ । २-देखो * भगवान महावीर और म० बुद्ध' का परिशिष्ट ।
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भगवानका धर्मोपदेश! [२५१ भगवान पार्श्वनाथ नीके सम्बन्धमें भी इस शब्दका भाव इस रूपमें ही व्यक्त करना विशेष युक्तियुक्त प्रतीत होता है; क्योंकि भगवान पार्श्वनाथनीके समयमें भी ब्रह्मचर्य धर्मकी आवश्यक्ता बेढब थी, यह हम पहले देख चुके हैं । जिस प्रकार कहा जाता है कि भगवान् महावीरजीके समयमें साधुओंमें ब्रह्मचर्यकी शिथिलता देखकर उसका अलग निरूपण करना आवश्यक होगया था उसी तरह वह आवश्यक्ता भगवान् पार्श्वनायनीके समयमें भी कुछ कम नहीं थी। इस दशामें श्वे० सूत्रकी इस घटनाकथाका परिचय ठीक नहीं बैठता है । श्री समंतभद्राचार्य के बताये हुये विशेषणरूप चातुर्याम धर्म पार्श्वनाथनी और महावीरजी दोनों ही तीर्थंकरोंके शासनमें मिलता प्रगट होता है । फिर यहां अंतर कुछ भी नहीं रहता है
और इस हालतमें उक्त श्वे. कथनका कुछ भी महत्व शेष नहीं रहता ! यह सामान्य रीतिसे कुछ अटपटासा मालूम होता है; परन्तु श्वे. आगमग्रन्थों के संकलन-क्रमको ध्यानमें रखनेसे इसमें संशय अथवा विस्मय करनेको कोई स्थान शेष नहीं रहता ! उन्होंने अपने सैद्धांतिक भेदको स्पष्ट करनेके लिये अनेक पूर्वापर विरोधित उल्लेख किये हैं। खासकर उन्होंने बौद्धोंके साहित्यको अपना आदर्शसा माना है। यही कारण है कि श्वे. सूत्रग्रन्थों में बहुत कुछ बौद्ध ग्रन्थोंसे लिया हुआ आन मिल जाता है। और इस
१. 'दिगम्बर जैन ' वर्ष १९ अंक ९ से प्रकट हमारी 'श्वेतांबर जैनोंके आगमग्रन्थ' शीर्षक लेखमाला तथा दी हिस्ट्री ऑफ प्री०. बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ. ३७५-३७७. २. जार्ल चारपेन्टियर. उत्तराध्ययनसूत्रकी भूमिका और नोट ।
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२५२] भगवान पार्श्वनाथ । अवस्थामें यह कोई अनोखी बात नहीं है, यदि श्वेतांबराचार्यने बौद्ध ग्रन्थमें चातुर्याम सिद्धांतका उल्लेख देखकर उसको अपने शास्त्रमें स्थान दिया हो। अगाड़ी जो भगवान् पार्श्वनाथनीको वस्त्र धारण करते हुये बतलाया है, उससे यही प्रमाणित होता है कि यहांपर वास्तविक घटनाका उल्लेख नहीं किया जारहा है, क्योंकि यह स्वतंत्र साक्षी द्वारा प्रमाणित है कि भगवान् पार्श्वनाथ भी दिगंबर वेष में रहे थे; जैसे कि हम अगाडी दखेंगे। तिप्तपर उक्त श्वे. सूत्र में गौतमगणधरको अलग संघसहित एकाकी विचरते प्रगट किया गया है। वहां भगवान महावीरका कुछ भी उल्लेख नहीं है, किन्तु यह प्रकट है कि भगवान् महावीर संघसहित विहार करते थे और उनके प्रधान गणधर गौतमस्वामी सदा ही उनके साथ रहते थे । शे के सूत्रकृताङ्गमें (२।६) गोशालने इसी बातको लक्ष्य करके भगवान महावीरपर आक्षेप किया है । श्वेताम्बरोंके उवाप्सग दमाओं के ग्रन्थसे भी भगवान के संघमें गौतम गणधरका साथ रहना प्रमाणित है। अतएव यह किस तरह पर संभव हो मक्ता है कि गौतमस्वामी अकेले ही केशी ऋषिको श्रावस्ती में मिले हों ? इस दशामें श्वे. सूत्रके उक्त कथनको यथार्थ सत्य स्वीकार करलेना जरा कठिन है; परन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि उसका आधार एक ऐतिहासिक तथ्य है जो भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीरके धर्ममें एक सामान्य अन्तर प्रगट करता है । अस्तु; ____ 'उत्तराध्ययन सूत्र में अगाड़ी बहुतसे छोटे मोटे मतभेदोंका उल्लेख किया गया है, जिनमें मुख्य मुनिलिङ्ग विषयक है । शेषमें प्रतिक्रमण संबंधमें वहां कहीं भी कुछ उल्लेख नहीं है। इस मुनिलिङ्ग
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भगवानका धर्मोपदेश! [२५३ विषयक उल्लेखका विवेचन हम अगाड़ी भगवान महावीरजीका संबंध प्रगट करते हुये करेंगे । किंतु अपने विषयको स्पष्ट करनेके लिये उस उद्धरणको यहीं देदेना हम आवश्यक समझते हैं, जिससे पाठकोंको तीर्थकरोंके धर्मोपदेश संबंधी हमारी प्रारंभिक व्याख्याकी सार्थकता और भी स्पष्ट हो जावेगी । उत्तराध्ययन सूत्रमें लिखा है:
"अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहंसु गोयमा ॥२८॥ अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा ॥ २९ ॥ एगकज्जपवनाणं विसेसे किं नु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी कहं विप्पचओ न ते ॥ ३० ॥ केसिमेवं बुवाणं तु गोयमो इणमब्बवी । विन्नाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं ।। ३१ ॥ पच्चयत्थं च लोगस्स नारभाविह विगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगपभोयणं ॥ ३२ ॥ अहभवे पइन्ना उ मोक्खसब्भूय साहणा। नाणं च दंसणं चेव चरित्तं चेव निच्छए ॥ ३३ ॥
यहां केशीश्रमण गौतम गणधरसे यह पूछते बताये गये हैं कि 'वईमानस्वामीके धर्ममें वस्त्र पहिनना मना है और पार्श्वनाथजीके धर्ममें आभ्यन्तर और बहिर वस्त्र धारण करना उचित है। दोनों ही धर्म एक उद्देश्यको लिये हुये हैं फिर यह अन्तर कैसा ?' गौतमगणधर उत्तरमें कहते हैं कि 'अपने उत्कृष्ट ज्ञानसे विषयको निर्धारित करते हुए तीर्थंकरोंने जो उचित समझा सो नियत किया। धार्मिक पुरुषोंके विविध बाह्य चिन्ह उन को वैसा समझने के लिये
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२५४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
बताये गये हैं । लक्षणमय चिन्होंका उद्देश्य उनकी धार्मिक जीवनमें उपयोगिता है और उनके स्वरूपको प्रकट करना है । अब तीर्थकरों का कथन है कि सम्यक्ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्षके कारण हैं ( न कि बाह्य चिन्ह ) । " केशीश्रमण इप उत्तरसे संतोषित होजाते हैं । इस घटना में भी ऐतिहासिक सत्यको पाना जरा कठिन है; यद्यपि आजकल इतिहासज्ञ इसी मान्यता से पार्श्वनाथजीकी शिष्य परम्पराको वस्त्रधारी प्रकट करते हैं, किन्तु हम अगाड़ी देखेंगे कि बात वास्तव में यूं नहीं है । जैन मुनियोंका भेष प्राचीन कालमें भी नग्न ही था । यहांपर जिस सरलता से इस गंभीर मतभेदका समाधान किया गया है, यह दृष्टव्य है । उस जमाने में जबकि सैद्धान्तिक वादविवादका संघर्ष चर्मसीमा पर था तब इस मतभेदका राजीनामा उस सरल ढंगसे होगया होगा जैसा कि उक्त
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श्वे० सूत्र में कहा गया है, यह कुछ जीको नहीं लगता है । फिर भी जो हो, इससे हमारे कथनकी पुष्टि होती है कि समयप्रवाहका प्रभाव सामान्य धार्मिक क्रियायों में अन्तर लासक्ता है | भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीरजीके धर्मोपदेशके मध्य जो अन्तर था वह हम ऊपर देख चुके हैं और उससे यह स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित धर्म भी प्रायः वैसा ही था, जैसा कि आज हमें मिल रहा है । अस्तु;
भगवान पार्श्वनाथजीने अपने धर्मोपदेश द्वारा उस समयके सैद्धान्तिक वातावरणको प्रौढ़ बना दिया था। साधरण जनता लौकिक और पारलौकिक दोनों ही बातों में पराश्रित हो रही थी । लौ केक १ जैनसूत्र (S. B. E ) भाग २ पृ० १२३.
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भगवानका धर्मोपदेश! [२५५ बातोंमें ब्राह्मणवर्ण अपनी प्रधानताका सिक्का जमाये हुये था, यह हम देख चुके हैं । साथ ही यह भी जान चुके हैं कि ईश्वरवादका बोलबाला उस समय होरहा था और जनता पारलौकिक बातोंमें भी पराश्रित बनी हुई थी। लोगोंको विश्वास था कि जगतमें जो कुछ क्रिया होरही है वह ईश्वर आज्ञाका फल है तथापि विप्र लोगोंकी सहायतासे यज्ञ आदि रचकर इतना पुण्य कमा लेना इष्ट होता था कि जिससे प्रभु प्रसन्न होकर उन्हें स्वर्गसुखका स्वामी बना दें। इसीमें पारलौकिक धर्मकी इतिश्री साधारण जनताके लिये हो जाती थी और लौकिक धर्ममें येनकेन प्रकारेण पुत्र-मुखके दर्शन कर लेना आवश्यक होरहा था। यहां ब्रह्मचर्य धर्म का प्रायः अभाव ही था, साधारण जनता इस दशासे पूर्ण संतोषित नहीं थी, यह भी
हम देख चुके हैं। अस्तु; इस अवस्था में लोगोंको पराश्रिताके दुःख. दाई पंजेसे निकालना आवश्यक था । परावलम्बी होना हरहालतमें
बुरा है, भगवान् पार्श्वनाथनीके धर्मोपदेशसे लोगोंको यह बात बिल्कुल हृदयंगम होगई थी।
_ भगवान् पार्श्वनाथने कहा था कि यह लोक अनादिनिधन है । न कभी इसका प्रारंभ हुआ और न कभी इसका अन्त होगा, यह जैसा है वैसा ही रहेगा। परंतु इसमें परिवर्तन होते रहते हैं । इन परिवर्तनों में एक पर्याय-हालतकी उत्पत्ति, उसका अस्तित्व
और दुसरीका नाश होता रहता है । इसतरह इस लोकमें कोई भी वस्तु स्थाई नहीं हैं । सब ही परिवर्तन शील हैं, अस्थिर हैं, पानीके बुदबुदेके समान नष्ट होनेवाली हैं , इसलिये इस परिवर्तनशील संसारके. मोहमें पड़ा रहना ठीक नहीं हैं।
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२५६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
जीव नित्य है । वह अनादिकाल से इस संसारके झूठे मोह में पड़ा हुआ दुःख भुगत रहा है । परपदार्थ जो पुद्गल है उसके संबन्ध में पड़ा हुआ यह जीव एक भवका अन्त करके दूसरे में जन्म लेता है । इस तरह यद्यपि संसार में वह जन्म-मरणरूपी परिभ्रमणमें पड़ा रुलता रहता है, परंतु वह मूलमें अपने स्वभावसे च्युत नहीं होता है ।' वह अपने स्वभावमें अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंत सुख और अनंतवीर्य रूप है; किंतु पौगलिक सम्बन्धके कारण उसके यह स्वाभाविक गुण जाहिरा प्रगट नहीं रहते हैं । वह उसी तरह छुप रहे हैं जिस तरह गंदले पानीमें उसका निर्मल रूप छुप जाता है । इस तरह जीव और पुद्गल अर्थात् अजीवकी मुख्यतासे ही इस लोक में विविध अभिनय देखनेको मिल रहे हैं । अजीव पदार्थ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल रूप हैं । पुद्गल स्पर्श, रूप, रस, गंधमय है और इसका जीवसे कितना घनिष्ट संबंध है. यह ऊपरके कथनसे प्रकट है । यह अनंत है और अणुरूप है । धर्म और अधर्म द्रव्योंका भाव पुण्य-पाप नहीं है । यह एक स्वतंत्र प्रकारका पदार्थ है जो जीवको क्रमसे चलने और ठहरनेमें सहायक है । जिस तरह पानी मछलीकी सहायता करता है उसी तरह धर्म द्रव्य जीवकी गतिमें सहायक है और जैसे वृक्षकी छाया
१. बौद्धोंके 'ब्रह्मजालसुत्त' में प्राचीन श्रमणोंका ऐसा ही श्रद्धान बतलाया गया है । वहां लिखा है कि श्रमणोंके अनुसार 'जीव नित्य है; लोक किसी नवीन पदार्थको जन्म नहीं देता है । वह पर्वतकी भांति स्थिर है । यद्यपि जीव संसारमें परिभ्रमण करते हैं वैसे वैसे रहते हैं ।' यह उल्लेख भगवान पार्श्वनाथ के सम्बन्धमें है । इसके लिए देखो भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० २२० ।
तो भी वे हमेशा
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भगवानका धर्मोपदेश !
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वटोहीको प्रिय है वैसे ही अधर्म द्रव्य जीवको स्थिर रखने में सहायता देती है । आकाश द्रव्य अनंत है और इसका कार्य जीवादि द्रव्योंको अवकाश देना है और कालद्रव्य भी एक स्वतंत्र और अखंड द्रव्य है जो पर्यायोंमें अन्तर लाने में कारणभूत है । इस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छह द्रव्य इस लोकको वेष्टित किये बतलाये गये हैं । प्रधानतया जीव और अजीव में ही ये सब गर्भित हैं । और संसारी आत्मा के उल्लेखसे इन दोनों द्रव्यों का बोध एक साथ होता है । अतएव भगवान् पार्श्वनाथने स्वयं जीवको ही पूर्ण स्वाधीन बतलाया था । इस लोकका नियंत्रण किसी अन्य ईश्वर आदिके हाथमें नहीं सौंपा था और न उसके द्वारा इस लोकको सिरजते और नाश होते बतलाया था | स्वयं जीवात्मा ही अपने कर्मोंसे संसार दुःखमें फंसा हुआ है और वही अपने सत्प्रयत्नों द्वारा इस दुःखबन्धनसे मुक्त होसक्ता है । परावलम्बी होने की जरूरत नहीं है। सचमुच इस प्राकृत उपदेशका असर उस समय लोगों पर खासा पड़ा था । सबहीको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये इस प्राकृत संदेशके अनुरूप किंचित् अपने सिद्धान्तोंको बना लेना पड़ा था और बहुतेरे लोग तो स्वयं भगवान्की शरण आगये थे, यह हम अगाड़ी देखेंगे | भगवानका उपदेश प्राकृत रूपमें यथार्थ सत्य था, वह अगाध था और एक विज्ञान था। यहांपर उसके सामान्य अवलोकन द्वारा एक झांकीभर लगाई जाती है । पूर्ण परिचय और उसका पूर्ण महत्व जानने के लिये तो अतुल जैनसैद्धान्तिकग्रंथोंका परिशीलन करना उचित है । अस्तु;
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२५८] भगवान पार्श्वनाथ । . भगवान्के उस स्वाधीन संदेशका समुचित आदर हुआ । उस समय लोग यह जाननेके लिये उत्सुक हो उठे कि आखिर संसारमोहमें फंसा हुआ यह जीव किसतरह सुख-दुख भुगतता है । इसके भले-बुरे कार्योंका फल सुख दुखरूपमें क्योंकर मिल जाता है ? कोई बाह्यशक्ति तो ऐसी है नहीं जो इसे सुख-दुःख पहुंचाती हो और यह सुख-दुःखका अनुभव करता ही है । इसका भी कोई कारण होना चाहिये ! भगवान पार्श्वनाथके निकटसे उनकी इस शंकाका समाधान होगया था । भगवान्ने बतला दिया था कि इस लोकमें एक ऐसा सूक्ष्म पुद्गल (Matter) मौजूद है, जो संसारी जीवात्माकी मन, वचन, कायरूप क्रियाकी प्रवृत्ति, जिसको कि योग कहते हैं, उसके द्वारा उसकी ओर आकर्षित होकर कषायादिके कारण उससे संबंधित होजाता है । यही उसे सुख और दुखका अनुभव कराता है । जीवात्मा अनादिसे इस पुद्गलके संबंधमें पड़ा हुआ है और इसके मोहमें पड़ा इच्छाका गुलाम बन रहा है । इस इच्छा राक्षसीके फरमानोंके मुताबिक उसे अपने मन, वचन और कायको प्रगतिशील बनाना पड़ता है, जिसके कारण सूक्ष्म पुद्गलपरमाणु उसमें उसी तरह आकर चिपट जाते हैं जिस तरह शरीरमें तेल लगाये हुये मनुष्यकी देहपर मिट्टी स्वयं आकर जकड़ जाती है। जीवात्माकी मन, वचन और कायरूप क्रिया मुख्यतः क्रोध, मान, माया, लोभरूप होती है । बप्त जितनी ही अधिकता और तीव्रता इन क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषायोंके करनेमें होती है उतने ही अधिक और तीव्र रूपसे सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं, जिनको कर्मवर्गणायें कहते हैं, का आगमन उसमें होता है और उतना ही
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२५९ अधिक और तीव्र उसका संसार बंधता है। यदि कोई व्यक्ति बहुत ही मन्दकषायी है तो सचमुच ही उसका भविष्य किचिंत सुखमय है और इसके बरअक्स जो व्यक्ति बहुत ही उग्ररूपमें कषायोंमें लीन है तो उसके लिये अगाड़ी दुःखोंकी जलती भट्टी तैयार है । इसलिये यह जीवात्माके ही आधीन है कि वह चाहे अपने जीवनको सुखरूप बनाले अथवा उसे दुःखोंसे तप्तायमान एक ज्वालामुखीमें पलट दे ! किन्तु उसे यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि इस संसारमें बह पूर्ण सुखी नहीं बन सक्ता है । धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य उसे निराकुल सुखको नहीं दिला सक्ते हैं । स्त्री, पुत्र और बंधुजन उसे सच्चे सुखका अनुभव नहीं करा सक्ते हैं । लोकमें कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जो उसे स्थाई सुखका रसास्वादन करा सके ! जब कभी हम किसी कारणसे आनंदमग्न होजाते हैं, तो यही कहते हैं कि 'आज हमने अपने आपका खूब आनंद लूटा ।' (We well enjoyed ourselves) यह उद्गार साफ कह रहा है कि हमारे बाहिर कहीं भी आनंद अथवा सुख नहीं है ! हम कहते हैं कि बढ़िया मिष्टान्न या सोहनहलुएमें बड़ा आनंद है, उसके खाने से हमें आनंद मिलता है, परन्तु यह झूठा ख्याल है । न तो सोह नहलुएमें आनन्द है और न उसके मठा२ स्वाद लेनेमें कुछ सुख है । कितना भी खा लीनिये, पर उससे तृप्ति नहीं होती कि फिर उसको कभी न खानेके लिये तबियत न चले। फिर सोहनहलुआ सबको अच्छा भी नहीं लगता, कोई २ उसके नामसे चिढ़ते हैं तो फिर भला सोहनहलुएमें आनन्द कहां रहा ? यदि उसका गुण आनंदरूप है तो सबको ही उसमें आनंद मिलना
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२६० ] भगवान पार्श्वनाथ । चाहिये, किन्तु सबको समान रीतिसे उसमें आनंद नहीं मिलता। इसी तरह पान भारतीयोंको बड़ा प्रिय है । उसको खानेसे उनको आनंद मिलता है, परन्तु यूरोपियन लोग उसको एक बहुत बुरी चीन समझते हैं, फिर वह आनन्ददायक वस्तु कहां रही ? रोगी मनुष्यको वही मिष्टान्न कडुआ मालूम देता है जिसको बह पहले बड़े चावसे खाता था । इन प्रत्यक्ष उदाहरणोंसे यह स्पष्ट है कि बाह्य पदार्थोंमें सुख अथवा आनन्द नहीं है। साथ ही जरा और विचार करनेसे यह भी विदित होनाता है कि इंद्रियनित विषयोंकी तृप्ति करनेमें भी सुख नहीं है । लोग कहते हैं कि मिठाई खानेमें बड़ा आनन्द मिलता है। दूसरे शब्दों में रसना इंद्रियकी मना लूटनेमें आनन्द मिलता खयाल किया जाता है; परन्तु यहाँ भी भुलावा है । जिस समय हम किसी गहन चिंतामें व्यस्त होते है तो हमें रसना इंद्रियका मना तृप्त नहीं कर सक्ता है । हम उस विचारमग्न दशामें यह नहीं जान पाते हैं कि हमने क्या और कितना खा लिया है । यह क्यों होता है ? यदि रसना इंद्रियमें आनन्द देने या सुखी बनानेकी शक्ति होती तो वह हरसमय आनंददायक होना चाहिये थी ? परन्तु प्रत्यक्ष ऐसा नहीं होता है । जबतक जीवात्माका उपयोग उस इंद्रियकी क्रियामें लीन रहता है तब ही तक उसे आनन्द जैसा अनुभव होता है। इसलिये कहना होगा कि इन्द्रियजनित विषयवासनाओंमें भी सुख नहीं है । सुख स्वयं हमारे भीतर है-हममें है-हमारी उपयोगमई मात्मामें है । अतएव सच्चा सुख पानेके लिये हमको सब ही ऐसे सम्बन्धोंको त्याग देना आवश्यक है जो जीवात्माके स्वभावके प्रति
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कूल हैं, और इन परसम्बंधों को त्याग देना उसी तरह संभव है जिस तरह देहपर चिपटी हुई मिट्टीको अलग कर देना सम्भव है । नाइट्रोजन और हाइड्रोजन गैसें अपने सम्बंधितरूपमें अपनी असली हालतको जाहिरा गंवा देतीं हैं; परन्तु वह अपनी स्वाभाविक दशा में उसे फिर प्राप्त कर लेती हैं। यही संसारमें रुलते हुये जीवके लिये संभव है, किन्तु यहां पर एक प्रश्न अगाड़ी आता है कि सूक्ष्मपुद्गल कर्मवर्गणायें उसे दुःख और सुख कैसे पहुंचाती हैं ? उनसे एकसाथ दो तरह की हालत कैसे पैदा होजाती है ?
भगवान पार्श्वनाथ धर्मोपदेशमें इस शङ्काका प्राकृत निरसन किया हुआ मिलता है । उन्होंने बतला दिया है कि कर्म वर्गणाओंके अनेकानेक भेद हैं । जितनी ही हालतें इस संसार में हो सक्ती हैं उन सबके अनुरूप कर्मवर्गणाएँ मौजूद हैं । शरीरको सिरजने वाला केवल एक नामकर्मरूपी सूक्ष्म पुद्गल ही है; परन्तु उसके अन्तरभेद भी कई हैं । हड्डियोंका निर्माणकर्ता एक 'अस्थिकर्म' उसीका भेद है, किन्तु यह समग्र कर्म वर्गणा में मुख्यतः आठ प्रकार की बताई गई हैं। इन्हीं उत्तरभेद १४८ होजाते हैं और फिर वह अगणितमें भी परिगणित किये जाते हैं। उसके मुख्य आठ भेद इस प्रकार बताये गए हैं:
१. ज्ञानावर्णीय कर्म - वह शक्ति है जो जीवात्मा के ज्ञान गुणको आच्छादित करती है ।
२. दर्शनावर्णीय कर्म - वह शक्ति है जो जीवात्मा के देखनेकी शक्ति में बाधा डालती है ।
३. अंतराय कर्म - यह आत्मा के निज बलपर आच्छादन डालता है ।
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२६२] भगवान पार्श्वनाथ ।
___४. मोहनीय कर्म-इसके द्वारा आत्माका श्रद्धान व चारित्रगुण विकृत होता है। यहांतक यह चारों कर्म आत्माके निजी स्वभावके विरोधक हैं, इसलिये इन चारोंको 'चार घातिया कर्म' कहते हैं।
५. वेदनीय कर्म-वह शक्ति है जिसके द्वारा संसारी जीवको सुख-दुःख की सामिग्री प्राप्त होती है ।
६. नामकर्म-वह शक्ति है जिसके द्वारा जीवात्मा विविध शरीर धारण करता है।
७. गोत्रकर्म-वह शक्ति है जिसके द्वारा जीवात्मा उच्च और नीच कुलमें जन्म लेता है।
८. और आयु कर्म-वह शक्ति है जिसके द्वारा जीवात्मा एक नियत कालके लिये मनुष्य, देव, तिर्यंच और नर्कगतिमें निर्वासित रहता है।
इन आठ प्रकारकी कर्भशक्तियों के कारण ही जीवात्मा संसारमें सुख-दुःख भुगतता रहता है । यह कर्म शक्तियां मनुष्यकी मन, वचन, कायकी बुरी और भली क्रियाके अनुसार ज्यादा और कम जटिल होती रहती हैं, यह ऊपर देखा जाचुका है । जैनशास्त्रोंमें बड़े विस्तारसे इन कर्मशक्तियों के फल देनेका व्यौरा दिया है। तत्वार्थधिगम सूत्र और गोभट्टसारनीमें इसको इसतरह स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य अपना भविष्य जैसा चाहे वैसा बना सक्ता है। उसे प्राकृत नियमों का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है, जिसके बल वह अपने आय-व्ययका लेखा बराबर मिलाता रहता है। यह कर्मवर्गणायें हरक्षण जीवात्मामें आती भी रहती हैं और झड़ती भी
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भगवानका धर्मोपदेश। [२६३ जाती हैं क्योंकि जीवात्मा इस संसार में किसी क्षणके लिये भी प्रतिदिन मन, वचन, कायरूपी संकल्प विकल्पोंसे रहित नहीं है। यदि किसी व्यक्तिने चिढ़कर अपने विपक्षीके ज्ञानोपार्जनमें अंतराय डाल दिया, उसकी पुस्तकों को छुपाकर रख दिया, उसने वहां अपनी असत् क्रियासे अपने आत्माके ज्ञानगुणको और ज्यादा ढक लिया; क्योंकि दूसरेके ज्ञानमें बाधा डालते समय उसके परिणामों में विकलता और कायकी असक्रिया हुई थी, जो तद्रूप सूक्ष्मपुद्गलको अपनी ओर खींचने में मुख्य कारण थी। इसी तरह दूसरेके दर्शन करने में अंतराय डालना, किसीको लाभ न होने देना आदि ऐसी क्रियायें हैं जो आत्मामें दर्शनावर्णीय अन्तराय आदि कर्ममलको अधिकाधिक बढ़ाती हैं। इनके बरअक्स दूसरोंको ज्ञानदान देना, पढ़ाना, शंकाकी निवृत्ति करना, छात्रवृत्ति देना, ग्रन्थों का प्रकाश करना आदि ऐसे कृत्य हैं जो ज्ञानको आवरण करनेवाली कर्मवर्गणाको क्षीण बना देते हैं और इस दशामें जीवात्माका ज्ञान अधिकाधिक प्रगट होता है । संसारमें जो कोई अधिक ज्ञानवान और कोई बिलकुल जड़बुद्धि दिखलाई पड़ता है उसका यही ज्ञानावर्णीय कर्मकी अधिकता अथवा कमताई कारण है। इसी तरह किसीको इष्टदेवके दर्शन करा देना, लाभके मार्गमेंका रोड़ा दूर कर देना, धर्माचरण करना आदि सदसत्य ऐसे हैं जो आत्माके निजी गुणोंको प्रगट होने देने में सहायक हैं। इस तरह शुभाशुभ कर्मों द्वारा आत्माकी विविध दशाएं होती हुई इस संसार में देखी जाती हैं। _ भगवान्ने अपने उपदेश द्वारा प्रत्येक मनुष्यके लिये यह सुगम बना दिया है कि वह अपने प्रयत्नों द्वारा सच्चे सुखको
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२६४ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
पाले और अपने दैनिक मौजान रोज लगा ले । षट्लेश्यायें आत्माकी विविध दशाओंका स्पष्ट दिग्दर्शन करा देती हैं। इनके कारण आत्मामें - कुछ अन्तर नहीं पड़ता है । आत्मा तो मूलमें दर्शन ज्ञानमई और निरावरण हैं । यह लेश्यायें उसके सांसारिक दशाकी हीनता और उन्नतावस्थाको बतलानेवाली हैं । यह एक कांटा है, जिसपर मनुष्य जीवन की अच्छाई और बुराई हमेशा अन्दाजी जासकती है। कुछ -लोग इन षट्लेश्योंको मक्खलिगोशालके छह अभिजाति सिद्धान्तके अनुसार समझते हैं; परन्तु यह भ्रम है । गोशाल जीवात्माओं का काय अपेक्षा विभाग करता है और उसकी सादृश्यत। भगवान के बताये हुये जीवोंके षट् काय भेदसे किचित् अवश्य होती है ' यह षट्लेश्यायें कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्लरूप बतलाई गई हैं । पहलेकी तीन तो निःकृष्ट है और शेष शुभरूप हैं । इनका भाव समझानेके लिये जैनशास्त्रों में छह मनुष्योंका उदाहरण दिया हुआ मिलता है । कहा जाता है कि छह मनुष्य आमों का मजा चखनेके लिये एक मित्र के बगीचे में पहुंचे । मित्र साहब बड़े सन्तोषी और शांतिप्रिय जीव थे | उनने वहां पर स्वतः गिरे हुये जो आम पड़े हुये थे उनको ग्रहण करके अपनी तृप्ति कर ली। इनके एक घनिष्ट मित्र जिनपर इनका प्रभाव किचित् अधिक पड़ा हुआ था, इनहीके पास खड़े रहकर पेड़को हिला२ कर आम लेने लगे । इनसे हटकर एक दूसरे मित्र थे, उनको इतने से
१० के शास्त्रोंमें कहा गया है कि भगवान महावीरके पिता नृप सिद्धार्थ काय जीवोंकी पूर्ण रक्षा करते थे । देखो प्री० बुद्धिस्टिक -इन्डियन फिलासफी पृ० ३०३ ।
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भगवानका धर्मोपदेश। [२६५ तसल्ली नहीं हुई और वह चटसे पेड़ार चढ़ गये और उसपरसे बीन२ कर आमोंसे अपनी झोली भरने लगे। इनके साथी इनसे भी एक कदम अगाड़ी बढ़ गये । उनने गुंचेदार टहनियों को तोड़कर अपनी हाथ भरकी जीभकी लालसा मिटाना चाही । किन्तु इन महाशयके पड़ोसी इनसे भी बड़े चढ़े निकले । उन्होंने गुद्दों को काटकर अपनी हवश पूरी करना चाही। परन्तु उनके भी गुरु इनके हमजोली निकल पड़े । उनने जड़से ही पेड़को काट लेनेकी ठहराई । इसतरह इस उदाहरणमें आये हुए व्यक्तियों के व्यवहारसे लेश्याओंका स्वरूप स्पष्ट होनाता है । पहले मित्र साहबके परिणाम शुक्ललेश्यारूप थे । वह प्राकृत रूपमें संतुष्ट थे । उनके आकांक्षाका प्रायः अभाव था। दूसरे पेड़को हिलानेवाले महाशय पद्म लेश्याकी कोटिमें आ जाते हैं । इनकी तृष्णा मन्द रूपमें भड़कती कही जासक्ती है । पेड़पर चढ़कर आम तोड़नेवाले महानुभावके भाव पीतलेश्या रूप थे । यहांतक भी गनीमत है । यह परिणाम भी ज्यादा बुरा नहीं है । इसमें असंतोषकी मात्रा सीमाको उल्लंघन नहीं कर गई है । किन्तु शेषके तीनों मनुष्योंके परिणाम निःकृष्ट हैं । वह सीमाको उल्लंघ गये हैं । उनके क्रमसे कापोत, नील और कृष्ण लेश्याका सद्भाव समझना चाहिये । इस प्रकारसे ये लेश्यायें मनुष्यको उसकी दैनिक प्रवृत्तिका स्पष्ट दर्शन करा देती हैं । पीतलेश्यारूप यदि उसका लौकिक व्यवहार है तो भी गनीमत है । वहांतक वह मनुष्य अवश्य रहेगा और अवश्य ही मौका पाकर पद्म और शुक्ललेश्या रूप भी अपनी दैनिकचर्या बना सकेगा । परन्तु जो व्यक्ति कापोत लेश्यामें जा फंसा है, उसके
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भगवान पार्श्वनाथ । लिये पीतलेश्यामें आना भी कठिन है। फिर भला नील और कृष्णलेश्यावालोंकी तो बात पूंछना ही क्या है ? ऊपरकी तीन शुभ लेश्यायोंरूप निप्तका जीवनव्यवहार होगा, वही अपने निजस्वरूप अर्थात् सच्चे सुखको जल्दी पा सकेगा! इसतरह भगवानका धर्मोंपदेश हरतरहसे मनुष्यको स्वाधीन बनानेवाला था। उसको वस्तुका स्वरूप, सच्चे सुखका मार्ग और मार्गको प्रकट बतलानेवाला कुतुबनुमा जैसा यंत्र भी अच्छीतरह समझा दिया गया था । अतएव यह मनुष्यकी इच्छापर निर्भर था कि चाहे वह पराधीन बना रहे और चाहे तो स्वाधीन बनकर सच्चे सुखको पाले ।
यह बात उस समयके लोगोंको भगवानके धर्मोपदेशसे बिलकुल स्पष्ट होगई थी कि जीवात्मा स्वयं अपने ही बलसे सच्चे सुखको पासक्ता है । इसलिये वह अपने ही आत्माका आश्रय लेना हर कार्यमें आवश्यक समझने लगे थे। स्वातंत्र्यप्रिय बनकर वह न्यायोचित रीतिसे जीवन यापन करते थे और अपना उद्देश्य सच्चे सुख-मोक्षधामको पाने में रखते थे। इसके लिए श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके शब्दोंमें वे लोग निम्न आयको काममें लाते थेः
"जह णाम कोवि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ॥२०॥ एवं हि जीवराया णादव्यो तहय सदहे दयो । अणुचरिदव्यो य पुणो सो चेवदु मोक्खकामेण ॥२१॥"
॥ समयसार ॥ भाव यही है कि जिसप्रकार कोई धनका लालची पुरुषः राजाको जानकर उसमें श्रद्धा कर लेता है और उनकी सेवा भक्ति
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[ २६७ बड़े प्रयत्न से करता है उसी तरह मोक्षसुखको चाहनेवाले व्यक्तिको अपने आत्मारूपी राजाकी पहिचान करके उसमें श्रद्धा करनी चाहिये और फिर उसकी आराधना करनेमें लीन होजाना चाहिये । उसको जान लेना चाहिये कि आत्माका स्वभाव रागादिक भावों से भिन्न ज्ञान, दर्शन और सुखरूप है । आत्मा अनादि, अनन्त और एक अखण्ड पदार्थ है, वह संकल्प - विकल्पसे रहित शुद्ध बुद्ध है, वह स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण से भी रहित है, साक्षात् सच्चिदानंदरूप है । सच पूछो जो आत्मा है वही परमात्मा है जो मैं हूं सो वह है । इसलिये अन्यकी शरण में जाना वृथा है । इसप्रकार आत्मा के शुद्धस्वरूपमें श्रद्धान करके, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानको पाकर के आत्माके गुणोंमें विचरण करना श्रेष्ठ है । यही सम्यक्चारित्र है । मुक्तिका मार्ग इसी सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप है; परन्तु साधारण जीवात्माओंके लिये सहसा यह संभव नहीं है कि वह एकदम इस उच्च दशाको प्राप्त कर लें । वह संमारके मोह में फंसे हुये हैं । इस कारण उनके लिये व्यवहार मोक्षमार्गका निरूपण किया गया है, जिसपर चलकर वह निश्चय रत्नत्रय धर्मको पा लेते हैं । व्यवहार से जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित सात तत्त्वों और नव पदार्थरूप धर्म में श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है । उनका ज्ञान प्राप्त करना सम्यग्ज्ञान है और श्रीजिनेन्द्रदेवकी उपासना करना, सामायिक जाप जपना; हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूप पांच पापोंसे दूर रहना आदि नियम सम्यक् चारित्र में गर्भित हैं । सामान्य जैनीको मधु - मद्य-मांसका त्याग करके उपरोक्त प्रकार अपना जीवन बनाना आवश्यक होता है । इसप्रकारका आचरण बना
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२६८ ] भगवान पार्श्वनाथ । करके वह क्रमशः उन्नति करता जाता है और इस लिहानसे उसके ग्यारह दर्ने भी नियुक्त हैं; जिनको ग्यारह प्रतिमायें कहते हैं। इनमें चारित्रकी शुद्धता क्रमशः बढ़ती गई है, जो आखिरमें उस मुमुक्षुको सच्चे मोक्षमार्गके द्वारपर पहुंचा देती है । पर्वतकी शिखरपर कोई भी व्यक्ति एक साथ छलांग मारकर नहीं पहुंच सक्ता है । यही दशा यहां है-जीवात्मा दुःखोंके गारमें पड़ा हुआ है, वह उससे तब ही निकल सकता है जब अपनेको संभाल कर किनारे की ओरको पग बढ़ाता हुआ बाहरकी ओरको निकले
यहांतकके कथनसे संभव है कि यह शंकायें भी अगाड़ी आयें कि कभी जीवात्माको संसारमें फँसा हुआ दुःखी बताया गया है, कभी उसीको पूर्ण सुखरूप कहा है-कभी कर्मको उसके दुःखका कारण बतलाया है और कभी उसको पूर्ण स्वाधीन कह दिया है । यह तो एक गोरख धंधेका सा पेच है । लोगोंको भुलावेमें डालना है परन्तु बात दर अप्सल यूं नहीं है । गम्भीर विचारके निकट ऐसी शंकायें काफूर होजाती हैं। जीवात्माको स्वभावमें शुद्ध और सुखरूप कहा गया है परन्तु वह अनादिकालसे संसारमें कर्मों के आधीन हुआ दुःख उठा रहा है। इसलिये वह अपने स्वभावको पुर्ण प्रगट करनेमें असमर्थ है । उसकी दशा उस चिड़ियाकी तरह है जिसके पंख सीं दिये गये हों और जो उड़ नहीं सक्ती है । परन्तु इस पराधीन अवस्थामें भी उसके उड़नेकी शक्ति मौजूद है । यदि वह प्रयत्न करके अपने बंधनोंको काट डाले तो वह अवश्य उड़ सक्ती है। यही दशा संसारमें फंसे हुये जीवात्माकी है । संसारी अवस्थामें वह स्वाधीन नहीं है । कर्मोकी जटिलता और शिथिलताके अनु
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[ २६९ सार ही वह कम और अधिक रीतिसे अपनी स्वाधीनताका उपभोग कर सक्ता है; परन्तु इसके माने यह भी नहीं है कि जैसा कर्म उसे नाच नचायेंगे वैसा वह नाचेगा ! वह अपनी किंचित् व्यक्त हुई आत्मशक्तिको मौका पाकर पूर्ण व्यक्त करनेमें प्रयत्नशील होता है - बराबर प्रयत्न जारी रखनेपर वह जटिल से जटिल कर्म
धनको नष्ट कर सक्ता है, क्योंकि आखिरको वह स्वाधीन और पूर्ण शक्तिवान ही तो है । इसलिये भगवान्ने सर्व जीवन वटनाओं को बिल्कुल परिणामाधीन अथवा कर्माश्रित ही नहीं नाना था और इसतरह प्राकृत रूपमें जीवात्मा के दो भेद शुद्ध और अशुद्ध अथवा मुक्त और संसारी बताये थे । मुक्तनीव इसलोककी शिखरपर सदा सर्वदा अनन्तकाल तक अपने सुखरूप स्वभावमें लीन रहते हैं और संसारी जीव इस संसार में अपने भले बुरे कर्मो के अनुसार उस समय तक रुलते रहते हैं जबतक कि वह सर्वथा कसे अपना पीछा नहीं छुड़ा लेते हैं । संसारी जीवोंका दश प्राणोंके आधार पर जीवन यापन होता है । वे दश प्राण स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्ररूप पांच इंद्रियां; मन, वचन, कायरूप तीन बल; आयु और श्वासोच्छ्वासरूप हैं । यह दश प्राण भी व्यवहार के लिये हैं वरन् मूलमें निश्चयरूपसे एक चेतना लक्षण ही जीवका प्राण है । इंद्रियोंकी अपेक्षा जीव एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पांच इंद्रियरूप हैं । ष्टथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक अनेक - प्रकार के स्थावर - एक जगह स्थिर रहने वाले जीव एकेंद्रिय हैं और शंख, कड़ी, भौंरा तथा मनुष्य या पशु पक्षी क्रमसे हीन्द्रिय,
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२७० ] भगवान पार्श्वनाथ । त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेंद्रिय जीव हैं। इनको बस और चतुरेन्द्रय तकको विकलेंद्रिय भी कहते हैं ।
जीवके शुद्ध और अशुद्ध व्यवहारको समझनेके लिये ही भगवान्के धर्मोपदेशमें नयोंका निरूपण किया गया है । नय मुख्यरूपमें निश्चय और व्यवहाररूप ही हैं । निश्चयनय पदार्थों के असली स्वभावको व्यक्त करता है और व्यवहारनयसे उनकी विक्रत दशाओं अर्थात् पर्यायोंका परिचय मिलता है। इसी भेदको
और स्पष्ट करनेके लिये स्याद्वाद सिद्धांत अथवा सप्तभंगी नयका निरूपण किया हुआ मिलता है ।* पदार्थों में अनेक गुण हैं, वह केवल दो दृष्टियोंसे भी पूर्ण व्यक्त नहीं होसक्ते इसीलिये साल नयों रूप स्याद्वादसिद्धान्त उसको स्पष्ट कर देता है । यह स्या
___* स्याद्वादसिद्धांत भगवान् महावीरसे बहुत पहले का है, यह बात हिन्दूशास्त्रोंसे भी प्रकट है। 'अनुजित अध्याय' (Leg S. 2-12) पर टीका करते हुये नीलकंठ कहते हैं:-" सर्व संशयतिमिति स्याद्वादिनः सप्तभंगी नयज्ञाः । ” (२ श्लो० अ० ४९) महाभारत, शांतिपर्व, मोक्षधर्म अ० २३९ श्लो. ६में भी इसका उल्लेख है। स्याद्वाद सिद्धांतको संशयात्मक मानना जैनियों के साथ अन्याय करना है। श्री शंकराचार्य उसके महत्वको समझ नहीं सके थे, यह महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा सदृश ब्राह्मण विद्वान् स्पष्ट कह चुके हैं। प्रॉ० ध्रुवके शब्दोंमें " स्याद्वादका सिद्धान्त बहुत सिद्धान्तों को अवलोकन करके उनके समन्वयके लिये प्रकट हुआ है। यह अनिश्चयसे नहीं उपजा है। यह हमारे सामने एकीकरणका दृष्टिविन्दु उपस्थित करता है। शंकराचार्यने जो स्याद्वादपर आक्षेप किया है, वह इसके मूल रहस्यपर बराबर नहीं बैठता।......अनेक दृष्टिबिन्दुओंसे देख विमा एक समग्र वस्तुका स्वरूप नहीं समझा जाता और इसलिए स्याद्वाद उपयोगी तथा सार्थक है।"
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भगवानका धर्मोपदेश! [२७१ द्वाद सिद्धान्त स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्थात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य और स्यात् अस्तिनास्तिअवक्तव्य रूप है । स्यात अस्तिनयसे द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सत्तामें प्रगट होता है । स्यात्ना स्त दृष्टिसे द्रव्य अपने विरुद्ध द्रव्यके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको न रखनेके कारण नास्तिरूप है । स्यात् अस्ति नास्तिकी अपेक्षा द्रव्य है
और नहीं भी है । स्यात् अवक्तव्यरूपसे द्रव्य वक्तव्यके बाहिर है । यदि हम उसको उसके निज औरपर दोनों रूपोंसे एक साथ कहना चाहते हैं । स्यात् अस्ति अवक्तव्य अपेक्षा द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप और साथ ही अपने एवं परके संयुक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूपसे है और अवक्तव्य है । स्यातू नास्ति अवक्तव्य बतलाती है कि द्रव्य पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा और उसीसमय अपने एवं परके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके संयुक्त रूपसे नास्तिरूप है और अवक्तव्य भी है और स्यात् अस्त नास्ति अवक्तव्य दृष्टिसे द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे और साथ ही अपने व परके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके संयुक्त रूपसे है, नहीं भी है और अवक्तव्य भी है। इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धांतका प्रतिपादन भगवान् पार्श्वनाथने भी पदार्थों को स्पष्ट समझनेके लिए अपने धर्मोपदेशमें किया था। पदार्थोमें नित्य, अनित्य, एक, अनेक आदि परस्पर विरोधी गुण एक साथ देखनेको मिलते हैं; परन्तु यह एक साथ कहे नहीं जातक्ते । इसीलिये इस स्याहादसिद्धांतकी आवश्यक्ता है । यह उस पदार्थकी खास अपेक्षासे उसके गुणोंको ठीक तरहसे प्रगट कर देता है वरन् एकांत पक्षमें पड़कर
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२७२] भगवान पार्श्वनाथ । कभी भी पदार्थका निर्णय नहीं होसक्ता है। इस एकांत पक्षके हठमें अन्धोंवाली मसल चरितार्थ होजाती है । जिसप्रकार कई अधोंने हाथीके विविध अंगोपांगमेंसे एक२ को देखकर हाथीको वैसा ही माननेकी जिद की थी, उसी प्रकार एकांत दृष्टिसे हम वस्तुके एक पक्षको ही प्रगट कर सक्ते हैं और वह पूर्णतः सत्य नहीं होसक्ता है । अनेकांत अथवा स्याद्वाद सिद्धांतमें यही विशेषता है कि वह वस्तुको सर्वांग रूपमें प्रगट कर देता है और परस्पर विरोधी जंच. नेवाली बातोंको मेट देता है । उक्त उदाहरणके अन्धे पुरुषोंका झगड़ा इस सिद्धांतकी बदौलत सहजमें सुलझ जाता है । अन्धोंका एक पक्षसे हाथीको उसके पैरों जैसा लम्बा या पेट जैसा चौड़ा आदि मानना ठीक नहीं है । परन्तु उनका वह कथन असत्य भी नहीं है । हाथी अपने पैरोंकी अपेक्षा लम्बा भी है, इसतरह कहनेसे वह ठीक रास्तेपर आसक्ते हैं और परस्पर भेदको भेट सक्ते हैं । यही इसका महत्त्व है । एक आचार्य कहते हैं कि:--
'कर्मद्वैतं फलद्वैत लोकद्वैतं च नो भवेत् । विद्याऽविद्याद्वयं न स्यात् बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥२५॥
भावार्थ-'एकांतकी हठ करनेसे पुण्य-पापका द्वैत, सुख दुःखका द्वैत, लोक परलोकका द्वैत, विद्या अविद्याका द्वैत तथा बंध मोक्षका द्वैत कुछ भी नहीं सिद्ध हो सकेगा।' इसलिये स्याद्वाद सिद्धांत ही सर्वथा पदार्थका सत्यरूप सुझाने में सफल होसक्ता है ।
आपसी भेदोंको भी वही मिटा सक्ता है । इसी सिद्धांतको ध्यानमें रखनेसे कोई भी शंकायें अगाड़ी नहीं आसक्तीं हैं । अस्तु ! .
भगवान् पार्श्वनाथजीके धर्मोपदेशका महत्त्व इतनेसे ही हृदयं
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भगवानका धर्मोपदेश !
[ २७३
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गम होजाता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप ही मोक्षका मार्ग है । इस मार्गका अनुसरण करके जीवात्मा अपनेको कर्मो के फन्दे से छुड़ा लेता है । गत जन्मोंमें किये हुये कर्मोंको वह क्रमकर नष्ट कर देता है और आगामी ध्यान - ज्ञानकी उच्चतम दशामें पहुंच कर उनके आनेका द्वार मूंद देता है । फिर वह अपने रूपको पा लेता है । जो वह है सो ही बन जाता है । जीवात्माकी आत्मोन्नति के लिहाज से ही भगवानने उसके लिये चौदह दर्जे बताये हैं, जिनको गुणस्थान कहते हैं । मोहनीय कर्म और मन, बचन, कायकी क्रियारूप योगके निमित्तसे जो आत्मीक भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हींको गुणस्थान कहते हैं । जितने २ ही यह भाव आत्माके शुद्ध स्वरूपकी ओर बढ़ते जाते हैं उतने २ ही जीवात्मा आत्मोन्नति करता हुआ गुणस्थानों में बढ़ता जाता है । यह चौदह गुणस्थान क्रमकर मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्त्व, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली रूप हैं । इनमें से पहले के पांच गुणस्थानोंको पुरुष, स्त्री, गृहस्थ और श्रावक समान रीतिसे धारण कर सक्ते हैं । ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा पर्यंत, जिसमें गृह त्यागी व्यक्ति के पास केवल लंगोटी मात्रका परिग्रह होता है, श्रावक ही संज्ञा है। इस ग्यारहवीं प्रतिमापर्यंत स्त्रियां भी श्रावकके व्रत पाल सक्तीं हैं । शेषमें छठे गुण1 स्थानके उपरांत सब ही गुणस्थानों का पालन तिलतुष मात्र परिग्रह तके त्यागी निथ मुनि ही कर पाते हैं । इन गुणस्थानोंका स्वरूप संक्षेप में इस तरह समझना चाहिये
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२७४ ] . भगवान पार्श्वनाथ ।
१-मिथ्यात्त्व गुणस्थानमें मिथ्यात्त्वका उदय होनेसे राग : द्वेष आदि रहित सच्चे देव, सर्वज्ञ प्रणीत, युक्तिसे सिद्ध, पूर्वापर विरोध रहित, आगम और वस्तुस्थिति के यथार्थरूप तत्वोंमें श्रद्धान नहीं हो पाता है । अनादिकालसे संसारमें घूमते हुये जीव इसी मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती होते हैं। इस गुणस्थानसे निकल कर जीव एकदम चौथे गुणस्थानमें पहुंच जाता है। उसे क्रमशः जानेकी जरूरत नहीं है। ___२. सासादन गुणस्थान-में जीवात्माका आत्मपतन होता है। चौथे गुणस्थानमें पहुंचकर जीवके उदयमें जब अनन्तानुबंधी कषायमें से एक अर्थात् क्रोधका उदय होता है, तब जीवात्मा पतन करता हुआ इस दूसरे गुणस्थानमें होकर पहले गुणस्थानमें पहुंचता है । बस पहले गुणस्थान तक पहुंचनेके अंतरालमें जो भाव रहते हैं वह सातादन गुणस्थान है। अर्थात् सम्यक्त्वके छूटनेपर मिथ्यात्वको पाने तक जो भावोंकी दशा हो वही सासादन गुणस्थानवर्ती है।
३. मिश्रगुणस्थान में सच्चे और झूठे देव, शास्त्र और पदार्थका श्रद्धान एक साथ रहता है। चौथे गुणस्थानसे पतन करके ही जीव इसमें आता है । यह जीवकी सत्य और असत्यके बीचमें डांवाडोल अवस्थाका द्योतक है।
४. अविरतसम्यक्त्व में जीवात्माको सच्चे देव, शास्त्र और पदार्थमें श्रद्धान तो होता है, परन्तु वह व्रतोंको धारण नहीं कर सक्ता है । अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सत्य और अपरिग्रह यही एक देशरूपमें पंचव्रत कहेगये हैं। इनका पालन करनेवाला जीव कभी भी जानबूझकर मन, वचन, कायसे न अपने लिये और न
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भगवानका धर्मोपदेश! [२७५ दूसरेके लिये जीवित प्राणियोंके प्राणोंको अपहरण करता है, न गिरी पड़ी, भूली और पराई वस्तु ग्रहण करता है, न परस्त्रियोंसे संभोग करता है, न झूठ और न दूसरोंके प्राणों को संकटमें डालनेवाला सत्य ही कहता है एवं तृष्णाको एकदम बढ़ने न देनेके लिये अपनी सांसारिक आवश्यक्ताओंको नियमित कर लेता है । सचमुच ग्रहस्थ अवस्थामें इन व्रतोंका पालन करनेसे एक ग्रहस्थ संतोषी और न्यायप्रिय नागरिक बन सक्ता है । परन्तु इस चौथे गुणस्थानमें वह इन व्रतों को धारण करनेमें स्वभावतः असमर्थ होता है। उसके मोहनीयकर्मकी इतनी जटिलता है कि वह सहसा व्रतोंको धारण नहीं कर सका है, यद्यपि उसको सच्चे देव, शास्त्र और तत्वका श्रद्धान होता है । इस सच्चे श्रद्धानकी बदौलत ही जीवात्मा उन्नति करके पांचवे गुणस्थान में पहुंचता है। इसीलिये श्रद्धानका ठोक होना बहुत जरूरी है । सम्यक् श्रद्धान ही सन्मार्गमें लगानेवाला है।
५. देशविरत-गुणस्थानमें जीवात्मा व्रतों का एक देश पालन कर सक्ता है । वह जानबूझकर हिंसादि पांच पापोंसे दूर रहता है। श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओं का समावेश इस गुणस्थान तक होजाता है । इन ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप इस तरह है-यह संसारमें फंसे हुये गृहस्थको क्रमकर मोक्षके मार्गपर लानेवाली हैं । इनमें प्रवृत्ति मार्गसे छुड़ाकर निवृत्ति मार्गकी ओर उत्तरोत्तर बढ़ानेका ध्यान रक्खा गया है । पहली दर्शन प्रतिमामें एक व्यक्तिको जैन धर्ममें पूर्ण श्रद्धान रखना होता है। उसे उसके सिद्धान्तोंका अच्छा परिचय होना आवश्यक रहता है तथापि वह मांस, मधु, मदि
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राका त्यागी होकर यथाशक्ति पांच अणुव्रतोंको पालन करनेका प्रयत्न करता है । दूसरी व्रतपतिमामें उसे अहिंसादि पांच अणुव्रतोंका पूर्ण रीतिसे पालन करना होता है। साथ ही ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रतोंको भी वह पालता है । दूसरे शब्दोंमें वह प्रति दिवस नियमित रीतिसे अपने आनेजानेके क्षेत्रकी दिशाओं और दूरीका प्रमाण करलेता है, वृथाका बकवाद अथवा पापमय कार्योंका विचार और उनको करनेसे दूर रहता है । शिक्षाव्रतोंमें वह प्रातः, दिवस अपने खानपानके पदार्थोंको नियमित कर लेता है, प्रातः, मध्यान्ह और सायंकालको भगवानकी पूजन करता है, पर्वके दिनोंमें उपवाप्त करता है और आहार, औषधि, विद्या और अभयदान देता है। इसतरह वह इन व्रतोंका पूर्णतः पालन करके अपने त्यागभावको उत्तरोत्तर बढ़ाता जाता है, और इसतरह उन्नति करते हुये वह अपने में समभावोंको अर्थात् सब वस्तुओंमें साम्यभाव रखनेका प्रयत्न करता है । इसके लिये वह नियमित रीतिसे प्रतिदिन सबेरे, दुपहर और शामको होशियारीके साथ ध्यान करनेका अभ्यास करता है । सामायिककी दशामें वह अपने परिणामोंको समतारूप बनाने
और अपने आत्मगुणोंके चिन्तवनमें लगाता है । सामायिक पाठका प्रथम चरण ही उसके भावको स्पष्ट करता है । जैसे'नित देव ! मेरी आतमा धारण करे इस नेमको,
मैत्री करे सब प्राणियोंसे, गुणिजनोंसे प्रेमको। उनपर दया करती रहे जो दुःख-ग्राह-ग्रहीत हैं,
उनसे उदासी ही रहे जो धर्मके विपरीत हैं। यह तीसरी सामायिक प्रतिमा है। चौथी प्रोषधोपवास
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[ २७७ प्रतिमामें उसको प्रतिपक्षकी अष्टमी और चतुर्दशीको होशियारीके साथ उपवास करने पड़ते हैं। पांचवी सचित्तसाग प्रतिमामें वह सचित जिनमें उपजने की शक्ति विद्यमान हो, ऐसी शाक भाजी और जल ग्रहण नहीं करता है । छठी रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा में वह रात्रि के समय न स्वयं भोजन व जलपान करता और न दूसरोंको कराता है। सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा में वह अपनी विवाहिता स्त्री तकसे भी संभोग करना छोड़ देता है और वह पूर्णतः मन-वचनकाय से ब्रह्मचर्य का पालन करता है । आठवीं आरम्भयाग प्रतिमा में वह अपनी आजीविका के साधनों का भी त्याग कर देता है । धन कमाने, भोजन बनाने आदिसे हाथ खींच लेता है। नौवीं परिग्रहसाग प्रतिमा में वह सांसारिक पदार्थोंसे अपनी इच्छा - वाञ्छाको बिल्कुल हटा लेता है और अपनी सब धन-सम्पत्तिको त्यागकर केवल गिनतीके थोड़ेसे वस्त्र और बरतन रखलेता है । दशवीं अनुमतिसाग प्रतिमामें वह सांसारिक कार्योंके संबन्ध में अपनी राय भी नहीं देता है और ग्यारहवी एवं अन्तिम उद्दिष्टयाग प्रतिमा में वह अपने शरीरको बनाये रखनेके लिये भोजनको भिक्षावृत्तिसे ग्रहण करता है; परन्तु वह उन वस्तुओं को ग्रहण नहीं करता है जो खास उसके लिये बनाई गई हों। वह एक चादर और लंगोटीको रखकर ऐलक पदको पा लेता है। ऐलक दशा में वह हाथों में ही लेकर भोजन ग्रहण करता है । यह दोनों महानुभाव अपने साथ एक कमण्डलु और मोरपंखकी पीछी रखते हैं। तथापि क्षुल्लक एक पिण्डपात्र भी रखते हैं । इनकी भिक्षावृत्ति भी स्वाधीनरूप होती है । यह किसीसे याचना नहीं करते हैं । जो आदरभाव से उनको
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२७८] भगवान पार्श्वनाथ । नियमितरूपमें भोजनके समय आमंत्रित करके शुद्ध आहार देते हैं उन्हींके यहां वह आहार ग्रहण करते हैं। इन ग्यारह प्रतिमाओंमें क्रमशः त्यागभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया है और आखिरमें उस श्रावकका जीवन एक साधु के समान ही करीब२ होगया है । यहांतक स्त्रिये भी इस चारित्रको धारण करसक्ती हैं; परन्तु वह अपनी प्राकृत लज्जाके कारण वस्त्रत्यागकर निग्रंथ अवस्थाको धारण नहीं कर पातीं हैं । इस पांचबे गुणस्थान तक जीवात्मा इन ग्यारह प्रतिमाओं रूप ही अपना आचरण बनासक्ता है। पूर्ण रीतिसे वह अहिंसादि ब्रतोंका पालन नहीं करसक्ता है । निग्रंथ मुनि ही पूर्णरीतिसे इन व्रतों का पालन करते हैं।
६. प्रमत्तसंयतगुणस्थानमें यद्यपि पुरुष दिगंबर मुनि हो जाता है और सर्व प्रकारके परिग्रहको त्याग देता है, परन्तु तो भी उसके परिणाम शरीरकी ममतामें कदाचित् झुक जाते हैं। यह प्रमत्तभाव है अर्थात् ध्यानकी एकाग्रतामें लापरवाई या कोताई है। यहांसे सब गुणस्थान निग्रंथ मुनि अवस्थाके ही हैं। ___७-अप्रमत्तविरत-गुणस्थानमें प्रमत्तभावको छोड़कर मुनि पूर्णरूपसे महाव्रतोंको पालन करता है और धर्मध्यानमें लीन रहता है । यहांसे आत्मोन्नतिका मार्ग दो श्रेणियों में बँट जाता है-(१) उपशमश्रेणी, जिप्तमें चारित्र मोहनीय कर्मका उपशम हो जाता है और (२) क्षपकश्रेणी, जिसमें इस कर्मका बिल्कुल नाश होजाता है। यही मोक्षका आवश्यक मार्ग है, चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे जीवात्माके सम्यक्चारित्र प्रगट होने में बाधा उपस्थित रहती है। इसका नाश होते ही सम्यक्चारित्रका पूर्णतासे पालन होने लगता
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[ २७९. है, आत्मध्यानकी एकाग्रता होनाती है, जिससे स्वस्वरूपकी प्राप्ति: होती है । इसीलिये कहा गया है कि :
'खाना चलना सोवना, मिलना वचन विलास । ज्यौं ज्यौं पंच घटाइये, त्यौं त्यौं ध्यान प्रकास ।। ६२ ।। आगमग्यान सदा व्रतवान, तपै तप जान तिहूं गुन पूरा । ध्यान महारथ धारन कारन, होय धुरंधर सो नर सूरा ॥ ध्यान अभ्यास लहै सिववास, विना भवपास परै दुख भूरा। कर्म महादि सैल बडे बहु, ध्यान सु वज्र करै चकचूरा ।। ६३ ।। भाषा द्रव्यसंग्रह द्यानतरायकृत || इस गुणस्थान से ध्यानकी उत्तरोत्तर वृद्धि होना प्रारम्भ हो जाता है ।
८. अपूर्वकरण - गुणस्थान में उस विचार - क्रिया (Thoughtactivity) को मुनि प्राप्त होता है जिसको अभीतक उनकी आत्मा ने प्राप्त नहीं किया है। आर्त, रौद्र धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों में सर्व अंतिम सर्वोच्च शुक्लध्यानका प्रथम अनुभव इसी गुणस्थान में होता है । आत्मा शुद्ध रूपका ध्यान शुद्ध रीति से यहीं होता है। आर्त और रौद्र ध्यान बुरे ध्यान हैं, यह कषायों को लिये हुये हैं । धर्मध्यान इनसे अच्छा शुभरूप है और शुक्लध्यान तो सर्वोच्च आत्मध्यान ही हैं ।
९. अनिवृत्तिकरण - गुणस्थान में उपरोक्त विचार - क्रिया (करण) और अधिक बढ़ जाती है जिसमें और भी अधिक शुद्धध्यान होता है, जो प्रथम शुक्लध्यानका ही एक दर्जा है ।
१०. सूक्ष्मसाम्पराय - गुणस्थान में बहुत ही मामूली तरी -
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२८० ] भगवान पार्श्वनाथ । केसे मोह शेष रह जाता है। सब ही कषायवासनाओंका नाश अथवा उपशम होनाता है, केवल सूक्ष्म संज्वलन लोभ-बहुत ही कम नामका लोभ रह जाता है, यहां भी प्रथम शुक्लध्यान है।
११. उपशान्तमोह-गुणस्थानमें मोहका उपशम होजाता है अर्थात् वह दब जाता है, निष्क्रिय होजाता है । यह भाव समस्त चारित्रमोहनीय कर्मोके उपशमसे होता है, यह भी प्रथम शुक्लध्यानका भेद है । यदि कोई मुनिजन विशेष बलवान न हुये तो वह यहांसे पतन करके चौथे अथवा दसवें गुणस्थानमें पहुंच जाते हैं । वरन् वह दृढ़तापूर्वक आठवें गुणस्थानकी क्षपकश्रेणीमें उन्नति करने लगते हैं।
१२. क्षीणमोह-गुणस्थानमें मोहका अभाव होनाता है । समस्त चारित्रमोहनीय कर्मोका नाश यहां होजाता है । शुक्लध्यानका दूसरा दर्जा, जो पहलेसे अधिक विशुद्ध है, यहीं प्रगट होता है । मुनि दश गुणस्थानसे सीधे इस गुणस्थानमें आते हैं, ग्यारहवें गुणस्थानमें जानेकी जरूरत नहीं है, क्योंकि वह उपशम श्रेणीसे सम्बंधित है।
१३. सयोगकेवली-गुणस्थान चार घातियाकर्म रहित जीवात्माकी शरीरसहित शुद्ध दशा है। यहां ज्ञानावर्णीय, दशनावर्णीय, अन्तराय और मोहनीय कर्मोका सर्वथा नाश होजाता है; जो आत्माके निजगुणोंके प्रगट होने में बाधक हैं । बस इनके नष्ट होनेसे आत्मा
शुद्ध, बुद्ध, जीवित परमात्मा होजाता है, जिसको अर्हत कहते हैं। . पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन और पूर्ण सुखका आत्मा यहां आधिकारी हो
जाता है। सर्वज्ञदशामें वह धर्मके तत्वोंका यथावत् प्रतिपादन करता
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भगवानका धर्मोपदेश
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है । इस दशा में आत्मामें सकंपपना मौजूद रहता है । किन्तु —
१४- अयोगकेवली गुणस्थान में यह संकपपना बिलकुल
मोक्ष प्राप्त कर
नष्ट होजाता है । यह गुणस्थान सयोगकेवलीके के सिर्फ इतने अन्तराल कालमें प्राप्त होता है कि अ, इ, उ, ऋ, ऌ, इन पांच अक्षरोंका उच्चारण मात्र ही किया जासके । इसके बाद जीवात्मा शरीर छोड़कर निजरूप होकर पूर्ण सुख और शांतिक अधिकारी अनादिकालके लिए होजाता है और सिद्ध वहलाता है । वह इस लोकके शिखरपर निजानन्दमय हुआ अनंतकालके लिये तिष्ठा रहता है । दुःख-शोक आदि वहां उसे कुछ भी नहीं सता पाते हैं। वह सच्चिदानन्द रूप होजाता है।
इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथका धर्मोपदेश प्राकृत रूपमें संसार तापसे तपे हुये भयभीत प्राणीको शांतिप्रदान करानेवाला संदेश था । वह रङ्कसे राव बनानेवाला था । पराधीनता के पलेसे छुड़ाकर स्वातंत्र्य सुखको दिलानेवाला था । सांसारिक विषयवासनाओं और वांछा अकांक्षाओंसे कमजोर हुई आत्माओं को सिंह समान निर्भीक और बलवान बना देना, इस धर्मोपदेशका मुख्य कार्य था । निग्रंथ मुनियोंकी चर्या सिंहवृत्तिके समान होती है । जिसतरह प्राकृत रूपमें निशङ्क होकर अरण्य केसरी बन विहार करता है, उसी तरह दिगम्बर भेषको धारण किये हुये मुनिराज भी निडर होकर वन - कंदराओं में विचरते रहते हैं और सदैव आत्म स्वातंत्र्यका मंत्र जपते हैं । किन्तु सिंहके पास जाने में इतर प्राणियोंको भय मालूम देता है, पर उन आत्म स्वातंत्र्य स्थली में सिंह समान विचरनेवाले मुनिराजके निकट हरकोई निर्भय होकर पहुंच सक्ता
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२८२] भगवान पार्श्वनाथ । और आत्मकल्याण कर सक्ता है। यही मुनिराज अपने प्रखर आत्मध्यानके बलसे अन्तमें त्रिलोक्यपूज्य और सच्चिदानन्दरूप साक्षात परमात्मा होजाते हैं, यह ऊपर बताया ही जाचुका है। - संसारके इन्द्रायण फलके समान विषयभोगोंमें फंसे हुये जीवोंके लिए यह सुगम नहीं होता है कि वह एकदम अपनी प्रवृत्तिको बदल दें इसीलिये भगवानने एक नियमित ढंगसे क्रमकर अपनी प्रवृत्तिको बदलना आवश्यक बतलाया था। शास्वत सुख प्राप्त करनेके लिये सात्विक मनोवृत्तिको उत्पन्न करना प्रारम्भमें जरूरी होता है । उसी अनुरूप भगवानके धर्मोपदेशमें मांस, मधु, मदिरा आदि पदार्थोको ग्रहण न करनेकी मनाई थी। यह अखाद्य पदार्थ थे। प्रणियोंके प्राणों की हिंसा करके यह मिल सक्ते हैं । और कोई भी प्राणी अपने प्राणोंको छोड़ना नहीं चाहता है । सबको ही अपने प्राण प्रिय हैं । इसलिये मांसको ग्रहण करना प्राकृत अयुक्त ठहरता है। इस नियमको ग्रहण करते ही प्राणी साम्यभावके महत्त्वको समझ जाता है । वह जान लेता है कि जिसतरह मुझे अपने प्राण, अपना धन, अपने बंधु प्रिय हैं, वैसे ही दूसरोंको भी वह प्रिय हैं। इस अवस्थामें वह विश्वमका पाठ खतः हृदयंगम कर लेता है
और अपना जीवन ऐसा सर्व हितमई बना लेता है कि उसके द्वारा सबकी भलाई होती है । फिर वह उत्तरोत्तर अपने समताभावको बढ़ाता जाता है और सांसारिक वस्तुओंसे ममत्त्व घटाकर अपने आत्माके ध्यानमें लीन होने का प्रयत्न करता रहता है । इसके लिये वह नियमित त्याग और संयमका पालन करता है। संसारके कोलाहलसे दूर रहकर तपश्चरणका अभ्यास करता है । जिस तरह ग्रह
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भगवानका धर्मोपदेश !
[ २८३ स्थदशा में रहकर वह एक आदर्श गृहस्थ होता है, उसी तरह गृहत्यागकी इस अवस्था में वह परम तपस्वी होता है । तपका महत्व अकथनीय है, वह हरहालत में उपादेय है । प्रॉ० जेम्स नामक एक 1 अमेरिकन तत्वज्ञानी इस तपका महत्व इसप्रकार लिखते हैं- 'वैराकी भावना और देहदमन उपयोगी है। जिसतरह वीमा कम्पनी में थोड़ार रुपया जमा करते रहने से अन्तमें वह रुपया उपयोगी हुए. विना नहीं रहता, उसी प्रकार देहदमनके लिये की हुई तपस्यायें भी आत्मा में ऐमा बल उत्पन्न कर देती हैं कि क्रमक्रमसे वह आत्मा जिनपदको प्राप्त किये बिना नहीं रहता | "" सचमुच एकदम न उच्चकोटिका संयम और तपका ही पालन किया जापक्ता है और न एकदम ज्ञान या कल्याणकी हो प्राप्ति होसक्त है। उसमें धारे२ ही गति होती है और वैसे२ ही ज्ञान और कल्याण भी प्राप्त होता है । शुरू में यह मार्ग नागवार मालूम होता है; किन्तु जहां तनिक उस मागमें गाते हुई कि बड़े कठिन जंचने वाले नियम भी बिल्कुल सुगम दृष्टि पड़ने लगते हैं । इस तरह पर पार्श्वनाथनोका धर्मोपदेश था - यह किसी भेदभाव या पक्षपातको लिये हुये नहीं था । प्रत्येक प्राणो हर परिस्थितिमें अपना आत्मकल्याण इ की आराधनासे कर सक्ता है । भीरु और कमजोर आत्माओं को वीर और बलवान बनानेवाला यह मार्ग था । क्षत्रिय. शिरोमणि इक्ष्वाकु - कुलकेतु काश्यपप्रभू - महावीर पार्श्वद्वारा प्रतिपादित हुआ यह धर्म सर्वथा वीर आत्माओं द्वारा तो अपनाया ही जाता रहा है; परन्तु नीच और भीरु चोर - डाकू जैसे पापी भी इसकी शरण में आकर अपना आत्मकल्याण कर सके थे। भगवानके धर्ममार्गका द्वार केवल
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२८४] भगवान पार्श्वनाथ । मनुष्यों के ही लिये नहीं बल्कि पशुओंतकके लिये खुला हुआ था। वह सबको त्राणदाता था, शांतिसाम्राज्यको सिरजनेवाला था। सचमुच वह थाः--
आदि अन्त आविरोध यथारथ, जो भाषत सब वस्तु विधानन। जो अनादि अज्ञान निवारत, जा समान हितहेत न आनन । 'जाको सुजस तिहूं जग व्यापत, इन्द्र अलापत तनननतानन भविकसन्दको सोभधार है, जो सब निगमागमको आनन ।।
घृमोपदेशका भाव 'यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं,
तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनौकसः स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः, शमोपदेश शरणं प्रपेदिरे ॥ १३४ ॥
श्री समन्तभद्राचार्यः । गहन गंभीर वनों में शीतलजलमयी सरिताओं के किनारे वानप्रस्थ ऋषियों के बड़े बड़े आश्रम थे । प्रतिदिवस बड़े समारोहके साथ वहां अग्निहोत्र विधान होता था। नरमेध, गौमेध आदिके नामसे जीवित प्राणियों के मूल्यमय प्राण बलिवेदीपर उत्सर्गीकृत किये जाते थे । स्वर्गसुखके लालच और पितृऋणके भयके कारण परावलम्बी बनी हुई जनता इस कार्यको हठात् कर रही थी। उधर स्वयं जटिलादि वानप्रस्थ ऋषिगण अपनी इंद्रियलिप्ताको अधिक सीमित नहीं रख सके थे । पुत्रमुखके दर्शन करना उनके निकट भी एक कर्तव्य था, यह सब कुछ हम पहले देख चुके हैं किन्तु भगवान्
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२८५ पार्श्वनाथजीने ज्योंही सत्यका सिंहनाद प्राकृतरूपमें घोषित किया था त्योंही इन गहनवनोंके भीतरवाले आश्रमों में भी हलचल मच गई थी, अग्निहोत्रिकी उच्च ज्वालायें एक क्षणके लिये थम गई थीं। शिष्यगण एवं साधारण जनता धर्मके नामपर की जानेवाली इस हिंसाके विषयमें सशङ्क हो स्पष्टरूपसे इसका समाधान करनेका आग्रह करने लगे थे । सत्यका वहांपर प्रायः अभाव देख कर कह भगवानकी शरणमें आये थे । यही कारण था कि भगवान पार्श्वनाथका सम्बोधन उस प्राचीनकालमें “सर्वजनप्रिय” ( People's Favourite ) के नामसे होने लगा था। ईसाकी प्रारंभिक शताब्दियोंमें हुये श्री समन्भद्राचार्यनी भी यही कहते हैं कि जिस घातिया कर्मों के नाश करनेवाले तीनलोकके स्वामी पार्श्वप्रभुको देख वनवासी कुतपस्वी, पञ्चाग्नि आदि साधनोंमें विफल मनोरथ होते हुए, भगवानके सदृश होनेकी इच्छासे, शांतिके उपदेश भगवान् अथवा जिसमें शांतिका उपदेश है ऐसा मोक्षमार्ग उसके शरणीभूत हुये अर्थात सच्चे मार्ग में लगे थे ।” शकसंवत् ७३६में हुये श्री जिनसेनाचार्य भी अपने “पार्श्वभ्युदय काव्य" में यही कहते हैं, यथा'इति विदितमहर्दि धर्मसाम्राज्यमिन्द्रा,
जिनमवनतिभाजो भेजिरे नाकभाजाम् । शिथिलितवनवासाः प्राक्तनी प्रोज्झ्य वृत्ति,
शरणमुपययुस्त तापसाः भक्तिनम्राः॥ ६९ ॥' "टीका-जटिलादयः कुतापताः निकायक्लेशे निष्फलत्वं निश्चिन्वन्तः । तपोमहिम्ना प्राप्तोदयं पार्श्वतीर्थकरं तत्तपोलब्धुकामाः शरणं ययुरिति भावः । यो गिराट् । " .
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२८६] भगवान पार्श्वनाथ । ___ भाव यही है कि जटेल आदि कुतापस जो थे वह अपने पञ्चाग्नि आदिरूप कायक्लेश एवं अन्य धार्मिक क्रियायोंको निष्फल होते देखकर भगवान् पार्धनाथकी शरण में आये थे। भगवान के प्राकृत संदेश में शांति और सुख का स्पष्ट विधान था । वह युक्तिसे प्रत्यक्ष बुद्धिग्राह्य था, उसको पाकर अपने एकांत पक्षमें विधर्मियों का विश्वास खो बैठना स्वाभाविक ही था ! वहां हठपक्ष तो था नहीं, सरलता थी, सत्य को पानेकी अभिलाषा थी। यही कारण था कि बहुजन भगवानकी शरणमें आये थे। ईसाकी आठनीं शताब्दिके विद्वान महर्षि श्री गुणभद्राचार्यनी भी अपने " उत्तरपुराण " में कहते हैं कि:
'तदा केवलपूनां च सुरेंद्रा निरर्तयन् । संबरोप्यात्तकालादि लब्धिः शममुपागमत् ॥१४५।। प्रापत्सम्यक्त्वसंशुद्धिं दृष्ट्वा तद्वनवासिनः। तापसास्त्यक्तमिथ्यात्वाः शतानां सप्त संयमं ॥१४६॥ गृहात्वा शुद्धसम्यक्त्वाः पार्श्वनाथं कृतादराः। सर्वे प्रदक्षिणीकृस प्रणेमुः पादयोर्द्वयोः ॥ १४७ ॥
अर्थात् जिस समय भगवान् पार्धनाथको केवलज्ञान की प्राप्ति होगई थी तो उसी समय इंद्रादि देवोंने आकर केवलज्ञानकी पूजा की और वह संवर नामका ज्योतिषीदेव भी कालादि लब्धिके प्राप्त होनेसे अत्यन्त शांत होगया। उसने शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण किया तथा उसे देखकर उस वनमें रहनेवाले सातसौ तपस्वियोंने मिथ्यात्व छोड़कर संयम धारण किया, शुद्ध सम्यग्दर्शन स्वीकार
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२८७ किया और उन सबने बड़े आदरसे श्री प्रदक्षिणा देकर उन (भगवान्) के दोनों चरणकमलों को प्रणाम किया ।"
(उत्तरपुराण ट० ५७८) यही बात उपरान्तके जैनाचार्य भी कहते हैं । सं० १४६४ में हुये श्री सकलकीर्तिनी भी लिखते हैं कि 'निनेन्द्ररूपी भानुके उदयके होते ही साधु, मुनिश्वरोंका संचार होगया था और जटिलादि कुलिंगी तापस जो थे वह तस्करोंके समान विलीन होगये थे ।' ('जिनभानूदये संचरं ति साधु मुनीश्वराः । तदा कुलिंगिनो मंदा नश्यति तस्करा इव ॥१७॥२३॥) सं० १६५४ में श्रीचंद्रकीर्ति द्वारा रचित पार्श्वचरितमें भी इस बातका समर्थन किया गया है। वहां लिखा है कि 'साधारण जनताने प्रसन्न भावसे भगवानके उपदेशामृतका पान किया था ।' (लोकाः प्रसन्नभावेन पीतार्हद्वाक्सुधारा ।) श्री चंद्रकीर्तिनीके समकालीन श्वेताम्बराचार्य श्री भावदेवमूरिने भी अपने "पार्श्वनाथचरित में अनेक मनुष्योंका भगवानके धर्मको ग्रहण करना लिखा है । (सर्ग ६, श्लो० २५६-२५७) अन्ततः कविवर श्रीभूधरदासजी भी भगवानके इस दिव्य प्रभावका उल्लेख निम्न प्रकार करते हैं:
"वचन किरनसौं मोहतम, मिट्यौ महा दुखदाय । वैरागे जगजीव बहु, काल लब्धि बल पाय । सम्यकदरसन आदस्यो, मुक्ति तरोवर मूल । संकादिक मल परिहरे, गई जन्मकी मूल ॥ तहां सातसै तापसी, करत कष्ट अज्ञान । देखि जिनेसुर संपदा, जग्यौ जथारथ ग्यान ॥
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भगवान् पार्श्वनाथ |
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२८८ ] दई तीन परदच्छिना, परदच्छिना, प्रनमें पारसदेव । स्वामि- चरन संयम धस्यौ, निंदी पूरव देव || धन्य जिनेसुरके वचन, महामंत्र महामंत्र दुखत | मिथ्यामत - विषधर - डसे, निर्विष होहिं तुरंत ॥" ( पार्श्वपुराण ) सर्वज्ञकथित वाणीका प्रभाव सर्वव्यापी होना स्वाभाविक ही है । उसके समक्ष अल्पमतिवाले एकांत पक्षियोंका अपने मार्ग में रहना कठिन है । भगवान पार्श्वनाथजीके उस समयकी धार्मिक प्रगतिपर यदि दृष्टि डाली जावे तो वहांसे भी इस ही व्याख्याकी पुष्टि होती है। उनके उपरान्तके प्रख्यात मतप्रवर्तकों में हम खास तौरपर हिंसा कार्यको दूसरी तरहसे समर्थन करते हुये पाते हैं । वह जीवात्मा और पाप पुण्यको मेटकर अपनी चिरग्रसित जिह्वा - लंपटताकी सिद्धि करते हुये पाये जाते हैं ।' इतने से ही कार्य नहीं चला था, बल्कि यह खास मतप्रवर्तक अपने मूल वानप्रस्थ धर्म से अलग होकर नये मतोंका प्रचार करने लगे थे। आजीवक संप्रदायका जन्म इसी समय वानप्रस्थोंमेंसे हुआ था और उन्होंने भगवानके बताये हुए धर्ममें से भी मुनिके दिगंबर भेष और पूर्वोमें से कुछ अंश ग्रहण कर लिया थी । साधारण रीति से यहां पर इन खास
पर्वतकोंकी चर्या पर एक दृष्टि डालकर यह देख लेना सुगम होगा कि सचमुच भगवान पार्श्वनाथके उपदेशका प्रभाव उस समय दिगन्तव्यापी होगया था ।
१ - भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० १६-२८ । २ - भगवान महावीर पृ० १६३ और वीर वर्ष ३ अंक ११-१२ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव। [२८९ भगवान् पार्श्वनाथ नीके उपरान्त वैदिक धर्ममें हमको पिप्पलाद नामक आचार्यका मुख्यतासे पता चलता है। इनके सिद्धांतों का विवेचन 'प्रश्नोपनिषद में किया गया है। इनके छह समसामयिक ऋषि सुकेशस भारद्वाज, शैव्य सत्य काम, सौर्यायनिन गार्ग्य, कौशल्य आश्वलाययन, भार्गव वैदर्भी और कबन्धिन कात्यायन थे।' पिप्पलादका समय म० बुद्धसे बहुत पहले खयाल नहीं किया जाता है, यद्यपि जैन हरिवंशपुराणमें इनका उल्लेख याज्ञवल्क्यके साथ किया गया हैं ' किन्तु बौद्धग्रन्थों में म० बुद्धके एक अधिक वयप्राप्त समकालीन मतप्रवर्तक ककुड कात्यायन (पकुड़ कात्यायन)का उल्लेख मिलता है । यहांपर कात्यायन जो मुख्य नाम है वह पिप्पलादके समप्तामायिक ऋषि कवन्धिनकात्यायनका भी है और कबन्धिन एवं ककुड़ विशेषण एक ही भावको प्रगट करनेवाले बताये गये हैं। इस कारण पिप्पलाद कात्यायनसे पहले हुये थे, जो मबुद्धका समकालीन था। दूसरे शब्दोंमें जब पिप्पलादकी अवस्था अच्छी तरह भर चुकी थी तब कात्यायन युवावस्थामें पग बढ़ा रहा था। इस दशामें भगवान् पार्श्वनाथजीके धर्मोपदेशके किञ्चित्. बाद ही पिप्पलादकी प्रख्याति हुई स्वीकार की जा सक्ती है । अस्तु; इन ब्राह्मण ऋषि पिप्पलादकी गणना उमास्वाति आचार्यके तत्वार्थसूत्रकी टीकामें अज्ञानवाद (अज्ञानी कुदृष्टिः)में की गई है। यद्यपि प्रश्नोपनिषदमें वह एक मान्य ऋषि स्वीकार किये गये हैं; जो ब्राह्मण दृष्टिसे ठीक ही है । पिप्पलादने ईश्वरवादको जो नया
१-प्रश्रोपनिषद् १।१।२-हरिवंशपुराण ० २४९ । ३-प्री-बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० २२६-२२७। ४-राजवार्तिकजी (८१) पृ० २९४।
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२९०] भगवान पार्श्वनाथ । रूप दिया था, वह उन पर किसी बाह्य प्रभावको पड़ा व्यक्त करती है । उनका कहना था कि सृष्टिका सद्भाव प्रजापतिसे हुआ है जो सार्वभौमिक पुरुष (वैश्वानर पुरुष) अथवा सूर्य है जिसका स्वभाव अग्नि है । सृष्टि रचना करनेकी इच्छा करके प्रजापतिने अपने स्वभावका ध्यान किया और उसके बल अपने शरीरमेंसे एक जोड़ा (मिथुन) पुद्गल (रयि) और प्राणको उत्पन्न किया । इन्हींसे सृष्टि होगई। 'यही दोनों-रयि और प्राण-सांख्यमतके पुरुष और प्रकृतिके समान ही है, जिनकी सदृशता जैनधर्मके जीव और अनीव भेदसे बहुत कुछ है । एकदृष्टि से पिप्पलादने अपने उक्त मन्तव्यमें भगवान् पार्श्वनाथके उपदेशकी नकल ही करनी चाही है । भगवानने कहा था कि मूलमें जीवात्मा ही अपना संसार आप बनाता है और स्वभाव अपेक्षा सब ही जीव एकसे हैं । इसलिये वही स्वयं सृष्टि के रचयिता हैं, जिसमें पुद्गल और व्यवहार प्राणोंकी मुख्यता है। यही नहीं, वह यह भी कहता है कि प्राण (=चेतनामई जीव) ही पुद्गलको एक नियमित शरीरका रूप देते हैं और जब वह उससे अलग होता है तब वह शरीर नष्ट होनाता है । भगवान् पार्श्वनाथने पुद्गलमई शरीरसे जीवका अलग होना और उसके अलग होनेपर शरीरका विघटना बतलाया ही था। पिप्पलाद जो इस प्रकार ईश्वरवादको नये ढंगसे जैनधर्मसे सदृशता रखता हुआ, प्रतिपादन कर रहा है, वह भगवान् पार्श्वनाथजीके धर्मप्रभावके कारण ही कहा जा सक्ता है।
पिप्पलादसे कौशलके आश्वलायनने कतिपय प्रश्न किये थे। १-प्री-बुद्धि० इन्डि० फिला० पृ. २२८ । २-पूर्व० पृ. २०९ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव |
[ २९१
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उसने पूछा था कि प्राणोंकी उत्पत्ति कहांसे है ? वह शरीर में कैसे आते हैं ? शरीरको छोड़ कैसे जाते हैं ? इसी सम्बन्धके उसने अनेक प्रश्न किये थे । पिप्पलादने इन प्रश्नोंको बहुत ही कठिन एक ' अतिप्रश्न ' बतलाये थे' तो भी यथाशक्ति उत्तर देते हुये उसने कहा था कि प्राणोंकी उत्पत्ति आत्मासे अथवा अपने निजी ·स्वाभाव (Inner cssence ) से होती है। जीवन में आत्मा उसी तरह है जिसतरह सूर्य में परछाई पड़ती है । ( 'आत्मना एषः प्राणो जायते । यथैव पुरुषे छाया एतस्मिन्नेतद् आततम् | प्रश्नोपनिषद् ३।३।') आत्मा सम्राट्वत् शरीरके मध्य हृदयमें रहता है जिससे शरीरकी १०१ नाड़ियां निकलती हैं। इन्हींके द्वारा आत्म-सम्राट अपनी आज्ञाओं की पूर्ति इतर भागोंसे कराता है । यह आत्मा शरीरको मृत्युसे छोड़ जाती है । मरण समय और शायद जन्मते - समय भी इंद्रियनित ज्ञान (Sense - faculties) मनमें केन्द्रीभूत रहता है | आत्मा इंद्रियजनित ज्ञानसे स्वतंत्र और ज्ञानमय होकर अपने पूर्व संकल्पित अच्छे, बुरे या मिश्रित लोक ( यथासंकल्पितम् लोकम् ) को जाता है । अपने ही प्रकाशसे वह मार्ग देखता है। और अपने प्राणोंकी शक्ति से यह लेजाया जाता है । आत्मा अथवा पुरुषको उसने शुद्ध उपयोगमई ( विज्ञानात्मा ) माना था किन्तु उसने अपने खास शब्दों को इतना अस्पष्ट कहा है कि उनका अर्थ लगाना भी मुश्किल है । तो भी उसने पुरुषके लिये प्राण, प्रकृतिके लिए रयी, व्यक्तके लिये मूर्त और अव्यक्तके लिए अमूर्त
१- प्री० बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० २३१-२३२ । २- पूर्व० पृ० २३२ । ३ - पूर्व० पृ० २३३ । ४- पूर्व० पृ० २३५ ।
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२९२ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
आदि शब्द बिल्कुल नये नये ही व्यवहृत किये थे।' इस सबका कारण भगवान् पार्श्वनाथ के धर्मोपदेशका दिगन्तव्यापी होना कहा जा सक्ता है क्योंकि भगवान् पार्श्वनाथने बतला दिया था कि निश्वयसे आत्माका निजस्वभाव - चेतना लक्षण ही प्राण है परन्तु व्यवहार अपेक्षा उनने इंद्रियादि दश प्राण बतला दिये थे, जिनका प्रादुर्भाव आत्मापर ही अवलंबित था और इसी भावको पिप्पलाद भी दर्शाने की कोशिष करता है, परन्तु वह अपनी असमर्थता पहले ही स्वीकार करलेता है । आत्माको जीवनमें परछाईं रूप अर्थात् पूर्ण व्यक्त न मानना भी ठीक है, क्योंकि भगवान पार्श्वनाथजीने लोगों को बतला दिया था कि सांसारिक जीवन में आत्मा अपने असली रूप में पूर्ण व्यक्त नहीं रहता है । मृत्यु समय आत्माका शरीरको छोड़कर अपने संकल्पित - निदान किये हुये स्थानपर जन्म लेते बतलाना भी एक तरह से ठीक है; परन्तु आत्माका शरीर के मध्य हृदय में बिराजमान रहते कहना आदि बातें उसकी निजी कल्पना है । हां, मरणोपरान्त मार्ग में आत्मा अपने ही बलसे जाता है यह ठीक है । उसके प्राणोंकी शक्ति पूर्वसंचित कर्म वर्गणाओं की सदृशता रखती हैं । वह प्राण, मूर्त, अमूर्त आदि नये शब्द व्यवहार में लारहा है, वह भी हमारे कथन के समर्थक हैं; क्योंकि यह शब्द जैन धर्म के खास शब्द (Technical Terms) हैं। अतएव पिप्पलादके इस सैद्धांतिक विवेचनसे यह स्पष्ट है कि उसने पुरातन वैदिक मन्तव्यों को भगवान् पार्श्वनाथ के धर्म के सादृश्य बनाने के लिये, उक्त प्रकार प्रयत्न किया था जिसको जैनाचार्य अज्ञान मिथ्यात्वमें १ - पूर्व ० पृ० २३३ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९३ परिगणित करते हैं । यह भगवान पार्श्वनाथके प्रभावको स्पष्ट करता है।
पिप्पलादने स्वामकी परमोच्च ध्यानमग्न अवस्थामें पहुंचकर आत्माका ‘पर अक्षर आत्मा' अर्थात् परमात्मा होनाना भी स्वीकार किया है। जिस समय स्वप्नमग्न दशामें सब संकल्प-विकल्प थम जाते हैं और आत्मा परमात्म-दशा (Divine State)को प्राप्त होनाता है। इसलिये उसने सबका उद्देश्य एक परमात्मा माना था, जो उसके निकट अशरीरी, अवर्णी और प्रकाशमान है। वह यह भी कहता है कि जो कोई उस परमात्माको जान लेता है वह सर्वज्ञ होनाता है। यहां बिल्कुल ही भगवान पार्श्वनाथनीके सिद्धान्तकी नकल की गई है। सचमुच शुरूसे आखिर तक पिप्पलाद जीवात्माको अपने ही बलसे परमात्म पद प्राप्त करनेको स्पष्ट करनेके लिए प्रयत्न करता नजर आता है। उसने पुरातन वैदिक धर्मको भगवानके धर्मोपदेशसे सदृशता लानेके लिये जाहिरा प्रयत्न किया था और यह इसीलिये आवश्यक था कि भगवान् पार्श्वनाथनीका धर्मोपदेश उससमय बहु प्रचलित होरहा था !
पिप्पलादके साथ ही दूसरे प्रख्यात् ब्राह्मण ऋषि भारद्वाज हमें मिलते हैं, जिनका सिद्धान्त 'मुण्डकोपनिषद्'में गर्भित है। इनका अस्तित्व भी बौद्ध धर्मकी उत्पत्तिसे पहले अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथ नीके तीर्थमें एक स्वतंत्र ‘मुण्डक' संप्रदायके नेता रूपमें मिलता है । बौद्धोंके 'अङ्गुतरनिकाय में इनके मतकी गणना 'मुण्डकसावक' के नामसे एक अलग संप्रदायमें की गई है । जैन राजवा
१-पूर्व० पृ. २३६ । २-पूर्व० पृ० २३९-२४० । ३-डॉयलॉग्स ऑफ दी बुद्ध, भाग २ पृ. २२० ।
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२९४] भगवान पार्श्वनाथ । तिकमें इन्हें क्रियावादी बतलाया गया है। मुण्डकोंने अपनेको ब्राह्मण ऋषियोंसे, जो बनमें रहते, तप तपते और पशु यज्ञ करते थे, एवं गृहस्थाश्रमी विप्रोंसे पृथक् व्यक्त करने के लिये अपना वह संप्रदाय अलग स्थापित किया था। वे शिर मुड़ाकर भिक्षावृत्तिसे उदर पोषण करते थे। वह जाहिरा जटाधारी ब्राह्मग ऋषेयोंसे अलग थे, परन्तु मूलमें वह पूर्णतः वेदविरोधी नहीं थे। उनने इनमेंसे मध्यपुरुषका स्थान ग्रहण किया था। भारद्वान मुंडे सिर रहनेसे 'मुण्ड' नामसे प्रख्यात् हुआ अनुमान किया जाता है और उसके शिष्य 'मुण्ड श्रावक' कहलाते थे। यहांपर इसतरह एक अलग संपदाय स्थापित करने का कोई कारण भी अवश्य होना चाहिये । साधारणः कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता, सिवाय इसके कि भगवान् पार्श्वनाथ नीके धर्मोपदेशका प्रभाव यहां भी कार्यकारी हुआ हो ! भगवान के बताये हुये श्रावक मार्ग में सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमाके धारी श्रावक सिर भी मुंड़ाते हैं और भिक्षावृत्तिसे ब्रह्मचर्य पूर्वक रहकर जीवन बिताते हैं और आठवीं प्रतिमामें पूर्णतः आरम्भ त्यागी हों नाते हैं। उपरोक्त मुण्डक संपदायके भिक्षुओंका जीवन भी इसी तरहका था और उनका निकास ब्रह्मचारियों मेंसे हुआ कहा भी जाता है तथापि जो उनके साथ 'श्रावक' शब्द लगा हुआ है, वह स्पष्ट प्रकट कर देता है कि इस संप्रदायकी उत्पत्ति भगवान पार्श्वनाथके बताये हुये गृहत्यागी श्रावकोंके अनुरूपमें हुई थी। यही कारण है कि एक विद्वान्ने इसकी
१-राजवासिक (11) पृ० २९४ । २-प्री-बुद्धि० इन्डि० फिला० पृ. २४० । ३-पूर्व० पृ. २४२-२४३ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९५ गणना जैन संप्रदायके अंतर्गत ही अनुमान की है। साथ ही जब हम इनके सिद्धान्तोंगर दृष्टे डालते हैं तो वहां भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशका प्रभाव पड़ा हुआ पाते हैं । ____भारद्वाजने पहले ही परमात्मा अर्थात् ब्रह्म को गोत्ररहित और वर्णहीन ( अगोत्रः अवर्णः ) माना था और इसतरह पर उसने भगवान् पार्श्वनाथनीके अनुसार ही धर्म में जाति और कुलमदका खुला प्रतिकार किया था। यद्यपि अधिकांश बातोंमें उसका मत याज्ञवल्क्य के समान था, पर उसने बहुतसी ब्राह्मण क्रियायों का विरोध किया था। उसने कहा था कि "आत्माकी प्राप्ति न केवल वेदोंसे, न केवल बुद्धिसे और न अधिक अध्ययन करनेसे हो सक्ती है, निसको अपना आपा (Self) चाहता है उसीसे उसकी प्राप्ति हो सक्ती है।....और न इसकी प्राप्ति उसको हो सक्ती है जो बलहीन, अविचारी और उचित ध्यानको नहीं करनेवाला है। यह तब ही संभव है जब एक बुद्धिमान पुरुष बलवान्, विचारवान् और ध्यानमग्न होकर इसके पानेका प्रयास करता है कि वह अपनेको ब्राह्मणकी संगतिमें पाता है ।” ( मुण्डकोपनिषद् ३।२१३-४ "नायम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया....नायम् आत्मा बलहीनेन लभ्यो, न च परमादात् तपसो वार्ष्यालविगात....एष आत्मा विशाते ब्रह्मधामा" ) भारद्वानने विद्या दो तरहकी मानी थी (१) पग और (२) अपरा । दूसरी अपराविद्या में उसने चार वेदों और छह वै देक ज्ञानोंको गृहण किया था और परा (Higher or Traus:ende.. १-डायोलॉग्स ऑफ दी बुद्ध, भाग २ पृ. २२१ । २-प्री-बुद्धिस्टिक इन्डि० फिलासफी पृ. २५३ ।
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२९६] भगवान पार्श्वनाथ । sntal) विद्यामें केवल उसको माना था जिससे 'अक्षर' (Undecaying) की प्राप्ति होती है । इसतरह उसने यद्यपि वेदोंको स्वीकार किया था; परन्तु ब्रह्म-धाम-परमात्मपदको पाने के लिये उनको आवश्यक नहीं समझा था और अठारह प्रकारके यज्ञों को भी सारहीन माना था। ठीक इसी तरहका विरोध भगवान् पार्श्वनाथके प्राकृत धर्मोपदेशसे स्वयं होचुका था। तिसपर भारद्वान जो यह कहता है कि "जो अपने मनमें इच्छाओंको रखता है वह अपनी इच्छाओंके अनुसार यहां-वहां जन्म धारण करता है; परन्तु जिसकी इच्छायें पूर्ण होचुकी हैं उसे अपने सच्चे 'आपा'की प्राप्ति होचुकी है । इसी जन्ममें इच्छाओंका नाश हो सक्ता है।"२ इसमें जाहिरा तौरपर वह भगवान् पार्श्वनाथजीके उपदेशको ही दुहरा रहा है और यह भगवान्के दिव्य उपदेशके प्रभावशाली होनेमें प्रकट साक्षी है! जहां पहलेके वैदिक ऋषियोंने विवाह कार्य मुख्य माना था, वहां भारद्वान ब्रह्मचर्यपर जोर देता है । यह इसी कारण कहा जाता है कि भगवान पार्श्वनाथने केवल अपने धर्मोपदेशसे ही नहीं बलिक अमली जीवनसे ब्रह्मचर्यका महत्व दिगन्तव्यापी बना दिया था। भारद्वाज एकान्तदृष्टिसे प्रतिबोध द्वारा (प्रतिबोध-विदितं) ही ब्रह्म (परमात्मा ) को जान लेना मानता था । योगको ही वह ब्रह्मको पानेके लिये आवश्यक समझता था। इस तरहपर मुण्ड श्रावक संप्रदायका निकास भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशके प्रभाव अनुरूप हुआ प्रकट होता है ।
___ डॉ० हकमी स्वतंत्ररूपसे इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि __ -पूर्व० पृ० २५४ २-पूर्व पृ० २५५ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९७ मुण्डकोपनिषदके ऋषियों ने अपने विचार जैनसिद्धान्तसे लिये थे। वह 'मुण्डकोपनिषद के कर्ताका नाम भारद्वाजके स्थानपर अंगरिस बतलाते हैं। संभव है कि अंगरिसका गोत्र भारद्वाज हो और उसी अपेक्षा डा० बारुआने उनका उच्छेख उक्तप्रकार किया हो । डा० सा० अंगरिसकी मान्यताको जैनधर्मानुसार बताते हैं; जैसे वह लोककी आकृतिको पुरुषाकार मानता था और इस पुरुषरूपी लोकके मध्य भागमें मनुष्यलोक; इसके ऊपरवाले हिस्सेमें ब्रह्म स्वर्गलोक और ब्रह्म स्वर्गलोकसे ऊपर 'परमं साम्यम्' अर्थात् मुक्तिस्थान मानता था। वह कहता था कि जो मनुष्य यहां बहुत अच्छे २ काम करके विशेष पुण्य संचय करता है, वह मनुष्य सूर्य होकर ब्रह्मलोकमें जन्म लेता है और वहां उत्तम भोगोपभोग भोगता हुआ शुद्ध आनन्दमें जीवन व्यतीत करता है। किन्तु ब्रह्मलोकको प्राप्त हुआ आत्मा जबतक इच्छा रहित नहीं होता है और पूर्व संचित कर्म अवशेष रहता है, तबतक उसकी मुक्ति नहीं होती, उसे संसारमें फिर आना पड़ता है। अंगारिसको दृढ़ विश्वास था कि जबतक आत्मा रागद्वेष रहित नहीं होत , तबतक उसे अवश्य संसारमें रहना पड़ेगा; फिर वह वेदोंमें बताई हुई सारी क्रियायों को भले ही करे ! किन्तु इसके साथ ही वह कहता था कि जिस व्यक्तिका आत्मा कर्मोकी निर्जरा कर डालता है और रागद्वेष रहित व पवित्र होता है; तथा जो सदा तपस्या करता हुआ एकान्तमें रहता है व जीवनयापन भिक्षासे करता है और जिसके पास सम्यज्ञान है, वह आत्मा मुक्तिलाम करता है। वहांसे वह कभी लौटकर नहीं आता। -- अंगारिसकी इन मान्यताओं का सादृश्य जैनधर्ममें निर्णित
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२९८] भगवान पार्श्वनाथ । मोक्षमार्गसे बिल्कुल स्पष्ट नजर पड़ता है। दोनों ही सिद्धांतोंके अनुसार यह लोक पुरुषरूप है और सनातन है । (मुण्डक उपनिषद “ अनः" यह विशेषण प्रयुक्त करता है ) अंगरिस उस लोकमें ब्रह्मलोकको आनन्दकी एक जगह मानता है किन्तु सर्वोत्तम स्थान मोक्ष ही स्वीकार करता है । जैनधर्म में भी ब्रह्म एवं अन्य स्वर्ग ऐसे ही आनन्दमई स्थान माने गये हैं और उसमें भी मोक्ष ही सर्वोत्तम स्थान माना गया है । किन्तु जैनधर्ममें स्वर्गसे मुक्ति होना स्वीकृत नहीं है । यह दोनों मतोंके अनुमार ठीक है कि रागद्वेष और कर्म रहित आत्मा मुक्ति लाभ करता है तथा मोक्षमार्गमें तपस्या एक वास्तविक उपाय है। साथ ही 'मुण्डकोपनिषद' में बहुतसे ऐसे शब्द प्रयुक्त हुये हैं जो जैनसिद्धान्कमें पारिभाषिक शब्दोंके समान व्यवहृत हैं; यथाकर्म, निर्वेद, वीतराग, सम्यग्ज्ञान, निग्रंथ, इत्यादि । निर्गथ शब्द जैन साधुका द्योतक है। जैन साधु
ओं की तरह मुण्डकोपनिषदमें भी केशलोंच करने जैसा विधान है:'शिरोव्रत विधिवद्यैस्तु ची ।' इन सादृश्यों को देखने एवं जैनग्रंथ 'पउमचरिय 'में अगरिसको भ्रष्ट जैनमुनि बतानेसे, यह स्पष्ट है कि 'मुण्डकोपनिषद'में निस शिक्षाका समावेश है, वह अवश्य ही जैन धर्मसे लीगई है। (देखो ‘धर्मध्वन'-विशेषांक वर्ष ५ अंक १ ट० ९-१०)
उपरान्त मिनचिकेतस् द्वारा 'गोतमक सिद्धान्तोंकी उत्पत्ति हुई थी। यह भी भारद्वाजके समसामयिक व्यक्ति थे । नचिकेतसूने विवाह, तप और यज्ञवादको स्वीकार किया था; परन्तु
१-पूर्व० पृ. २६५।
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९९ उनका भाव प्राचीन ऋषियोंसे विलक्षण माना था।' वह प्राचीन यज्ञवादसे स्वर्गकी प्राप्ति होना मानता था, परन्तु उनसे अमर जीवनको पाना अस्वीकार करता था। उसके निकट यज्ञका भाव ज्ञानयज्ञ था; निसमें इन्द्रियनिग्रह करना और ध्यानको बढ़ाना मुख्य था । वह व्यक्ति (Being) को अजन्मा और अमर बतलाता था। वह कहता था कि न उसकी शून्यसे उत्पत्ति हुई है और न कुछ उससे उत्पन्न हुआ है । व्यक्ति अजन्मा, अनादिनिधन और प्राचीन है । शरीरके साथ उसका नाश नहीं होता । यदि हिंसक यह समझता है कि मैं मारता हूं और मारनेवाला समझता है कि मैं मारा जाता हूं, तो दोनों मूढ़ हैं; न एक मारता है और न दूसरा मरता है।....जिसने पापकर्मसे अपनेको दूर करके शांत नहीं बनाया है और जिसने इन्द्रियनिग्रह नहीं किया है अथवा जिसका मन स्थिर नहीं है वह व्यक्ति (Being) को ज्ञानसे भी नहीं पासक्ता है । ( कठोपनिषद् १।२।१८ ) योग ही उसको पानेका द्वार है, जिसका मुख्य भाव इन्द्रियनिग्रहसे था। (स्थिरं इन्द्रिय-धारणं) इसतरह नचिकेतस्ने भगवान् पार्श्वनाथजीके बताये हुए निश्चयनयसे किंचित् आत्म-लाभ प्राप्त करनेका उपाय बतलाया था और वह एकांत पक्षसे पूर्णतः सैद्धान्तिक विवेचन करनेको असमर्थ प्रतीत होता है ! परन्तु उसकी इस शिक्षासे लोगोंने उल्टा ही । मतलब निकाला था और उपरांत हिंसाकांड वृद्धिपर होगया था; क्योंकि लोगोंको यह धारणा हो गई कि हिंसा करनेसे जीवका कुछ ; नहीं बिगड़ता है । अस्तु; यहां भी साधारणतः भगवान् पार्श्वनाथ
१-पूर्व० पृ० २६९ । २-पूर्व० पृ. २७३ । ३-पूर्व० पृ० २७५। .
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३००] भगवान पार्थनाय । जीके धर्मापदेशका प्रभाव पड़ा नजर पड़ता है। भगवान्के धर्मोपदेशको उपरांत उनकी शिष्यपरंपरा सर्वत्र प्रचलित करती रही थी, यह हम अगाड़ी देखेंगे ।
नचिकेतस्के इस सिद्धान्तको ही उपरान्त पूर्णकाश्यपने भी स्वीकार किया था । उसका कहना था कि जब हम स्वयं कोई कार्य करते हैं अथवा दूसरोंसे कराते हैं तो उसमें आत्मा न कुछ करता है और न दूसरेसे कराता है। आत्मा तो निष्क्रिय है। इस दशामें जो कुछ हम पाप पुण्य करते हैं, उसका संप्तर्ग आत्मासे कुछ भी नहीं है। इसीलिये सूत्रकृताङ्ग और सामन्नफलसुत्तम उसके मतकी गणना 'अक्रियावाद' में की गई है । इस सिद्धान्तमें भी भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशकी ही झलक दृष्टि पड़ रही है। जैसे कि नचिकेतस्के सिद्धान्तसे भी व्यक्त होता हम देख चुके हैं । निश्चयमें भगवान् पार्श्वनाथने आत्माको सांसारिक क्रियाओंसे विलग एक बिशुद्ध द्रव्य माना था। जिससे पाप पुण्य का कोई संबंध नहीं था । यही भाव एकान्तसे पूर्णकाश्यपने दर्शाया है। वह स्वयं एक जैन मुनि था। श्रीदेवसेनाचार्यने (ई० ९ वी शताब्दि) अपने "दर्शनसार" ग्रन्थमें इनको मक्खाली गोशालके साथ भगवान् पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्पराका एक मुनि लिखा है जो उपरान्त भृष्ट होगये थे। इनका साधु भेष भी इस बातका समर्थक है। वह भगवान पार्श्वनाथके तीर्थके जैन मुनियोंकी तरह 'अचेलकर (नग्न ) रहते थे। इसी कारण उनकी प्रख्याति अचेलक रूपमें
१-पूर्व० पृ. २७९ । २-पूर्वप्रमाण। ३-सू० कृ०-१।१।१।१३। ४-दर्शनसार गाथा १७६ । ५-श्री• बुद्धि इन्डि• फिला० पृ. २७७ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव ।
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थी और बहुत से लोग उनके संप्रदाय को अचेलक समझते हैं; 'परन्तु यह भ्रम है । अचेलक नामका कोई सम्प्रदाय - विशेष 'प्राचीन भारत में नहीं था । 'अचेलक' शब्दका व्यवहार उस कालमें सब ही संप्रदाय के नग्न साधुओंके लिये होता था; तिसपर जैन साधुओंके लिये वह विशेषतः प्रयोजित किया जाता था । अस्तु; "जैन मुनिदशासे भृष्ट होकर पूर्ण काश्यपका अपने मूल विश्वासको विकृतरूप देना स्वाभाविक ही था; क्योंकि उसपर भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशका खासा प्रभाव पड़ चुका था । पूर्ण काश्यपका सम्बन्ध आजीविक संप्रदायसे रहा था, ऐसा प्रतीत होता है। उसकी - मृत्यु ईसा से पूर्व ५७२ वें वर्षमें हुई अनुमान की जाती है।
२
इनके बाद कद कात्यायन ( पकुढ काच्चायन ) को ले लीजिए । यह म० बुद्ध के पहले हो चुके थे, और ब्राह्मण थे, यह प्रकट है । बुद्धघोषने लिखा है कि कात्यायन शीतजलको व्यवहार में नहीं लाता था और आवश्यक्तानुसार उष्णजलको काममें लेता था । वह शीत जलमें जीव मानता था । यहां भी भगवान् पार्श्वनाथजीके मन्तव्य के स्पष्ट दर्शन होते हैं। उन्होंने शीतजलमें जीव बतलाया था और जैन मुनियोंको उसका व्यवहारमें लेना मना था, यह बौद्ध ग्रंथोंसे
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भी प्रकट हैं, तथापि उसने काय, सुख, दुःख, जीव आदि शब्द व्यवहार में लिए थे और ये मूलमें जैन शब्द ही हैं। साथ ही जो
१ - वीर वर्ष ३ अंक ११-१२ । २- प्री० बुद्धि ० इन्डि० फिला ० पृ० २७७ । ३ - पूर्व० पृ० २८१-२८२ । ४- सुमंगलविलासिनी भाग १ पृ० १४४ । ५ - पूर्व० पृ० १६८ । ६ - प्री० बुद्धि० इन्डि० फिल० पृ० २८५ ।
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भगवान पार्श्वनाथ । उसकी मानता थी, वह भी भगवान् पार्श्वनाथके उपदेशसे सहशता रखती है । उसका मत था कि 'असत्तासे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता और जो है उसका नाश नहीं होता ।' भगवान पार्श्वनाथने भी लोकके पदार्थोका ऐसा ही स्वरूप बतलाया था; जिसको उनके उपरान्त कात्यायन विकृतरूप देता प्रतीत होता है । इन्हीं तत्वोंके अनुरूप उसने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुख और जीव यह सात तत्व स्वीकार किये थे। वह इन्हीं सातके मिलने
और विछुड़नेसे जीवन व्यवहार मानता था। तत्वोंकी संख्या ठीक सात मानना भी उस समय भगवान् पार्श्वनाथके बताए हुये सात तत्वोंकी प्रधानताका ही द्योतक है; वरन् उनकी ठीक सात संख्या मानना आवश्यक न थी। इन तत्वों का मिलन वह सुखतत्वके कारण और विच्छेद दुखतत्वके हेतुसे बतलाता था। इस अवस्थामें वह इनका पारस्परिक प्रभाव एक दूसरेपर पड़ता स्वीकार नहीं करता था, जिससे किसी व्यक्तिको खास नुकसान पहुंचाना भी मुश्किल था। इसलिये उसके निकट किप्ती जीवको मारना कुछ विशेष महत्व न रखकर केवल व्यवस्थित तत्वोंको अलग कर देना था, जिसमें पाप-पुण्यका भय ही नहीं था । सचमुच प्रतरदन, नचिकेतसद और पूर्णकाश्यपका भी ऐसा ही विश्वास था । भगवद्गीतामें भी यह भाव प्रगट किया गया है । आत्माको अमर मानते हुये उसके मूल भावमें यह उद्गार कहे प्रतीत होते हैं, पर
१-सूत्रकृताङ्ग २।१।२२ । २-जैनसूत्र (S. B. E.) भाग २ भूमिका XXIV. ३-प्री० बुद्धि० इन्डि० फिला० पृ० २८६ । ४-गीता २।१६-२४ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव । न्तु इनके बल हिंसावादकी पुष्टि करना अनुचित क्रिया है । इसी कारण इन विधर्मियों को 'तत्वार्थराजवार्तिक में प्राणिवधमें पापबंधका कारण नहीं है', इस मान्यतावाला बतलाया है।' (न हि प्राणिवधः पापहेतुर्धर्मसाधनत्वमापत्तुर्महति ॥ १२ ॥ १।८।) इस प्रकार कात्यायनके समयमें भी भगवान पार्श्वनाथके धर्मका प्रभाव कार्यकारी था, यह स्पष्ट है । उनके उपदेशसे वातावरण क्षुभित होगया था इसमें संशय नहीं और यह विदित ही है कि उनकी शिष्यपरम्परा म० बुद्धके समान विद्यमान थी, जैसे कि हम देखेंगे।
उसी समयके एक अन्य मतप्रवर्तक अजित केशकम्बलि भी भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशके प्रभावसे अछूते नहीं बचे थे; यह उनके सिद्धान्तोंसे स्पष्ट है। वह वैदिक क्रियाकाण्डके कट्टर विरोधी थे और पुनर्जन्म सिद्धान्तको अस्वीकार करते थे । यज्ञ, बलिदान, श्राद्ध आदिको वह अनावश्यक बतलाते थे। कहते थे कि यदि मृतक पुरुषोंको भोजन पहुंचाना संभव है तो फिर परदेश गये हुये व्यक्तिको भी उसी तरह भोजन पहुंच जाना चाहिए, परन्तु यह होता नहीं, इसलिए श्राद्ध आदि क्रियाकाण्ड वृथा हैं। साथ ही वह इंद्रियनिग्रह और ध्यानको भी आवश्यक नहीं मानता था । वर्तमानको छोड़कर भविष्यसुखकी आशा करनेपर वह विश्वास नहीं करता था । लोकको वह पृथ्वी, जल, अमि और वायुका समुदाय मानता था और आत्माको पुद्गलका कीमियाई ढंगका परिणाम बतलाता था । इन चारों वस्तुओंके विघटते ही आत्मा भी विघट जाता है, यह वह कहता था। इसीलिये वह जीवात्मा और शरीरको एक १-राजवार्तिक पृ० २९४ । २-प्री० बुद्धि० इन्डि० फिला• पृ० २८९ ।
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३०४] भगवान पार्श्वनाथ । ही मानता था और प्राणियोंकी हिंसा करना बुरा नहीं समझता था।' इसकी इस शिक्षामें भी जैन सिद्धांतके व्यवहारनय अपेक्षा आत्मा और पुद्गलके संमिश्रणका विकृतरूप नजर आता है। भगावान् पार्श्वनाथने इस सिद्धांतका प्रतिपादन किया था, उसीको विकृत रीतिसे प्रगट करनेका प्रयास अजितने अपने उक्त सिद्धांतमें किया है। इस तरह यहां भी पार्श्वनाथजीके धर्मोपदेशका प्रभाव दृष्टि पड़ रहा है । सारांशतः हम उस समयके सैद्धांतिक अथवा धार्मिक वातावरणमें जैनधर्मका खासा प्रभाव पड़ा स्पष्ट देखते हैं। विद्वानोंका भी यह मत है कि उपरोक्त मतप्रवर्तकोंपर अवश्य जैनधर्मका प्रभाव पड़ा था, स्व० मि. जेम्सडेऽल्विस महोदयका वक्तव्य है कि म० बुद्ध के समयमें भी 'दिगंबर' एक प्राचीन संप्रदाय समझा जाता था और उपरोल्लिखित मत-प्रवर्तकोंके सिद्धांतोंपर जैनधर्मका प्रभाव पड़ा नजर पड़ता है। प्रो. डॉ० हर्मनकोबी भी यही कहते हैं कि तीर्थकों ( पूर्णकाश्यप, कात्यायन आदि )ने उन सिद्धांतों और क्रियायोंको अपना लिया था जो जैनमतमें मिलती हैं और संभवतः यह उन्होंने स्वयं जैनों हीसे ले लीं थीं।....यह भी प्रगट है कि महावीरके समयमें भी जैनधर्म विद्यमान था और सो भी उनसे स्वाधीन रूपमें। इससे एवं अन्य कारणोंसे यह प्रगट है कि निग्रंथ अर्थात् जैनधर्म भगवान महावीरसे बहुत पहलेसे प्रचलित था। अस्तु; इस दशामें हम जैन अन्थोंके उल्लेखोंको सार्थक पाते हैं और भगवान् पार्श्वनाथजीके
१ भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० २५। २-इन्डियन एण्टीकेरी भाग ९ पृ. १६१ । ३ पूर्व• पृ. १६२।
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भगवान के प्रमुख शिष्य। [३०५ उपदेशका महत्व और प्रभाव सुगमतः हृदयंगम कर लेते हैं । सचमुच भगवान्के धर्मोपदेशका प्रभाव देखकर कविका निम्न पद्य सोलही आने चरितार्थ होजाता है"आतम रसीको है सुधारसको कुण्ड 'वृन्द',
सम्यक् महीरुहको मूल छहरात है। सकल समाज शिवराजको अजज्ज जामें,
ऐसो जैन बैनको पताका फहरात है।"
লজ্জ মুমূত্রু যেভত্যু 'गणीशा दश तस्यासन् विधायादि स्वयंभुवं । सार्दानि त्रिशतान्युक्ता मुनीन्द्राः पूर्वधारिणः॥ यतयो युतपूर्वाणि शतानि नव शिक्षकाः। चतुः शतोत्तरं प्रोक्ताः सहस्रमवधित्विषः॥ सहस्रमंतिमज्ञानास्तांबनो विक्रियद्धिकाः। शतानि सप्त पंचाशचतुर्थावगमाः स्मृताः॥ वादिनः षट्शतान्येव ते सर्वेपि समुच्चिताः । अभ्यर्णीकृतनिर्वाणाः स्युः सहस्राणि षोडश ।'
__-उत्तरपुराण । भगवान् पार्श्वनाथनीका तीर्थ सर्वमान्य होगया ! ग्राम २ और नगर पत्तनोंमें उन भगवान्का अहिंसामई और अव्याबाध मुखका संदेश व्याप्त होगया! हर दशा और हर परिस्थितिके लोगोंको - अपने २ मन्तव्योंका प्रगट बोध होगया ! कोई स्थान और कोई
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३०६ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
देश ऐसा बाकी न बचा जिसमें भगवान् के दिव्य संदेशने अपना प्रभाव दिगन्तव्यापी न बना लिया हो ! इसी अनुरूप उन भगवान के प्रभावशाली प्रमुख शिष्य हजारोंकी संख्या में थे । यह सर्व ही शिष्य गृहत्यागी और परोपकारी महापुरुष ही थे। इनसें वेष्टित होकर भगवान् पार्श्वनाथ ऐसे ही शोभित हो रहे थे जैसे तारिका मण्डल में चन्द्र मनको हरनेवाला होता है । यही नहीं कि इन शिष्यों द्वारा भगवान्की ही शोभा और गौरव बढ़ रहा हो - उनके तो गुण स्वभावतः निर्मल और प्रकर्षरूप थे । किन्तु अनेकों भव्य पुरुषों का कल्याण इनके द्वारा हुआ था। इनसे भारतका गौरव बढ़ा था । अहिंसामई सार्व प्रेम और आत्मीक भाव इन्हींके सत्प्रयनों से अपना अपना प्रखर प्रकाश यहां फैला रहे थे । विश्वप्रेमकी 1 उमंग हर हृदयमें लहर मारने लगी थी । इसमें मुख्य कारण भगवान् पार्श्वनाथजीका धर्मोपदेश ही था किन्तु उनके प्रमुख शिष्य भी उसमें प्रधान कारण थे। श्री गुणभद्राचार्यजी कहते हैं कि "भगवान् पार्श्वनाथके समवशरण में स्वयंभुवको आदि लेकर दश गणधर थे, ग्यारह अंग और चौदह पूर्वको धारण करनेवालोंकी संख्या तीनसौ पचास थी । दशहजार नौसो शिक्षक मुनि थे और एकहजार चार सौ अवधिज्ञानी थे। इसीप्रकार एकहजार केवलज्ञानी थे, एक ही हजार विक्रिया ऋद्धिको धारण करनेवाले थे । सातसौ पचास मनः पययज्ञानी थे और छहसौ वादी थे । इसप्रकार शीघ्र ही मुक्त होनेवाले सब मुनियोंकी संख्या सोलहहजार थी !" " ही महान ऋषिगण सर्वत्र विचरकर प्राणियों को अभयदान देते हुये
१ - उत्तरपुराण पृ० ५८० ।
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भगवानके मुख्य शिष्य । [३०७ उनको आत्मपंथका मार्ग दर्शाते थे। उस समयके भव्य जीवोंको इनके सन्तसमागममें विशेष पुण्यसंचय करनेका अवसर प्राप्त था। बौद्ध शास्त्रोंमें हमें इन्हीं जैन ऋषियोंका उल्लेख परोक्षरूपमें हुआ मिलता है । उनके 'ब्रह्मनालसुत्त में पहलीसे चौथी आलोचनातक जिन प्राचीन ऋषियों के मन्तव्यों का निकर है वह जैन दृष्टिसे जैन मुनियोंकी मान्यताके अनुसार आत्माके निश्चय और व्यवहाररूपको लक्ष्य करके लिखा गया है । किन्हीं ऋषियोंको वहाँ संख्यात पूर्वभव बतलाकर आत्मा और लोकका कथंचित् नित्यत्व और अनित्यत्व स्वरूप सिद्ध करते प्रगट किया गया है। यह कथन केवलज्ञानी और अवधिज्ञानी मुनियोंसे लागू है जो श्री पार्श्वनाथनीकी शिप्यपरम्परामें म° बुद्धसे पहले इसी प्रकार आत्मा और लोककी सिद्धि करते थे। तथापि जो इन्हीं बातोंको तर्कवादसे सिद्ध करते हुये बताये गये हैं, वह भगवान् पादर्वनाथके वादी मुनियोंको लक्ष्य करके कहा गया प्रतीत होता है। इसतरह यह ऋषिगण केवल वर्षाऋतुके चार महीनोंमें एक स्थानपर ठहरते थे, वरन् ग्राम-ग्राम और नगर-नगरमें विचरते हुये धर्मोपदेशका अमृत तृषित जनताको पिलाते थे। इन्हींके सदकृत्योंका यह परिणाम निकला था कि जनता धर्मके नामपर होनेवाली हिंसाके विरुद्ध आवाज कसने लगी थी और पुरोहितोंकी 'पोपडम' का अन्त करनेको उतारू हो गई थी। यह महापुरुष स्वयं अपना कल्याण करते थे और प्राणीमात्रके उपकारमें दत्तचित्त रहते थे। यही नहीं कि केवल पुरुषवर्ग ही अपने आत्मकल्याण और धर्मप्रचारमें संलग्न था; बल्कि आर्य-ललनायें भी
१-भगवान महावीर और म० बुद्र० परिशिष्ट पृ० २२२ ।
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३०८ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
इस सेवा मार्ग से विमुख नहीं थीं । कोमलांगी रमणीरत्नोंने अपने वासना विलासको उठाकर एक तरफ रख दिया था । ज्ञान अंजनसे उन्होंने अपने दिव्यचक्षुओं को प्रभामई बना लिया था । गृहकुटुम्बका ममत्व उनकी 'बसुधैव कुटुम्बकम्' की नीतिमें बाधक नहीं था । वह स्वयं संयमी जीवन व्यतीत करती हुई अपना आत्मकल्याण करतीं थीं और देश में सर्वत्र विहार करती हुई विद्वानोंसे शास्त्रार्थ करतीं और जनताको धर्मामृत का पान करातीं थीं । वह रमणीरत्न थीं सारे संसार के लिये आदर्शरूप थीं। इन्हींके साथ श्वेत वस्त्रोंको धारण करनेवाले उदासीन गृहत्यागी श्रावक और श्राविकायें भी अपनी शक्तिके अनुसार धर्मप्रभावनाके कार्य में संलग्न थे। इन सबके विषयमें श्री गुणभद्राचार्यजी कहते हैं कि:
" सुलोचनाद्याः षट् त्रिंशत्सहस्राण्यायिका विभोः । श्रावका लक्षमेकंतु त्रिगुणाः श्राविकारतः || १५३।।” अर्थात् - 'उन भगवान् के समवशरण में सुलोचनाको आदि लेकर छत्तीसहजार अर्जिकाएं थीं, एकलाख श्रावक थे और तीनलाख श्राविकायें थीं ।" यह सब ही अपना आत्मकल्याण करते सर्वत्र भगवान् के साथ रहकर धर्मका उद्योत करते थे । इनके अतिरिक्त अनेकों राजा, सेठ और देव - देवियां भगवान् के साधारण भक्त थे । इनमें मुख्य भगवान् के माता-पिता थे, वे इन तीर्थंकर भगवान के
श्रद्धानी होकर उनके शासनका यश फैलाने में दत्तचित्त थे । यही बात श्री वादिराजसूरिजी इन शब्दों में प्रकट करते हैं:राजा पुनः स जिनभक्ति भरावनम्रः,
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प्रोच्य कैरराज्यपदमंडितमण्डलश्रीः ।
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भगवानके मुख्य शिष्य। [३०९ देवस्य तीर्थमघसार्थहरं नरेषु,
प्राभावयत् त्रयविधिर्ननु विश्वसेनः॥४३॥' अर्थात्-‘भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिसे नम्रीभूत, उत्तम राज्यसे शोभित तीन ज्ञानके धारक राजा विश्वसेन पापोंके नाशक भगवान् जिनेन्द्रके तीर्थकी मनुष्योंमें प्रभावना करने लगे थे। ऐसे ही धर्मवत्सल भक्तों के द्वारा शीघ्र ही भगवान्के शासनकी विजय वैजयंती सर्वत्र फहराने लगी थी। भगवान् पार्श्वनाथनीकी पवित्र स्मृतिमें अनेक स्थानोंपर दिव्य मंदिर और चैत्यागार निर्मित हो गये थे; जिनमें सदा ही भगवान्का यशगान हुआ करता था ! यही नहीं कि भगवान्के शिष्य भारतवासी ही रहे हों, बल्कि विदेशोंके भी बहुजन आपके परम भक्त थे। नील-महानील और अमितवेग आदि विद्याधर लोग भारत बाह्य प्रदेशके राज्याधिकारी थे। उन्होंने भारतमें तीर्थ वन्दना करते हुये तेरपुर (उस्मानाबाद)के निकट अनेक जैन मंदिरोंको निर्मापित कराया था और उनमें मणिमई श्री पार्श्वनाथनीकी प्रतिबिम्ब बिराजमान की थीं। सारांशतः भगवानकी भक्ति-सौरभका मधुर गुंजार दिग् दिगान्तरोंमें फैल गया था !
भगवान् पार्श्वनाथजीके प्रमुख गणधर स्वयंभू नामके थे। यही सर्व प्रथम भगवान्की अमृतवाणीको ग्रहण करनेवाले नर-रत्न थे। इन्होंने ही भगवानकी दिव्यध्वनिको अवधारण करके द्वादशाङ्गरूप, पूर्वोकर संयुक्त जैन आगमकी रचना की थी। वही आगम भगवान् महावीरके सर्वज्ञ होने तक सर्वत्र प्रचलित रहे थे । हत्भाग्यसे इन प्रमुख गणधर महाराजके विषयमें कुछ भी विशेष परिचय नहीं
१ मुनि कणयामर विरचित 'करकंडुचरित्र' संधि ५।
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३१० ]
भगवान पार्श्वनाथ |
मिलता है । केवल इन्हींके संबंध में यह बात नहीं है, बल्कि उस समय के किसी भी अन्य गणधर अथवा मुनिका पूर्ण परिचय अभाग्यवश प्राप्त नहीं है । सब ही दिगंबर जैन शास्त्रों में केवल यही उल्लेख मिलता है कि भगवान् पार्श्वनाथजीके दश गणधर थे, जिनमें प्रमुख स्वयंभू थे । ' गणधरादि महर्षिस्तोत्र ' में भी इनका कुछ विशेष परिचय नहीं मिलता है । वहां भी केवल नामोल्लेख है; यथा: -
'नेमिं पार्श्व स्वम्भवाद्या गौतमाद्याश्च सन्मतिं । नेम्यो गणधरेशेभ्यो दत्तोऽर्थ्योदयं पुनातु वः ॥ '
स्वयंभू महाराजके अतिरिक्त अवशेष नौ गणधरोंका उनमें - नाम भी नहीं मिलता है । सचमुच इतने प्राचीनकालके महत पुरुयोंका विशेष परिचय पाना कठिन है। हां, श्वेताम्बर संप्रदायके अर्वाचीन साहित्य में अवश्य ही इन सबके नाम दिये हुये मिलते हैं; किन्तु वे आपस में ही एक दूसरेके खिलाफ हैं । इतना अवश्य है कि प्रायः वे सब ही भगवान् के प्रमुख गणधरका नाम "आर्यदत्त " बतलाने में एकमत हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके इस मतभेदका कोई विशेष कारण तो दृष्टि नहीं पड़ता है । होसक्ता है कि दोनों संप्रदायोंने अपने आपसी मतभेद के कारण पूर्व पट्टावलियों में भी अन्तर रक्खा हो ! श्वेताम्बरोंके 'पार्श्वचरित' में भगवान के दश गणधरोंके नाम यूं बतलाये हैं: - आर्यदत्त, आर्यघोष, वशिष्ठ, ब्रह्मनामक, सोम, श्रीधर, वारिषेण, भद्रयशस, जय और विजय', किन्तु उनके 'शत्रुञ्जय महात्म्य' में केवल 'आर्यदत्तकी अध्यक्षता में नौ सूरियोंका होना' लिखा है ' और ' कल्पसूत्र' में केवल गणधर आर्यदत्तका ही १ भावदेवसूरि, पा०च• सर्ग ६ श्लो० १३५० - १३५८ । २ शत्रुंजयमाहात्म्य १४६८
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भगवान् के मुख्य शिष्य ।
[ ३११
फ
उल्लेख है । उपरांत वे० मुनि आत्मारामजीने स्वरचित 'अज्ञान - तिमिरभास्कर' में भगवान् पार्श्वनाथजीकी जो शिष्यपरंपरा दी है, वह इनसे भिन्न है । वह भगवान् के प्रमुख शिष्यका नाम आर्य समुद्र लिखते हैं और फिर श्री शुभदत्त गणधर, श्री स्वामी प्रभासूर्य, श्री हरिदत्त और श्री केशीस्वामीका उल्लेख क्रमशः करते हैं । इसतरह पर भगवान् पार्श्वनाथजीके मुख्य गणधरोंका ठीकसर परिचय पालेना आज कठिनसाध्य है और इस अवस्था में केवल यही निःसंशय स्पष्ट है कि भगवान् के मुख्य गणधर दश थे । इन सबकी अध्यक्षतामें उक्त मुनिगण विचरते थे । प्रमुख गणधर स्वयंभू मन:पर्ययज्ञानी थे और उपरान्त उनको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी ।
इनके अतिरिक्त श्री पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्पराके विशेष प्रख्यात् मुनि हमको श्री पिहिताश्रव नामक मिलते हैं । दिगंबर जैन शास्त्रोंमें इनका विविध स्थानोंपर उल्लेख मिलता है । श्वेतांबर यति आत्मारामजी भी इनके विषय में कहते हैं कि 'यह स्वामी प्रभासूर्य के कई साधुओं में से एक थे । दिगम्बर जैन शास्त्रों में इनको भगवान् पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्पराका एक साधु लिखा है और बतलाया है कि इनके एक बहुश्रुती शिष्य बुद्धिकीर्ति नामक थे, जिन्होंने भ्रष्ट होकर क्षणिकवादका प्रचार किया था । यह बुद्धिकीर्ति बौद्धधर्मके संस्थापक म० गौतमबुद्ध के अतिरिक्त और कोई अन्य व्यक्ति नहीं थे । म० बुद्धने स्वयं अपने मुख से एक स्थानपर जैनमुनि होना स्वीकार किया है। ऐसा मालूम होता है कि म०
१ कल्पसूत्र १६१ । २ जैनहितैषी भाग ७ अंक १२ पृ० २ । ३-जैन हितैषी भाग ७ अंक १२ पृ० २ । ४- दर्शनसार ६-१० । ५३ - सान्डर्स गौतमबुद्ध पृ० १५ ।
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३१२] भगवान पार्श्वनाथ । बुद्धके पितृगण भी श्रमणभक्त थे। निस समय म० बुद्धका जन्म हुआ था, उस समय एक अजितनामक श्रमण ऋषिने उनको देखकर आशीर्वाद दिया था तथापि जिस समय वे कपिलवस्तुसे बाहिर आरहे थे, तब भी उनको एक श्रमणके दर्शन हुये थे। यह श्रमण बौद्ध भिक्षु तो नहीं हो सक्ते, क्योंकि उस समय बौद्धधर्मका अस्तित्व नहीं था किन्तु इसके माने यह भी नहीं है कि वे निश्चितरूपमें जैनश्रमण ही थे, क्योंकि उस समय आजीविक आदि साधु भी श्रमण नामसे उल्लेखित किये जाते थे । यद्यपि यह ठीक है कि मुख्यतः इस ' श्रमण' शब्दका प्रयोग जैनसाधुओंके लिये ही होता था, क्योंकि जैनधर्मको 'श्रमणधर्म ' ही बतलाया गया है। तथापि ऋग्वेदमें जो श्रमणोंका उल्लेख है वह निसंशय जैन-श्रमणोंसे ही लागू है क्योंकि आजीविक आदि इतरश्रमणोंकी उत्पत्ति ईसासे पूर्व ९०० वर्षसे हुई बताई जाती है, जबकि ऋग्वेद करीब चार हजार वर्ष इतना प्राचीन बतलाया जाता है। रही बात म० बुद्धके समागममें आये हुये उक्त श्रमणोंकी, सो जब हम बौद्ध ग्रन्थ 'ललितविस्तर में यह उल्लेख पाते हैं कि म० बुद्ध अपने बाल्यकालमें श्रीवत्स, स्वस्तिका, नन्द्यावर्त और वर्द्धमान यह चिन्ह अपने शीशपर धारण करते थे जिनमें से पहलेके तीन चिन्ह तो क्रमशः शीतलनाथ, मुपार्श्वनाथ और अरहनाथ नामक जैन तीर्थंकरों के चिह्न हैं और अंतिम वर्द्धमान स्वयं भगवान् महावीरका नाम है तब यह कहना ठीक ही है कि संभवतः उक्त श्रमण जैन मुनि ही थे
१-बुद्धजीवन (S. B. E. XIX)पृ० ११।२-इन्डियन एन्टीक्वेरी भाग ९ पृ. २४६ । ३-कल्पसूत्र पृ० ८३ । ४-ऋग्वेद १०॥३६ ।
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भगवानके मुख्य शिष्य । [३१३ और राजा शुद्धोदन उन जैन श्रमणोंके भक्त थे। इस प्रकार श्री पिहिताश्रव मुनिराजके सर्व प्रमुख शिष्य बुद्धिकीर्तिके पितृकुल एवं उनके उपरान्त बौद्धधर्मके प्रवर्तकरूपमें वर्णन है । वह भ्रष्ट जैन मुनि थे और भगवान् महावीरके समकालीन थे ।
"मौन एकादशी व्रतकथा" में भी श्री पिहिताश्रव मुनिका कथन है । इस कथामें कौशांबीके राना हरिवाहन और उनकी 'पट्टरानी शशिप्रभाका अपने राज्यविमुख पुत्र सुकौशलके सम्बन्धमें
श्री सोमप्रभु नामक मुनिराजसे जिज्ञासा करने का उल्लेख है। मुनिराजने राजा रानीका समाधान करते हुये कहा था कि 'कौशल्य देशके कूटनगरमें राजा रणसिंह और उसकी रानी त्रिलोचना थी। इनके रामत्वकालमें उसी नगर में एक कुणवी रहता था, जिसके तुङ्गभद्रा नामकी भाग्यहीना कन्या थी। तुङ्गभद्राकी शैशव अवस्थामें ही उसके मातापिता कालकवलित होगए थे और वह ज्योंत्योंकर बड़ी हुई ! आठ वर्षकी जब वह थी तब एक रोन घास काटनेके लिये वनमें जाते हुये उसे श्री पिहिताश्रव मुनिराजके दर्शन हो गये। उसने भी श्रीगुरुके मुखारविंदसे धर्म श्रवण किया और उनके परामर्शसे एकादशी व्रत ग्रहण किया ! व्रतको पूर्णतः पालकर वही कन्या मरकर तेरे यह सुकौशल नामक पुत्र हुआ है । यह चरमशरीरी है, इसी भवसे मोक्षलाभ करेगा। इसीलिये यह राज्यकानसे विमुख रहता है।' राजा अपने पुत्र का यह पूर्वभव सुनकर संसारसे विरक्त हो चला और राजभवनमें आकर उसने सुकौशलको तो
१-भगवान् महावीर और म. दुद्ध पृ० ३७-३८ । २- जैनकथासंग्रह पृ. १३५ ।
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३१४ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
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राज्यसिंहासनपर आरूढ़ किया और स्वयंने पिहिताश्रव आचार्य के. निकट जाकर दीक्षा ग्रहण करली थी । इधर सुकौशल राज्याधिकारी तो हुये, परन्तु इनका चित्त सदा ही राज्यकाजसे उदास रहता था । नौबत यहांतक पहुंची कि एक मंत्रीने इनके विरुद्ध षड्यंत्र भी रचडाला कि जिससे यह सुगमता से राज्यच्युत किये जासकें; किंतु दूसरे राज्यभक्त मंत्रीने इसका भंडा फोड़ दिया ! परिणामतः सुकौशल राजाने राज्यभक्त मंत्रीको राज्यपद दिया और स्वयं मोक्षलाभ किया था । इस कथा से भी पिहिताश्रव मुनिराजका भगवान् पार्श्वनाथनीके तीर्थ में होना प्रमाणित है, क्योंकि भगवान महावीर के धर्मप्रचार के समय कौशाम्बीमें राजा शतानीकका राज्य होना लिखा गया है, जिनसे पहले ही उक्त घटना घटित हुई होगी! किन्तु इस कथा में कौशाम्बीको कौशल्य देश में अवस्थित बतलाया है; 2 जो ठीक नहीं है क्योंकि कौशलकी राजधानी श्रावस्ती थी और कौशाम्बी बत्सदेशका राजनगर थे। साथ ही श्री 'उत्तरपुराण' जीके निम्न अंशसे इस कथाकी बहुत सदृशता है और इसमें घटनास्थान चम्पा बतलाया गया है; यथा:
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"अस्त्यत्र विषयोगाख्यः संगतः सर्ववस्तुभिः । नगरी तत्र चंपाख्या तत्पतिः श्वेतवाहनः ॥ ८ ॥ श्रुत्वा धर्म जिनादस्मान्निनिर्वेगा हिताशयः । राज्यभारं समारोप्य सुते विमलवाहने ॥ ९ ॥ संयमं बहुभिः सार्द्धमत्रैव प्रतिपन्नवान् ।
१ हमारा 'भगवान महावीर पृ० १०८ । २ जैन कथासंग्रह पृ० १३५ । बुद्धिस्ट इन्डिया पृ० २३२ ।
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भगवानके मुख्य शिष्य । [३१५ चिरं मुनिगणैः साकं विहृत्याखंडसंयमेः॥१०॥ धर्मेषु रुचिमातन्वन दशस्वप्यनिशं जनैः। प्राप्तधर्मरुचिः ख्यातिः सख्यं यत्सर्वजंतुषु ॥ ११ ॥ अद्य मासोपवासांते भिक्षार्थ प्राविशत्पुरं । पुरुषाः संहतास्तत्र तत्समोपमितास्त्रयः॥ १२ ॥ नरलक्षणशास्त्रज्ञस्तेष्वेको वीक्ष्य तन्मुनि । लक्षणान्यस्य साम्राज्य पदवीप्राप्तिहेतवः ॥ १३ ॥ अटत्येष च भिक्षायै शास्त्रोक्तं तन्मृषेससौ। वदन्नभिहितोन्येन न मृषा शास्त्रभाषितं ॥ १४ ॥ त्यक्तसाम्राज्यतंत्रोयमृषिः केनापि हेतुना। निविण्णस्तनये वाले निधाय व्यातिं निजां ॥१५॥ स्वयं स्वार्थ समुद्दिश्य तपः कर्तुमिहागतः । मंत्रिप्रभृतिभिः सर्वैः कृत्वा तं शृंखलात ॥ १६ ॥"
यहांपर चम्पाके राजा श्वेतवाहनको अपने विमलावाहन पुत्रको राज्य देकर श्री वीर भगवानके निकट तपश्चरण धारण करते बताया है । उपरांत मुनि भेषमें उन्होंने राजगृहमें लक्षण शास्त्र-वेत्ताओंके मुखसे अपने पुत्रका मंत्रियों द्वारा राज्यच्युत किया जाना भी सुना था, यह भी उक्त श्लोकोंमें कहा गया है। पूर्वोक्त सुकौशल मुनिवाली कथा भी इसी ढंग की है। इसलिये बहुत सम्भव है कि उपरांत कालके उक्त कथाकारने सुकौशल मुनिकी कथाको विशेषता देनेके लिये चम्पापुरके श्वेतवाहनवाली घटनाको उसमें जोड़ दिया हो ! इसीलिये शायद उन्होंने कौशल देशके राजाका पुत्र सुकौशलको बतलाया है । कौशलके एक राजाका नाम महाकौशल बौद्ध
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भगवान् पार्श्वनाथ |
शास्त्रों में मिलता है, जिनके पुत्र प्रसेनजित थे ।' साथ ही राजाका हरिवाहन नाम भी श्वेतवाहन नामसे सदृशता रखता है । इन बातोंके देखते हुए जब हम 'आराधना कथाकोष' में सुकौशल निकी कथाको पढ़ते हैं, तो यह ठीक जंच जाता है कि उक्त "मौन एकादशीव्रत कथा' का वर्णन ऐतिहासिकता के विरुद्ध है । इसी " कथासंग्रह' की एक अन्य कथा में हम मध्य कालके राजा नरव-र्माका सम्बंध देख ही चुके हैं। जिसको उस कथामें बहु प्राचीन कालमें जा रखखा है । 'आराधना कथाकोष' में सुकौशल अयोध्या के - राजा प्रजापालके समय में हुये सेठ सिद्धार्थके पुत्र बताये गये हैं और उन्हें दूसरे भवसे मोक्षगामी होते. बतलाया गया है । किन्तु इस सब वर्णन से इतना तो स्पष्ट ही है कि मुनिराज पिहिताश्रवके निकट किसी व्यक्तिने अवश्य ही दीक्षा ग्रहण की थी, यह व्यक्ति संभवतः सेठ सिद्धार्थ ही प्रतीत होते हैं। साथ ही अंगदेशस्थ चम्पापर राजगृहके राजा श्रेणिकके पुत्र कुणिकका राज्याधिकारी होने का भी सम्बंध उक्त वर्णनसे स्पष्ट है । चम्पाके राजा अयोग्य थे और मंत्रियोंने उन्हें राज्य-भ्रष्ट कर दिया था । इस मौकेपर कुणिकका वहां पर अधिकार प्राप्त कर लेना सुगम ही था । इस तरह इस विवरण में कुणिकका चम्पापर राज पानेका कारण उपलब्ध हो जाता है, जो भारतीय इतिहासके लिये भी उपयोगी है । अस्तु !
श्री ' नागकुमार चरित' में भी एक पिहिताश्रव मुनिका उल्लेख हमें मिलता है; किन्तु जैन शास्त्रोंमें श्री नागकुमारजीको भगवान्
१ - इन्डियन हिस्टोरीकल क्वार्टली भाग १ पृ० १५८ । २-आराधना कथाकोष भाग २ पृ० २३२ ।
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भगवानके मुख्य शिष्य ।
[ ३१७ नेमिनाथजीके तीर्थमें हुआ बतलाया जाता है ।' और उस अव-स्थामें इन पिहिताश्रव मुनिका भगवान् पार्श्वनाथजीकी शिष्यपर-म्पराका मुनि होना अशक्य है । परन्तु जब नागकुमार चरितमें अनेक ऐसी बातों का उल्लेख हम पाते हैं जिनका सम्बंध भगवान् - महावीर के प्रारम्भिक कालकी घटनाओंसे प्रायः ठीक बैठता है, -तो यही प्रतिभाषित होता है कि यह पिहिताश्रव मुनि वही हैं जो श्री पार्श्वनाथमीकी शिष्यपरम्परा में थे। हो सक्ता है कि नागकुमा -रका जन्म श्री नेमनाथस्वामी के तीर्थमें होगया हो और वह भगवान् पार्श्वनाथजीके तीर्थ के अंतिम समयतक बल्कि उपरान्ततक विद्यमान रहे हों, क्योंकि उनकी आयु भी १०७० वर्षकी बतलाई गई है । उनकी कथामें जय और विजय नामक मुनियोंका भी उल्लेख मिलता है; और इसी नामके मुनियोंका होना श्री पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्परा में भावदेवसूरिके "पार्श्वनाथ चरित" से भी प्रकट है जैसे कि हम ऊपर देख चुके हैं । गिरितट नगरसे नागकुमारका श्री नेमि - 1 नाथजीकी वंदना के लिये पर्वतपर जानेका उल्लेख भी इस बातका द्योतक है कि उस समय भगवान् नेमिनाथ विद्यमान नहीं थे ।. नागकुमारकी कथा में सिंधुदेश के राजा चंडप्रद्योत बताये गये हैं । " उस प्राचीनकाल में इस नामके एक प्रामाणिक राजा केवल उज्जयनीके थे और वह भगवान् महावीर के समय में भी विद्यमान थे । किन्तु यहां पर जो उनको सिंधुदेशका राजा लिखा गया है, वह भी ठीक
२
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१ - श्री पुण्याश्रव कथाकोष' पृ० १८० । १६९।४ - पूर्व० पृ० १७३ । ५ - पूर्व० पृ० पृ० २३ ।
२ - पूर्ववत् । ३ - पूर्व० पृ० १७२ । ६ - बुद्धिस्ट इन्डिया
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भगवान पार्श्वनाथ |
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है, क्योंकि जैनाचार्योंने चर्मणावती नदीको ही सिंधुनदी माना है; बल्कि इस नामकी एक नदी वहीं मौजूद थी। इसलिये ही इस नदी के तटवर्ती देशको सिंधुदेश जैन शास्त्रोंमें लिखा गया है । राजा चेटककी राजधानी विशालाको भी इसी अपेक्षा सिंधुदेश में जैनाचार्योंने लिखा है । उज्जयनीका ही दूसरा नाम विशाला था । कवि कालिदासने अपने मेघदूत काव्यमें उसीके लिये 'विशालां विशालाम् ' पदका प्रयोग किया था । इसीपरसे उपरान्तके जैनाचार्योंने विशाला (वैशाली) को सिंधुदेशमें बतला दिया था; यद्यपि वास्तवमे वह विदेह देशमें थी, जैसे कि आज पुरातत्वकी खोजसे प्रमाणित हुआ है । आज भी जैन शास्त्रकारों की तरह कतिपय विद्वान भ्रमसे कवि कालिदासके उक्त पदका प्रयोग वैशालीसे सम्बंधित कर देते हैं; जबकि वास्तवमें वह उज्जयनीके लिये ही लागू है। अतएव इस कथन से यह स्पष्ट है कि उपरोक्त चण्डप्रद्योत, जो सिंधुप्रदेशके राजा बताये गये हैं, वही हैं जो उपरान्तमें उज्जयनीके प्रख्यात् राजाके रूपमें हमें हिन्दू, बौद्ध और जैनशास्त्रों में मिलते हैं । इस उल्लेखसे भी नागकुमारजीका भगवान्
१ - अस्य: सिन्धोः चर्मण्वत्याः । - योगिराट: - ' पार्श्वाभ्युदयकाव्य टीका | २ - भवभूतिका 'मालतीमाधव नाटक' - कनन्धिम जागरफी ( नया संस्करण ) नोट पृ० ७२७ । ३–कवि धनपालने अपने 'भविष्यदत्त चरित' में इस प्रदेशका सिंधु नामसे उल्लेख किया है- देखो अंग्रेजी जैनगजट वर्ष २२ पृ २४९ पर मेरा लेख । ४ - श्रेणिकचरित्र पृ० और उत्तरपुराण पृ. ६३४ । ५ - विशालां उज्जयिनीपुरीम् । 'विशालोज्जयिनीसमा' इत्याभिधानात् योगिराट: श्री पार्श्वाभ्युदय काव्य पृ० ९०-९१ । ६ - देखो हमारा 'भगवान महावीर' पृ० ६३-६८ । ७ - डॉ० पद वैशालीके लिये बतलाया है और उनके अनुसार हमने ऐसा लिखा था ।
बी० सी० लॉने यह
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भगवान्के मुख्य शिष्य । [३१९ महावीरसे किञ्चित् पहले तक विद्यमान रहना प्रमाणित होता है । यह नागकुमार मगधदेशके कनकपुर नामक नगरके राजा जयंधरकी रानी पृथ्वीमतीके पुत्र थे । इनका मूल नाम प्रतापंधर था। बौद्धोंके "उदेनवत्थु' नामक कथानकमें कौशाम्बीके एक राजाका नाम परन्तप लिखा है । यह म० बुद्धसे किञ्चित पहलेतक मौजूद थे और इनका पुत्र उदायन था, जो वीणावादनमें बहुप्रसिद्ध था । संभव है कि प्रतापंधरका ही उल्लेख बौद्धोंने परन्तपके रूपमें किया हो। जो हो, इन प्रतापंधरने अपने पिता द्वारा घरसे निकाले जानेपर बहु देशोंमें पर्यटन किया था और विविध स्थानोंकी राज्यकन्यायोंसे पाणिग्रहण किया था । अन्ततः यह अपने नगरको वापिस पहुंच गये थे और राजा जयंधरने इनके सुपुर्द राज्य करके स्वयं श्री "पिहिताश्रव मुनिके निकट दीक्षा ग्रहण करली थी!' इसके अति. रिक्त पिहिताश्रव मुनिका उल्लेख इस कथामें कई जगह और भी आया है।
श्री 'पुण्याश्रव कथाकोष' में श्री भविष्यदत्तकी कथामें भी पिहिताश्रव मुनिका कथन है। वहां लिखा है कि भविष्यदत्तने पिहिताश्रव मुनिसे दीक्षा ली थी; परन्तु इस ग्रंथसे प्राचीन कवि धनपालके भविष्यदत्त चरित्रमें मुनिका नामोल्लेख नहीं है ।
. श्री “सम्यक्त्व कौमुदी" की विष्णुश्रीकी कथामें भी पिहिताश्रव मुनिका उल्लेख है। दक्षिण देशके वेनातट नगरके राजा
१-लाइफ एण्ड वर्क आफ बुद्धघोष पृ० ११९ । २-पुण्याश्रव कथाकोष पृ० १७९ । ३-पूर्व• पृ० १९२ । ४-श्री सम्यक्त्व कौमुदी पृ. ८४ ।
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३२० ] भगवान् पार्श्वनाथ । सोमप्रभने यज्ञोंके द्वारा जो फल नहीं प्राप्त कर पाया था, वह वहींके एक गरीबपर दानशील विश्वभूति नामक ब्राह्मणने मुनि पिहिताश्रवको आहारदान देनेसे उपार्जन कर लिया था। इस दानशील ब्राह्मणके फल-प्रभावको देखकर ही राजा पिहिताश्रव मुनिराजके निकट गया था और उनसे अन्ततः श्रावकके व्रत उसने ग्रहण किये थे। यह कथा भी संभवतः भगवान पार्श्वनाथनीके तीर्थके मुनि पिहिताश्रवसे सम्बंधित है। इनके अतिरिक्त अन्यत्र हमें मुनि पिहिताश्रवके विषयमें कुछ अधिक ज्ञात नहीं होता है । तथापि इतने विवरणसे यह तो स्पष्ट ही है कि मुनि पिहिताश्रव सर्वत्र विचर कर उस समय धर्मका उद्योत कर रहे थे। किन्तु खेद है कि उनके विषय में इससे अधिक और कुछ ज्ञात नहीं है।
दिगंबर जैन शास्त्रोंमें इनके अतिरिक्त संजय, विजय, मौद्गलायन आदि जैन मुनियोंका उल्लेख भी हमें भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थकालमें हुआ मिलता है और इन सबका उल्लेख हम अगाड़ी एक स्वतंत्र परिच्छेदमें करेंगे । यहांपर श्वेतांबर संप्रदायके साहित्यपर भी एक दृष्टि डाल लेना आवश्यक है । वहां हमें भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थके सर्वाभिमुख मुनिके रूपमें श्रमण केशीके. दर्शन होते हैं। यह भगवान महावीरस्वामीके समयमें विद्यमान थे और एक संघके आचार्य थे। इन्हींकी अध्यक्षतामें पार्श्वस्वामीके तीर्थके मुनियोंने श्री महावीरस्वामीकी शरण ग्रहण की थी, यह श्वेतांबर शास्त्रोंका कथन है । इससे अधिक इनके विषयमें हमें और कुछ ज्ञात नहीं है। इनके अतिरिक्त श्री भावदेवसरि भगवान्
१-उत्तराध्ययन सूत्र २३ ।
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भगवान के मुख्य शिष्य । [३२१ पार्श्वनाथनीके चार खास शिष्योंका उल्लेख करते हैं। वे शिव, सुंदर, सोम और जय नामक थे । इनको भगवानकी दिव्यध्वनिसे ज्ञात होगया था कि वे उसी भवसे सिद्धपद प्राप्त करेंगे और इसी अनुरूप वे धार्मिक जीवन व्यतीत करने लगे थे । किन्तु जब ही मोक्ष प्राप्तिका समय निकट आया तो उनके हृदय क्षुभित होगए । आखिर वे भगवानकी शरणमें आये। जहां उन्हें शीघ्र ही केवलज्ञानकी प्राप्ति होगई और वे सब सिद्ध होगये ।' 'सूत्रकृतांग' में भी एक 'उदय पेढालपुत्त' नामक मुनिका उल्लेख है। यह श्रीपार्श्वनाथनी शिष्यपरम्पराके शिष्य वहां बतलाये गये हैं । (पासावंचिज्जे नियंठे मेयज्जे गोत्तेणं । ) इनका गोत्र मेदार्य ( मेयज ) था। इन्होंने कुमार पुत्र नामक ऋषिसे 'प्रत्याख्यान' संबंधमें राजगृहके लेप नामक गृहपतिके भवन में चर्चा की थी। यह लेप मूलमें नालंदाके निवासी थे, जहां इनकी ‘शेष द्रव्या' नामक उदकशाला और उसके पास 'हस्तियाम' नामका एक बड़ा बगीचा था ।
(पुरातत्त्व भाग २ अंक २ पृष्ठ १३३ ) इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथनीके खास शिष्यों और उनके तीर्थके मुख्य मुनियों के पवित्र जीवन थे । इनके वर्णनसे स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथनीका भी एक संगठित मुनिसंघ था और वह भगवान महावीरजीके समय तक विद्यमान रहा था। यह बात न थी कि म० बुद्धके पहले कोई संगठित मुनिसंघ भारतमें नहीं ही था। भगवान पार्श्वनाथके भव्य शिष्यगण एक नियमित संघमें म° बुद्धके पहलेसे जैनधर्मकी विनय वैजयंती उड्डायमान कर रहे थे, भव्योंको
- 1-लाइफ एण्ड स्टोरीज ऑफ पार्श्वनाथ पृ० १७० ।
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३२२ ]
भगवान् पार्श्वनाथ ।
सच्चे सुखका राजमार्ग निस्टर भावसे जवला रहे थे, रंकसे लेकर -राव तकका कल्याण कर रहे थे । भेद और पक्षसे विलग रहते वे - सबके ही आदर पात्र बन रहे थे । वे अपना और परका उपकार करने में सदा बद्धपरिकर थे । लोभ और ममत्व तो उनको अपने शरीर तक नहीं था । वे वीर थे, पूर्ण निस्टही थे, अपने जैसे आप थे ! परम त्यामके साक्षात् आदर्श थे । परमपूज्य श्रमण थे । उनके चरणों में सब ही नतमस्तक होते थे ! कविकी तान में 1 तान मिलाकर सब यही कहते थे:
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" जस गावत शारद शेष खरो, अघवन्त उधारनको तुमरो । तिहिंतें शरनागत आन परो, विरदावलिकी कछु लाज धरो ॥ दुख वारि प्रभु पार करो, दुरितारि हरो सुखसिंधु भरो । सब क्लेश अशेष हरो हमरो, अब देख दुखी मत देर करो ।। "
10-310-01-01
( १८ )
मक्ख लिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य ।
"मसयरि- पूरण रिसिणो उप्पण्णी पासणाहतित्थम्भि | सिरिवीर समवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण ॥। १७६ ।। -बहिणिग्गएण उत्तं मझं एयारसांगधारिस्स । णिग्ग झुणीण, अरुहो णिग्गयविस्सास सीसस्स ॥ १७७॥ ण मुणइ जिणकहियसुयं संपइ दिवखाय गहिय गोयमओ । विप्पोवेयन्भासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ ॥ १७८ ॥
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मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३२३ अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयउ माणो हु । देवो अ णत्थिं कोई मुण्णंझाएह इच्छाए ॥ १७९ ॥ " श्री दर्शनसारः । अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर सर्वज्ञपदको प्राप्त कर चुके थे ! केवलज्ञान सूर्यका प्रखर उदय उनके निकट हो चुका था ! देवोंने आकर उस समयपर हर्षित भावसे आनन्दोत्सव मना करके और सभामण्डप रचकर उस अवसरकी दिव्यशोभाको और भी अधिक बढ़ा दिया था ! भगवान महावीर गंधकुटीमें अष्ट प्रातिहार्यसहित अन्तरीक्ष बिराजमान थे; परन्तु तो भी उनकी वाणी नहीं खिरी । देवेन्द्र आदि तृषित चातकों के एकटक निहारते रहने पर भी भगवान - द्वारा धर्मामृतकी वर्षा न हुई ! देवेन्द्र आश्चर्यमें पड़ गया, उसने अपने विशिष्ट अवधिज्ञानके बल जान लिया कि भगवान के दिव्योपदेशको अब धारण करनेवाला योग्य व्यक्ति यहां मौजूद नहीं है। इसीलिये वह राजगृहके इन्द्रभूति गौतम नामक वदेपारंगत विद्या नको वहां लिवालाया और वह भव्य ब्राह्मण भगवानकी शरण में प्राप्त होकर आतुर धर्मात्मा चातकों को भगवानकी दिव्यध्वनि से धर्मपीयूष पिलाने में सहायक हुये । किन्तु इसी समय भगवानके समवशरणमें श्री पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्पराका मक्खलि अथवा मश्करि गोशाल नामक एक वयप्राप्त ऋषि मौजूद था । उसे इस घटनासे बड़ा रोष आया । वह फौरन ही समवशरणसे उठकर चल दिया और बाहर निकलकर कहने लगा कि 'देखो कैसे आश्चर्यकी बात है कि मैं ग्यारह अंगका ज्ञाता हूं तो भी दिव्यध्वनि नहीं हुई ! पर जो जिनकथित श्रुतको ही नहीं मानता है, जिसने अभी
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३२४] भगवान पार्श्वनाथ । हाल ही दीक्षा ग्रहण की है और जो वेदोंका अभ्यास करनेवाला ब्राह्मण है वह गौतम (इंद्रभूति) इसके लिये योग्य समझा गया ! अतः जान पड़ता है कि ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता।' बस इस निश्चयके साथ ही वह अपने इस मतका प्रचार लोगोंमें करने लगा और यह प्रकट करने लगा कि अज्ञानसे ही मोक्ष होता है । देव या ईश्वर कोई है ही नहीं। अतएव स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान करना चाहिये !
इसप्रकार भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थमेंके यह एक अन्यप्रख्यात मुनिका परिचय है ! यह तो बौद्धशास्त्रोंसे भी सिद्ध है कि मक्खलिगोशाल नामक एक बहुप्रसिद्ध मतप्रवर्तक तब मौजूद था और आखिर वह आजीविक सम्प्रदायका मुख्य नेता बन गया था । उनके 'दीघनिकाय में उसको अज्ञानमतका ही प्रर्वतक बतलाया है। गोशालके मुखसे वहां पर यह कहलाया गया है कि "न कोई हेतु है और न कोई ऐसी पहलेसे स्थित सत्ता ही है जो सत्तात्मक जीवोंके संक्लेशका कारण हो । उनका अशुद्धपना हेतुरहित और पहलेसे स्थित किसी वस्तुकी रचना नहीं है । तथापि सत्तात्मक जीवोंकी शुद्धताके लिए न कोई कारण है और न कोई ऐसा तत्क (Principle) जो पहलेसे मौजूद हो । उनकी शुद्धता अहेतुमय
और विना किसी पहलेसे स्थित वस्तुकी रची हुई है। उनकी उत्पत्तिके लिये वहां कुछ नहीं है जो व्यक्तियोंके चारित्रके फलरूप
१-महापरिनिव्वान सुत्त (P. T. S. Vol. II) पृ० १५० । २- वीर" वष ३ अंक १२-13 पृ० ३१८-१९। 3-दीघनिकाय (P. T. S. Vol. II) पृ. ५३-५४ । ४-यहांपर देव या ईश्वरको नहीं माननेका भाव स्पष्ट है ।
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मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [३२५ हो, दूसरोंके कार्योंके परिणामरूप हो अथवा मानवी प्रयत्नोंका नतीजा हो ।' उनका प्रार्दुभाव न वीर्यसे और न प्रयत्नसे होता है । तथापि न मानुषिक त्यागसे और न मानुषिक शक्तिसे प्रत्येक सत्तात्मक प्राणी, प्रत्येक कीड़ा, मकोड़ा, प्रत्येक जीवित पदार्थ चाहे वह पशु हो अथवा वनस्पति; वह सब आंतरिक ( Intrinsic ) शक्ति, वीर्य और ताकतसे रहित है, किन्तु अपने परिणामाधीन आवश्यक्तामें फँसा हुआ वह छह प्रकारके जीवनोंमें सुख दुःख. भुगतता है । इस तरह संसार में परिणामाधीन भटकता हुआ व्यक्ति चाहे वह मूर्ख हो अथवा पंडित हो नियत महाकल्पोंके उपरान्त समान रीतिसे दुःखका अन्त करता है ।” मूर्ख अथवा पंडितको समान रीतिसे मोक्ष लाभ करते बतलाना, इस बातका द्योतक है कि मक्खलिगोशाल मोक्ष प्राप्तिके लिये ज्ञानको आवश्यक नहीं मानता था। अतएव इस कथनसे परिच्छेदके प्रारम्भमें दी हुई गाथाओं का समर्थन होता है, जिनका भाव वही है, जो हम ऊपर बता चुके हैं । यहां जैनाचार्यने गोशालके मंतव्य ठीक वही बताये हैं, जो बौद्धोंके उक्त उद्धरणमें निर्दिष्ट किये गये हैं। इसी प्रकार श्वेतांबर
जैनोंके 'सूत्रकृतांग' में भी गोशालकी गणना अज्ञानवादमें की गई है। साथ ही पाणिनि भी मक्खलिगोशालका मत इसी तरहका प्रतिपादित करता है। पाणिनिसूत्रमें कहा गया है कि-मक्खलि कहता था-कर्म मत करो, शांति वांछनीय हैं।' भाव यही है कि कुछ
१-इसमें स्पष्टतः अक्रियावादको स्वीकार किया गया है, जिसका भाव यही है कि कुछ मत करो, स्वच्छन्द रहो, शून्यतामें मत्त बनो ! जैसे दिगम्बर शास्त्रकारका कथन है । २-सूत्रकृतांग २-१-३४५ । ३-आजीविक्स भाग १ पृ० १२।
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३२३ ]
भगवान् पार्श्वनाथ ।
• मत करो, शून्य में गर्त होजाओ । परिणामवादके हाथों में कठपुतले • बने नाचते रहो । नियत कालमें तुम्हारा स्वयं ही निवटेरा होजायगा । किन्तु 'दर्शनसार' की उपरोक्त गाथाओं में 'मस्करि - पूरण' का एक साथ उल्लेख किया गया है, मानो यह दोनों एक ही व्यक्ति है अथवा इनका इतना घनिष्ट सम्बंध है, जो इन दोनों का उल्लेख एक साथ किया जा सके । यह बात दि० जैनाचार्य के इस कथन से ही केवल प्रगट नहीं है, किन्तु बौद्धोंके ' अङ्गुत्तरनिकाय ' नामक - ग्रन्थसे भी यही प्रमाणित है ।' वहां मक्खलिगोशालके छः अभिजाति सिद्धांत को पूर्णका बतलाया गया है और उसीमें अन्यत्र "उसको मक्ख लिगोशालका प्रायः शिष्य ही बतलाया है । इसी कारण आधुनिक विद्वान् पूर्णकाश्यप और मक्खलिगोशालके आपसी संबंध को स्वीकार करते हैं और इसलिये जैनाचार्यका उक्त प्रकार . इन दोनों व्यक्तियोंका एक साथ उल्लेख करना कुछ अनोखा नहीं है। हां ! श्वेतांबर जैनोंकी मान्यता इस विषय में इसके विरुद्ध है । वे मक्ख लिगोशालको स्वयं भगवान् महावीरका शिष्य बतलाते हैं और उनकी छद्मस्थ अवस्थामें वह भगवान महावीरके निकट दीक्षित हुआ था यह कहते हैं । किन्तु यह ठीक नहीं है । उनके अन्य ग्रन्थोंसे यह बाधित है, क्योंकि उनमें यह प्रगट किया गया है कि छद्मस्थावस्था में भगवान बोलते नहीं थे-मौन रहते थे। इस दशा में गोशालका भगवान् महावीरका शिष्य बतलाना गलत है और इस
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१ - अंगुत्तरनिकाय भाग ३ पृ० ३८३ । २ - इन्डियन एन्टीक्वेरी भाग ४३ । ३ - भगवती सूत्र १५ - १६ । ४ - आचारांग सूत्र (S. B. E.) पृ० ८० ।
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मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [३२७
कारण उनके अन्य कथनपर भी सहसा विश्वास नहीं किया जा सक्ता ! आधुनिक विद्वान् भी इसी निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि गोशाल भगवान् महावीरका शिष्य नहीं था; परन्तु साथ ही वह श्वेतांबर ग्रंथोंके आधारसे जो स्वयं उसे भगवान महावीरका गुरु बतलाते हैं और भगवानने नग्न भेष उससे ग्रहण किया था, जो यह कहते हैं वह भी ठीक नहीं हैं ! जैन मान्यताके अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर स्वयं बुद्ध होता है और इसी अनुरूप किसी भी जैन अथवा अजैन शास्त्रसे यह प्रमाणित नहीं है कि भगवान महावीर अथवा किसी अन्य तीर्थकरने किसी व्यक्तिसे कोई शिक्षा ग्रहण की हो । जिस श्वेतांबर ग्रन्थ के बल आधुनिक विद्वान गोशालको भगवानका गुरु बतलाते हैं स्वयं उससे भी यह प्रमाणित नहीं होता कि गोशालसे भगवानने कुछ सीखा हो । नग्न भेष ग्रहण करनेकी बात भी उल्टी है ! भगवान महावीरके निकट आकर गोशालने नग्न भेष ग्रहण किया था । तब फिर भला यह कैसे संभव है कि भगवानने उससे नग्न भेष ग्रहण किया हो ! इस दशामें आधुनिक विद्वानोंकी यह सब कोरी कल्पना ही है ! गोशालके विषयमें यह स्पष्ट है कि उसने अपने सिद्धांत 'पूर्वो' से लिये थे और यह पूर्व सिवाय जैन पूर्वोके और कोई थे नहीं। यह आधुनिक विद्वान भी मानते हैं। साथ ही उसके सिद्धांत भी जैनसिद्धांतोंसे लिये हुये प्रगट होते
१-आजीविक्स भाग १ पृ० १७; जैनसूत्र (S. B. E. YOL. XLV) भाग २ भूमिका १ । २-पूर्व दोनों प्रमाण; हिस्टारील ग्लीनिंग्स १० ३८-४१ और प्री. बूद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी प्र० ३७४ और ३८१। ३-बिशद विवेचनके लिए "वीर" वर्ष ३ अंक १२-१३. देखना चाहिये। ४-आजीविक्स भाग १ पृ. ४२-४५ ।
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३२८]... भगवान पार्श्वनाथ । . . हैं। वह आत्माका अस्तित्व और उसका स्वरूप करीबर जैनधर्मके अनुसार मानता था । आत्माको वह अरोगी सांसारिक मलोंसे विलग स्वीकार करता था एवं संसार परिभ्रमण सिद्धांतको भी स्वीकार करता था । भगवान पार्श्वनाथनीने इसी तरह आत्मा संबंधी सिद्धांत प्रतिपादित किया था । यही नहीं, अणुवाद (Atomic Theory) जो खास जैनियोंका ही सिद्धान्त है, वह भी उसको ठीक जैनधर्मके अनुसार मान्य था। उसका नग्न भेष भी भगवान पार्श्वनाथ नीके अनुरूप था। अष्टांग निमित्त ज्ञानको उसने पूर्वोसे ग्रहण किया ही था, जिनका प्रदिपादन भगवान पार्श्वनाथनीकी दिव्यध्वनिसे होचुका था। उसका चत्तारिपाणगायं चत्तारिअपाणगायं सिद्धांत जैनियोंके सल्लेखना व्रतके समान ही था। उसने सव्वे सत्ता, सव्वे जीवा, अधिकम्म, संज्ञी, असंज्ञी शब्द जो व्यवहृत किये थे, वह खास जैनियोंके शब्द हैं। मक्खलिने अपना छै अभिजाति सिद्धांत भी भगवान पार्श्वनाथके षटकाय जीवभेदसे ग्रहण किया था और जैन शास्त्र स्पष्ट रीतिसे उसके जैन मुनि होनेकी घोषणा करते ही हैं । अतएव जैन मुनि-दशासे भ्रष्ट होकर उक्त प्रकार जैनधर्मसे सादृशता रखते हुये सिद्धांतों का प्रतिपादन करना उसके लिए आवश्यक ही था ! उसका शिष्य उपक नामक आजीविक जैन तीर्थकर अनन्त जिनकी भी उपासना करता था । सचमुच आजीविक संप्रदायकी उत्पत्ति भगवान पार्श्वनाथनीके
१-जैनसूत्र S. B. E. भाग १ भूमिका । २-इन्सा श्लो. आफ रिलीजन एण्ड इथिक्स भाग २ पृ० १९९ । ३-आजीविक्स भाग १ पृ० ४१ । ४-दीघनिकाय (S. B. E.) भाग २ पृ. ५३-५४ । ५-प्री-बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ. ३०३ ।
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मक्ख लिगोशाल, मौद्रलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३२९
दिव्य उपदेशके प्रभाव अनुरूप हुई थी और मक्खलिगोशालने भी अन्ततः उसका नेतृत्व स्वीकार कर लिया था । इसी कारण बौद्धशास्त्रों में उसका वर्णन हमें म० बुद्धके समय में एक स्वाधीन मत"प्रवर्तक के रूपमें मिलता हैं। आधुनिक विद्वान बौद्धोंके तत्कालीन -कथनको उससे पहले के समय से भी लागू कर देते हैं, यद्यपि यह ठीक है कि म० बुद्धके धर्मोपदेश देनेके पहले ही स्वतंत्र मतप्रवतक रूपमें वह प्रकट हो गया था । किन्तु इसके अर्थ यह नहीं होते कि मक्खलि कभी जैन मुनि नहीं था और भगवान महाचीरने उससे ही सैद्धांतिक विचार करनेकी योग्यता प्राप्त करके एक नया संघ स्थापित किया था; ! जैसा कि किन्हीं लोगोंका ख्याल है । आजीविक संप्रदायका उद्गम जहां जैनधर्मसे हुआ था, वहां उसका अन्त भी जैनधर्मके उत्कृष्ट प्रभावके समक्ष हुआ था । उपरांत कालमें आजीविकों का उल्लेख दि० जैनोंके रूपमें होता था और वे दि० जैन होगये थे । ( हल्श, साउथ इंडियन इंसक्रिपशन्स, भा० ९ ८० ८८ व आजीविक भा० १) ।
इसप्रकार भगवान पार्श्वनाथजी के तीर्थवर्ती एक अन्य प्रख्यात् ऋषिका वर्णन है | भगवान महावीरके सर्वज्ञपद पाते ही वह उनसे विलग होगया था और आजीविक संप्रदायका नेता बनकर परिणामवाद और अज्ञानका प्रचार करने लगा था !
मक्ख लिगोशाल के अतिरिक्त संजय, विजय और मौद्गलायन नामक मुनि और थे जो भगवान् पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परामें
१–भगवान महावीर पृ० १७३ और 'वीर' वर्ष ३ अंक १२-१३४ २- दीघनिकाय - सामण्ण फलसुत ।
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भगवान पार्श्वनाथ । उल्लेखनीय हैं। संजय और विजय यह दोनों चारण (आकाशगामी) जैन मुनि थे और यह भगवान महावीरके जन्म समय तक विद्यमान थे । इनको किसी प्रकारकी सैद्धांतिक संशय विद्यमान थीं; निसका समाधान इनको भगवान महावीरके दर्शन करते ही होगया था । श्वेतांबरोंके 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी एक संजय नामके मुनिका उल्लेख है परन्तु यह प्रगट नहीं कि वे भी यही मुनि थे । किंतु उधर बौद्ध शास्त्रों में भी एक संजय नामक मतप्रवर्तकका उल्लेख मिलता है और उनके शिष्य मौद्गलायन एवं सारीपुत्त वहां बतलाये गये हैं । मौद्गलायन जैन मुनि थे, यह बात श्री अमितगति आचार्यके निम्न श्लोकोंसे प्रगट है:
"रुष्टः श्रीवीरनाथस्य तपस्वी मौडिलायनः। शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥ ६८॥ शुद्धोदन सुतं बुद्धं परमात्मानमब्रवीत् । प्राणिनः कुर्वते किं न कोपर्वरिपराजिताः ॥ ६९॥"
इन श्लोकोंमें मौडिलायन अथवा मौद्गलायन नामक तपस्वीको श्री पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्परामें बतलाया है। उसने महावीर भगवानसे रुष्ट होकर बुद्ध दर्शनको चलाया था और शुद्धोदनके पुत्र बुद्धको परमात्मा माना था यह भी कहा है ! यहांपर मौद्गलायनको बौद्धमतका प्रवर्तक इसीलिये लिखा है कि मौद्गलायन विशेष प्रख्यात और बौद्ध धर्म का उत्कट प्रचारक था । इस अपेक्षा मौद्गलायनको
१-उत्तरपुराण पृ० ६०८ और महावीरचरित पृ० २५५ । २उत्तराध्ययन ( S. B E. ) पृ. ८२। ३-महावग्ग १-२३-२४ । ४-धर्मपरीक्षा अध्याय १८ । ५-हिस्टारीकल ग्लीनिन्गास पृ० ४५ ।
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मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३३१ ही बौद्धधर्मका प्रवर्तक कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति नहीं है । इस दशामें यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य भी उन्हीं मौद्गलायनका उल्लेख कररहे हैं; जिनके गुरु संजय बताये गये हैं और जब स्वयं मौनलायन जैन मुनि थे, तो उसके गुरु भी जैन मुनि होना चाहिये । सौभाग्य से इनके गुरु संजयका जैन मुनि होना अन्यरूपमें भी प्रमाणित है । और यह संजय एवं जैन शास्त्र के चारण ऋद्धिधारी मुनि संजय संभवतः एक ही व्यक्ति हैं । पहले संजयकी शिक्षायें जो बौद्ध शास्त्रों में अंकित है वह जैनियों के स्याद्वाद सिद्धांतकी विकृत रूपान्तर ही हैं । इससे इस बातका समर्थन होता है कि स्याद्वाद सिद्धांत भगवान महावीर से पहले का है, जैसे कि जैनियोंकी मान्यता है और उसको संजयने पार्श्वनाथजीकी शिष्य परंपराके किसी मुनिसे सीखा था; परन्तु वह उसको ठीक तौर से न समझ सका और विकृत रूपमें ही उसकी घोषणा करता रहा । जैन शास्त्र भी अस्पष्ट रूपमें इसी बात का उल्लेख करते हैं, अर्थात् वह कहते हैं कि संजयको शङ्कायें थीं जो भगवान महावीर के दर्शन करने से दूर होगई ! यदि यह बात इस तरह से नहीं थी तो फिर भगवान महावीर और म० बुद्धके समय के इतने प्रख्यात् मतप्रवर्तकका क्या हुआ, यह क्यों नहीं विदित होता ? इसलिए हम जैन मान्यताको विश्वसनीय पाते हैं और देखते हैं कि संजय अथवा संजय वैरत्थीपुत्र जो मौद्गलायनके गुरु थे, वह जैन मुनि संजय ही थे । दूसरी ओर इस व्याख्याकी पुष्टि इस तरह भी होती है
१ - समन्नफलमुत्त' "डायोलॉग्स आफ बुद्ध" ( S. B. B. II) २- महावस्तु भाग ३ पृ० ५९.
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[३३२ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
कि इन संजयकी शिक्षाकी सादृश्यता यूनानी तत्ववेत्ता पैर होकी शिक्षाओंसे बतलाई गई है । एक तरहसे दोनोंमें समानता है और इस पैर होने जैम्नोफिट्स सूफियोंसे, जो ईसासे पूर्वकी चौथी - शताब्दिमें यूनानी लोगोंको भारतके उत्तर पश्चिमीय भाग में मिले थे, यह शिक्षा ग्रहण की थी ।" यह जैम्नोफिट्स तत्ववेत्ता निग्रंथ (दिगम्बर) साधुओंके अतिरिक्त और कोई नहीं थे । यूनानियोंने इन साधुओंका नाम 'जैम्नोसूफिट्स' रक्खा था । अतएव "जैन साधुओंसे शिक्षा पाये हुये यूनानी तत्ववेत्ता पैरहोकी शिक्षाओंसे उक्त संजयकी शिक्षाओं का सामञ्जस्य बैठ जाना, हमारी उक्त व्याख्याकी पुष्टिमें एक और स्पष्ट प्रमाण है । इस अवस्थामें भगवान् पार्श्वनाथजीकी तीर्थपरम्परा के संजय और मौद्गलायन नामक प्रख्यात् साधुओंका स्पष्ट परिचय प्रगट होजाता है । सचमुच भगवान पार्श्वनाथजी की शिष्यपरम्परामेंसे म० बुद्ध, मक्खलिगोशाल और मौद्गलायनका विलग होकर अपने नये मत स्थापित करना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि भगवान पार्श्वनाथजीके. दिव्योपदेशका प्रभाव उस समय प्रबल रूपमें सर्वव्यापी होगया था और उसके कारण सैद्धान्तिक वातावरणमें हलचल खड़ी होगई थी ! इसप्रकार भगवान पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्पराके प्रख्यात् शेष शिष्योंके चरित्रका भी सामान्य दिग्दर्शन हम यहां कर लेते हैं । इनके अतिरिक्त और भी किन्हीं मुनियोंका उल्लेख भगवानके तीर्थवर्ती महापुरुषों का परिचय कराते हुये अगाड़ी स्वयमेव हो
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१ - हिस्टारीकल ग्लीनि० पृ० ४५. २- पूर्व प्रमाण. ३ - इन्साइक्लोपे - डिया ब्रेटेनिका भाग ३५.
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मक्ख लिगोशाल, मौद्रलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३३३
जायगा ! इसके अगाड़ी हम श्वेतांवरियों के पार्श्वचरितमें आये हुये किन्हीं प्रख्यात् व्यक्तियोंका विवरण देदेना उचित समझते हैं, जब कि हमारा उद्देश्य भगवानके शासनका यथासंभव पूर्ण परिचय उपस्थित कर देना है । अस्तु;
(१९)
सागरदत्त और बन्धुदत्त श्रेष्टी !*
'स्त्री नदीवत् स्वभावेन चपला नीचगामिनी । उन्हत्ता च जड़ात्मासौ पक्षद्वयविनाशिनी ॥ " भावदेवसूरिः ।
पुंड्रदेश में ताम्रलिप्ति नगर प्रख्यात् था ! यहांपर भगवान् पार्श्वनाथजीके समयमें एक सागरदत्त नामका श्रेष्टी पुत्र रहता था । सागरदत्त भरपूर यौवन में पैर रख चुका था, पर तो भी वह काम - शरसे बींधा नहीं गया था । उसे स्वभावसे ही स्त्रियोंकी सूरतसे घृणा थी, वह उनका नाम सुनते ही बहक उठता था । कामदेवसे उसने इसतरह प्रत्यक्ष ही विरोध ठान लिया था, किन्तु वह इस विरोधमें सफल न हुआ ! कामदेव के शरोंने उसे व्यथित अवश्य किया, पर वह उसके हृदयको पलट न सके !
एक दिन सागरदत्तकी दृष्टि एक वणिक सुताके सुन्दर रूप - सौन्दर्यपर जा अटकी थी। उसके मनमोहक सौन्दर्यने सागरदत्तको विह्वल बना दिया था । वह उसके मुखरूपी कमलका भौंरा तो
* इनकी कथायें श्वेताम्बराचार्यके वर्णित हैं । दिगम्बर शास्त्रोंमें इनका
पाश्वनाथ चरित " के आठवें सर्गमें
उल्लेख नहीं है ।
८८
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३३४] भगवान पार्श्वनाथ । अवश्य ही बनगया पर वह दूरसे ही उसके सौन्दर्यसे अपने नेत्र सफल करना चाहता था। स्त्रियोंके प्रति जो उसके कटुभाव थे, उनको उसे कामिनीकी रूप-राशि भी दूर न कर सकी थी। किंतु इतना होते हुये भी सागरदत्तके बन्धुजनोंने उसका वाग्दान संस्कार उस कन्यारत्नसे कर दिया ! संभव था कि इस सम्बन्धसे सागरदत्तका मनोभाव बदल जाता; पर ऐसा न हुआ और इस बातका पता उस कन्याको भी चलगया ! वह बड़ी ही खेदितमना हो गई; पर निराश न हुई। उसने एक श्लोक लिख कर सागरदत्तके पास भेज दिया। जिसमें उसने लिखा था कि 'हे बुद्धिमान पुरुषरत्न! आप इस महिलाका अनादर क्यों करते हैं, जो सर्वथा आपकी अननुगामिनी बनी हुई हैं ? पूर्णिमा चंद्रको अपने आप चमका देती है, वैसे ही बिजली समुद्रको और स्त्री गृहस्थको प्रकाशमान बना देती है ।' सागरने इस श्लोकको पढ़ डाला और यह भी उसके हृदयको पलटने में असफल हुआ !- उसने इसके उत्तरमें उपरोक्त श्लोक लिख भेजा, निपका भाव था कि 'एक नदीके समान स्त्री स्वभावसे ही चपल और नीचगामिनी है। जिस समय बह बन्धचकी अपेक्षा नहीं करती है तो दोनों पक्षोंका नाश करती है। बस वह जड़ बुद्धि है।'
सागरदत्तके इस उत्तरको पाकर वह चतुर वणिकसुता जान गई कि जरूर किसी स्त्रीके असदव्यवहारने इनके हृदयको दूषित कर रक्खा है । इसलिये हताश होनेकी कोई बात नहीं है । बात भी वास्तवमें यूं ही थी । सागरदत्त अपने पूर्वभवमें एक विप्र था और इसकी स्त्रीने इसे विष देकर मारनेका प्रयत्न किया था। यही.
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सागरदत्त और बन्धुदत्त श्रेष्टि ।
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दुःखदायी व्यवहार उसके हृदयसे इस भवमें भी नहीं उतरा था । - इसीलिए वह स्त्री मात्र से द्वेष करता था । किन्तु शायद पाठक यहाँ पर वणिक कन्याका उसके साथ इसतरह पत्रव्यवहार करना अनुचित समझें ! आजकल जरूर नन्हीं उमरमें वणिकोंकी कन्याओंके वाग्दान संस्कार और विवाह लग्न हो जाते हैं और वर-वधूको एक दूसरेके स्वभावका भी परिचय नहीं हो पाता है । इसी कारण आज दाम्पत्यसुखका प्रायः हर घरमें अभाव है और आदर्श दम्पति मिलना मुश्किल होरहा है । किन्तु उस जमाने में यह बात नहीं थी । तब पूर्ण युवा और युवतियोंके विवाह होते थे और परदा उनके परस्पर परिचय पानेमें बाधक नहीं था । इसी कारण उक्त वणिक सुताने विना किसी संकोचके सागरदत्तको प्रेमपत्र लिखा था । जब उसका वह पत्र भी इच्छित फलको न दे सका, तो उसने एक और पत्र लिखा, इसमें उसने कहा कि सचमुच यह तो बड़ा ही अन्याय है कि केवल एक स्त्रीके दोषको लेकर सारी ही स्त्री जातिको दोषी ठहरा दिया जाय । क्या शुक्लपक्षके पूर्ण- माकी रात्रि से इसीलिए घृणा करना ठीक है कि उसके पहले कृष्ण पक्ष में उसकी बहिन बिल्कुल अंधेरी होती है ?'
सागरदत्त इस सारगर्भित उत्तरको पाकर अवाक् रह गया ! रूप-सौन्दर्य अवश्य ही उसके मनको पलटने में असफल रहा था, परन्तु ज्ञानमई विवेक - वचन अपना कार्य कर गये । सागरदत्त उस वणिक - कन्याकी बुद्धिमत्ताके कायल होगये । उनको अपनी गलती नजर पड़ गई। उन्होंने जान लिया कि सचमुच सारी स्त्रीजातिको दूषित ठहराना अन्याय है । इस जातिको ही यह सौभाग्य प्राप्त
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३३६ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
है कि वह त्रिलोकबंदनीय तीर्थंकर भगवानको जन्म देकर जगतका कल्याण करती हैं। इसलिए स्त्री मात्र से घृणा करना बुद्धिमत्ता नहीं है । वह हमारे आदरकी पात्र हैं । उनकी अवहेलना करना, स्त्रियोंको पैरोंसे ठुकराना अपना अपमान करना है । बस जब सागरदत्तका हृदय इस तरह पलट गया, तो सानंद दोनों युवक युवतीका शुभ लग्न में विवाह होगया । वह सुखपूर्वक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगे !
उन दिनों भारतीय व्यापार आजकलकी तरह हेय अवस्थामें नहीं था | तबके व्यापारी भी कोरे दलाल नहीं थे । सुतरां वे देश विदेश घूमकर अपने देशके व्यापारको उन्नत बनाते थे और यहांकी आर्थिक दशा फलती-फूलती देखते थे। तब यह बात भी न थी कि राजनीतिके नामसे विविध देशों में व्यापारिक प्रतिस्टद्धा चलती हो और मायावी चालोंसे निर्बल अथवा पराधीन जातियों के जीवन संकटापन्न बनाये जाते हों। साथ ही उस समयके व्यापारमें यह भी विशेषता थी कि उस समयके व्यापारी स्वयं ही देश विदेश में जाया करते थे । विदेशों में जाना तब पाप नहीं समझा जाता था और न धनिक व्यापारी स्वयं परिश्रम करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे । इसी अनुरूप सागरदत्तने भी व्यापारके लिये विदेश जानेकी ठहराई ! वह सातवार विदेश गया, परंतु सातों ही दफे उसके जहाज समुद्रमें नष्ट होगये । लाभान्तराय कर्म उसके मार्गमें ऐसा आड़ा आरहा था कि उसे बार २ प्रयत्न करने पर भी लाभ नहीं होता था, किन्तु किसीके सर्वदा एकसे ही दिन नहीं रहते हैं। आठवीं बार उसे अपने व्यापार में खूब ही नफा
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सागरदत्त और बन्धुदत्त श्रेष्टि ।
[ ३३७. हुआ - उसके परिश्रमका फल मिल गया ! वह हर्षका फूला घर लौटा और देवालय निर्मित करनेमें उस धनका एक भाग खर्च करना उसने ठान लिया। लोगों के कहने से वह पुंड़देशमें स्थित भगवान् पार्श्वनाथके समवशरण में दर्शन करने गया और वहां अपने मनोभावको प्रकट किया ! कहते हैं कि भगवानका परामर्श पाकर उसने देवालय में श्री अर्हत् भगवान्की बिम्ब बड़े समारोहसे स्थापित की और वह आनंदसे धर्माराधनमें कालक्षेप करने लगा ! वास्तव में उसका यह कार्य एक आदर्श कार्य था । " अपने व्यापार से जो लाभ उठाओ उसमें से एक भागको समयकी आवश्यक्तानुसार महापुरुषों की सम्मति लेकर धर्मार्थ खर्च दो” मानो इस संदेशको ही वह आजके व्यापारियोंके लिये व्यक्त कर रहा था !
इसी समय सागरदत्तके परिणामोंकी दशा सुधर चली थी और उसने भगवान् पार्श्वनाथजीके निकटसे व्रत ग्रहण करने की ठान ली थी किन्तु हत्भाग्यवशात् उसे विदित हुआ कि भगवान् का विहार अन्यत्र होगया ! वह दिल मसोस कर रह गया ! फिर उसका क्या हुआ यह विदित नहीं है !
भगवान् पार्श्वनाथजी वहांसे विहार करते हुये नागपुरीमें पहुंचे थे। उससमय नागपुरीमें धनपति सेठके बन्धुदत्त नामक पुत्र बड़ा ही सुशील था ! बन्धुदत्तका विवाह वसुनन्द सेठकी पुत्री चन्द्रलेखासे हुआ था; परन्तु ठीक उस अवसर पर जब कंकण बधूके करमें बांधा जा रहा था, एक सर्पने उसे डस लिया । रंगमें भंग हो गई - आनन्दमें क्रन्दनाद होने लगा ! संसारकी क्षणिक दशाका प्रत्यक्ष चित्र ही खिंच गया ! सो भी एक दफे ही नहीं,
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३३८] भगवान पार्श्वनाथ । बल्कि ठीक छै दफे यही घटना घटित हुई ! लोग बन्धुदत्तको "विषहस्त' कहने लगे और कोई भी उसके साथ अपनी कन्याका विवाह करनेको रानी न होता था । बन्धुदत्तको भी अपने भाग्यपर रोष आ रहा था ! बुद्धिमान् पिताने इस समय उसे सिंहलद्वीपको व्यापारके लिये भेज दिया ! बन्धुदत्तने वहां खूब धन कमाया, परन्तु लौटते समय अभाग्यसे उसका जहान नष्ट हो गया और वह एक तख्ताका सहारा पाकर एक सम्पत्तिशाली द्वीपके किनारे जा लगा। वहांपर एक मणिमई पर्वत था । बन्धुदत्त उसकी शिविरपर जा पहुंचा और वहां भगवान् नेमिनाथजीके भव्य मंदिरके दर्शन किये एवं वहां उसने श्रावकके व्रतों को ग्रहण किया ! उसके इस सरल भावको देखकर चित्रांगद नामक सम्यक्त्वी विद्याधर बहुत ही प्रसन्न हुआ । उसने इसका विवाह करवा देनेकी व्यवस्था करदो ! किन्हीं विद्याधरोंके साथ बंधुदत्तको उसने कौशाम्बी भिजवा दिया। वहां वह भगवान पार्श्वनाथनीके मंदिरमें दर्शन कररहा था कि वहांके जिनदत्त सेठने इनको देख लिया और इनके साथ अपनी प्रियदर्शना नामकी कन्याका विवाह कर दिया ! बन्धुदत्त खुशी२ यहां रहने लगा, किन्तु आखिर उसने अपने घर जानेकी ठहराई । __बन्धुदत्त गर्भभारसे झुकी हुई अपनी प्रियाको लेकर नागपुरीको जारहा था कि मार्गमे भीलोंने इसे लूट लिया और वे प्रियदर्शनाको भी इससे छीन ले गये । इन भीलोंका स्वामी चन्द्रसेन
* यह जीको नहीं लगता कि भगवान्के साक्षात् विद्यमान रहते हुए उनके बिम्ब बनगये हों। इस अपेक्षा इन घटनाओंका स्पष्ट घटित हुआ समझना जरा कठिन है।
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सागरदत्त और बन्धुदत्त श्रेष्ट |
[ ३३९ था, उसने जब प्रियदर्शनाको जिनदत्तकी पुत्री जाना तो वह बड़े असमंजस में पड़ गया। जिनदत्तने उसका बड़ा उपकार किया था ! -इसलिये प्रियदर्शनाको उपने बड़ी होशियारी से रक्खा, और बंधुदत्तको ढूंढने के लिये आदमी दौड़ा दिये ! परन्तु बन्धुदत्तका पता न चला । - इसी अन्तराल में प्रियदर्शनाको वहीं एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई ! इधर बंधुदत्त अपनी प्रिया के विरह में व्याकुल हुआ विशालाको जा रहा था । वहां उसके चाचा थे; किंतु मार्ग में सुना कि उसके चाचा कुटुम्बको वहां राजाने किसी अपराधके लिये बन्धी गृह में डाल दिया है । बन्धुदत्तके सिरपर आफतका पहाड़ ही टूट पड़ा । उसे उससमय अपने कृतकर्मों के फल पानेका रहस्य समझमें आया ! वह दुःखितहृदय होकर वहांसे नागपुरीकी ओर चल दिया, किंतु मार्ग में उसे उसके चाचा मिले और साथ ही अशरफियोंसे भरा एक सन्दूक मिला ! इसी समय वहांके कोतवालने इनको राज्यकी - चोरी करने की आशङ्का से बन्दीगृह में डाल दिया ! किंतु बंदीगृहमें पहुँचने के साथ ही उसके भाग्यने पलटा खाया ! राजाकी चोरीका 'पता चल गया | असली चोर पकड़ा गया, बन्धुदत्त और उसका चाचा छोड़ दिये गये, वे छुटकारा पाकर अपनी राह लगे ।
मार्ग में चन्द्रसेनके आदमियोंने इन्हें पकड़ लिया। एक आफतसे छूटे तो दूपरीमें फंस गये, परन्तु इसमें उनकी भलाई ही थी। उनका शुभोदय था जो भील उनको पकड़कर चन्द्रसेन के पास -ले चले | वहां बन्धुसेनका अपनी प्रिया और पुत्रसे समागम हुआ, आनन्दपूर्वक वहांसे विदा होकर अपने घर पहुंचे ! सबने बंधुदत्तका बड़ा सम्मान किया और बहुतेरोंने उनकी आत्मकहानी
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३४०] भगवान पार्श्वनाथ । सुनकर जैनधर्ममें श्रद्धान किया ! इधर जब भगवान् पार्श्वनाथनीके समवशरणके नागपुरी पहुंचनेका समाचार बन्धुदत्तको मालूम हुये, तो वह बड़े मोदभावसे भगवान् की वन्दना करनेको गया । वन्दना करके उसने भगवान् से अपने पूर्वभव सुने और वह अत्यन्त हर्षित हुआ । उपरान्त उसने भगवान्के धर्मोपदेशको सुना और उनसे पंचव्रतोंको गृहण किया। भगवान के मुखसे यह सुनकर कि वह और उसकी पत्नी दूसरे भवसे मोक्षलाभ करेंगे, उसे बड़ा ही संतोष हुआ! वह भगवान्को नमस्कार करके घर लौट आया और धर्ममय जीवन व्यतीत करके सहस्रार स्वर्गमें जाकर देव हुआ ! जैनधर्मकी कृपासे उसे स्वर्गसुखोंकी प्राप्ति हुई ! सत्धर्म सदा ही सुखदाई होता है !
इसप्रकार भगवान्के समयके दो सेठ-पुत्रोंके दर्शन करके हम शेषमें उनके तीर्थके कतिपय अन्य मुख्य व्यक्तियोंका दिग्दर्शन करेंगे और फिर भगवान्का मोक्षकल्याणकका दिव्य वर्णन देखकर उनका भगवान् महावीरजीसे जो सम्बन्ध था, उसको प्रकट करेंगे ।
महाराजा करकृण्ड "तहिं देसिरवण्णई धणकरण पुण्णई, अछिणयरि सुमणोहरिय! जण णयण पियारी महियलसारी, चंपाणामइ गुणभारिय॥३॥"
xx 'तहिं अरि विदारणु भयतरु वारणु धाडीवाहणु पहु हुयउं।"
-मुनि कणयामर ! राजा दन्तिवाहन उस भुवनमोहिनी युवतीकी ओर एकटक निहारते ही रह गये । वह उसकी अतुलरूप राशिपर विमुग्ध हो
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महाराजा करकण्डु। [३४१ गये। उनकी समझमें न आया कि वह मनुष्य है अथवा यक्ष है या अप्सरा है । तिसपर यह जानकर वह और भी अचंभेमें पड़ गये कि जिस सुन्दरीने उनके मनको मोह लिया है, वह उस कुसुमपुर नगरके कुसुमदत्त मालीकी कन्या है । ऐसे साधारण मनुष्यके घरमें इस शुभ लक्षणोंवाली, बड़ी २ राजकुमारियोंके रूपको चिनौती देनेवाली कन्याका जन्म लेना उनकी समझमें न आया ! जंगली फूलोंके बीच गुलाबका पालेना एक अजीब ही बात थी। वह संशयमें पड़ गये, रानाज्ञा होनेकी देर थी कि कुसुमदत्त वहांपर मा उपस्थित हुआ । राजा दंतिवाहनने उससे पूछा कि तेरे यहां यह कन्या कहांसे आई ? जो सत्य बात है उसको कह दे, इसीमें तेरी भलाई है ! बेचारा गरीब माली अवाक रहगया ! वह मन ही मन सोचने लगा कि यह आफत कहांसे आगई ? इस कन्याको मैंने नाहक ही पाला । न जाने इसने राजाकी क्या अवज्ञा की है जो वे मुझपर कुपित हैं ? अब तो सब बात ज्योंकी त्यों कह देनेमें ही भलाई है । यह सोचकर वह बोला कि महारानकी दुहाई : यह कन्या मेरी नहीं है । गंगानदीमें बहता हुआ एक सन्दूक मुझे. कई वर्ष हुए तब मिला था। उसमें यह कन्या नवजात दशामें बन्द थी । महाराजके विश्वास हेतु मैं वह सन्दूक अभी लिये आता हूं यह कहकर माली वहां सन्दूक ले आया । राजाने उस सन्दूकको देखा । उसमें उसे एक मुद्रा ( मोहर ) दिखाई पड़ी, जिससे उसने जान लिया कि वह राजवंशकी पुत्री है। यह देखकर उसके हर्षका पारावार न रहा । वस फिर देरी काहेकी थी ? राजा दन्तिवाहनने शुभ लग्नमें बड़े ही आनन्दसे उस सुन्दर पद्मावती नामकी.
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३४२] भगवान् पार्श्वनाथ । - राज-कन्याका कोमल कर विवाह-वेदी पर ग्रहण कर लिया । थोड़े ही दिनोंमें इन नवदम्पतिमें गाढ़ प्रेम होगया ! पद्मावती राजा दन्तिवाहनकी बड़ी प्रिय रानी बन गई !
राना दन्तिवाहन अंगदेशमें चम्पानगरके राना थे। उस समयके राजाओंमें यह भी मुख्य थे । वास्तवमें पद्मावती भी राजकन्या थी और वह कौसांबीके राजा वसुपालकी पुत्री थी। ('करसंविए रायहो पसरिय छाय हो, वसुपालहु पउमावइ दुहियाइया मणिविराए' ) यह राजदम्पति आनंदपूर्वक कालक्षेप कर रहे थे कि रानवंशको आल्हादके कारण यह समाचार सुनाई दिये कि रानी पद्मावतीके शुभ गर्भ है । रानीके यह दिन बड़ी खुशीसे कटने लगे । उसे निस बातकी आकांक्षा होती उसकी पूर्ति कर दी जाती थी। हर तरह उसे हर्षमना रखने का प्रबंध था। माता और परिस्थितिका प्रभाव गर्भस्थ बालकपर भी पड़ता है, इस बातका पूरा ध्यान रानी पद्मावतीके विषयमें रक्खा जाता था । इस दशामें गर्भस्थ बालकका प्रभाव भी माताकी चालढालमें प्रगट होने लगता है । माताकी भावनाओंसे ही उसका परिचय मिल जाता है । रानी पद्मावतीके हृदयमें भी अटपटी भावना उठ खड़ी हुई । वह असाधारण थी, जो गर्भस्थ बालकके असाधारण प्रभुत्वको प्रगट कर रही थी, उसकी इच्छा हुई कि कुऋतुमें ही मेघमण्डलसे आच्छादित आकाशके होते हुये रानाके साथ हाथीपर बैठकर वनविहार करना चाहिये । राजा दन्तिवाहन इस समय अपनी प्रियाकी प्रत्येक इच्छाको पूरी करनेमें तत्पर थे। उन्हें इस बातको पूरी करनेमें भी देर न लगी। उन्होंने अपने विद्याधर मित्रकी सहायतासे मायामई
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महाराजा करकण्डु।
मेवोंको भी सिरज लिया । उस ज़मानेमें भी पदार्थ विज्ञान इतना उन्नत अवश्य ही था कि आनकलकी तरह कृत्रिम बादल तब भी विद्याके बलसे बनाये जा सक्ते थे। मेघोंके आते ही राजाने नर्मदातिलक नामक हाथीको सजवाया और उसपर रानीको बैठाकर वह वनविहारके लिये चल दिया। वातों ही बातों वह बहुत दूर निकल आये और इतनेमें ही हठात् हाथी भी बिजक गया । वह रानारानीको ले भागा । किसी तरह भी उसने अंकुशको न माना । यही बात मुनि कणयामर कहते हैं:-- "सो कुंजरुहउँ चित्तिपहिहां भग्गउं जाइ किलिंजरहो। ताजणव उ धाविउ कहेवण पाविउ वाडिगउ सोणियपुर हो।।१२
दुष्ट हाथी वेतहाशा भागता ही चला गया। उसने एक गहन वनमें प्रवेश किया । रानाने इस समय यही उचित समझा कि यदि मैं इससे बच सकू तो किसी न किसी तरह इसे पकड़वा लूंगा । इसी भावको दृढ़ करके वह एक वृक्षकी शाखा पकड़कर लटक गये । हाथी उनको छोड़कर भागता ही चला गया। बिचारी पद्मावती रानी उसपर अकेली बैठी रह गई ! उसके भाग्यमें अशुभ कर्मकी रेखायें खिंच रहीं थीं और वह इस समय पुर्ण फलवती थी। बिचारीको अनायास ही पतिवियोगका कष्ट सहन करना पड़ा । कहां तो प्रसन्नचित्त होकर वनविहार करने निकली थी और कहां यह विरह-दाह उत्पन्न होगया! उसके विवेकने उसे ढाढस बंधाया। धीरज बांधे वह अपने भवितव्यकी बाट जोहने लगी। हाथी भागता हुआ बढ़ता ही गया । राजा जबतक लौटकर चंपापुर पहुंचे ही पहुंचे कि तबतक वह कोसौं दूर चला गया। पता लगाना भी मुश्किल
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३४४] भगवान पार्श्वनाथ । . हो गया। हाथी रोषमें भरा हुआ जाकर एक तालाबमें घुम पड़ा और यही मालूम हुआ कि रानी पद्मावतीको वह पानीमें डुबो ही देगा; किन्तु यहां ठीक मौकेपर रानीका पुण्य सहायक होगया। वनदेवीने प्रकट होकर रानीको उस तालाबके निकटवाले सुरम्य उपवनके एक वृक्षके तले बैठा दिया ! यह उपवन दंतिपुर नगरके निकट था, यह भी 'करकंडुचरिय' में लिखा है; यथाः"ता दिहउ ऊववणु खरुख्कु । मयरहियउणी रसुणायमुखु ॥ तहिं रुकहो तले वीसमइ जाम। णंदणुवणु फुल्लिउ फलिउ ताम॥ ता दंतीपुरि केणविविचित्त । भड मालिहि अग्गह कहिय वत्त॥
xx x तें तरु तलित तलि दिहीदिव्यवालाणवणसिरिसोहई गुणवमाल।। पुणु चिंतइ णउ सामण्ण एह । रुवेण अउछी दिव्बदेह ॥"
इनसे यह भी प्रकट होता है कि उप्त उपवन में बैठी हुई पद्मावतीको वहांके भट नामक मालीने देखा था। वह उसको देखकर आश्चर्यमें पड़ गया था । रानीकी दिव्य देहको देखते हुये वह सहसा यही न निश्चय कर सका कि वह यक्षी है अथवा कोई राजपुत्री है । आखिर वह माली उसके निकट आकर सब हाल पूछने लगा और सब हाल सुनकर उसने रानीको सान्तवना दी। उपरांत वह रानीको अपने घर लिवा लेगया । उसने दुःखीजनोंको आश्रय देना अपना कर्तव्य समझा और उसने रानीको बड़ी होंशियारीसे अपने यहां रहने दिया ! उसका यह सुवर्ण कृत्य भारतीय -सभ्यताके आदर्शका एक नमूना था । दुःखी और अबला जनकी सहायता करना सचमुच एक खास धर्म है; किन्तु आजके भारतमें
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महाराजा करकण्डु। [३४५ यह मर्यादा प्रायः उठसी गई है। यही कारण है कि आये दिन अबला स्त्रियों और गरीबोंपर अत्याचार होनेके समाचार सुनाई देते हैं। यह भारतीय मर्यादाको कलंकित करनेका प्रयास है, जो सर्वथा त्यननीय है । भट मालीका अनुकरणीय उदाहरण इस
ओर समुचित कर्तव्य निर्दिष्ट कर रहा है। रानी पद्मावती इस मालीके यहां रह तो रही थी; परन्तु इस भले मानसकी मारदत्ता नामकी स्त्री बड़ी ही क्रूरा और दुष्टा थी । वह पद्मावतीको चैन नहीं लेने देती थी । एक रोज उसकी बन आई । माली तो दूर बाहिरगांव गया था । घरपर वही अकेली थी। उसने चटसे रानीको बाहर कर दिया। वह अपने दुष्ट स्वभावसे लाचार थी। उसे रानीकी दयनीय दशापर जरा भी दया नहीं आई ! लाचार होकर रानी पद्मावती रोती हुई नगरके बाहिर स्मशान भूमितक पहुंची थी कि वहीं उसे प्रसववेदनाने आधेरा। उसी स्मशानमें उसने पुत्र प्रसव किया। - देखो कर्मोकी विचित्र गति ! रानमहलोंमें फूलोंकी सेनपर सोनेवाली रानी पद्मावती अकेले ही निर्जन स्मशानमें पुत्र प्रसव करती है। उसके निकट एक मामूली परिचारिका भी नहीं है । है तो केवल भारत-वसुन्धराका स्नेहमई अंचल है । उसीके सहारे वह वहां भी सानन्द पुत्र प्रसव कर सकी! पुत्रोत्पन्न होगया-रानीके विषादमें हर्षके बादल उमड़ आये। और वह फलदाता भी हुये। नवजात शिशुका सितारा चमक गया ! उस स्मशानभूमिका मातंग . बड़ी विनयभावसे रानीके निकट आकर कहने लगा कि 'माता' आज्ञा कीजिये-आप मेरी स्वामिनी हैं।' पद्मावती रानीने यह
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३४६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
अनोखी बात सुनकर उससे पूछा - "तुम कौन हो, जो मुझ दुःखिनको अपनी स्वामिनी कहते हो ? भाई, मैं तो तुम्हें नहीं जानती हूं । " वह मातंग बोला- “ विद्युत्प्रभ नगर के राजा विद्युत्प्रभ और रानी विद्युल्लेखाका मैं बालदेव पुत्र हूं । एक दिन मैं अपनी स्त्री कनकमाल के साथ दक्षिणकी ओर क्रीड़ा करनेको जारहा था । मार्ग में कलिंगदेशके उपरांत श्री विध्यशैलकी रामगिरि शिषिरपर श्री वीर नामक मुनिराज विराजमान थे । ( 'हउंताए समउ दरि
दिसिहं रममाणु गयणुय लेगडं, अंधकलिंग हो अंतरिण, बिझय सेलु अग्गह ठियउं ॥ २ ॥ ) इसलिये मेरा विमान उनके ऊपर से नहीं जासका । ( मुणीसरु दिट्ठऊ तहोणाऊ चल्लह दिव्व विमाणु) मुझे बड़ा भारी क्रोष उत्पन्न हुआ क्योंकि मैंने समझ लिया कि इन्होंने ही मेरे विमानको रोका है । अतएव वीर मुनिको मैंने उपसर्ग करना प्रारंभ किया। (विकिउ उवसग्गु तासु ) परन्तु उनके पुण्यप्रभाव से मेरी सब विद्या नष्ट होगई । मैं भौंचक्का से रह गया | मुझे चेत हुआ । मैंने अनेक प्रकारसे उन मुनिवरकी स्तुति की और उपरांत उनसे विद्या सिद्ध होनेका निमित्त पूंछा । उन्होंने कहा कि चंपापुरके राजा दन्तिवाहनकी पद्मावती रानीको दुष्ट हाथी ले भागा था, सो वह दंतीपुरमें मालीके यहां रहती हैं । किन्तु मालिन उनको अपने घर से निकाल देगी और वह भीममसानमें पुत्र प्रसव करेगी । उस बालककी तू जब रक्षा करेगा और
१ - पुण्याश्रव कथाकोष पृ० २० इस ग्रंथ में अगाड़ी पद्मावतीका सहायक होना और हस्तिनापुरका स्मशान बताया गया है, जो इससे प्राचीन मुनि कणयामर विरचित 'करकंडु महाराय चरिय से बाधित है ।
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महाराजा करकण्डु |
[ ३४७ वह राज्याधिकारी होजावेगा तब उसके राज्य में ही तुझे विद्या सिद्ध होंगी।' सो हे स्वामिन् ! इस मातंगभेष में मैं वही विद्याधर पुत्र बालदेव हूं | ( मायंगहो रुवें खेयरइं ) उस दिन से मातंगके वेषमें इस स्मशान की देखरेख रखता हुआ यहीं रहता हूं । "
बालदेवकी यह आश्चर्य भरी वार्ता सुनकर रानी पद्मावतीको संतोष हुआ । उसने धीरज घरके अपने नवजात शिशुको उसे दे दिया । और उससे कहा- 'तो इस बालकका लालनपालन तू हीं कर ।' बालदेवने भी स्नेहपूर्वक वह बालक ले लिया और घर लें जाकर अपनी पत्नीको सौंप दिया ! उसने भी बड़े प्रेमसे उसे अपने वक्षस्थलसे लगा लिया । बालकके हाथोंमें खुजली थी; इस कारण उसका नाम उनने कग्कंडु रख दिया । (तहो पउरकंडु देरके वे करी, करकंडुणामु किउ पयडुधार )
१ - तेरूसिवि पुणु महो दष्णु एवउ । णहुभगाल सहि विज्जाउ ॥ ते सावे विज्जउ गउ खणेण । मइ चिंतिउर्वाहणिएं नियमणेण ॥ एहु मुणिवरु उ सामणु होइ । तं होइ खणद्वेजं भणेइ ॥ इम मणि विचलहिं लग्गु तासु । किं मुनिवर महो किउविज्जणासु ॥ किंकरु तुम्हें हे देव देव । जम्मेविण छंडउ तुझ सेत्र ॥ कोहाणतु सामहि सामिसाल | मापसरउ तणु वणें सयण काल ॥ तो वयणे उवसमु गउ मुणिंदु । मताण पहावेण फणिंदु ॥ ( इससे तो स्वयं मुनिवरका कुपित होना प्रगट है ? ) धत्ता-सो मुणिवरु जाणिवि तु मणु, कमकमल एवि पिणु पणि च | हे मुणिवरु करुणई कहहिं महो, कह होसइ विज्जउरमणियउ ॥४॥ तं सुणिवि मुणीसरु परमणाणि, महो संम्मुहुं वोलइ दिव्य वाणि । हे खेयर चंपाराहि वासु, सिरी धाडी वाहन बंधुरासु ॥ पोमावइ तहीं भामणि गएण, णेवेनी दुट्ठे करि वितेण । पांवे वीसा पुणु मालिएण, दंतीपुरे वी तुरिय एण ॥ तहो धरिणिए कलहुं करेति सावि, णीसारिय अविसइ इहावि । तहोणंदणु होसई पवरवेउ, पालेसहि सो तुहुं गुणणिकेडं ॥
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३४८ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
दुःखिनी रानी इसतरह अपने पुत्रको स्वरक्षित स्थानमें छोड़कर पास एक श्रमणोंके नगरमें चली गई और वहां एक आर्थिका आश्रय में रहने लगी ।' एक दिन उसके साथ जाकर उसने समाप्त मुनिराज के निकट ( णामेण समाहिगुत्तपरु ) दीक्षाकी याचना की । किन्तु मुनिराजने उसे उस समय दीक्षित नहीं किया और कहा कि 'पूर्वभवमें तूने तीनवार अपने व्रत भंग किये हैं, उनके फलरूप तीन दुःख तुझपर आनेवाले हैं । सो उनका उपशभ हो चुकने पर तथा पुत्र राज्यका सुख देखकर उसीके साथ तू भी तप धारण करेगी ।' यह सुनके पद्मावती उसी साध्वी के साथ रहने लगी । इधर करकंडु बालदेवके यहां दिनोंदिन बढ़ने लगा । उचित कालमें बालदेव विद्याधरने उसे धीरे २ संपूर्ण कलाओं में चतुर बना दिया ! इसप्रकार करकंडु आदि उस भीम स्मशानमें सुख से समय व्यतीत करने लगे ।
एक दिन श्री जयभद्र और वीरभद्र नामके दो मुनिराज उस - स्मशान में आकर विराजमान होगये । (ते भीम ममाणयं आय जान ) उससमय एक मुदके नेत्रोंमेंसे तीन वांस उगते हुये दिखलाई दिये । इसपर किसी साधुने उन आचार्य महाराजसे जिज्ञासाकी कि 'भगवान' यह क्या कौतुक है ? आचार्यने कहा - 'इसमें आश्रये कुछ नहीं है, इम नगरका जो कोई राजा होगा, इन तीन वांसों से उसके अंकुश छत्र और ध्वजाके दंड बनाये जायगे । उससमय यह बात
- तादुखीय मणि पोमावइ, समणियर हो गयर हो, खणि गयाइ, समणिरया अज्जियकं तिया हैं, अछंतियज मलईताव तर्हि । - पुण्वाश्रवमें गांधारी ब्रह्मचारिणी आश्रय में रहते बताया है । पृ० २१.
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महाराजा करकण्डु ।
[३४९ ब्राह्मणने सुन ली, सो वह उन वांसोंको उसी समय काट लेगया और पीछे किसीप्रकार करकंडुने उससे उन्हें ले लिया।"
उन बांसोंको करकंडुने क्या लिया, सचमुच वहांका राज्य ही उनके हाथोंमें आगया ! कुछ दिनोंमें वहांका राजा कालके गालमें जा फंसा ! वह पुत्रहीन था-उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। नगरभर हाहाकार करने लगा था। (सुनामुहाहारउट्ठिउ पुरवरम्मि, 'अइदुखु पविहिंउनणवयम्मि) इससमय एक राजाकी खोनमें पाटवड हाथी छोड़ा गया था । वह हाथी करकंडुको ही अपनी पीठपर बैठाकर नगरमें ले आया था । (णिझर झरंतमय गिल्लांडे करकंडु चड़िउ ताकरि पयंडे । कविलीला मणहरं पह वहेइं-णं मुखइ अहरावई सहेई) नगरवासियोंने इसपर करकंडुको अपने नगरका राजा बना लिया और खुब आन्नद मनाया था। ___करकंडुराना होगये -उनको वैभवकी प्राप्ति हुई ! उन्हीके साथ बालदेवकी भी विद्या सिद्ध होगई । महापुरुषों का सत्संन सदा सुखदाई होता है । वह विद्याधर प्रसन्नतापूर्वक करकंडु को नमस्कार करके अपने निवासस्थान विजयाईको चला गया। इधर करकंडु आनन्दसे राज्य करने लगे।
१-पुण्याश्रव कथाकोष पृ०२१-२२१२-मुनि कणयामर विरचित करकंडु चरित'में यहांपर कनौजके एक राक्षसका आख्यान और दिया है, जिसने करकंडुकी सेवा स्वीकार की थी। तथापि बनारसके एक वणिकका भी उल्लेख है; यथा:"वाणमरसिणयर हो मित्तवेवि, देसत्तरुगय आणाणतेवि । धणु अजिवि आवहि बलिविजाम, ता अंतरि रक्खसु रिठ्ठताम । सो परिकविते भयभीवणटठ. पाविट्ठ जेमतव चरण भह । णउ मुणहिं किं हिमवए अवाण, ते पाविएतेण पलायमाण । वणारसि णयरि मणांहिरासु, अरिविंदु णराहिउँ अत्थि णामु”
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३५० ]
भगवान पार्श्वनाथ |
एक रोज़ किसी वणिकने आकर इनसे कहा कि 'महाराज, सोरठदेश में गिरिनगरके राजा अरिसिरके बड़ी ही रूपवती मदनावती नामकी कन्या है । वह सर्वथा आपके योग्य है ।' करकंडु इस समाचारको सुनकर गिरिनगर पहुंचे ! सौभाग्यसे स्वयं मदनावतीने इनको देख लिया और वह इनको देखते ही कामबाणसे व्यथित होगई।" यह जानकर उसके पिताने करकंडुको बड़े आदरसे अपने यहां ठहराया और शुभलग्न में मदनावतीका विवाह करकंडुसे करा दिया । ( सुविसुद्ध दिहिं रंजिए मणाहं, सामंतहिं कियउ विवाहु ताहा) निस समय विवाहका मंगलीक उत्सव होरहा था, ठीक उसी समय रानी पद्मावती भी वहां पहुंच गई। उनने हर्षित होकर करकंडुको आशीष दी। विवाह उपरान्त राजदम्पति दंतिपुर लौट आये।
देनपुर में भी खूब उत्सव मनाया गया । याचक जनों को दान दिया गया और श्री जिनमंदिर में पूजनभजन किये गये ! फिर राजा करकडु आनन्दपूर्वक मदनावती के साथ कालयापन करने लगे किन्तु इसके कुछ दिनों बाद ही चंपासे राजा दंतिवाहनका दूत बूरे समाचार लेकर आया। उसने कहा कि यातो करकंडु महाराज राजा
१ - " एत्थथिदेव सोरट्ठ देसु, सुरलोउ विडंविउ जें असेसु । तहिं पायरु निरणयरु णामु सुरखेयर णर णयणाहिरामु । तहिं राउ अस्थि अरिसिंर कयंतु, अजव मुणउ अजियंगि कंतु ।” २- करकंडु गेय आयणणेण, मावलि पीडिय कामएण | आयण विवालेहि तणिपवत्त, राएणलिहाविय हरिणणेत ।" - " तहिं अवसरि पोमावर विमाय, णियणंदणु देखहुं तुरिय आय | सादिट्ठी कर कंडेणिवेण, पुणु पणमिय भावेण वण्णवेण । णियपुत्तविवाहें हरिसियां आसीसयदणीतुरिउ ताई । चिरु जीवहि णंदणु पुहइणाह, कालिन्दी सुरसरिजा ववाह ।” ( आसीस देविसागय तुरंति ) । ६- चंपा हिवदुवड आणि एत्थु ।”
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महाराजा करकण्डु ।
[ ३५१
तिवाहनकी आज्ञा स्वीकार करें, वरन रणक्षेत्र में आजावें ! करकंडु क्षत्रियपुत्र थे | उनने रणक्षेत्रमें आना ही स्वीकार किया, दूत लौट - गया | चंपानरेश उसके मुखसे करकंडुका उत्तर सुनकर आगबबूला होगए । उन्होंने रणभेरी बजवा दी और कूचका बिगुल फूंक दिया गया । नियत समय में चंपानरेश दलबल सहित दंतिपुर के निकट आपहुंचे ।' करकंडु भी सेना सहित मुकाबिला करनेको तैयार थे । दोनों दलोंकी मुठभेड़ होनेवाली थी । रणक्षेत्रमें योद्धा हूंकारने ही - लगे थे कि इतने में रानी पद्मावती वहां आपहुंची । उन्होंने पितापुत्रका आपस में परिचय करा दिया और इसतरह खून की नदियां बढ़ते बहते बच गई, रणचंडिकाका खप्पर न भरने पाया, किन्तु आनन्ददेवीकी बहुभांति अर्चना होने लगी !
राजा दन्तिवाहन अपनी प्रिया और पुत्रको पाकर बड़े प्रसन्न हुये और बड़े आदर से उनको चंपानगर लिवाले गये । वहां पहुंचकर कालान्तर में राजा दन्तिवाहनने राजपाटका भार करकंदुके हाथमें छोड़ दिया और आप दिगंबर मुनि होगये, दुद्धर तपश्चरण तपकर अन्तमें शिव रमणीके गलहार बनगये । इधर करकंडु नीतिपूर्वक राज्य करने लगे।
१ - " इयेखिवि णिउ करकंडु णामु । गजजणण णयरु गुणगणिय धामु ॥ घत्ता - जे संगरि सुइवर खेयरह, भउजणियउं घणुहरम असरहिं, ते वेदिउ पट्टण चउदिसहि, गय तुरयण गरिंदहि दुद्धरहिं ॥ १२ ॥ " पुण्याश्रव में करकंडुका चंपाकी ओर बढ़ना लिखा है । २ - ' ता दुद्धररायहं जो धरदु, करकंडो वउ राय पट्टु । पुणु अप्पणु राय तरकणेण, तणुमंडिउ तवसिरिभूसणेण । कम्मल गंढि णिउवण सारु, तउचरि विसुदुद्धरु काममारु । तणु छंडे विखंडिविहिमयगंड, सो लग्गउ सिववहुतणए कंठु । घत्ता - गउ धाड़ीवाहण, सियणिलउ, कणयामर वण्णउं गुणहं धरु | करकंडु करत रज्जु पुरि, सो अच्छइं मणिणिहिययहकरु ॥ २२ ॥
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३५२ ] भगवान पार्श्वनाथ । ।
एक समय मंत्रियोंने करकंडुसे कहा कि-'हे देव, द्राविड़, चेरम्, चोल, पांड्य आदि देशके राजा आपका शासन नहीं स्वीकार करते हैं; यद्यपि अन्यथा आपका शासन निष्कण्टक दिगन्तव्यापी होरहा है । इसलिये हे प्रभु, उनको जीतना चाहिये ।'' करकंडुके मनमें भी यह सलाह चढ़ गई और उसने सेना सुसज्जित कराकर दक्षिण भारतकी ओर पयान कर दिया ! कुछ दिनोंमें यह लोग तेरपुर नामक नगरमें पहुंच गये । करकंडु वहीं डेरा डालकर ठहर गया। दूसरे रोज इन्होंने एक प्रतीहारसे पूछा कि वहां कोई रमणीक देखनेयोग्य स्थान भी है । उसने बड़े हर्षसे वहीं पासमें पश्चिमकी और एक दर्शनीय पर्वत बतला दिया। करकंडु फौरन ही उसके दर्शन करनेको गये । पर्वतके ऊपर उन्होंने एक मनोहर वापी देखी और गुफाके भीतर श्री वीतराग जिनेन्द्रभगवानकी मनोज्ञ प्रतिमाके दर्शन किये। उन्होंने दर्शनवंदना करके अपना जन्म सफल माना ! उपरांत वह दूसरे पर्वतपर भी शीघ्र चढ़ गये ! वहां उन्होंने देखा कि एक कुण्डमें जल भरा हुआ है और कमल खिल रहे हैं । एक हाथी उनमेंसे एक कमलको तोड़कर बापीके हारपर चढ़ा रहा है । इस कृत्यको देखकर करकंडुको यह विश्वास
१-“सो मह्वरुप भणइ देव देव, तुज्जमहियलु सयलुविकरइ सेव । पारीदोवड़देसेणिव अथिघिट्ठ, तेणमहिंणकासु विद्दिणइदुट्ठ । सिरि चोड़िपंडिणमेण चेर, णउ करहिं तुहारी देव केर । "२-ए अग्घिदेव पछिमदिसाहि, अइणिय दुउ पव्वउ रम्मुताहि। ३-पुणु दिट्ठउ तें जिण वीयराउ, संथुणणहिं लग्गउ साणु राउं । पुण्याश्रवमें पहले लड़ाई हुई बतलाई है । पृ. २3. ४-जिणेसहवादवि पछिव वेविगिरिंदहो उप्परि सिग्घ चडेवि । णिहालयतेहिं दिस्सहं मुहाई, मणाम्म णिवाहई जाइ सुहाइं । इत्यादि.
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महाराजा करकण्डु। होगया कि इस वापीमें अवश्य ही कोई पूज्यनीय देव है ! इसलिये उसने उस वापीको खुदवाया, जिसमें से एक मंजूषा ( सन्दूक ) में रक्खी हुई पार्श्वनाथ भगवानकी रत्नमई प्रतिमा निकली। उस मनोहारी प्रतिमाके दर्शन करके करकंडुने बड़ा हर्ष माना और उसका अर्गलदेव नाम रखकर उस गुफामें स्थापना करदी। यह भव्यस्थान उन्होंने 'कलि' नामसे संज्ञित किया। (गोवद्धणु हरिणा कलिउणांइ) इसी अनुरूप वह आज भी कलिकुण्ड नामसे परिचित है।
प्रतिमाजीकी स्थापना कर चुकनेपर उनके सामने एक ऊंची बेढंगी जगह मालूम पड़ी ( हरिवीढहोप्परि दिट्ठ गंट्ठि) करकंडुने इसे साफ करनेकी आज्ञा देदी। कारीगरने जल निकलने की संभावनासे उसे फोड़ना उचित नहीं बताया; परन्तु करकंडुने उसको साफ करा देना ही मुनासिब समझा। कारीगरने वह जगह फोड़ना शुरू करदी और फोड़ते ही उसमेंसे अथाह जलप्रवाह बह निकला, जिससे सारी गुफा पानीसे भर गई । (तं भरिय उलुयणु जलेण सव्वु, लोगोंका वहांसे निकलना मुश्किल होगया । इसकारण राजाने वहांपर एक कुश आसनपर संन्यास ग्रहण कर लिया और आत्मचिंतनमें ध्यान लगाया । 'इतनेमें एक नागकुमारने प्रगट होकर कहा कि-"हे राजन् ! कालके माहात्म्यसे आजकल इस रत्नमई प्रतिमाकी रक्षा नहीं होसक्ती थी, इसकारण मैंने यह गुफा जलपूर्ण की है । इसलिये तुझे जलके रोकनेके लिये आग्रह नहीं करना चाहिये ।” और बड़े आग्रहसे राजाको उठाया ।' राजाने उस गुफा और प्रतिमाके बनानेवालेका हाल नागकुमारसे जानना चाहा। इसपर
१-जिणुविंबवि णिग्गउ तित्थु ताव । २-पुण्याश्रव कथाकोष पृ० २४.
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भगवान पार्श्वनाथ । वह कहने लगा कि 'पहले विजयाईकी दक्षिण श्रेणीके रथनूपुर नगरमें नील और महानील नामके विद्याधरराजा थे। वे राजभ्रष्ट होकर यहां तेरपुरमें आकर राज्य करने लगे थे। उन्होंने ही पार्श्वनाथनीको उत्सर्गीकत यह गुफा और उनकी प्रतिमा बनवाई थीं। यह दोनों राजा उपरान्त तपस्या करके स्वर्गगामी हुये थे। इनके बाद नभस्तिलकपुरके राना अमितवेग और सुवेगने आर्यखडके जिनालयोंकी वंदना करते हुये मलयगिरिपर रावणके बनवाये हुये जिनमंदिरोंके दर्शन किये थे। वहीं भ्रमण करते हुये इन्हें भगवान् पार्श्वनाथजीकी रत्नमई प्रतिमा मिली थी। वे उसको एक मंजूषामें रखकर लेचले थे कि एक जगह मार्गमें उसे रक्खा
और फिर वह उसको वहांसे नहीं उठा सके थे । अतएव उन्होंने तेरपुर जाकर एक अवधिज्ञानी मुनिसे इसका कारण पूंछा; जिससे मालूम हुआ कि सुवेग आयु पूरीकर जन्मान्तरमें वहीं हाथी
१-तहिं अत्थि णयरु खेयरष मालु-णामे रहणेउरु चक्ववालु। तहिं खेयर भायर अत्थिनेवि-णामेण णीलमहणीलतेवि । धवितेराणयरु आय तहिं, थाइवकीपउ रज्जु भब् । २-कह पासजिणिंदहोदरियणासि, सुएयक्वहिदिणमुणिवर हो पासि ।मणिरयणहिं मणि णिम्माविप्पहिं, किउट्ठाउतेहिंजिण पडिमप्पहं । ३-बेवदहे उत्तरदिसहिं णयह अत्यहिं वे विभाय अण्णोणणिडिउ संबंद्ध सम ससिकेत दिवायर पउर धाम । ते अमीयवेयसुव्वेपणाम । सुनिसुद्ध सील संगो अहंग, पम्मतुरयणपरिभूतियंग । ते पन्विदिवंहिवंदणकरंति, सचल्लिय एकहिं दिणेमहंत । दख्णिदिसिलंकहिं जंतएहिं, मलयम्मिविसई तादिट्ठ तेहिं । सिरिपूदीणामेगिरिवरिदु. जहिंकोलणुछु आवइ सुरिंदु । तहोउवरि खणेद्धविड़ीय, णंसग्गहो सुरवइ परिवडिय । धत्ता-ते पेखिविछुहपकयधवलु, चउवीस जिनालय गयगयणु; तं पेखिवि हरिसहिं तहिं * जिपय, विणिवारिक्दूरहो जेहिं मग्रणु ॥ ४ ॥
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महाराजा करकण्डु |
[ ३५५ होगा और जब राजा करकंडु वहां आकर मंजूषाको खोलेंगे तब वह हाथी सन्यासमरण करके स्वर्गको जावेगा । यह सुनकर वह दोनों राजा उन मुनिराजके निकट दीक्षा ले गये और आयुके अन्तमें अतिवेग तो ब्राह्मोत्तर स्वर्गको गया और सुवेग आर्तध्यान के कारण मरके हाथी हुआ ! अमितवेगके जीव देवके समझानेसे सुवेगके जीव हाथीने सम्यक्त्वयुक्त होकर व्रतोंको ग्रहण किया था । सो वह निरंतर वहां पूजा किया करता था । सो हे राजन् ! देवके कहे. अनुसार जब तुमने बांबी खुदवाई, तब हीसे यह हाथी समाधिस्थित हो रहा है, यही इस गुफा के सम्बन्धकी कथा है ।'
इस प्रकार कथा कहकर नागकुमार तो नागवापिकाको चला गया और राजाने उस हाथीको धर्मश्रवण कराके समाधिमरण कराया, जिससे वह सहस्रार स्वर्ग में जाकर देव हुआ । पीछे करकंडुने वहां पर गुफायें एवं जिनमंदिर बनवा दिये थे । (लयणोवए करकंडुयणु, काराविउ जिणवर वर भवणु ) ।
करकंडु तेरपुर में जिनमंदिर आदि बनवाकर अगाड़ी बढ़ गये और फिर वह सिंहलद्वीप जापहुंचे ।' शायद उस समय अपने शत्रुओं पर आक्रमण करना उनने मुनासिब न समझा होगा । इसी लिये वहां से वह सिंहलद्वीपको चले गये थे। वहां के राजाने एक चारण मुनिके मुख से इनकी बाबत पहले ही सुन लिया था । सो उसके सिपाहियोंने इनके आगमन की सूचना उसे दी थी । ( जो भासिउ चारण मुणिवरेण - वरु आयउ णरवइसोभरेण ) राजा इनको
१ - ता एक्वहिं दिणि करकंड एण-पुणुदिणु पयाणउ तुरियएण । गउ सिंहलदीवही णिवसमाणु- करकंडु णणहिउ णरप्रहाणु ।
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३५६] भगवान् पार्श्वनाथ । बड़े आदरसे अपने यहां लिवाले गया था और शुभलग्नमें अपनी पुत्रीका विवाह उनसे करदिया था। (वेवाहु कियउलहुताहूकेवि) करकंडु यहां नववधूके साथ कुछ दिन रहकर अन्यत्र चले गये थे। और विद्याधर कन्या आदिके साथ विवाह करके घूमते फिरते द्राविडदेशमें चोल, चेरम, पाण्ड्य आदिके राजाओंके सन्मुख जा डटे थे। यहां घोर युद्ध हुआ था और आखिर इन राजाओंको करकंडुसे परास्त होना पड़ा था। जिस समय करकंडु इनके मुकुटोंको पैरोंसे कुचलता अगाडी बढ़ रहा था, तो उसने उनमें जिनप्रतिमा
ओंको बना देखा । उनको देखते ही वही स्थंभित होगया। उसने समझा यह बड़ा अनर्थ हो गया ! अपने साधर्मी भाइयोंको मैंने वृथा ही कष्ट दिया । वह बहुत ही दुःख करने लगा और उसने उनसे क्षमायाचना करके मैत्री करली ! वात्सल्यप्रेमका यह अनूठा चित्र है ! श्रावकोंमें गऊवत्सवत् प्रेम होना चाहिये, इसका यह एक नमूना है ! आजके श्रावकोंको मानों वात्सल्यभाव धारण करनेका प्रगट उपदेश देरहा है-कह रहा है कि जैनी जैनीमें परस्पर भेद नहीं होना चाहिये । उनको परस्पर मिलकर रहना चाहिये ! करकंडु महाराजका यह आदर्श कार्य सर्वथा अनुकरणीय है !
करकंडु महाराजने उन राजाओंसे विदा होकर तेरापट्टनको प्रयाण किया । वहांपर उनकी मदनावली रानी उनसे आकर मिल
१-तहिं अत्थि विकितिय दिणसराउ-संचल्लिउ ता करकंडु राउ । ता दिविड़देसमहि अलु भमंतु-संपत्तउं तहिं मछरुव हंतु । तहिं चौड़े चोर पंडिय णिवांह. केणाविखणद्वे ते मिलीयाहि । २-करकंडएं धरियाते विरणे, सिरमउड़ मलिय चरणेहिं तहो मउड़ महिं देखिवि जिणपडिम, करकंडवोजायउ वहुलु दुहु ॥ १८ ॥
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महाराजा करकण्डु |
[ ३५७ गई ।' फिर वे और रानियोंको लेकर चंपापुर पहुंच गये और वहां आनन्दसे राज्य करने लगे !
एक रोज बनपालने आकर राजदरबार में खबर की कि महाराज, बिना ऋतुके ही सारी फुलवारी फल फूल गई है । उद्यान में ज्ञानवान श्री शीलगुप्त नामक मुनिराजका आगमन हुआ है । बनपालके मुखसे यह शुभ समाचार सुनकर करकंडुने बड़े हर्षभाभावसे मुनिराजको परोक्ष नमस्कार किया और फिर वह सपरिवार मुनिवन्दना के लिये गये ! मार्गमें जाते हुये उनने एक दुःखिया स्त्रीको विलख विलखकर रोते देखा । ( एहणारि बरहि किं रुवएं, विलवंती हियवइ दुहु करहं ) सो उसने इसका कारण पूछा ! लोगोंने कहा कि महाराज, इसके पुत्रका जन्म हुआ था । उसे अकाल में ही मृत्युके मुखमें जाना पड़ा है । इसीलिये यह स्त्री रो रही है । यथाउप्पण्णउ णंदणु विहिवसेण, सो णीयउ आयहि वइवसेण । तें रुबइ सदुरकर महिलएह, अप्पणिउ धल्लइवद्धदयेह ॥
यह सुनते ही करकंडुके नेत्रोंके अगाड़ी संसारका वास्तविक रूप खिंच गया ! वह इसके क्षणिक रूपको देखकर भयभीत हो गए ! उनके हृदय में वैराग्य उदय होगया । आपा - परका भेद
'जहि
१–‘करकण्डु तहतउणीसरिउ, गउ सम्मु हु तेरापट्टण हो । सुन्दरि मयणावलि हरिय, सम्पत्तउ तंपए सुववण हो ॥१९॥ ' 'गउ चम्पइ साहिविगहि णिवई, सो रज्जु करन्तउ बहुय दिई ॥ २ - चम्पाहि उबुहयण वेठियउ मुहलीलई अछइ जावतहि; ता आयड ऊज्जाणाहिवई अत्थाणिविउराउ जहिं ।" " धम्मालउसंजम णिलउमाइ-किं जिणवरूमाण वेसेंणराइ । तर्हि आयउ मुणिवर णाणजुत, णामेण सिद्धउ सीत्तु ॥" 'करकंडु सुणेविणुत्तं वयणु सत्याणजो अट्ठिउतारयणेण ।'
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३५८ ]
भगवान् पार्श्वनाथ ।
दृष्टि पड़ गया ! ( तं सुणिंवि वयणु रायाहि राउ- संसार होउवरि विरत्त भाउ ) वह राजाधिराज इन्हीं शुभ भावोंको लिये हुये नंदन- वन में पहुंच गये । ( संपत्त उणंदणु तण भमहु ) वहां उन्होंने भक्ति - भावसे उन मुनींद्र की वंदनाकी और संस्तुतिकी थी । जैनाचार्य यही कहते हैं: -
' भामरेति देविणु थुइ करेवि । पुणु चरण दामलजुबलउसरेवि || जय तिमिर बिणासण खरदिणिंद । पय पाडिय पई सुरणार फणिंद || जय माण महागिरि वज्ज दण्ड | जय णिरुममोक्खहो भरिय कुण्ड | जय मोह बिडवि छिंदणकुट्ठार | जय चउगर सायर तरण पार ॥ तुहुं दूरि णमंत हं हरीहपाऊँ । जहं दियरु तम फेडण सहाऊं ।। यह सुमर अणुदिणु जो मणेण । सो सिवपुरि पावइ तरकणेण || कमकमलइ वंदिवि मुणिवसु । ऊवविउ अग्गे एतवधरासु । सो भणइ भडारा हरिय छम्मु । महो कोविपयासहि परम धम्मु ||'
करकंदु मुनिराजकी विनय करके उनके सामने बैठ गया और तब उन कृपालु भट्टारकने परम सुखकारी धर्मका उपदेश दिया, जिसको सुनकर सबके हृदय प्रसन्न होगये । उपरांत सबने अपने २ पूर्वभव उन महाराजके मुखारविन्दसे सुने । उससे उनने जाना कि - कुंतल देश के तेरपुर नगर में पहले एक ग्वाला था । उसने बड़े प्रेम और भक्तिभावसे एक हजार पांखुरीवाले कमलसे श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा की थी और आयुके अन्तमें शुभभावोंसे मरकर वही ग्वालाका जीव राजाधिराज करकंडु हुए ! अगाड़ी उनने जाना कि श्रावस्ती नगरीमें (भरहि अत्थि सावत्थिपुर ) सागरदत्त सेठ और नागदत्ता
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महाराजा करकण्डु |
[ ३५९ नामकी उसकी स्त्री थी। अपनी स्त्रीको सोमशर्मा नामक एक विप्रमें अनुरक्त जानकर उसने दीक्षा ले ली और आयु पूर्ण करके वह स्वर्गधाम पहुंचा । वडींसे चयकर वह चंपापुरका राजा दत्तिवाहन हुआ ! इधर वह सोमशर्मा ब्राह्मण मरकर कलिंग देशमें नर्मदातिलक हाथी हुआ । ( उप्पण्णउ कुभिकलिंग देस ) यही हाथा रानी पद्मावतीको लेभागा था । प्राणियों का मोह और वैर जन्मजन्मान्तरमें भी नहीं जाता है। इसलिये वृथा ही राग, द्वेष के वशीभूत होकर किसीका अहित करना बुरा है । खैर ! अगाड़ी शेष जो व्यभिचारिणी नागदत्ता रही थी वह भी मरगई और बहुत कालतक भ्रमण करके ताम्रलिप्ति नगरीमें वसुदत्त वणिककी स्त्री हुई । ( एत्थ त्थि भरहि पुरि तामलित्ति, जोवंतणु सुखइ लहइतित्ति । वसुमित्तु तर्हि वणि अत्थि ....) इसके दो पुत्रियां धनवती और धनश्री नामकी हुई थीं । धनवतीका विवाह णालंदा नगरके सेठ धनदत्त और सेठानी घनमित्रा के पुत्र धनपालके साथ हुआ था । (णालंदणयरि घणुदत्तवणि-घणमत्ता गेहिणि तहो सुयऊ.....) दूसरी धनश्रीको कौशाम्बीके वैश्य वसुपाल और वसुमतीके पुत्र वसुमित्र ने व्याही थी । (कउसंविणयरि वसुपाल सेट्ठि - इत्यादि) वसुमित्र जैन धर्मावलम्बी था । इससे धनश्री भी उनके संसर्ग से जैनी होगई । एक दफे उसकी माता नागदत्ता भी वहां आई ! धनश्रीने श्री मुनिवर के पास लिवाजाकर अपनी माताको अणुव्रत । लया दिये, किन्तु अपनी दूसरी पुत्री के समागम में पहुंचकर उसने उन व्रतोंको छोड़ दिया । उसने तीनवार यह व्रत लिये और तीनों ही वार छोड़ दिये (जहतेहंवउ भाउ एक्कवार, तहतिणिवार भग्गउ मुत्तार )
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३६० ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
उपरान्त चौथी बार वह व्रतोंमें अटल होगई ! निदान जैनधर्मको - पालते हुये उसकी मृत्यु हुई और वह कौशाम्बीके राजा वसुपाल और रानी वसुमती बुरे मुहूर्त में पुत्री हुई; जिमसे इमको मंजूषा में रखकर गंगा में बहा दिया गया था । फिर कुसुमदत्तमालीके यहां लालनपालन पाकर यह राजा दंतिवाहनकी प्रिया हुई थी !
श्री मुनिराजके मुख से सबने अपने पूर्वभव वर्णन सुनकर वैराग्यको प्राप्त किया ! उन सबको काललब्धिकी प्राप्ति हो गई-वे मोक्षके मार्ग में लग गये ! राजाधिराज करकंडु अपने पुत्र वसुपालको चम्पाका राजा बनाकर मुनि हो गये । उनके साथ चेरभादि क्षत्रि1 योंने भी दीक्षा ली थी। साथ ही पद्मावती माता एवं उनकी स्त्रियां आर्यिका होगई ! करकंडु महाराज सांसारिक वैभवको तिनकेके समान त्याग करके मुनि हो गये । श्री गुरुके चरणोंकी उन्होंने वंदना की और वह विरक्त हो गये। (जिणचरण लग्गु दूखाउ भीउ • संसार हो उवरि विरत्ति थीउ ) यह उन्हीं जैसे महापुरुष के योग्य कार्य था करकंडु महाराजने मुनि अवस्था में घोर तपश्चरण किया और आयुके अन्त में उन्होंने सर्वार्थसिद्ध विमान में जा जन्म लिया ! ( सव्वत्थसिद्धि संपतुखणे, कणयामर मुणिवर घयहलई | ) एक ग्वालाका जीव श्री जिनेन्द्र भगवान् के चरणोंका सेवक बनकर मनु• ध्यलोक में मनुष्यों द्वारा पूज्य राजाधिराज हुआ और फिर देव आयुको प्राप्त हुआ ! यह जैनधर्मकी शिक्षाका मर्म समझानेवाला प्रकट उदाहरण है । करकंडु महाराजने श्री पार्श्वनाथ भगवान के तीर्थमें जन्म लेकर उन्हीं भगवान्के मूलनायकत्वके मंदिर धाराशिव (तेरपुर ) में | बनवाये थे ! जहां आज भी हजारों जैनी जाकर आपके पुण्यमई
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जिनेन्द्रभक्त सेठ । [३६१ कार्यके निमित्तसे धर्मोपार्जन करते हैं ! इस तरह भगवान् पार्श्वनाथजीके तीर्थमें हुये प्रख्यात नृपका यह चरित्र है ।+
· श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें इनकी गणना चार प्रत्येक बुद्धोंमें की है; जो बौद्धसाहित्यमें भी बहुप्रसिद्ध हैं। वहां इनको कर्मनाश करके केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष लाभ करते लिखा है । डा० जार्ल चारपेन्टियरने इनके चरित्रपर कुछ प्रकाश डाला है।
(२१) जितेन्द्रभक्त खेल !* 'नत्वा श्रीमज्जिनं भक्त्या स्वर्ग मोक्षसुखप्रदम् ! वक्ष्येजिनेन्द्रभक्तस्य सत्कथां सोपगृहने ।'
ब्रह्मनेमिदत्त । सातमजले महलकी अंतिम मंजिलपर सम्यग्दृष्टि शिरोमणि सेठ जिनेन्द्रभक्त द्वारा निर्मित सुन्दर निनचैत्यालय था ! सूर्य नामक _.. + मुनि कणयामर विरचित करकंडुचरित्र के आधारपर ही यहां यह वर्णन दिया गया है परन्तु इस चरित्रके मूल परिचयके लिए मूल ग्रन्थ ही देखना चाहिए । मुनि कणयामर संभवतः १०वीं शताब्दिके कवि थे। देखो इलाहाबाद यूनीवर्सिटी जर्नल पृ० १७४ । १-जार्ल चारपेन्टियर, उत्तराध्ययनसूत्रकी भूमिका पृ० ४४ । २-उत्तराध्ययनसूत्रकी वृत्तिमें उल्लेख हैं:-'इह च यद्यपि नमिप्रवजैव प्रकृन्ना तथापि यथायम् प्रत्येकबुद्धस् तथान्येऽपि करकंड्वाद्यस् त्रय एततसमकालर र लोकच्यवन प्रवर्जया ग्रहणकेवलज्ञानोत्पत्तिसिद्धिगतिभोज इति प्रसंगतो विनेयवैराग्योत्पादनार्थम् तद्वक्तव्यताप्य अभिधीयते ।' पूर्व० भाग २ पृ० ३१२ । 3-Pacceka-buddhages chichten. PP. 41-56-86-164, * पूज्य ब्र० सीतलप्रसादजीने इनसेठको श्री पार्श्वनाथजीके तीर्थमें बतलाया है ।(बंगाल जैनस्मारक पृ० १२१)
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३६२] भगवान पार्श्वनाथ । चोर क्षुल्लकवेषमें वहां पहुंच गया! भव्य चैत्यालयको देखकर उसका हृदय गद्गद हो गया ! मनोहर वेदिकामें श्री पार्श्वनाथ भगवान्की अति मनोज्ञ और रत्नमई प्रतिमा बिराजमान थी जिसपर रत्ननटित तीन छत्र अपूर्व ही शोभा देरहे थे। इन छत्रोंमेंसे एकमें वैडूर्यमणि नामक अत्यन्त कांतिमान बहुमूल्य रत्न लगा हुआ था ! वेषधारी क्षुल्लकका हृदय उसको देखते ही बांसों उछलने लगा ! उसको सोलह आने निश्चय होगया कि यह बहुमूल्य रत्न तो अब मिल ही गया ! लोभके वशीभूत होकर उस क्षुल्लक वेषधारी चोरने कुछ भी कार्य अकार्य न पहिचाना ! उसे केवल वैडूर्यमणिको पानेकी फिकर थी। ___यह सूर्यचोर चोरोंके एक नामी गिरोहका सदस्य था और उस गिरोहका नेता सौराष्ट्र देशके पाटलिनगरके राजा यशोध्वज और रानी सुसीमाका पुत्र सुवीर था ! सुवीर महाव्यसनी और चोर था ! उमने ताम्रलिप्त नगरके जिनेन्द्रभक्त सेठके चैत्यालयमेंके मूल्यमई रत्नका हाल सुना था ! इसी कारण उसने अपने साथियोंको उस रत्नको किसी तरह भी ले आनेके लिये कहा था। इसपर इस सूर्यचोरने उस रत्नको ले आनेका भार अपने ऊपर ले लिया था ! सुर्य चोरको मालूम था कि जिनेन्द्रभक्त सेठ अपने नामके अनुसार ही जिनभगवान्के परमभक्त हैं और वे धर्मात्मा पुरुषोंसे बड़ा प्रेम करते हैं । सेठनीकी इस धर्मवत्सलतासे अनुचित लाभ उठाना उस चोरने ठान लिया । अनेक जीर्ण मंदिरोंका उद्धार करानेवाले, आवश्यक्तानुसार अनेकों भव्य मंदिरों और प्रतिमाओंको बनवानेवाले एवं चारों संघोंको दान देने और सत्कार करनेवाले उन सेठको इस
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जिनेन्द्रभक्त सेठ । [३६३ तस्करने ठगनेका पूरा इरादा कर लिया ! वह झटसे क्षुल्लक बन गया और सेठनीके नगरमें जा पहुंचा। वह रत्नके लालचसे व्रत उपवास आदि भी करने लगा ! सेठजीने धर्मात्मा क्षुल्लकका आगमन ज्योंही सुना त्योंही वे उसकी वन्दनाको गये ! क्षुलुकका क्षीणशरीर देखकर सेठजीकी श्रद्धा उसपर होगई। उनने क्षुल्लकको प्रणाम किया और वह उसको अपने महल लिवालाये। सच है कि
'अहो धूर्तस्य धूर्त्तत्वं लक्ष्यते केन भूतले ।
यस्य प्रपञ्चतो गाढं विद्वान्सश्चापि वंचिताः॥
अर्थात्-"जिनकी धूर्ततासे अच्छे२ विद्वान् भी ठगा जाते हैं, तब बेचारे साधारण पुरुषों की क्या मनाल जो उनकी धूर्तताका पता पासकें।" ऐसे ही धूर्त साधुजनोंको बदनाम करते हैं !
क्षुल्लकनी महलमें पहुंचकर उस मणिको ले उड़नेकी ताकमें थे ! रात आते ही उनका दांव लग गया। वे मणिको लेकर महलके बाहिर हो चलते बने; पर अभाग्यसे मार्ग में कोतवालने उनको पकड़ लिया ! वह ज्यों त्योंकर आखिर जिनेन्द्रभक्त सेठकी शरण आये ! सेठ धर्मात्मा थे, वे अपराधी पर भी क्षमा करना जानते थे। उनने क्षुल्लकके दुष्कर्मकी ओर दृष्टिपात भी नहीं किया ! प्रत्युत कोतवालके सिपाहियोंको ही डांट दिया कि वृथा ही तुम एक तपस्वीको चोर बतलाते हो । इस रत्नको तो यह मेरे कहनेसे लाये हैं। यह बड़े अच्छे साधु हैं। मिनेन्द्रभक्तके यह वचन सुनकर सिपाही लोग तो नमस्कार कर चलते बने, और सेठजी उन क्षुल्लक महाशयको एकान्त स्थानमें लेजाकर कहने लगे कि-'यह बड़े दुःखकी बात है कि तुम ऐसे पवित्र वेषको धारण करके उसे नीच कर्म
११
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३६४] भगवान पार्श्वनाथ । करके लजा रहे हो ! तुम्हें ऐसे नीच कार्य करना क्या उचित हैं ? इन कार्योंसे वेषकी निन्दा और तुम्हारी आत्माका अहित होता है। तुम्हें ऐसे दुष्कार्योंकी बदौलत कुगतियोंका ही वास मिलेगा ! शास्त्रकारोंने तो स्पष्ट ही कह दिया है कि:
'ये कृत्वा पातकं पापाः पोषयन्ति स्वकं भुवि । सक्त्वा न्यायक्रमं तेषां महादुःखं भवार्णवे ॥"
अर्थात्-"जो पापी लोग न्यायमार्गको छोड़कर और पापके द्वारा अपना निर्वाह करते हैं, वे संसार-समुद्रमें अनन्तकाल दुःख भोगते हैं।" याद रक्खो कि अनीतिको गृहण करने और अधिक तृष्णा रखनेसे जल्दी ही नाशके गर्त में जाना पड़ता है । इस अमूल्य नर जन्मको पाकर बर्बाद न कर दो। कुछ आत्महित करलो।' इसप्रकारे शिक्षा देकर जिनेन्द्रभक्त सेठने उस क्षुल्लकको अपने स्थानसे अलग कर दिया !
भगवान् पार्श्वनाथजीके तीर्थमें हुये यह जिनेन्द्रभक्त सेठका चरित्र है। धर्मात्मा पुरुषोंको कैसा आदर्श जीवन व्यतीत करना चाहिए, यह उनके व्यवहारसे स्पष्ट है । अपराधी पर भी रोष न करना-पापीसे घृणा न करना-यह उनके आदर्शसे प्रगट है । पापसे दूर रहनेका वह उपदेश दे रहे हैं। धर्मात्मा साधुजनके भेषका आश्रय लेकर जो पाखंड़ी पुरुष स्वयं धर्मको बदनाम करते हैं, उनके प्रति श्रावकोंका क्या कर्तव्य होना चाहिये, यह भी जिनेन्द्रभक्त सेठके उक्त उदाहरणसे स्पष्ट है । अंधश्रद्धाके वशवर्ती होकर पाखंडी लोगोंको धर्मापवाद करने देना भला धर्म हो ही कैसे सक्ता है ?
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विद्युच्चर मुनि ।
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विद्युच्चर मुनि। "सर्वसौख्यप्रदं नत्वा जिनेन्द्रं भुवनोत्तमम् । वक्ष्ये विद्युञ्चराख्यानं विख्यातं मुनिभाषितम् ॥"
-ब्रह्मनेमिदत्त । मिथिलानरेश वामरथ अपने एकांत भवनमें बैठे हुये थे। आनन्द वार्ता होरही थी । सामने ही सुन्दर वेषभूषाको धारण किये हुये एक पुरुष उपस्थित था। वह महारानको मन मोहनेवाली बातें सुना रहा था। बातों ही बातों राजाका हार लेकर बह चम्पत होगया ! सब लोग देखते ही रह गये ! इस घटनासे मिथिलानरेशको बड़ा रोष आया ! उन्होंने अपने यमदण्ड नामक कोतवालको बुला भेना और सात दिनके अन्दर चोरका पता लगा लानेकी आज्ञा चढ़ादी !
____ यमदण्ड परेशान था। वह अपने जानेमें चोरको खोज निका•लनेके लिए जमीन आस्मान एक कर चुका था; पर तो भी पता लगानेमें सफल न हुआ था ! छै रोज होचुके थे-दूसरे ही रोज रान दरबारमें चोरको हाज़िर करना था ! वह इसी फिराक में नगरके बहार निकला ! यूं ही एक सूनसान मंदिरमें वह जा निकला। वहां उसने एक कोढ़ींको पड़ा पाया ! कोतवालको उसपर कुछ शक हुआ
और वह उसको पकड़ लाया ! दूसरे रोज़ राजदरबारमें उसी कोढीको उपस्थित करके कह दिया कि 'महाराज, आपका चोर यही है।' कोतवालने उसको चोर तो बता दिया; परन्तु उसके पास कोई प्रमाण नहीं था, जिससे वह उसे चोर सिद्ध कर सक्ता ! दरबारियोंकी
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३६६] भगवान पार्श्वनाथ । सलाहसे यह विषय विचारकोटिमें पड़ गया। उस रोज़ कुछ निश्चय न हुआ। कोतवाल उसे अपने घर लेआया और उसकी खूब अच्छी तरह मरम्मत की । परन्तु उसने तब भी चोरी करना न कबूला । दूसरे रोज़ रानसभामें उसी कोढ़ीको कोतवाल फिर लेगये
और राजासे बोले-“महाराज, यही पक्का चोर है ।" किन्तु कोढ़ोने फिर भी इन्कार किया ! ___आखिर राजाने उसको अभयदान देकर पूंछा कि तू सच्चा हाल बतादे-हम तेरा अपराध क्षमा कर देगें । इसतरह रानासे जीवदान पाकर उस कोढ़ीने चोरी करना कबूल करली । वह बोला-'राजाधिराज' अपराध क्षमा हो । मैं ही वास्तवमें चोर हूं।' राजा यह सुनकर चकित होगया । उनने पूछा कि 'इतनी विकट मार सहते रहने पर भी तूने यह बात नहीं कबूली! तू बड़ा साहसी है, तूने कैसे यह वेदना सहली ?' उसने कहा कि-'महारान, मैंने एक मुनिरानके मुखसे नर्कोके दुःखों का वर्णन सुना था । सो मुझे निश्चय था कि इस वेदनासे कहीं अधिक बेदना तों मैं पहले अनेक वार नों में भुगत चुका हूं। वहीं भयभीत न हुआ तो इस वेदनासे विचलित होना फिजूल है ।' राजा यह उत्तर सुनकर बड़े हर्षित हुए । उनने उसे वर दान दिया; पर उस चोरने आप कुछ भी न मांगकर यमदण्ड कोतवालको ही सब कुछ देनेकी प्रार्थना की ! यह देखकर राना और भी अचंभेमें पड़ गया ! उनने उससे पूछा कि यमदण्ड तो तेरा बैरी है-तू उसे मित्र मानकर प्रेमका व्यवहार कैसे कर रहा हैं ? वह चोर बोला-'महाराज, यह मेरे मित्र ही हैं। इसका खुलासा यूं है सो सुनिये-दक्षिणके आभीर प्रान्तमें
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विद्युच्चर मुनि।
[३६७ वेना नदीके तटपर वेनातट नगरमें राजा जितशत्रु राज्य करते थे। उनकी रानी जयावतीसे विद्युच्चर नामका उनके पुत्र था। वहांके कोतवाल यमपाश थे । उनकी यमुना स्त्रीसे यमदण्ड नामका पुत्र हुआ था । आपके कोतवाल वही यमदण्ड हैं । विद्युच्चर और यह एक गुरुके पास पढ़ते थे । इनने कोतवालीका ज्ञान प्राप्त किया था और विद्युच्चरने चौर्य शास्त्रका मंथन किया था । एक रोज विद्युच्चर और इनमें शपथ होगई कि जब तुम कोतवाल होगे तब मैं चोरी करूंगा और फ़िर देखूगा तुम कितने होशियार हो ! कालान्तरमें नितशत्रु और यमपाश जैन मुनि होगये । सो विद्युच्चर राजा हुये
और यमदण्ड कोतवाल पदके अधिकारी हुये। परन्तु यह अपनी पूर्व शपथके भयसे यहां चले आये । राजन्, मैं ही विद्युच्चर हूं। सो मैं इनकी होशियारीकी बानगी लेने यहां चला आया। दिनमें कोढ़ीके वेषमें रहता था और रातको अपनी शपथके अनुसार इनको छकाता था। इसलिये यह हमारे मित्र ही है ।' उपरान्त विद्युच्चर यमदण्डको लेकर अपने शहरको वापस चला आया। किन्तु इस घटनासे उसे वैराग्य उत्पन्न होगया था। उसने शीघ्र ही अपने पुत्रको राज्यका भार सौंप दिया और जिन दीक्षा लेगया। इनके अतिरिक्त कई अन्य राजकुमार भी मुनि होगए थे। भव्यात्माओंके ऐसे ही आदर्शनीवन होते हैं। वह बड़ेसे बड़ा त्याग बातकी बातमें कर देते हैं।
विद्युच्चर मुनि होगये । खूब ही आत्मोन्नतिके मार्गमें बढ़ने लगे और सर्वत्र उनका विहार होने लगा। एक रोज वे घूमते हुए ताम्रलिप्त नगरीमें जापहुंचे। वहांकी चामुण्डदेवीने इनको वहां
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३६८ ]
भगवान् पार्श्वनाथ ।
घुसने से रोका; किन्तु शिष्योंके आग्रह से यह नगरी में चले गए और वहां पश्चिम परकोटेके पास पवित्र स्थानपर आसन मोड़कर बैठ गए | चामुण्डदेवीको यह बात बुरी लगी । उसने इनपर घोर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। अनेक प्रकारके उपद्रव होने लगे, पर तो भी यह मुनिराज अपने ध्यान से विचलित न हुए । प्रत्युत इनका ध्यान बढ़ता गया और अन्तमें इन्होंने कर्मोंका नाशकर मोक्षarat प्राप्त किया । विद्युच्चर मुनिराज के पादपद्मोंसे तामृलिप्ति नगरी पवित्र हो गई वह निर्वाण स्थान बन गया । यह राजपुत्र विद्युच्चर मुनि भी भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थमें हुए माने जाते हैं। ( देखो बंगाल, विहार जैन स्मारक ट० १२१ )
( २३ )
राजा वसुपाल और चित्रकार ! 'पादपद्मद्वयं नत्वा जिनेन्द्रस्य शुभप्रदम् । उपघानकथावक्ष्ये यतः सौख्यं भजाम्यहम् ||'
- ब्रह्मनेमिदत्त ।
-
श्री पार्श्वनाथ भगवान की मनोज्ञ प्रतिमापर चतुर कारीगरने बड़ी सुन्दरता से लेप चढ़ाया; परन्तु रातके बीच में वह स्वयमेव ही उतर पड़ा। चित्रकार बड़ा विस्मित हुआ ! उसने समझा कि कोई त्रुटि होगई होगी, इसी कारण यह लेप उतर पड़ा है। परंतु दूसरे दिन और तीसरे दिन भी यही घटना घटित हुई । चित्रकार बड़े असमंजस में पड़ गया ! कई दिन उसे ऐसे ही बीत गये । उसकी समझमें न आया कि ऐसा क्यों होता है ?
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राजा वमुपाल और चित्रकार ! [३६९ __ श्री अहिच्छत्रपुरके राजा वसुपाल बड़े बुद्धिमान थे । जैन धर्ममें उनको गाढ़ श्रद्धा थी। उनकी रानी वसुमती भी बड़ी बुद्धिमती और धर्मपर प्रेम करनेवाली थी। राजा वसुपालने अहिच्छत्रपुरमें 'सहस्रकूट' नामका भव्य जिनमंदिर बनवाया था और उसमें श्री पार्श्वनाथ भगवानकी मनोहर प्रतिमा विराजमान की थी। इसी प्रतिमापर लेप चढ़ानेको राजाने चित्रकार बुलाया था। यह चित्रकार मांसभक्षी था। इसकी अपवित्रताके कारण उसके द्वारा चढ़ाया हुआ लेप प्रतिमानीपर नहीं ठहरता था। और राजा एवं सब अन्य लोग इस घटनासे दुःखी थे। उनकी समझमें इसका कारण नहीं आता था। ___ आखिर वह चित्रकार किसी मुनिमहारानकी शरणमें पहुंचा और उनसे इस घटनाका कारण पूछा। मुनिराजने बतला दिया कि'प्रतिमा अतिशयवाली है; कोई शासनदेवी या देव उसकी रक्षामें नियुक्त रहते हैं । इसलिए जबतक यह कार्य पूरा हो तबतक उसे मांसके न खानेका व्रत लेना चाहिए।' लेपकारने वैसा ही किया। मुनिराजके समीप उसने मांस न खानेकी प्रतिज्ञा ग्रहण करली। इसके बाद जब उसने दूसरे दिन लेग किया तो वह प्रतिमापरसे नहीं छूटा-वह उसपर ठहर गया । व्रतका माहात्म्य ही ऐसा है । व्रती पुरुषको हर कार्य में सिद्धि होती है । इस हर्ष समाचारको सुनकर राजा वसुपाल भी बड़े प्रसन्न हुये और उनने चित्रकारको वस्त्राभूषण देकर उसका सत्कार किया। वे राजा रानी उस भव्य मूर्तिकी पूजा वंदना दीर्घकाल तक करते रहे और उन्हीके पुण्यकार्यसे आज भी अनेकों श्रावक उन प्रभूकी पूजा अर्चना करने
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भगवान् पार्श्वनाथ |
अहिच्छत्रको जाते हैं-वहांसे पुण्यकी पोट बांधलाते हैं । अस्तु; इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथजीके तीर्थमें हुये एवं उनसे सम्बन्धित पुरुषोंके दिव्य जीवनाख्यानोंका परिचय हम पालेते हैं । सचमुच उनके निर्वाणलाभ कर चुकनेके उपरान्त तक हुये प्रधान पुरुषोंके दर्शन हम कर लेते हैं । अब अगाड़ी केवल इन प्रभुका निर्वाण कल्याणक और उनका भगवान महावीरजी से सम्बंध देखना ही शेष है ।
B9998CCE ( २४ ) भगवानका निर्वाणलाभ ! "कुर्वाणः पंचभिमासैर्विरही कृतसप्ततिं । संवत्सराणां मासं स संहृत्य विहतिक्रियां ।। १५५ ॥ षट्त्रिंशन्मुनिभिः सार्द्धं प्रतिमायोगभास्थितः । श्रावणे मासि सप्तम्यां सितपक्षे दिनादि मे ।। १५६ ॥ भागे विशाख नक्षत्रे ध्यानद्वयसमाश्रयात् । गुणस्थानद्वये स्थित्वा सम्मेदाचल मस्तके || १५७ ॥ तत्कालोचितकार्याणि वतयित्वा यथाक्रमं । निःशेषकर्मीर्नाशान्निर्वाणं निश्चलं स्थितः ॥ १५८ ॥ - श्री गुणभद्राचार्य | मन्द मन्द पवन चल रही थी, नीलाकाश सुहावने बादलोंसे मण्डित होरहा था । अरुण सूर्योदय अपनी मन्दमुस्कान छोड़ते हुये एक झांकी भर लगा रहे थे; मानो भगवान पार्श्वनाथजीके अतुल विभवकों देखकर वह अपना मुंह ही छिपा रहे हों ! पावस ऋतु थी । श्रावणका महीना था । वृक्ष - लता, पशु-पक्षी और नर-नारी सबके
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भगवानका निर्वाणलाभ! हृदयोंमें मोदभाव छारहा था । सबही प्रसन्न हुये मीठे २ राग अलाप रहे थे ! शुक्लपक्ष अपनी विमलताका परिचय देरहा था। मानों स्पष्ट ही कह रहा था कि मैं सार्थक नाम हूं। जैसा मेरा नाम है वैसा मेरा काम है। शुक्लभावोंका पूर्ण प्रार्दुभाव मेरे ही शुक्ल आलोकमें होसक्ता है। मेरे ही धवलरूपका साथी इस विशाखा नक्षत्रमें आज अपना वैभव दिखला सक्ता है । आजका दिन ही इस पुनीत संसर्गसे हमेशाके लिये पवित्र और पावन बन गया है। वह देखिये प्राकृत संकेतोंको पाकर इस दिव्य अवसर पर स्वर्गलोकके देवगण भी आ रहे हैं । इन्द्र-इन्द्राणी और देव देवाङ्गनायें अपने २ विमानोंमें बैठे हुये जयजयकार करते हुये चले आरहे हैं। सब ही पुलकितबदन होरहे हैं। इधर पृथ्वीपर देखिये तो सब ही राजा-महाराना, सेठ और साहूकार प्रसन्नतापूर्वक भगवान पार्श्वनाथकी विरदावलि गाते बढ़े चले आरहे हैं । पशु-पक्षी और वृक्ष • लतायें भी प्रफुलत हुये दृष्टि पड़रहे हैं। जरा और ननर पसारिये, देखिये । दिशायें निर्मल होगई हैं-भव्य शैल महामनोहर दीख रहा है। यह श्रावण शुक्ला सप्तमीका दिवस ही अनुपम है।
भला यह दिवप्त अनुपम क्यों है ? इस रोज इन्द्र और देव, राजा और प्रजा कब और क्यों आनन्द मनाने आये थे ? आये थे तो कहां आये थे ? इन सब प्रश्नोंका समाधान भगवान पार्श्वनाथजीके शेष जीवनपर नजर डालनेसे हल होनाता है। शास्त्रोंमें बतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथजीने विहार और धर्मप्रचारमें पांच महीने कम सत्तर वर्ष व्यतीत किये थे । उपरान्त वे श्रीसम्मेदाचल पर्वतकी परमोच्च शिखरपर आनकर विराजमान हुये थे ।
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३७२] भगवान पार्श्वनाथ । निस महापवित्र पर्वतराजकी टोकोंपरसे परमगुणधारी अनंते मुनीन्द्रः .
और कई तीर्थकर भगवान् समस्त कर्मोंका नाश करके मोक्ष पधारे थे, वह इन भगवान्को अपने अङ्कमें धारण करते फूला न समाया था ! देवदुन्दभिकी प्रतिध्वनिरूप जो महाप्रिय आनन्दध्वनि उसकी गुफा. ओंमेंसे निकलती थी, वह उसके प्रसन्न भावोंको प्रकट कररही थी! त्रिजगपूज्य भगवान्को अपने अञ्चलमें पाकर भला वह क्यों न प्रमुदित होता ? वह उनको पाकर हमेशाके लिये पवित्र होगया । देशविदेशोंमें उसका नाम होगया! देवोंने भी उसकी गुणग्राहकताका मूल्य उसी समय चुका दिया । उनने उसकी सर्वोच्चशिखरका नाम, जिसपर भगवान् पार्श्वनाथनी आ विराजमान हुए थे, सुवर्णभद्रकूट रख दिया ! उसके उस सुवर्णमयी कूटपर विराजित भगवान् परम शोभाको धारण किये हुये थे। तिसपर देवोंद्वारा की गई पुष्पोंकी वृष्टि भगवान्के लिये स्वयंवरमाला सरीखी ही जान पड़ती थी; मानो मोक्षसुंदरीने स्वयं ही आकर उन भगवान्को वर लिया हो!
भगवान्ने श्रीसम्मेदशिखिरपर आकर अपनी समवशरण विभूतिका त्यागन कर दिया था। वह विभूति स्वयं ही विघट गई थी। भगवान् इसप्रकार समस्त सभासे विमुक्त होकर एक मासका योग निरोध करके विराजमान होगये थे। उनके साथ छत्तीस मुनिराज और थे। वे भगवान् प्रतिमायोगमें तिष्ठ रहे थे। श्रावण शुक्ला सप्तमीके सबेरे ही उनने तीसरे और चौथे शुक्लध्यानोंका आश्रय लिया था। और शेष चार अघातिया कर्मोका नाश करके वे अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पांच शब्दोंके उच्चारण करने जितने
१-पार्श्वनाथचरित (कलकत्ता) पृ. ४१७ ।
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भगवानका निर्वाणलाभ !
[ ३७३
समयतक अयोगकेवली पदमें प्राप्त रहकर मुक्तिधाममें जा विराजमान हुये थे । अचल मोक्षस्थान में वह परामत्मारूपमें जाकर तिष्ठ गये थे। - लोककी शिखरपर हमेशा के लिये पूज्यपनेको प्राप्त होगये थे ! सबसे बड़े पदको वे पाचुके थे, समस्त प्राणी उनके चरणों के आश्र में रह रहे हैं !
भगवान् पार्श्वनाथजीके मोक्ष प्राप्त करते ही इंद्रादि देवों ने उनके निर्वाणकल्याणकी पूजा की और बड़ी भक्तिसे उन प्रभुकी वंदना करने लगे । उपरांत उन्होंने श्री जिनेन्द्र भगवान् के दिव्य देहकी दग्धक्रिया की ; यथा:
" तब इंद्रादिक सुरसमुदाय, मोख गये जाने जिनराय । श्री निर्वानकल्यानक काज, आये निज निज बाहन साज ॥ परमपवित्त जानि जिनदेह, मुनिसिविकापर थापी तेह | करी महापूजा तिहिं बार, लिये अगर चंदन घनसार ॥३०७॥ और सुगंध दरव सुचि लाय, नमें सुरासुर सीस नमाय । अगनिकुमार इंद्र तैं ताम, मुकुटानल प्रगटी अभिराम ||३०८|| ततखिन भस्म भई जिनकाय, परमसुगंध. दसौं दिसिथाय । सो तन भस्म सुरासुर लई, कंठ हिये कर मस्तक ठई ।। ३०९ ॥ भक्तिभरे सुर चतुरनिकाय, इह विध महा पुण्य उपजाय । कर आनंद निरत बहू भेव, निज निज थान गये सब देव ॥ ३१०||"
१- किन्हीं लोगोंका कहना है कि तीर्थंकर भगवान्की दिव्यदेह काफूकी तरह खिर जाती है और देवलोग अपनी भक्तिको प्रदर्शित करनेके लिये मायामई शरीर रचते एवं उसकी दग्ध क्रिया करते हैं । तथा नखशिखको लेजाकर वे क्षीरसमुद्रमें स्थापन करते हैं ।
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३७४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
इसप्रकार निर्वाण उत्सव मनाकर देवगण सुरलोकको चले -गये थे। किन्हीं शास्त्रकारों का मत है कि देवोंने भगवान के निर्वाणस्थानपर मणिमई स्तूप बना दिया था ! इसतरह भगवान् पार्श्वनाथजी परमपदको प्राप्त होगये थे । एक सामान्य हाथीका जीव आत्मोन्नति करते२ परमोच्चदशाको प्राप्त होगया ! यह धर्म की महिमाका फल है ! नियमित इंद्रियनिग्रह और सत्य अध्यवसाय बड़े से बड़े कार्यकी पूर्ति पाड़ देता है । कितनी भी छोटी दशाका जीव उपेक्षणीय नहीं है । वह भी अपने आत्मबल अथवा सप्रयत्नों द्वारा सब कुछ कर सक्ता है । नीच दशा के प्राणियों को साहस दिलानेवाला भगवान्का पवित्र जीवन सर्व सुखकारी है ! उसका अध्ययन और मनन भला किसको आनन्दका कर्ता न होगा ?
भगवान् पार्श्वनाथका निर्वाण अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरजीके निर्वाणकालसे ढाईसौ वर्ष पहले हुआ, शास्त्रों में बतलाया - गया है । और भगवान महावीरजीका जन्मकाल आजकल ईसवीसनसे ५९९ वर्ष पहले माना जाता है। इस अपेक्षा भगवान् पार्श्वनाथका जन्मकाल ईसवीसन्से ८४९ वर्ष पूर्व प्रमाणित होता है और चूंकि उनकी अवस्था सौ वर्षकी थी; इसलिये उनका निर्वाणसमय ईसा पूर्व ७४९ वर्ष ठीक बैठता है । किन्तु कोई २ महा- शय उनका जन्म समय ईसा से पहले ८१७ वर्षमें मानते हैं । परन्तु हमने विशेष रीति से भगवान महावीरका निर्वाणकाल ईसासे
४
१ - श्री भावदेवसूरिने ऐसा उल्लेख अपने पार्श्वनाथचरित' में किया है। २- उत्तरपुराण पृ० ६०७ । ३- भगवान् महावीर पृ० २१३ और जैनसूत्र (S. B. E.) भाग २ भूमिका । ४ - लाइफ एण्ड स्टोरीज ऑफ पार्श्वनाथ, प्रस्तावन पृ० ९ नोट २
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भगवानका निर्वाणलाभ! [३७५ पूर्व ५४५ वर्षमें स्थापित किया है। अतएव भगवान् पार्श्वनाथजीके मोक्षलाभ करनेकी घटना ईसासे पूर्व ७७० वर्ष में घटित हुई मानना ठीक जंचता है और इस दशामें भगवानका जन्म ईसासे पूर्व ८७० वर्ष में, गृहत्याग ईसवीसन्से ८४० वर्ष पहले और केवलज्ञान ईसासे पूर्व चार महीने कम ८४० वर्षमें हुआ सिद्ध होता है। इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथ कब हुये यह स्पष्ट होजाता है।
किन्तु देखना यह है कि यह पर्वतराज श्री सम्मेदशिखिर कहां था कि जहांसे भगवानने मोक्षलाभ किया था। आजकल हजारीबाग निलेका सम्मेदाचल ही यह पर्वत माना जाता है और हजारों श्रावक प्रतिवर्ष उसकी वंदना करने जाते हैं। प्राचीनकालसे इसीको सम्मेद शिखिर मानकर लोग यात्रा करने आते थे, यह प्रकट है । 'उत्तर पश्चिमसे आनेवाले पटना और नवादासे खड़गदिह होकर पालगंज आते थे । वहांसे यह पर्वत निकट ही है। दूसरी ओर दक्षिण और पूर्वके यात्री उस सड़कसे आते थे जो मानभूमके जैयुर स्थानसे चल कर नवागढ़ होती हुई पालगंजको जाती है । ये सड़कें सन् १७७० ई० से पहले काममें आतीं थीं। अतएव यही प्रतिभाषित होता है कि जिस पर्वतसे भगवान पार्श्वनाथनीने मोक्षलाभ किया था वह यही पर्वत है । पहलेके एक परिच्छेदमें रावणकी दिग्विजयका उल्लेख करते हुए भी यह देखा जाचुका है कि आधुनिक हिमालय और मध्यप्रान्तके बीचवाली पृथ्वीमें कहीं पर सम्मेदाचल था । माहिष्मती नगरसे चलकर रावणको कैलाश पहुंचने के
१-भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० १११-११४ । २-बंगाल बिहार जैन स्मारक पृ. ४० ।
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३७६ ]
भगवान पार्श्वनाथं ।
'पहले सम्मेदशिखर के दर्शन होगये थे । अस्तु; यह मानना ठीक है कि आजकलका सम्मेदशिखर या पारसनाथ हिल ही प्राचीन सम्मेदाचल है ।
०
भगवान् पार्श्वनाथके निर्वाणस्थान होनेकी अपेक्षा ही सम्मेदशिखिर अधुना पारसनाथ हिलके नामसे प्रख्यात है । यह विहारओड़ीसा प्रान्तस्थ छोटेनागपुर के हजारीबाग में २३ - ९८' उत्तर और ८६ - ८' पूर्व अक्षरेखाओंपर स्थित है । क्रूकसाहब इसकी प्रशंसा इन शब्दों में करते हैं कि - "पर्वत संकीर्ण पर्वतमाला से वेष्टित है, जिसमें अनेक शिखरें हैं । यह पर्वतमाला अर्धचंद्राकार है और सबसे ऊंची चोटी ४४८० फीट की है । यह जैनियोंके तीर्थस्था-नोंमेंसे एक है। जैनी इसे सम्मेदशिखिर कहते हैं । इस पर्वत पर से बीस तीर्थंकर मोक्ष हुये बतलाये जाते हैं । इसका 'पारसनाथहिल' नाम २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथकी अपेक्षा ही पड़ा है। जैन संप्रदायकी जो एकान्तवासकी प्रकृति है उसीके अनुसार उनने इस निरापद स्थानको जिसके प्राकृत सौन्दर्य को देखते हुये ठीक ही अपना पवित्रस्थान माना है । मधुपुरसे चलकर जब तीन मील पर्वतपर चढ़ जाते हैं तो झट एक मोड़के साथ ही जैनमंदिर दृष्टि पड़ने लगते हैं। यहां से मंदिरोंकी तीन पंक्तियां एक दूसरे के ऊपर स्थितसी नजर पड़ती हैं; जिनमें करीब पन्द्रह चमकती हुई शिखिरें दिखाई देती हैं । इन शिखरों पर सुनहले कलशे चढ़े हुये रहते हैं तथापि श्वेतांबरों के मंदिर में लाल और पीली ध्वजायें फहराती रहती हैं । यह सब ही पर्वत के श्यामवर्ण में सफेद महलोंका चमकता हुआ बड़ा समुदाय ही दीखता है। यहां तीन मुख्य मंदिर हैं.... (एक पार्श्व
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भगवानका निर्वाणलाभ! [३७७ नाथजीका भी इन्हींमें है) इन मंदिरोंमें अव योरूपियन लोगोंके पहुंचनेकी मनाई है, किन्तु सन् १८२७ ई०में एक इग्रेजने इनके दर्शन किये थे। उन्होंने पाश्वनाथ भगवानकी नग्न मूर्तिको ध्यानाकारमें उनके सर्पचिन्हसे मंडित यहां पाया था । समूचे पर्वतपर
और बहुतसे मंदिर हैं, जिनकी प्रत्येक जैनी अवश्य ही वंदना करता है। यह प्रवर्ति भगवान् पाश्वनाथनीके मंदिरकी वंदना और पर्वतकी परिक्रमाके साथ पूर्ण होती है, परिक्रमा करीब तीस मीलका है ।"२ यहां सर्व प्राचीन मंदिर १७६५ ई की है। दिगम्बर सम्प्रदाय भी यहां प्राचीनकालसे पूजा-वन्दना करती आई है और मूलमें इसी संप्रदायकी प्रतिमा श्री पार्श्वनाथनीकी टौंकपर विराजमान रही हैं। इस भव्य स्थानके दर्शन करते ही आनन्दसे शरीर रोमांच हो उठता है, और यात्री पुलकितवदन हो सारे दुःखसंकट भूल जाता है। तीर्थकर भगवान्के चरणकमलोंसे पवित्र हुआ स्थान अवश्य ही अपना प्रभाव रखता है। जिन बुरी आदतोंको मनुष्य अन्यत्र लाख प्रयत्न करनेपर भी नहीं छोड़ता उन्हींको वह यहां बातकी बातमें त्याग देता है । यह इस पुण्य स्थानका पवित्र प्रभाव है, जैनियोंमें इसका आदर विशद है । प्रत्येक जैनीको विश्वास है कि इसकी
6-In recent times no European has been allowed to enter the temples; but a visitor, who examined them in 1827 found the image of Parsvanath to represent the saint, sitting naked in the attitude of meditation, his head Shielded by the snake, which is his special emblcm. "-W. Crooke. in ERE. ... २-इन्साइल्कोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथिक्स-पारसनाथहिल ।
३-० बि. के. जैनस्मार्क पृ० ४० । .
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३७८] भगवान पार्श्वनाथ । एकवार वन्दना करनेसे ही दुर्गतिका वास छूट जाता है। इस तरह भगवानके पवित्र निर्वाण धामका परिचय है। ___भगवानके निर्वाण कल्याणकके दिग्दर्शन करके प्रत्येक हृदय अपनेको क्रत ऋत्य मानता है । इस परिच्छेदमें उसोके परोक्षदर्शन होरहे हैं और यह आत्म-कल्याणका प्रकट कारण है। इसके स्मरण मात्रसे ही सुखोंकी प्राप्ति होती है; क्योंकि जिनेन्द्रदेवकी भक्ति सर्व सुखोंको प्रदान करनेवाली है । इसलिए श्री जिनेन्द्र भगवान पार्श्वनाथजीके प्रति वारम्बार नमस्कार है ।
(२५) তালু ঘুমুল জীহ মুৱাৰীবাসী,
“पार्श्वेशतीर्थसन्ताने पंचशदद्विशताब्दके । तदभ्यन्तरवार्युमहावीरोत्र जानवान् ॥ २७९ ॥"
-उत्तरपाण । भगवान् पार्श्वनाथजीको मुक्तिलाभ होगया; किन्तु फिर भी उनका तीर्थ महावीर स्वामीके जन्म समय तक चलता रहा । भगवान् पार्श्वनाथसे महावीर स्वामी ढाई सौ वर्ष बाद हुये थे। इस अन्तराल कालमें उनकी आयु भी गर्भित थी। भगवान् पार्श्वनाथः वर्तमान युगके २३ वें तीर्थङ्कर थे और भगवान महावीर २४ वें अथवा सर्व अन्तिम तीर्थंकर थे। प्रत्येक युगमें सनातन रीतिसे चौवीस तीर्थंकर होते हैं । इनका परस्पर संबंध जाहिरा कुछ नहीं होता ! यह एक समान महान् पुरुष होते हैं । इसीतरह भगवान पार्श्वनाथ भी एक जीवित परमात्मा थे और अनुपम थे। और महावीर
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भगवान पार्थ व महावीरजी। [३७९ स्वामी भी सशरीरी परमात्मा और लासानी थे। हां, प्रत्येक तीर्थकरका संबंध होता है तो केवल इतना ही कि पूर्वागामी तीर्थ करकी शिष्यपरंपरा उपरान्तके तीर्थकरकी शरणमें स्वतः पहुंच जाती है। वह पूर्व तीर्थकरके पवित्र मुखसे परंपरीण यह सुन चुकती है कि आगामी अमुक तीर्थकर होंगे उनके द्वारा जैनधर्मका उद्योत पुनः होगा उसी अनुरूप उन तीर्थकरके शिष्य आगामी तीर्थकरके आगमनकी वाट जोहते रहते हैं। उनके आगमनके साथ ही वे उनकी शरणमें पहुंच जाते हैं । प्राकृत एक तीर्थकरके समागमसे विलग होकर वे दूसरे तीर्थकरके ममागममें पहुंचनेके उत्सुक रहते हैं। उनके लिये यह आवश्यक नहीं होता है कि वे अलग बने रहें । उनको तो तीर्थकर भगवान के आमनकी उत्कण्ठा रहती है और उसी अनुरूप वे उनकी शरण मे स्वतः ही पहुंच जाते हैं। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर स्वामीके विषयमें भी यही हुआ था। पार्श्व भगवानसे ८३७५० वर्ष पहले श्री नेमनाथ स्वामीने, नो २२वें तीर्थकर थे, अपनी दिव्यध्वनिसे यह बतला दिया था कि आगामी इतने२ अन्तरालकालसे पार्श्व और वईमान नामक दो तीर्थकर और होंगे। साथ ही उनने इन तीर्थ- - करोंकी खासर जीवन घटनाओंको भी बता दिया था । यही बात भगवान् महावीरजीके सम्बन्धमें हुई थी। भगवान् पार्श्वनाथजीके मुखारबिंदसे लोगोंको मालूम पड़ गया था कि अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीरस्वामी द्वारा एकवार जैनधर्मका उद्योत होना और शेष : है। जिस तरह भगवान महावीरके उपदेश अनुसार अाज हमको
१-हरिवंशपुराण पृ० ५६६-५७६ । ।
१२
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३८० ]
भगवान पार्श्वनाथ । आगामो होनेवाले तीर्थकरों के नाम आदिका पता चल चुका है, उसी तरह पार्शनायनीकी शिष्यपरंपराको महावीर स्वामीके होनेका परिचय मिल चुका था । इसलिये भगवान पार्श्वनाथ नीकी शिष्यपरंपराके शिष्य भगवान् मह वीरके आगमनकी बाट जोह रहे थे और वे स्वतः उनकी शरणमें आये थे।
किन्तु किन्हीं अजैन विद्वानोंका यह अनुगन है कि भगवान् 'पार्श्वनाथ और महावीरस्वामीके तीर्थकरपनेमें अन्ता था और इन दोनों तीर्थंकरोंके शिष्य भगवान् महावीरस्वामीके ममयमें भी अलग थे; यद्यपि वे आखिर दोनों मिलकर एक हो गये थे। इसके लिये वे श्वे के उत्ताध्ययनसुत्रकी वह घटना उपस्थित करते हैं जो श्री गौतमम्वामी और केशी श्रमणके संवाद रूपमें वहां मिलती है। डॉ. बेनीमाधव बारुआ महोदय, इसी बातको लक्ष्य करके दोनों तीर्थकरोंके आपमी सम्बन्धको इन शब्दोंमें प्रकट करते हैं । वे लिखते हैं कि-" महावीर स्वयं अपने शिष्योंमें निगन्ठ अथवा निग्रंथ नामले परिचित थे। यही नाम अर्थात् 'नग्रन्थ पाके तीर्थ संघपे भी लागू था, जिन्हें जैनी २३वें तीर्थ कर बतल ते हैं। यहां यह प्रश्न समु चत है कि वस्तुतः महावीरके सैद्धांतक पूर्वागामीरूपमें क्या पार्श्व स्वीकार किये जा सक्ते हैं ? नाहिरा नहीं; क्योंकि ऐसा कोई भी माधन प्राप्त नहीं है जिससे पार्श्व एक सिद्धान्तवेत्ता (Phil sopher) प्रमाणित हो सकें । पार्श महावीरके पूर्वागामी अवश्य थे. किन्तु एक विभिन्न प्रकारके ! वह प्राचीन तापतों की भांतिके एक माधु थे; जिनने कि महावीर और बुरके पूर्वागामी
१-उतगध्ययन सूत्र २३ ।
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भगवान पाच व महावीरजी। [३८१ (निनों, बोधिसत्वों) जैसे मिथिलाके राजा नि मे और अरिष्टनेमिके समान ही त्याग धर्म (Life of renunciation) पर अधिक जोर दिया था । यह विदित होता है कि महावीरने गृह त्यागकर उस संघका आश्रय लिया था जो पात्रके बताये हुये नियमों का पालन करता था। नाथवंशी क्षत्रियोंकी समूची संप्रदाय देखो उवामगदसाओ ६) अथवा महावीरनीके पितृगण तो अवश्य ही (आचारात २॥१५-१६) भगवान पार्श्वके संघके उपासक थे । इस अवस्थामें यह अनुमान करना सुगम है कि महावीरकी दृष्टि स्वभावतः पार्श्वसंघकी ओर गई होगी। ( हार्ट ऑफ जैनीज्म ४० ३१ ) प्रो. जैकोषाने पार्श्व और महावीर तीर्थकरोंके पारस्परिक सम्बन्धपर ठीक प्रकाश डाला है । (जैन सूत्र S. B. E भाग २४० १९-२२ भूमिका ) उनने ठीक ही कहा है कि पहले दो विभिन्न नर्गन्थ संघ थे, जिनके सिद्धान्तोंमें केवल 'चार व्रत' अथा 'चार निया' ही समान थे। और आखिर इसी भेदके कारण उपांत दो बड़े भेद हो गये थे । ' सामन्नफलसुत्त' नामक बौद्ध ग्रन्थमें जो सिद्धान्त महावीरका बताया गया है उसे मूलमें कमसे कम 'चातुयाम् संवर शब्दरूपमें तो अवश्य ही पावका बताना उक्त प्रो० सा०का ठोक है। इस सिद्धान्तमें बताया गया है कि महावीरजीके अनुपार मात्म-संयम, आत्म निग्रह और ध्यानं एकाग्रताका मार्ग 'चातुर्यामसंवर'में सीमित है। यह संवर पानीके व्यवहारसे विलग रहने, पापसे दूर रहने आदि रूप है।....प्रो बीस डे वेड्मने प्रो० कोबीके भावको समझा नहीं है, तब ही वह कहते हैं के 'उनके मतसे चार नियम पार्श्वके चार त थे। प्रो. जैकोबीने यह कहीं नहीं
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३८२]
भगवान पार्श्वनाथ
दहा है । .... इस तरह जैकोबीके साथ यह मानना ठीक है कि. सामन्तफलसुतमें जिन चार नियमों का उल्लेख किया गया है वह गलत है और जो सिद्धांत महावीरका बताया गया है वह न उनका. है और न उनके पूर्वागामी तीर्थंकरका; यद्यपि उसमें किसीके विरुद्ध भी कुछ नहीं है । क्योंकि जैन ग्रन्थोंके अतिरिक्त बौद्धोंके मज्झिमनिकाय (२/३१ - ३६ के एक सूत्रसे ज्ञात होता है कि महावीरकी दृष्टिमें मोक्षमार्ग अहिंसा, अचौर्य, शील, सत्य और तपोगुण जैसे नग्नपरीषह, उपवास, आलोचना आदि रूप था । .... इसलिये जैन और बौद्ध दोनोंके आधारसे यह कहा जासक्ता है कि इनमें से पहलेके चार नियमोंका विधान पार्श्व द्वारा हुआ था और उनमें अंतिम महावीरजी द्वारा बढ़ा दिया गया है ।
"अब अपने २ समयके प्रतिष्ठित तीर्थंकरों, पार्श्व और महावीरका पारस्परिक अन्तर स्पष्ट नजर पड़ता है अथवा यूं कहिये कि अब इस प्रश्नका उत्तर दिया जा सक्ता है कि वस्तुतः क्या पार्श्व महावीरके सैद्धांतिक पुर्वागामी पुरुष थे ? पार्श्वका जो थोड़ासा जीवन विवरण प्राप्त है वह स्पष्ट दिखलाता है कि वह अमलीकाकी ओर अधिक रुचि रखते थे । उनका व्यवस्थापक गुण उल्लेखनीय था । जिस संघकी स्थापना उनके द्वारा हुई थी वह अपने उच्च और कठिन दर्जेके साधु चारित्रके लिए प्रख्यात रहा था । उनने चार नैतिक नियमों का पालन करना अपने शिष्योंके लिए: ख्यावश्यक बतलाया था । इन्हीं नियमोंका पालन करना बुद्ध और महावीर ने भी उचित ठहराया था । पार्श्वके विषय में यदि इन्हीं चार नियमों में उनके चारित्र विधानका अन्त समझ लिया जाय, तो
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भगवान पार्श्व व महावीरजी ।
[ ३८३ ठीक न होगा । वस्तुतः इनके अतिरिक्त उनके चारित्रविधान में अनेक नियम साधु और उपासकोंके लिए और थे। यह कहना भी अत्युक्ति नहीं रक्खेगा कि निगन्थसमाजके समग्र चारित्रनियम पार्श्व और उनके शिष्यों के अनुसार थे । किन्तु इस चारित्रनियमके साथ एक और कठिन नैतिक नियमावली विनयवाद या शीलव्रत थी. जिसको महावीर और बुद्धने एक स्वरसे उचित ठहराया था। दूसरे शब्दों में पार्श्वके चारित्रनियम यद्यपि अच्छे थे, परन्तु उनके निर्माणक्रम और औचित्य दर्शानेके लिये सैद्धांतिक व्यवस्था की आवश्यक्ता भी; जिससे वे उछृंखल न जंचे और समाजकी सुविधा में भुला न दिये जांय । .... (उत्तराध्ययनके संवादसे स्पष्ट है कि, पार्श्वका केवल एक धार्मिक संघ था जबकि महावीरका केवल एक धार्मिक संघ ही नहीं बल्कि एक सैद्धांतिक मतका पृथक् दर्शन थे) ।"
इसके अगाड़ी डॉ० बारुआ महावीरस्वामीका सैद्धांतिक गुरु गोशालको अनुमान करते हुए कहते हैं कि - "जब कालान्तर में महावीर अपना नया संघ स्थापित करने में सफल हुए और उसे कुछ अंश में आजीवकों के समान और शेषमें पार्श्वके शिष्यों के अनुसार रक्खा तो दोनों (निर्ग्रन्थ) संघों में प्रगट भेद नजर पड़ने लगा । जब कि नवीन संघकी सैद्धांतिक उत्कृष्टता पुराने संघको अन्धकार में डाल रही थी, तब उसके अनुयायियोंने किसी तरह अपने अस्तित्वको बनाये रखना आवश्यक समझा था | जाहिरा प्रतिरोध अथवा प्रति स्पर्धा इसका उपाय न था । उपाय केवल समझौते में था ! उत्तराध्ययन के सम्बादसे प्रगट है कि एक समय अवश्य ही पुराने संघके
१ - दी हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी पृ० ३७७-३८० ॥
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भगवान पार्धनाय । अनुयायी समझौतेकी फिकरमें थे।...बौद्धोंके पासादिक और सामगाम सूत्रोंसे उस समयका भी पता चलता है जबकि महावीरजीकी मुक्तिके साथ ही उनके शिष्य दो भागोंमें विभक्त हो गये थे । पार्श्वके अनुयायियोंको इस समझौतेसे नये संघके सिद्धान्तवाद (Philosophy)को पानेका लाभ हुआ था ।"'
इस समस्त कथनमें इन बातोंको प्रगट किया गया है कि:
(१) भगवान पार्श्वनाथ यद्यपि महावीरस्वामीके पूर्वागामी तीर्थंकर थे; परन्तु उनके निकट वह सिद्धांतवाद उपस्थित न था जो. महावीरस्वामीके निकट था।
(२) महावीरस्वामीने पार्श्वनाथनीके संघका आश्रय लिया था । उपरांत उससे सम्बन्ध विच्छेद करके वे मक्खलिगोशालके साथ रहे थे; जिससे नग्नदशा आदि नियम ग्रहण करके उनने अपना नवीन संघ स्थापित किया था।
(३) महावीरजीके समय में भी निर्ग्रन्थ संघ पृथकर मौजूद थे, जिनमें 'चतुर्यामव्रत' अथवा 'चतुर्यामसंवर' समान थे ।
(४) 'सामन्न फलसुत्त' में चतुर्यामसंवरमें जो बातें गिनाई गई हैं वह ठीक नहीं है। वह न महावीरस्वामीके धर्मोपदेशमें मिलती हैं और न पार्श्वनाथजीके । तथापि चातुर्यामसंवर नियम महावीरका बतलाना गलत है। वह केवल चातुर्याम रूपमें पार्श्वनाथनीसे लागू है, जिसका भाव पार्श्वनाथजीके चातुर्यामव्रत, जिसका उल्लेख श्वेतांबरोंके 'उत्तराध्ययन सुत्र' में है, उससे है। महावीरस्वामीने इन व्रतोंमें अंतिम अर्थात् पांचवा व्रत स्वयं बढ़ा दिया है और उनका
२-पूर्वपुस्तक पृ० ३८३॥
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भगवान पार्श्व व महावीरजी ।
[ ३८५
विवेचन सैद्धांतिक ढंगसे किया है। शीलव्रत नियम भी उनके खास थे । प्रो० हीस डे विड्स जो प्रो० जैकोबीको चातुर्याम नियमसे पार्श्वनाथजीके चार व्रतोंका भाव ग्रहण कहते बतलाते हैं वह गलत है । और (५) पार्श्वनाथजीके और महाबीरस्वामीके संघों में परस्पर 1 प्रगट भेद था, जिसके कारण यद्यपि पहले दोनों संघ अलग थे; परन्तु उपरांत वे एक होगये । आखिर महावीर स्वामी के निर्वाणके. उपरांत ही वह फिर दो भागों में विभक्त होगये; जैसे कि बौद्धोंके ग्रन्थोंसे प्रगट है ।
अतएव आइये पाठकगण ! इन पांच बातोंके औचित्यपर भी एक दृष्टि डाल लें । उपरोक्त कथन में भी पार्श्वनाथजीको महावीर - स्वामीका पूर्वागामी तो स्वीकार किया गया है, परन्तु उनको एक सामान्य साधु बतलाया है, जिनको अपने संघकी व्यवस्था और चारित्र नियमोंसे ही मतलब था । सिद्धांतवाद (Philosophy) न उनके लिये आवश्यक था और न वह उनके निकट मौजूद था। कोई भी ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि पार्श्वनाथस्वामी एक सैद्धांतिक वक्ता अथवा तत्त्ववेत्ताः (Philosopher ) थे; किन्तु इसके साथ ही ऐसा भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है जो जैनियोंकी मान्यताको गलत ठहराकर भगवान् पार्श्वनाथ के निकट सिद्धांतवाद नहीं था, यह प्रगट कर सके । प्रत्युत डॉ० हेल्मुथ वॉन लगेसेनप्पने यही प्रगट स्वीकार किया है, जैसे कि हम पहिले देख चुके हैं कि जैनधर्मके 'मूल तत्वोंमें कोई स्पष्ट फर्क हुआ, ऐसा माननेका कोई कारण नजर नहीं आता और इसलिये महावीरस्वामी के पहले भी जैन दर्शन था, ऐसी जैनोंकी
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- ३८६] , भगवान् पार्श्वनाथ । मान्यता स्वीकार की जासक्ती है।....जैनधर्मका स्वरूप ही इस बातकी पुष्टि करता है। क्योंकि पुद्गलके अणु आत्मामें कर्मक' उत्पत्ति करते हैं, यह इसका मुख्य सिद्धांत है और इस सिद्धांतकी प्राचीन विशेषताके कारण ऐना अनुमान किया जासक्ता है कि इसका मूल ई. सन्के पहले ८वीं शताब्दिमें हैं।''
प्रो० डॉ० जार्ल चारपेन्टियर भी स्पष्ट लिखते हैं कि 'पार्श्वकी शिक्षाके सम्बन्धमें हमें विशेष अच्छा परिचय मिलता है । यह प्रायः खामकर वैसी थी जैसी कि महावीर और उनके शिष्योंकी थी ?' (देखो केम्बिन हिस्ट्री आफ इन्डिया भाग १ ४० १५४) भारतीय अणुवाद (Atomic Theory)का इतिहास भी जैनदर्शनकी प्राचीनताको प्रगट करता है जैसे कि ऊपर डॉ० ग्लेसेनप्पने व्यक्त किया है । सचमुच भारतीय दर्शनोंमें जैनदर्शनमें ही इस सिद्धान्तका निरूपण सर्व प्राचीन मान्यताओंके आधारपर किया गया है। हिन्दुओं में केवल वैशेषिक और न्यायदर्शने इसको स्वीकार किया है; परन्तु वहां वह प्राचीनरूप इसका नहीं मिलता है जो जैन धर्ममें प्राप्त है । (देखो इन्साइक्लोपेडिया आफ रिलीजन एण्ड ईथिक्स भाग १ पृ० १९९-२००) इसलिये यह सिद्धान्त भगवान् महावीरके पहलेसे जैनदर्शनमें स्वीकृत था, यह स्पष्ट है । साथ ही बौद्धोंके मज्झिमनिकाय (भाग १ ४० २२५-२२६) में निर्ग्रन्थ पुत्र सच्चाका कथानक दिया है, जिसमें उसके बुद्धसे सैद्धांतिक विवाद. करनेका उल्लेख है । यह निर्ग्रन्थपुत्र बुद्धका समसामयिक था। इस कारण इसका पिता म० बुद्धसे पहले ही मौजूद होता
I-Glassenapp Ephemerides Orient : 25. P. 13.
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भगवान पार्थ व महावीरजी! [३८७ प्रमाणित है । इस अपेक्षा प्राचीन जैनधर्ममें भी सैद्धांतिक विज्ञान होनेका समर्थन होता है । दूसरे शब्दोंमें भगवान पार्श्वनाथके निकट भी जैन दर्शन मौजूद था, यह स्पष्ट होजाता है ।
तिसपर स्वयं डॉ० बारुआने भगवान् पार्श्वनाथमी द्वारा किये हुये जीवोंके षटू काय भेदको स्वीकार किया है। अब यदि उनके मतानुसार यह मान लिया जाय कि भगवान् पार्श्वनाथजीके पास कोई सैद्धांतिक क्रम पदार्थ निर्णयका नहीं था, क्योंकि वे तत्ववेत्ता ही नहीं थे, तो फिर यह कैसे संभव है कि उनने जीवोंका षटकायभेद निरूपित किया हो ? इससे तो यही प्रगट होता है कि पार्श्वनाथनीने अवश्य ही पदार्थनिर्णयरूप एक सिद्धांतवादका निरूपण किया था। जब कि जैनशास्त्रोंमें भगवान् पार्श्वनाथ और महा. वीरस्वामीके धर्मोपदेशमें पारस्परिक अन्तरको स्पष्ट बतलाया गया है, तब यह कुछ नीको नहीं लगता कि उन्होंने इस भारी भेदको प्रगट करना आवश्यक न समझा हो ! प्रत्युत बौद्ध शास्त्रोंके उल्लेखोंसे अन्यत्र हम देख चुके हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ नीके शिष्यगण स्वतंत्र रीतिसे आत्मवादको सिद्ध करते थे और उनमें वादी भी थे। तिसपर पूर्वप्टष्ठोंमें जो हम भगवान् पार्श्वनाथनीके समय एवं उनके बादके मुख्य मत प्रवर्तकोंके सिद्धांतोंपर भगवान् पार्श्वनाथनीके सैद्धांतिक उपदेशका प्रभाव पड़ा देख चुके हैं, उससे स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा भी वैसा ही जैन दर्शन निरुपित हुआ था जैसाकि भगवान महावीरजीकी दिव्यध्वनिसे प्रगट
१-प्री-बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी पृ. ३०३ । २-इंडियन . हिस्टॉरीकल क्वाटि- भाग २ पृ. ७०८-७०९ ।
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३८८]. भगवान पार्श्वनाथ । हुआ था । तीर्थंकरोंके धर्मोपदेशमें मूलतत्वोंकी स्थापना एक समान होती है, यह हम पहले ही देख चुके हैं। इसलिए यह मानना कुछ ठीक नहीं जंचता कि भगवान् पार्श्वनाथजी द्वारा सिद्धांतवादका प्रतिपादन नहीं हुआ था और वे एक सिद्धांतवेत्ता नहीं थे।
किन्तु डॉ. बारुआने यह निष्कर्ष उत्तराध्ययनके उस अंशसे निकाला है जिसमें कहा गया है कि 'पहलेके ऋषि सरलथे, परन्तु समझके कोता थे और पीछेके ऋषि अस्पष्टवादी और समझके कोता थे; किन्तु इन दोनोंके मध्यके सरल और बुद्धिमान थे।....पहलेके. मुश्किलसे धर्म-वोंको समझते थे और पीछेके मुश्किलसे उनका आचरण कर सकते थे । परन्तु मध्यके उनको सुगमतासे समझते
और पालते थे। इसके साथ ही दिगम्बरोंके 'मूलाचार' जीमें भी करीब२ ऐसा ही कथन मिलता है, जैसे कि पूर्व में देखा जाचुका है। वहां लिखा है कि आदि तीर्थमें शिष्य मुश्किलसे शुद्ध किये जाते हैं, क्योंकि ये अतिशय सरल स्वभावी होते हैं। और अन्तिम तीर्थमें शिष्यजन कठिनतासे निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे अतिशय वक्र: स्वभाव होते हैं। साथ ही इन दोनों समयोंके शिष्य स्पष्टरूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते हैं।' इन कथनोंसे अवश्य ही यह प्रमाणित होता है कि मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके शिष्य, जिनमें भगवान पार्श्वनाथ नीके शिष्य भी सम्मिलित हैं सरल, बुद्धिमान् और धर्मको नियमित ढंगसे पालनेवाले थे । वे उसप्रकार वक्र नहीं थे
और न उतनी हील हुज्जत धार्मिक विषयोंमें करते थे जितनी कि पहले श्री ऋषभदेव और अन्तिम श्री वर्धमान स्वामीके शिष्य
१-उत्तराध्ययन २३ ।
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भगवान पार्श्व व महावीरजी ! [३८९ करते थे। इसलिये अवश्य अंतिम तीर्थंकरके शिष्यों को विशेष रीतिसे धार्मिक क्रियायोंको समझानेकी आवश्यक्ता युक्तियुक्त प्रगट होती है; परन्तु इसके माने यह नहीं होसक्ते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथने जैन सिद्धांत अथवा दर्शनका निरूपण नहीं किया था। जैनसिद्धांतका निरूपण तो उनने प्रायः उसी तरह किया था जिस तरहभगवान महावीरने किया था। हां, उनके शिष्य सचमुच इतने सरल और बुद्धिमान थे कि उनको समझानेके लिये उन्हें उतना अधिक प्रयत्न नहीं करना पड़ता था । इसलिये जैनशास्त्रोंके उपरोक्त कथनोंसे यह प्रमाणित नहीं होता कि भगवान पार्श्वनाथनीने दर्शनवाद (Philosophy) का प्रतिपादन ही नहीं किया था । डॉ० बारुआ यद्यपि करीब२ सत्यकी तहतक पहुंचे हैं; परन्तु उनने शिष्योंकी सरलता और बुद्धिमत्ताके कारण भगवान् पार्श्वनाथ नीके निकट दशनवाद न मानने में अत्युक्तिसे काम लिया है यह कहनेके लिये हम बाध्य हैं । भगवानकी दिव्य ध्वनिसे तत्वों का निरूपण अवश्य हुआ था।
दूसरे महावीरस्वामीको पहले पार्श्वनाथनीके संघमें सम्मिलित होने और फिर अलग होकर आजीविकसंघमें मिलने की बात भी कोरी कल्पना है । उसके लिये कोई भी जैन अथवा अजैन प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अवश्य ही जैनशास्त्र कहते हैं कि नाथवंशी क्षत्री और भगवान् महावीरके पितृगण भगवान् पार्श्वनाथके संघके उपासक थे; किन्तु इसके साथ ही वे भगवान् महावीरको एक स्वाधीन श्रमण होनेका भी उल्लेख करते हैं, क्योंकि तीर्थकर भगवान् 'स्वयंबुद्ध' होते हैं । वे दूसरों को अपना गुरु नहीं बनाते हैं। यही 'बात भगवान महावीरके सम्बन्धमें जैनशास्त्रोंमें कही गई है। उनको
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३९० ] भगवान पार्श्वनाथ । वहां केवल सिद्धों को नमस्कार करके श्रमण धर्मका अभ्यास करते लिखा गया है। इस हालत में जैन ग्रन्थों के बल पर यह नहीं कहा जा सक्ता कि महावीरस्वामीने पहले श्री पार्श्वनाथनीके संघका आश्रय लिया था। हां, आनकलके विद्वान अवश्य ऐसी कल्पना करते हैं
और इस कल्पनामें कितना तथ्य है, यह उपरोक्त पंक्तियोंसे स्पष्ट है । इसके साथ ही आजीविक संप्रदायके नेता मक्ख लिगोशालको महावीरस्वामीका गुरू बतलाना भी निराधार है । जैन अथवा अजैन शास्त्रोंसे यह सम्बन्ध ठीक सिद्ध नहीं होता ! श्वेताम्बरोंके 'भग. वतीसूत्र के कथनको यथावत् ऐतिहासिक सत्य स्वीकार किया ही नहीं जा सक्ता, यह बात स्वयं डा० बारुआने स्वीकार की है। उसका कथन स्वयं अपने एवं अन्य वे० ग्रन्थोंके कथनसे विलग पड़ता है । इसलिये उसके कथनसे इतना ही स्वीकार किया जा सक्ता है कि गोशालका जैन धर्मसे सम्बन्ध था और महावीरजीके केवलज्ञान कल्याणकके पहलेसे वह अपनेको 'जिन' घोषित करने लगा था । उसके सिद्धान्तोंपर जैनधर्मका प्रभाव पड़ा था-बलिक उसका मत जैन धर्मसे ही निकला था, यह हम पहले और अन्यत्र दिखला चुके हैं। इसलिये उसका प्रभाव महावीरनी पर पड़ा हो, यह स्वीकार नहीं किया जासक्ता ! जब भगवान महावीरजीका दिव्य प्रभाव म° बुद्ध जैसे बड़े और प्रभावशाली मतप्रवर्तक पर पड़ा था,
१-उत्तरपुराण पृ० ६१०, भगवान् महावीर पृ० ९३ और जैनसूत्र (S. BE.) भाग १ पृ. ७६-७४।२-आजीविक्स भाग १ पृ० १०॥ ३-उवासगदसाउ ( Biblo. Indica ) परिशिष्ट पृ० १११ । ४-भगवान् महावीर पृ० १७३ और वीर वर्ष ३का जयंती अंक । ५-भगवान मह वीर और मा बुद्ध पृ० १०३-१०६
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भगवान पार्थ व महावीरजी! [३९१ तब फिर भला यह कैसे संभव है कि मक्खलिगोशालने अंतिम जैन तीर्थकरको प्रभावित किया हो ? महावीरजीपर गोशालका सबसे बड़ा पड़ा हुआ प्रभाव ' नग्नदशा' का बतलाया जाता है। कहा जाता है कि नग्न वेष उनने गोशालसे लिया था। किन्तु यह कथन स्वयं 'भगवतीसूत्र' से बाधित है, जिसके आधारपर ही यह मत स्थापित किया गया माना जाता है। उसमें स्पष्ट कहा है कि जिस समय गोशाल महावीरजीके पाप्त दीक्षा याचनाके लिये आया था, उस समय वह बस्त्र पहिने हुये था। साथ ही बौद्ध ग्रन्थोंसे प्रकट है कि वह पहले वस्त्रधारी था किन्तु उपरांत अपने मालिकके पाससे नग्न वेषमें ही भाग जानेसे वह नग्न होगया था। इससे भी प्रगट है कि वह पहले नग्न नहीं था; परन्तु वौद्धोंकी यह कथा विश्वासके योग्य स्वीकार नहीं की गई है । इसलिये इसका कुछ भी महत्व नहीं है । 'भगवती सूत्र' की कथा और यह कथा दोनों एक ही कोटिमें रखने ये ग्य है। किन्तु इसके विपरीत दिगम्बर जैन शास्त्र 'दर्शन सार' की साक्षी विशेष प्रामाणिक है। बेशक यह ग्रन्थ नवीं शताब्दिका है, परन्तु इसका आधार एक प्राचीन ग्रन्थ है। एक तरहसे यह प्राचीन मतोंका संग्रह ग्रन्थ है और इसतरह विश्वासके योग्य है तिसपर उसमें जो बातें म० बुद्धके बारेमें कही गई हैं, वह प्रायः बिलकुल सत्य ही प्रमाणित हुई हैं। इस कारण हम इस दिगंबर
१-जैनसूत्र (S. B. E.) भूमिका और आजीविक भाग १ । २-उवासगदसाओ (Biblo. Ind.) परिशिष्ट पृ० ११० । ३-आजी. विक्स भाग १ पृ० ११।४-जैनहितैषी वर्ष १३ अंक ६-७ पु० २६२। ५-भगवान् महावीर और म० बुद्ध पृ० ४९-५० ।
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भगवान पार्श्वनाथ । जैन ग्रन्थको ऐतिहासिक को टका एक प्रामाणिक ग्रन्थ माननेको बाध्य हैं। इसमें मक्खलिगोशालको भगवान पान थनीके तीर्थका श्रमण बतलाया है और वह भगवान महावीरजीके समशरणसे दिव्यध्व'न खि नेके पहले ही रुष्ट होकर अज्ञानवादका प्रचार करने लगा था, यह कहा है, जैसे कि पहले देखा जा चुका है। इस अवस्थामें यह बात ठीक नहीं बैठती कि भगवान महावीरजीने मक्खलिगोश लमे कुछ ग्रहण किया हो । उपरोक्त दिगम्बर शास्त्रके मतसे भी यह प्रगट है कि भगवान महावीरजीके धर्मोपदेशके पहलेसे ही मक्खलिगोशाल अपने मतका प्रचार करने लगा था; यद्यपि वह अन्तर विशेष न था।
माथ ही दि० शास्त्रोंमें भगवान पार्श्वनाथ अथवा उनके शिष्यों को वस्त्रगारी नहीं बताया गया है । यह केवल श्वेतांबरोंकी मान्यता है कि भगवान पार्श्वनाथ और उनके शिष्य स्त्र धारण करते थे; यद्य प उनके आचागंगसूत्र में नग्न वेषको ही सर्वोच्च श्रमण दशा बतलाई है' और तीर्थकरोंने उसे धारण किया था, यह कहा है। उनके उत्तराध्ययन सूत्र' में जहां के सी श्रमणको बिलकुल ही आमानीसे इस मतभेदका समझौता करते लिखा है, वह जरा जीको खटकता है । जब केसी श्रमणको यह विश्वास था कि वस्त्रधारी दशासे मुक्तिलाभ हो सक्ता है; तब फिर उनको यह क्यों आवश्यक था कि वे नग्नवेष धारण करके वृथा ही इस कठिनाईको मोल लेते ? यदि यह कहा जाय कि उप समय भगवान् महावीर
१-जैनसूत्र . S. B. E. ) भाग १ पृ. ५५-५६ । २-पूर्व. पृ० ५७-५८ ।
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भगवान पार्श्व व महावीरजी। [.३९३ जीके दिगम्बर संघका इतना अधिक प्रभाव बढ़ गया था कि प्राचीन संघको उनसे अलग रहकर अपना अस्तित्व बनाये रखना कठिन था, तो वह भी ठीक नहीं विदित होता, क्योंकि यह तो ज्ञात ही है कि भगवान पार्श्वनाथनीका संघ विशेषर तिमे व्यवस्थित ढंगपर था और उस समय बौद्धादि वस्त्रधारी साधु-संपाय मौजूद ही थे। जिस प्रकार यह बौद्धादि वस्त्रबरी संप्रदाय अपने म्वाध'न अस्तित्वको बनाये रखने में सफल रहे थे, वैसे प्राचीन निग्रंथपंध भी रह सक्ता था। उसके पास अच्छे दर्जेका सिद्धान्त तो था ही, इसलिए ऐसा कोई कारण नहीं था, जिसकी बनहसे उपका नूनमध मिल जाना अनिवार्य था ! इसके साथ ही यह भुल या नहीं जा सक्ता है कि 'उत्तराध्ययन सूत्र' किंवा सर्व ही श्वेताम्बर आगमग्रन्थ सर्वथा एक ही समय और एक ही व्यक्ति द्वारा संकलित नह हुए थे। तथापि उनमें बौद्ध ग्रन्थों का प्रभाव पड़ा व्यक्त होता है । और निप्त समयमें वह क्षमाश्रमग द्वारा लिपिबद्ध फेिये जा'हे थे, उसके किञ्चित पहले एक केशी नामक आचार्य उत्तर भातमें होचुके थे, जो मगधके राजा संग्रामके पुरोहित और बुद्धघोष पांचवी शताब्दि ई०) के पिता थे। यदि यह केशी उत्तर भारतमें बहु प्रख्यात रहे हो और इनका जैन सम्पर्क रहा हो तो कहना होगा कि इन्हीं केशीके आधारसे उक्त आख्यान रचा गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं ! इतना तो स्पष्ट ही है कि केशी नामका एक व्यक्ति देव
१-जैनसूत्र (S B. E. ) की भूमिका प्री बुदेिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० ३७६ । २-जालचारपेन्टियरके 'उधान की भुमेका
और "दिगंबर जैन" वर्ष १९-२०में प्रकट हमारा ले ।। ३-लाइफ एण्ड वर्क आफ बुदघोष पृ० २१ ।
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३९४] भगवान पार्श्वनाथ । .. र्षिगणि क्षमाश्रमणके कुछ पहले अवश्य हो चुका था और प्राचीन एवं नवीन निग्रंथसंघ किंचित नाममात्रका भेद था। अस्तु, जो हो उसको छोड़कर थोड़ी देरको यह मान लिया जाय कि प्राचीन अर्थात पार्श्वसंघमें वस्त्र धारण करना जायन था-दूसरे शब्दोंमें तपश्चर्याकी कठिनाई कम थी-तो फिर बुद्धको अपना एक नूनन संघ स्थापित करने की आवश्यक्ता शेष नहीं रहती; क्यों के बुद्धने तप. चरणकी कठिनाई और ब्राह्मणों के क्रियाकाण्डके खिलाफ अपना मत स्थापित किया था, सो यह दोनों बातें प्रायः उपरोक्त मानतासे उनको प्राचीन निग्रंथसंघमें मिलती ही थीं। इससे भी यही प्रकट होता है कि प्राचीन जैन संघमें भी नग्नवेष ही मोक्ष-लिङ्ग माना गया था। म० बुद्धके पहलेसे ही नग्नवेष आदरकी दृष्टिसे देखा जाता था. यह बात पूर्णकाश्यपके नग्नसाधु होनेके कथान कसे स्पष्ट है । वह नग्न इसीलिये हुआ था कि उसका आदर जनसाधारणमें अधिक होगा। अब यदि भगवान् पार्श्वनाथके द्वारा नग्नवेषका प्रचार नहीं होचुका था, तो फिर नग्नवेषका इतना आदर उस समय कैसे बढ़ गया था ? यह प्रश्न अगाड़ी आता है। हिन्दुओंके उपनिषद कालीन वानप्रस्थऋषि इस वेषके कायल नहीं थे और यह भी प्रगट नहीं हैं कि मक्खलिगोशालके आनीविक पूर्वागामी नग्न रहते थे; प्रत्युत उनको तो 'वानप्रस्थ ढंग' का साधु लिखा है। मग्नवेष, पूर्वोके आठ निमित आदि सिद्धान्त आजीविक संप्रदायमें जैन धर्मसे लिये हुये प्रमाणित होते हैं। इस कारण अन्य कोई
१-भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० ८२-८३ । २-इन्डियन एन्टीक्वेरी भाग ९ पृ. १६२ । ३-आजीविक्स भाग १ पृ. ३।.
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भगवान पार्श्व व महावीरजी । [ ३९५
ऐसा व्यक्ति नहीं दीखता जिसके द्वारा महावीर स्वामीके पहलेसे नग्नवेषका प्रचार किया गया हो, सिवाय भगवान् पार्श्वनाथजीके ! इसलिये हठात यह मानना पड़ता है कि भगवान् पार्श्वनाथजी भी नग्नवेषमें रहे थे और उनके शिष्य भी वैसे ही रहते थे । जैन साधुओंकी सर्वोच्च अवस्था नग्न थी, यह बात दिगम्बर, श्वेतांबरे, दोनों ही जैन संप्रदायोंके शास्त्रों और ब्राह्मणं एवं बौद्ध ग्रंथों से भी प्रमाणित है । तथापि अन्यत्र हमने बौद्ध शास्त्रोंके आधारसे यह सिद्ध कर दिया है कि भगवान पार्श्वनाथजीके शिष्य भी नग्न वेषमें रहते थे, क्योंकि 'महावग्ग' में जिन 'तित्थिय' श्रमणोंको नग्न और हाथ की अंजुलि में भोजन करते बतलाया है वह जैन साधु हैं और यह प्रगट ही है कि बुद्धने अपनेसे प्राचीन साधुओं का उल्लेख इस विशेषण से किया है एवं महावग्ग में उपरोक्त उल्लेख उसवक्त आया है जब म० बुद्ध अपना संघ स्थापित करते ही जारहे थे और महावीर भगवान छद्मस्थ अवस्था में थे । अतएव इस सब विवरणको देखते हुये यह स्वीकार नहीं किया जासक्ता कि भगवान पार्श्वनाथ और उनके शिष्य नग्नवेषमें न रहे हों और भगवान महावीरने मक्ख लिगोशालसे नग्नवेष ग्रहण किया हो ।
१- आचाराङ्गसूत्र ( S. B. E) भाग १ पृ० ५६ । २ - ऋग्वेद १०- १३६, वराहमिहिरसंहिता १९ - ६१ व ४५-५८; महाभारत ३-२६-२७; रामायण बालकाण्ड भूषण टीका १४-२२ । ३- दिव्यावदान पृ० १६५; जातकमाला भाग १ पृ० १४५; विशाखावत्थू धम्मपदत्थकथा भाग १ खण्ड २ पृ० ३८४; डीपीलॉग्स ऑफ बुद्ध ३-१४; महावग्ग ८१–५, ३–१, ३८-१६; चुलवग्ग ४,२८,३; संयुत्तनिकाय २, ३, १०, ७; धम्मपदम् ५० ३ इत्यादि । ४ - भगवान महावीर और म० बुद्ध परिशिष्ट पृ० २३७-२३८ ।
१३
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३९६ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
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इस व्याख्याका समर्थन अब तकके उपलब्ध जैन पुरातत्वसे भी होता है । इस समय भगवान पार्श्वनाथजीकी संभवतः सर्वप्राचीन मूर्तियां जैन सम्राट् खारवेल महामेघवाहन (ईसा से पूर्व २य शताब्दि ) द्वारा निर्मित खंडगिरि-उदयगिरिकी गुफाओं में मिलती हैं और यह नग्नष में हैं । इससे स्पष्ट है कि आजसे इक्कीससौ वर्ष पहले भी भगवान पार्श्वनाथजी ननवेषमें ही पूजे जाते थे । इस समय दिगम्बरश्वेतां प्रभेद भी जैन संघमें नहीं हुये थे। इसके बाद कुशानकाल (Ind-Scythian Period) की मथुरावाली मूर्तियों में भी भगवान पार्श्वकी मूर्तियां नग्नवेषमें मिली हैं। आश्रर्य यह है कि इनमें से एक श्वेताम्बर आयागपट में भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन मूर्ति नग्न ही हैं । इसमें कान्ह श्रमग एक खंड- वस्त्र ( अंगोछे ) I को हाथकी कलाई पर लटका कर नग्नताको छुते हुये प्रगट किये गये हैं। वैसे वह संपूर्णतः नग्नवेष में हैं। श्वेताम्बर संप्रदाय के साधुओं की तरह उनके पास अभ्यन्तर और बहिरवस्त्र नहीं हैं और न उ नरहके एकवस्त्रधारी साधु ही हैं, जैसे कि श्वे० संप्रदाय में माने जाते हैं । ३३० संप्रदाय के अनुसार खंडवस्त्रधारी तीर्थंकर भगवान एक प्राचीन चित्रमें लंगोटी लगाये दिखाये गये हैं । इस अव यह कान्हभ्रमण पूर्ण श्वेताम्बर साधुकी कोटिमें नहीं आते है । उनका स्वरूप भट्टारक रत्ननन्दि कृत 'भद्रबाहु चरित' में बताये हुए 'अर्ध फालक' (अर्धवस्त्र) वाले जैन साधुओंसे ठीक मिलता है । हारक रत्ननन्दिने श्रुतकेवली भद्रबाहुनीके समय में शिथि
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१- सूत्र (S. B. E) भाग १ पृ० ७१-७२ । २ - जू जैनिसमस प्लेट नं० ८ ३ - भगवान महावीर पृ० २२७ । ४ जैनहितैषी भाग १३ पृ० २६६ ।
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भगवान पार्श्व व महावीरजी । [ ३९७ लाचारी मुनियों द्वारा इस संप्रदायकी उत्पत्ति मानी थी और फिर जिनचन्द्र द्वारा पूर्णतः श्वेताम्बर भेद हुआ उनने कहा है । इस मूर्तिके स्वरूपसे उनका कथन प्रमाणीक ठहरता है । हमने इसके पहले भी अर्धफलक' संप्रदायका अस्तित्व स्वीकार किया था; यद्यपि पं० नाथूरामजी प्रेमीने इसे एक कल्पना ही खयाल किया था । और यह प्रायः सर्वमान्य है कि दिगम्बर - श्वेताम्बर भेदकी जड़ यद्यपि द्रवहु श्रुतकेबलीके निकटवर्ती कालसे ही पड़ गई थी, परन्तु उसका पूर्ण विच्छेद ईसवीसन् ८० या ८२ में हुआ था' । इसके मध्य काल में अवश्य ही अर्धफालक शिथिलाचारी श्रमणसंघ रहा प्रगट होता है, जो वैसे तो प्राचीनरूपमें अर्थात् नग्नवेषमें रहन थे; परंतु लज्जा निवारणके लिये खंडवस्त्र रखता था । इस दशा में दिगंबर जैन कथन विश्वास न करनेके योग्य नहीं ठहरता है। अतएव यह स्पष्ट होनाता है कि श्वेताम्बर संप्रदायको भी पहले नग्न स्वीकार था । यही कारण है कि मथुराके कंकाली टीला से निकलीं हुईं पूर्ण नग्न तीर्थंकर मूर्तियों पर इत्रे० आम्नायके आचार्यों का नाम अंकित है । इस प्रकार प्राचीन पुरातत्वसे भी श्री पासाथ एवं अन्य जैन तीर्थंकरों का नग्नवेष में रहना प्रमाणित है। सिर रामकृष्ण गोपाल भांडारकर महोदय ने भी
यह प्रगट किया था कि "प्राचीन जैन मूर्तियां प्रायः नग्न ही मिलतीं हैं। गुफा मंदिरों में भी दिगंबर प्रतिमायें मिलती हैं ।"
१- कैम्बिज हिस्टी ऑफ इन्डिया भाग १ पृ० १६५ इन्डियन स्टडीज भाग १ ० २५ इत्यादि । २ - जैनहितैषी पृ० २९१-२९२ । ३ - पूर्व० भाग ५ ० २५ ।
और साउथ
भाग १३
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३९८ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
अतएव ऐसा कोई साधन उपलब्ध नहीं है, जिससे यह स्वीकार किया जासके कि भगवान पार्श्वनाथजीक संघ में वस्त्रधारी अवस्था के निग्रंथ मुनि थे और भगवान स्वयं वस्त्रधारण किये रहे थे; जैसे कि ० का कथन है |
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तीसरी और चौथी बातों में कुछ तथ्य अवश्य है । यह निर्वि बाद सिद्ध है कि भगवान महावीरजीके प्रारंभिक जीवन तक अव शव ही भगवान पार्श्वनाथजीका संघ मौजूद था । किन्तु ज्यों ही नवीन संघ उत्पन्न हुआ त्योंही प्राचीन संघ के ऋषि उसमें मिल गये थे । उनमें विशेष अन्तर नहीं था और वह भगवान महावीर जीकी बाट जोह रहे थे, यह हम देख ही चुके हैं । चातुर्याम् नियम जो दोनों संघों में समान बतलाया जाता है, वह उसी रूपमें एक माना जाता है निमरूपमें वह सामन्नफल सुत्तमें मिलता है । जैन श्रमणके वही चार लक्षण थे जो इस बौद्धसुत्तमें बताए गये हैं, जैसे कि हम पहले देख चुके हैं । यह बात दि० जैन ग्रन्थ 'रत्नकरण्ड श्रावकाचारसे प्रमाणित है, यह पहले ही दिखाया जाचुका है । अतएव यह कहना कि बौद्धोंने महावीरस्वामीके प्रति जिस चार्तुयाम संवरका निरूपण किया था वह गलत है कुछ तथ्य नहीं रखता ! भगवान महावीर के समकालीन न बुद्धमे ऐसी गलती होना असंभव ही है। बौद्ध शास्त्रोंमें जिन सिद्धांतोंको "नोंका बतलाया गया है वह
हमें ठीक हैं; यद्यपि उनकी व्याख्या करने में कहीं२ बौद्धोंने अत्युकिसे काम लिया है। इसलिए यह नहीं स्वीकार किया जासक्ता कि भगवान पार्श्वनाथनीके निकट चातुर्याम नियमका भाव चार १- भगवान महावीर और म०. बुद्ध, परिशिष्ट ।
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भगवान पार्थ व महावीरजी। [३९९ व्रतोंसे था और भगवान महावीरनीने उन्हींमें अंतिम व्रा बढ़ा दिया था । बौद्धोंके मज्झिम निकायमें भगवान महावीरनी के 'पांच वन ठीक ही बताये हैं; पर उनके किसी ग्रंथमें भी भगवान पार्श्वनाथनीके उन चार व्रतों का उल्लेख नहीं है, जिनको श्वेताम्बर ग्रन्थ प्रगट करते हैं। फिर भगवान महावीर द्वारा यदि उन व्रतोंमें ही एक और बढ़ाया गया था, तो वह अंतिम 'तपोगुण' अथवा अपरिग्रह व्रत न होकर ब्रह्मचर्यव्रत था । इस अवस्थामें डॉ. बारुआका यह कथन भी उचित प्रतीत नहीं होता । तथापि डॉ. जैकोबीने यद्यपि पालीके 'चातुर्याम' और प्राकृतके 'चातुजाम' शब्दोंको समान बतलाया है; परन्तु यह भी उनने स्पष्ट स्वीकार किया है कि 'चातुजाम' से भगवान पार्श्वनाथनीके चार व्रत प्रगट होते हैं। इसलिये स्व० डॉ० द्वीस डेविड्सका प्रॉ. जैकोबीको 'चातुर्याम' से श्री पार्श्वनाथजीके चार व्रत ग्रहण करते बतलाना ठीक है और वह जो इससे चार व्रतोंका भाव निकलना गलत बतलाते हैं, वह भी ठीक है । इस तरह दि. जैन ग्रन्थों एवं बौद्धोंके शास्त्रोंसे यह प्रगट नहीं होता है कि भगवान पार्श्वनाथजीके चार व्रत थे । साथ ही ऊपर जब हम यह देख चुके हैं कि पार्श्वनाथनीके निकट भी सैद्धांतिक क्रम मौजूद था, तो यह नहीं कहा जासक्ता कि व्रतोंको उनने नियमित रीतिमें न रक्खा हो ! तथापि शीलव्रतोंका प्रार्दुभाव अंतिम तीर्थकर द्वारा हुआ ख्याल करना भी कोरा ख्याल है; क्योंकि शीलव्रतोंमें पंच महाव्रत भी हैं और इनका अस्तित्व भगवान पार्श्वनाथ नौके संघमें मिलता है। 1-जैनसूत्र (S. B.E) भाग २ मिका पृ० २० ।
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४००] भगवान् पार्धनाय । यद्यपि यह ठीक है कि दोनों संघोंमें चारित्रभेद केवल आचरणमें लानेकी दृष्टिसे अवश्य था; जैसे कि जैन शास्त्रोंसे प्रगट है। • सर्व अंतिम जो यह कहा गया है कि दोनों संघोंका मेल, यद्यपि समयकी मांगकी वजहसे जाहिरा होगया था, जिससे पार्श्वसंघको वीर-संघका सिद्धांत पानेका लाभ हुआ था; परन्तु वह ज्यादा दिन न टिका और महावीरस्वामीके निर्वाण उपरान्त पुनः भेद होगया ! खेद है कि यहां भी हम डा० बारूआके साथ सहमत नहीं हो सक्ते । यह सत्य है कि भगवान महावीरजीके कैवल्यपद प्राप्त करने और संघ स्थापित करने के साथ ही पार्श्वसंघके ऋषि आदि सदस्य भगवान्के संघमें सम्मिलित हो गये थे; किन्तु ऊपरके कथनको देखते हुये यह नहीं स्वीकार किया जासक्ता कि उनको इससे सिद्धान्तवाद (Philosophy) पानेका लाभ हुआ था ! साथ ही बौद्धशास्त्रों के कथनसे यह भाव निकालना कि भगवान् महावीरजीके निर्वाण होते ही वीरसंघ दो भागोंमें विभक्त हो गया था, ठीक नहीं प्रतीत होता ! यह दिगंबर और श्वेताम्बर दोनों आनायोंके ग्रंथोंके विरुद्ध है। भगवान महावीरजीके उपरान्त जबतक उनके केवलज्ञानी शिष्य, जिनमें सर्वअंतिम जम्बूस्वामी थे, मौजूद रहे थे, तबतक तो किसी तरहका भी कोई प्रभेद पड़ा दृष्टि नहीं पड़ता है, क्योंकि दोनों आम्नायोंमें केवलज्ञानियोंके सम्बन्धमें कुछ भी अन्तर नहीं है। आपसी प्रभेदकी जड़ श्रुतकेवलियोंके जमानेसे और बहुतकरके भद्रबाहुजीके जमानेसे ही पड़ी प्रतीत होती है । इस समय निग्रंथसंघकी ठीक वही दशा होरही थी जो बौद्धशास्त्रों में क्तलाई गई है। और यह विदित ही है कि इस समय अथवा
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भगवान पार्श्व व महावीरजी ।
[ ४०१ इससे किञ्चित उपरान्त ही बौद्ध शास्त्र उस रूप में संकलित किये गये थे, जैसे कि अब मिलते हैं । इसी कारण उन्होंने साधारणतः भगवान् महावीरके निर्वाण बाद संघभेद बतलानेका भाव उस सम यी घटनाको लक्ष्य करके लिखा था। बौद्धशास्त्रोंमें यही एक उदाहरण नहीं है जिसमें यह भ्रमात्मक बात हो प्रत्युत और भी उदाहरण हैं जिसमें अजातशत्रुको उसके समयके उपरांतकी घटनाओंसे सम्बंधित बतलाया गया है। इससे बौद्धग्रन्थोंके कथनका भाव यही है कि भगवान् महावीरजीके उपरान्त एक काफी समयके बाद संघ - भेदकी नींव पड़ी थी । कमसेकम भद्रबाहु श्रुतकेवली के समयतक तो संभवतः संपूर्ण संघ एक था । किन्हीं अजैन विद्वानोंका भी यही मत है ।' अस्तु;
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथजी और महावीरस्वामीका पारस्परिक सम्बंध क्या था ? दोनों ही महापुरुष एक समान तीर्थंकर थे और उनकी शिक्षा भी प्रायः एक समान थी; किन्तु उनके संघमें चारित्र नियमोंको पालने में किंचित अन्तर अव - श्य था । और यह अन्तर मूलमें कुछ नहीं था ! जैन धर्मकी, यह खासियत रही है कि वह प्राचीन से प्राचीनतर कालसे अपने सिद्धान्तोंको वैसे ही प्रगट करता चला आरहा है, जैसे कि वे आज उपलब्ध हैं ।" यद्यपि उसके बाह्यरूप क्रियाकाण्ड आदिमें अवश्य ही सामयिक प्रभाव पड़ा प्रगट होता है ।
१ - कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इन्डिया भाग १ पृ० १६५ । २ - पूर्व ० पु० १६९ ।
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४०२] भगवान पार्श्वनाथ ।
(२६)
उपसंहार। 'जयतस्तव पार्श्वस्य श्रीमद्भर्तुः पदद्वयम् । क्षयं दुस्तरपापस्य क्षयं कर्तुं ददज्जयम् ।'
-श्री समन्तभद्राचार्यः । हे प्रभो पार्श्वनाथ ! 'आप मोहादिक सम्पूर्ण अंतरंग शत्रुओंको जीतनेवाले हो, सबके स्वामी हो । हे देव ! आपके चरणकमल अतिशय शोभायमान हैं। सर्वत्र विजय देनेवाले हैं। अतिशय गहन प.पोंको भी नाश करनेके लिये समर्थ हैं । हे भगवन् ! आपके ऐसे चरणकमल मेरा अंधकार दूर करो।' अवश्य ही त्रिभुवनवन्दनीय भगवान्की पवित्र संस्तुति भक्तजनके अज्ञानतमको नाश करनेमें मूल कारण है । पतितपावन प्रभूके पाद-पद्मोंका भ्रमर बन जानेसे पाप-पङ्कमें फंसा रहना बिल्कुल असंभव है । प्रभूकी भक्ति प्रभूकी विनय परिणामोंमें वह विशुद्धता लाती है कि स्वयमेव ही सब संकट नष्ट होनाते हैं और भक्तवत्सल प्राणी आनन्दसरमें गोते लगाता है । भगवान् पार्श्वनाथ एक ऐसे ही पतितपावन उपासनीय परमात्मा थे। उन्होंने मोहमायाको अपनेसे दूर भगा दिया था । क्रोध, मान, माया लोभ आदि मानवी कमजोरियोंको उनने पास फटकने नहीं दिया था ! बाहिरी शान-गुमानके कारणोंको तो वह प्रभू पहले ही नष्ट कर चुके थे। प्राकृतरूपमें वे विवसन होकर निर्भीक विचरण करते थे । जैसे बाहिर थे, वैसे भीतर थे। न नाहिरा देखनेमें कोई शारीरिक दोष था और वैसे ही न मनमें कोई मैल था, वे खूबसूरत अनूठे थे । प्रकृतिके अञ्चलमें ज्यों
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भगवान पार्थ व महावीरजी। [४०३ नीलाकाश शोभता है, त्यों ही वे भगवान अपने नीलवर्ण शरीरमें अपूर्व सुन्दरताको पारहे थे ! उनका सौन्दर्य अपूर्व था ! सौन्दर्य ही केवल नहीं, बल्कि अनन्त गुणोंसे पूर्ण उनका चारित्र अनुपम था । इसलिये वे खूबसूरत और खूब सीरत दोनों थे । सब लोगोंको वे प्रिय थे । सब उनको अपना स्वामी कहते थे। अपने जीवनमें ही वे इस परम पूज्य प्रभुताको पहुंच चुके थे। उस समयके लोग ही उन्हें अपना परम हितेच्छ समझते थे यही बात नहीं थी, बल्कि आज भी उनका नाम और काम उसी तरह पुन रहा है और सचमुच जबतक आस्तिकताका अस्तित्व धरातल पर रहेगा तबतक वह बराबर पुनता रहेगा। जीवित परमात्माके गुणगान भला कैसे भुलाये जासक्ते हैं ? उनके गुण उनका उपदेश
और उनका स्वरूप हर समय और हर परिस्थितिके प्राणियोंको सुखदाई है उनका दिव्य चरित्र इस व्याख्याकी प्रगट साक्षी है। वे अनुपम थे उनसे अकेले वे ही एक थे ! कमालमें द्विधा भावकों जगह मिलना असम्भव है ! कानोंसे ह नारों नाम सुने जाते हैं । परन्तु प्रभू पार्थ जैसा नाम कहीं सुननेमें नहीं आता ! युगसे वीत गये पर वह नाम आन भी जीता जागता चमक रहा है । उनके दिब्य दर्शन पानेका सौभाग्य इस युगके किसी भी भव्यात्माको प्राप्त नहीं हुआ है, पर तो भी उनके नामकी माला एक नहीं दो नहीं हजारों लाखों प्राणी जपा करते हैं। सो भी केवल भारतीय ही नहीं ! उनके चरणकमलोंका स्मरण करनेवाले अंगरेन भी हैंजर्मन भी हैं। पूर्व और पश्चिम, दुनियांके दोनों भागोंमें भगवान के गुणगान गाये जाते हैं ! यह क्यों ? क्यों सर्व दिशायें प्रभू पायकी
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४०४] भगवान् पार्श्वनाथ । अद्वितीय कीर्तिसे गूंज रहीं हैं ? इसलिये कि उनमें अनन्त प्रेम था-अनन्त वीर्य था-अनन्त ज्ञान था ! सब जीवोंके कल्याणका द्वार उनके भव्य दर्शनमें मिलनाता है । विजयलक्ष्मी उनके उपासकोंके सम्मुख आ उपस्थित होती है; क्योंकि उनका दिव्य चरित्र साम्यभाव और उत्कट विश्वप्रेमका पाठ पढ़ाता है। उनके उपासक परम अहिंसाव्रतको पालते हैं-दयाके दर्शन उनके दैनिक जीवनसे होते हैं। और दया सत्यकी सहोदरा है। फिर भला कहिये कि दयाप्रेमी प्रभू पार्श्वके उपासक सत्यके हृदयमें निवास करते हुये क्यों नहीं विजय-लाभ करेंगे ? उनके सर्व कार्य अवश्य ही सिद्धिको प्राप्त होंगे। प्रभू पार्श्वकी भक्ति-श्री तीर्थंकर भगवानकी उपासना अवश्य ही मनुष्य जीवनको सुफल बनानेवाली है। इसीलिए कवि कहते हैं किः"जनरंजन अघभंजन प्रभुपद, कंजन करत रमा नित केल। चिन्तामन कल्पद्रुम पारस, वसत जहां सुर चित्राबेल । सो पद सागि मूढ़ निशिवासर, सुखहित करत कृपा अनमेल। नीति निपुन यों कहैं ताहिवर, 'वालू पेलि निकालै तेल ॥"
सचमुच प्रभू पार्श्वके पाद-पद्मोंका सहवास छोड़कर अन्यत्र सिर मारनेमें कुछ फल हाथ आनेका नहीं है। भगवान पार्श्वनाथका पवित्र जीवन हमें स्वाधीन हो सच्चे सुखी बनने का उपदेश देता है। परतंत्रताकी पराधीनतासे विलग रहना वह सिखाता है । जीबित प्राणीमें अनन्त शक्ति है-आस्तिकोंको यह बात उनके दिव्य संदेशसे हृदयंगम होजाती है। वह जान जाते हैं कि कीडी-मकोड़ी,
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उपसंहार ।
[४०५ वृक्ष-लता, सभ्य-असभ्य सब ही प्राणी समान शक्तियोंको रखनेवाले हैं-कुछ मुजायका नहीं जो उस दशामें वह हीन होरहे हैं । निमित्त मिलते ही-काललब्धिको पाते ही वे अपनी अव्यक्त शक्तिको प्रकट कर देंगे। भगवान पार्श्वनाथका जीव एक भवमें मदमत्त हाथी था; परन्तु वही संयममयी त्यागमार्गमें लगकर त्रिलोकवन्दनीय परमात्मपदको प्राप्त होगया । इसलिये किसी भी व्यक्तिको हेय समझना घृणाकी दृष्टिसे देखना अन्याय मार्गमें पग बढ़ाना है । प्रत्येक प्राणी हमारा बंधु है-ज्यों हमें जीवनप्रिय है त्यों उसे है-इसी भावको भगवान पार्श्वके निकटसे ग्रहण करके विश्वप्रेमका साम्राज्य इस जगतमें सिरन देना बिलकुल संभव है । साम्यभावका प्रचार दिगंतव्यापी उसी रोन होगा जिस रोज भगवान पार्श्वका बताया हुआ मार्ग लोगोंको दृष्टि पड़ेगा ! बाहिरी चकाचौंध में फंसे रहनेसे कार्य न सधेगा-रिवाजों और क्रियाकाण्डोंकी उपासना करनेसे कुछ हाथ न आयगा ! त्याग मार्गमें पग बढ़ाने और संयमको अपनानेमें ही संसारकी मुक्ति शेष है-इस बातको इस दिव्य चरित्रसे गांठ बांध लेने में ही कल्याण है । भगवान पार्श्वनाथने कमठके जीव तापसीको यही बात सुझाई थी। अतएव स्वाधीनताके उपासकोंके लिए भगवानका दिव्य जीवन उसी तरह महत्व पूर्ण है जिस तरह दिशाभानके लिए नाविकों के लिए ध्रुव तारा है । सरल प्राकृत जीवनसादा लिबास और सादा भोजन और हृदयमें विश्वप्रेमका वास इस धरातलको भी स्वर्गवास बना देता है, यह विश्वास ही त्राणदाता है ! सत्यके हृदयमें सदैव बना रहना ही सर्व सुखको पालेना है । भगवान पार्श्वनाथजीने यही सुखसंदेश जगतको सुनाया था इसीलिये
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४०६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
उनके चरित्र के एक रश्मि प्रकाशको पाकर उनके पवित्र चरित्रको पूर्ण करते हुए आइए पाठकगण उनके चरणोंमें नतमस्तक होलें; क्योंकि:
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" नरनारक आदिक जोनि विषै, विषयातुर होय तहां उरझे है । नहिं पावत है सुख रंच तऊ, परपंच प्रपंचनिमैं मुरझे है || जिन पारश सों हित प्रीति बिना,
चित चिंतित आश कहां सुरझै है | जिय देखत क्यों न विचारि हिये, कहुं ओसकी बूंद सों प्यास बुझे है ॥
इतिशम् - ॐ शान्तिः !
आश्विन शुका २ सं० १९८३ मंगलवासरे परिपूर्णम् । ता० ७-१२-१९२६ ।
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ग्रन्थकारका परिचय। [४०७
अन्धकारका परिचय । संसारमें भटकते हुए क्षुद्र जीवका परिचय ही क्या ? जिस प्रकार और सब जीव हैं वैसा ही यह प्राणी है ! एक ही निगोदरूषी जननीके उदरसे जन्मे हुये भाइयोंमें अन्तर ही क्या ? उनमें परस्थर विशेषता हो ही क्या सक्ती है ? फिर मेरा और तेरा परिचय क्या ? पुद्गलके संसर्गमें आया हुआ यह जीव इस अनन्त संसारमें नानारूप रखता है, उन विविध रूपों के फेर में पड़ना बहुरुपियेके तमाशेके दृश्यसे कुछ अधिक महत्व नहीं रखता ! परन्तु संसारका अहंकार उसने देढब उलझा हुआ है वह उसके सारासारको देखने नहीं देता। उसे ननर ही नहीं पड़ता कि वह तो अनन्तदर्शन, अनंतज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखरूप है, सिद्ध है, शुद्ध है, परम बुद्ध है । सचमुच मेरी अनन्तगुणमई समृद्धि है। देखनेमें देह परिमाण भले ही हूं, परन्तु निश्चय जानो मैं असंख्य प्रदेशी हूं और अमूर्तिक हूं, अनन्तरूप हूं, परमानन्द हूं, सहज हूं, नित्य हूं, चिदानन्द हूं, मेरा चेतना लक्षण है, मैं चैतन्य हूं अखण्ड हूं और लोकालोकका प्रकाशक हूं। रत्नत्रय मेरे अंगकी शोभा बढ़ाते हैं । सहन स्वरूपको दर्शाकर मैं सिद्ध समान देदीप्यमान हूं । संसारकी गगद्वेष कालिमासे रहित शुभाशुभ कर्मकलंकसे विहीन निष्कलंक हूं, समन्तभद्र हू शास्वतानन्द हूं, पर हूं कहां ? अहंकारका पर्दा फटे और 'सोऽ' की भूमि प्रगट हो तब कहीं जो हूं सो दृष्टि पडूं। आज तो दुनियां मुझे कामताप्रसाद कहकर पुकारती है। मनुष्य जातिमें मेरी गणना होती है, जैनधर्मका मुझमें अनुराग प्रकट होता है । मैं भी जैनी बननेके प्रयत्नमें हूं।
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४०८ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
वैसे जन्म मेरा ऐसे स्थानमें हुआ जहां जैनमतका नाम सुननेको नहीं था और बचपन भी जिनेन्द्र भगवानकी शरणसे दूर२ वीता पर इसका अर्थ यह नहीं है कि पुण्योदयसे मेरा जन्म एक जैन कुलमें नहीं हुआ है ? मैं जन्मसे जैनी अवश्य हूं | परन्तु जैन कुलमें जन्म लेनेसे ही कोई जैनी नहीं होजाता ! इसीलिये मैं कहता हूं कि मैं जैनी बननेकी कोशिषमें हूं। जैनधर्म है विजयमार्ग ! विजयी - वीर ही इसको अपनानेके अधिकारी हैं ! मनुष्य में जितनी नीचता है, संसारका जितना अहंकार है, उस सबपर विजय पानेके लिये जब कहीं तैयारी की जाय तब कोई जैनी हो ! अथवा कवि 'भाषके शब्दों में 'सकलजनोपकार सज्जा सज्जनता जैनी' जैनी है । - मनुष्य मात्र के उपकार करनेका सज्जनोत्तम भाव हृदय में जागृत होना कठिन है ! फिर भला कोई जैनी कैसे होवे ? अपनेमें इसी भावको जागृत करनेकी उत्कट अभिलाषासे विजयी वीरों-महावीरोंके चरि
में मन पग रहा है । शायद मैं कभी सचमुच जैनी हो जाऊँ ? फिर भला कहिये कि इस अवस्था में मेरा परिचय लिखने से किसीको क्या फायदा होगा ? यह भी तो एक अहंकार है । पर संसारकी ममता और लोगोंका कौतूहल जो कराले सो थोड़ा है ! वैसे उनमें और मुझमें अथवा अन्य किसीमें अन्तर ही किस बातका है। अंतरके कपाट खुलें तो सच्चा दर्शन ठीक परिचय मिल जावे !
मेरे इस वर्तमान रूपका अवतरण भारतवर्ष में संयुक्त प्रांतके एक जैन कुटुम्बमें हुआ है । उस समयकी बात है कि जब मुगल साम्राज्य छिन्न भिन्न होगया था, तब विविध प्रांतोंके शासक स्वाधीन राजा और नवाब बन बैठे थे । फर्रुखाबाद में भी एक ऐसी
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ग्रन्थकारका परिचय। [४०९ ही नवाबी थी। आगरा प्रांतके जिला एटामें तहसील अलीगंनके अन्तर्गत मौना कोट है। कहते हैं कि तब इसी ग्रामके एक सज्जन नवाबके 'नायब' थे और इन नायबके भण्डारीका कार्य समझिये एक जैन कुटुम्ब करता था। उसी जमाने में यह हुआ कि फर्रुखाबादके नवाबका कोई सम्बंधी कोटके पास मा निकला ! कहते हैं कि उसका नाम नवाबखां बहादुर था। उसने अलीगंजकी नींव जमाई । जब अलीगंज वसने लगा तब बहुतसे लोग बाहरसे बुलाकर वहां वप्ताये गये । कहा जाता है कि उसी समय कोटके उक्त जैन कुटुम्बके लोग भी अलीगंज आगये । उनको यहां भूमि दी गई तथा एक बाग भी मिला, जो आजतक इस कुटुम्बमें है। इस कुटुम्बमें एक सज्नन ला० निर्मलदास नामक थे। उनको संतानमें श्री फूलचन्दनी नामक हुये । कोट ग्रामसे आनेके कारण यह जैन कुटुम्ब तबसे बराबर ' कोटवाले ' नामसे प्रख्यात है। वैसे यह वैश्य जातिका है। जैनोंमें वैश्य अनेक उपजातियों में विभक्त हैं, यह वंश बुढ़ेलवाल कहलाता है । ऐतिहासिक शोधसे मालूम हुआ है कि बुढ़ेलोंका निकास लगभग १६वीं शताब्दमें लम्बकंचुक जातिसे हुआ था। लंबकंचुक जातिकी उत्पत्ति यदुवंशी राजा लोमकरणकी संतानसे हुई कही जाती है । वैसे तो द्वारिकाके साथ सारे यदुवंशियों का नाश होगया था; परन्तु जरत्कुमार निःशेष रहे थे। वह कलिङ्गमें जाकर. राज्य करने लगे थे । उनके बाद कलिङ्गमें बहुतसे राजा हुये; परन्तु उनमें कोई भी लोमकरण नामक नहीं है । अतः मालूम ऐमा होता है कि यदुवंशी राजा भगवान महावीरके बाद कलिंगके राजा नितशत्रुकी संतानमें कोई हुआ
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होगा | कलिंगसे इन लोगोंको ईसवी पूर्व ४ थी या तीसरी शताब्दिमें बाहर चला जाना पड़ा था और तब यह लम्बकाञ्चन देश में जारहे थे । यह देश कलिंगके निकट कहीं दक्षिण भारतमें होना उचित है | श्री समन्तभद्राचार्यके भ्रमण वृत्तान्तमें दक्षिणस्थं नगरोंके साथ एक ' लाम्बुश' नामक नगरका उल्लेख हुआ है । और 1 दक्षिण में कांचीपुर जैनोंका प्राचीन केन्द्रस्थान है । अतएव 'लाम्बुश और कांचीपुरके मध्यवर्ती देशका उल्लेख लम्बकाञ्चन नामसे होना संभव हो सक्ता है । इस दशा में यहांके निवासी राजभ्रष्ट यदुवंशियोंकी संतान लम्बकंचुक जाति कही जासक्ती है । इसी जातिका अषररूप बुढ़ेलवाल है । उक्त कुटुम्ब इसी बुढ़ेलवाल वंशोद्भव है । उक्त श्री ला० फूलचन्दजी व्यापार निमित्त मेरठ पहुंचे। वहां एक फौजी अफसर से उनकी भेंट हो गई। वे परस्पर उपकृत होगये । फूलचन्दनी फौनी कमसरियट में काम करने लगे । धीरे२ फौनी खजांच' होगये, उनका फर्म दूर२तक प्रसिद्ध होगया । श्री फूलचन्दजी के चार पुत्र थे - (१) ला० परमसुखजी, २) ला० कुन्दनलालनी, (३) ला० झम्मनलालजी, (४) ला ० गिरधारीलालजी । उनके उपरान्त यह चार भाई फर्म के कार्यको समुचित रीति से न चला सके और वह फर्म फेल होगया । ला • कुन्दनलालजीके तीन पुत्र हुये (१) श्री पं० तेजरायजी, (२) ला० धन्नामलनी, (३) वला० गोविन्दप्रसादजी । ये तीनों भाई गानविद्या विशारद हैं; यद्यपि सर्वलघु इस समय उनके बीच में नहीं है । पं० तेजरायमी संस्कृ-ज्ञ और धर्मज्ञ वयप्राप्त विद्वान हैं। आपके सुपुत्र बाबू अंबाप्रसादजी 'मिलिट्री अकाउन्ट डिपार्टमेन्ट' में एकाउन्टेन्ट थे। दुर्भा
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ग्रन्थकारका परिचय। [ ४११ ग्यसे उनका गत चैत्रमासमें असमयमें ही स्वर्गवास होगया। ला० गिरधारीलाल नीके एकमात्र पुत्र श्री ला० प्रागदासनी हैं। लेखकके पूज्य पिता यही हैं, पुराने फर्मके फेल होनेके बाद पिताजी अपना एक स्वतंत्र 'बेन्किन्गर्म' स्थापित करनेमें सफल हुये थे । तबसे यह फर्म बराबर चल रहा है, चूंकि इसका सम्बन्ध सरकारी फौनसे है; इसलिये भारतके विविध प्रान्तोंमें फर्मको जाना पड़ता रहा है। ऐसे ही जिस समय पिताजी सीमा प्रान्तकी छावनी कैम्प वेलपुरमें थे, उस समय मिती वैशाख शुक्ला त्रयोदशी बुधवार संवत् १९५८को मेरे इस रूपका जन्म हुआ था। माताजी धार्मिक चित्तवृत्तिकी धारक थीं, यद्यपि मुझे बचपनमें जैनधर्मके साधक साधनों का संसर्ग प्राप्त नहीं हुआ; परन्तु मातानीकी धार्मिकवृत्तिने मेरे हृदय में उसका प्रतिबिम्ब ज्योंका त्यों अंकित कर दिया। रातको जब मैं पहार तारोंके विषयमें प्रश्न करता तो वह समाधान करती हुई मुझसे यह व हलवाके सुला देतीं कि 'जिनवर तारे मन भर कूचे, जहां नीव तहां तीन किनारे । जा मंडलीमें उच्चरे ताहि श्री पार्श्वनाथकी आनि, तब इसका मतलब कुछ समझमें नहीं आता; किन्तु जब आज सोचता हूं तो इस सरल उक्तिमें जैनधर्मकी खास बातों का उपदेश भरा हुआ पाता हूं। जिनेन्द्र भगवान ही तारे हैं, उन्हींको मनमें स्थापित करके ताला बंद करदो । किसी अन्यको हृदयके उच्चापन पर मत बैठ'ओ, संसारसागरमें भटकते हुये इस प्राणीके लिये सिर्फ 'तीन'-रत्नत्रय-किनारे हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिये। श्री पाचनाथके शासनकी छायामें सब आनन्दसे कालक्षेप करें ! इस सरल ढंगसे गहन उपदेश भला और कैसे हृदयंगम हो सक्ता ? इसीका
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परिणाम था कि जब हैदराबाद सिंघमें मैं 'नवलराय हीरानंद ऐके'डेमी' नामक स्कूल में अंग्रेजी पढ़ता था, तब अन्य छात्र जहां गुरु नानकजीके बोलमें धर्मपरीक्षा देते थे, वहां मैं जैन स्तोत्र और सामायिकपाठको सुनाता था । इस तरह धार्मिक भावुकताकी जड़ मेरे हृदय में बचपन से जम गई थी। बचपन में मेरठ व अलीगंज में मैंने हिन्दी और उर्दू पढ़ी थी । हैदराबादमें मैट्रिकतक अंग्रेजीका अध्ययन किया था; दूसरी भाषा फारसी थी । अलीगंज में एक पंडित महाशय से संस्कृत भाषा पढ़नेका प्रयत्न किया, पर असफल रहा । सन् १९११ के लगभग मेरा विवाह कर दिया गया । सन् १९१८ में माताजीका स्वास्थ्य खराब हो गया और उन्हीं की सेवामें व्यस्त रहनेके कारण मेरा अध्ययन बीचमें ही छूट गया। इसके बाद ही मातानी और पत्नीका देहांत हो गया, घर सूना होगया, हृदयमें अपनेको पहिचानने का भाव जागृत हुआ परन्तु व्यापार में लग जाने से वह ज्यादा पनपा नहीं ! हैदराबादके अतिरिक्त बरेली में भी फर्मका कार्य चल निकला । मैं बरेली रहता था । धर्मपुस्तकों के देखने का सौभाग्य मुझे स्व० कुमार देवेन्द्रप्र सादनी के विज्ञापनों से प्राप्त हुआ था । उन्होंने मुझे एकदम अपनी सब पुस्तकें भेज दी थीं । मैं उनका अध्ययन करता रहा । फिर मेरे अभिन्न मित्र और प्रेमी श्रीयुत् बाबू शिवचरणलाल नीके यहाँ वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव हुआ । उस समय ब्र० शीतलप्रसादजी म० से भेट हुई | उन्होंने जैनधर्मके अध्ययन और प्रभावना के लिये उत्साहित किया । मैं 'जैन मित्र' व 'दिगम्बर जैन' मंगवाने लगा । इनके पढ़नेसे लेख लिखने का शौक हुआ । लेख लिखे परन्तु सत्र
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[ ४१३ न छपे । ब० जीने उत्साह वर्द्धनार्थ किन्हीं २ को 'मित्र' में स्थान दिया । फलतः लिखना न छूटा। लिखता रहा तो लिखना आगया । बरेलीमें तो कविता रचनेका भी उद्योग चलता रहता था । इसी समय श्रीमान् बाबू चम्पतरायनी वेरिष्टरकी मूल्यमई रचनाओं का लाभ हिन्दी जनताको करनेकी उत्कट अभिलाषा से मैंने उनके इंग्रेजीके ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया । बेरिष्टर साने 'असहमत संगम' के कई अध्यायोंका अनुवाद मुझे करने देनेका अवसर प्रदान किया । यहींसे मेरी ग्रन्थ रचनाकी ओर प्रवृत्ति होगई । जब मैं बरेलीमें था तब ही मेरा द्वितीय विवाह हो गया । इसके पहले ही मैं समानोन्नति के कार्योंमें भाग लेने लगा था । कानपुर और लखनऊ की महासभा में शामिल हुआ था । महासभाकी कूटनीति से मन उचटासा था । तिसपर दिल्लीके अधिवेशनमें पंडितदलकी दुर्नी तिने समाज नेताओं को उसके विमुख कर दिया । समाजका सच्चा हित करने के नाते 'भा ० दि० जैन परिषद' का जन्म हुआ ! जहां मैंने 'जैनगजट' में महासभाकी सफलता के लिये कई लेख लिखे थे और उसके सुधार करने की धुन में था; वहां सुधारका अवसर न देखकर उल्टे शक्तिका दुरुपयोग समझकर मैंने परिषदकी ओर ध्यान दिया। परिषद के कर्णधारोंने मेरे अयोग्य कन्धों पर 'वीर' पत्रके सम्पादनका भार डाल दिया व यथाशक्ति उपका पालन कर रहा हूं । सौभाग्यसे हिन्दीके प्रतिष्ठित लेखक उसको अपनाने लगे हैं और विदेशों में भी वह नैनधर्मका परिचय कराने में सहायक है। उधर इन दिनों स्वास्थ्य हीन रहा और तबियत एकांत में मग्न रहने लगी। इस एकांत में कभी २ भगवान के
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४१४ ] भगवान पार्श्वनाथ । दिव्य चरित्रोंको अवलोकन करनेका अवसर मिला, जिसके परिणाम रूप चरित्र ग्रंथ लिख गये । इटावामें महावीरजयंतीपर जब कोई उपयुक्त महावीरचरित्र न मिला, तब एक चरित्र लिखने का साहस हुआ। तबहीसे 'भगवान महावीर' 'महारानी चेलनी' आदि करीब १२१३ छोटेमोटे ग्रन्थ लिख गये । इस समय ध्यानाध्ययनमें ही समय बीतता है । भगवान महावीर विषयक एक निबंधपर 'यशोविजय जैन ग्रन्थमाला'की ओरसे स्वर्णपदक मिला । इन्दौरकी निबंध जांच-कमेटीने 'जैन संख्याके हाससे बचनेके उपाय' सम्बन्धी निबंधोंमें लेखकका निबंध सर्व प्रथम ठहराया ! उधर 'रायल ऐशियाटिक सोसाइटी-लन्दन'का भी सदस्य लेखक चुना जाचुका है । अंग्रेजीके विविध भारतीय और विदेशीपत्रोंमें जैनधर्मविषयक लेख प्रगट होते रहते हैं। जैनोंका कोई भी प्रामाणिक इतिहास न होनेके कारण तरह २के अपमान उन्हें सहन करने पड़ते हैं । इस कमीको दूर करनेके लिये ' संक्षिप्त जैन इतिहास ' कई भागोंमें लिखना प्रारंभ होगया है और उसके दो भाग लिखे भी जाचुके । हैं। सत्यान्वेषण के बल मुझे प्रचलित जैनधर्मका स्वरूप विकृत दृष्टि पड़ता है और उसके सुधारके लिये मैं सदा तत्पर रहता हूं। इस सुधार कार्यको अपने आसपास अमली सूरत देने में मुझे अपने सम्बंधियों तककी नाखुशी सहन करनी पड़ी। पर मैं सत्यमार्गसे विचलित नहीं हुआ ! जनोपकारकी भावना हृदयमें ज गृत रहे यही वांछा रहती है । शायद किसी दिन यह भावना मुझे सच्चा जैनी बना दे ! अधिक अभी क्या लिखू ? अस्तु, वन्दे वीरम् । ..
-कामताप्रसाद जैन ।
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________________ 7 en em बाबू कामताप्रसादजीकृत ग्रन्थभगवान महावीर ) 2) भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध 1 // ) संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग // 7) महाराणी घेलनी भगवान पार्श्वनाथ 2 // ) सत्य मार्ग संक्षिप्त जैन इतिहास दूसरा भाग मिलनेका पतामैनेजर, दिगंबरजैनपुस्तकालय-सूरत।