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________________ [RA] • ર पर्व अ० ३ श्लो० २६-२७ में भी जैन मुनियोंका उल्लेख 'नग्न · क्षपणक' के रूप में है । 'अद्वैत ब्रह्मसिद्धि' नामक हिन्दू ग्रन्थके कर्त्ता क्षपणक के अर्थ जैन मुनि करते हैं । यथा: " क्षपणका जैन मार्ग सिद्धांत प्रवर्तका इति केचित । " ( ४० १६९ ) अन्य श्रोतोंसे भी - क्षपणक के अर्थ यही मिलते हैं।' इसके साथ ही महाभारत शांति पर्व, मोक्षधर्म अ० २१९ श्लो० ६ में सप्तभंगी नयका उल्लेख है । फिर इसी पर्वके अ० २६३ पर नीलकंठ टीकामें ऋषभदेवके पवित्र चरणका प्रभाव आतों वा जैनोंपर पड़ा कहा गया है। इन उल्लेखोंसे महाभारतकालमें भी जैन धर्मका प्रचलित होना सिद्ध है । भगवान् पार्श्वनाथ के पहलेसे उपनिषधोंका बहु प्रचार होरहा था और उस समय भी जैनधर्मका अस्तिउपनिषदों में जैनधर्म । त्व यहां प्रमाणित है । उपनिषधोंसे यह बात प्रगट है कि वेदोंके साथ ही कोई वेदविरोधी ऐसे तत्ववेत्ता अवश्य थे जिनकी 'ब्रह्मविद्या' (आत्मविद्या) के आधारपर उपनिषधोंकी रचना हुई थी । श्रीयुत उमेशचन्द्रजी भट्टाचार्य ने यह व्याख्या अन्यत्र अच्छी तरह प्रमाणित कर दी है। उनका कहना है कि इस समय उस ब्रह्मविद्याका प्रायः सर्वथा लोप है। उसके बचे-खुचे कुछ चिन्ह उपनिषधोंमें ही यत्रतत्र मिलते हैं । उस समय वेदों और उपनिषधोंके अतिरिक्त ब्रह्मविद्या विषयक साहित्य 'लोक' नामसे अलग प्रचलित था । अब तनिक विचारने की बात है कि उपरोक्त ब्रह्मवादी कौन थे ? यदि सीरीज़ भा० १ पृ० १३ ॥ १- पञ्चतंत्र ५।१ । २-जैन इतिहास ३ - इंडियन हिस्टोरीकल क्वारटल भा० ३ पृ० ३०७–३१५ ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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