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________________ भगवानका निर्वाणलाभ ! [ ३७३ समयतक अयोगकेवली पदमें प्राप्त रहकर मुक्तिधाममें जा विराजमान हुये थे । अचल मोक्षस्थान में वह परामत्मारूपमें जाकर तिष्ठ गये थे। - लोककी शिखरपर हमेशा के लिये पूज्यपनेको प्राप्त होगये थे ! सबसे बड़े पदको वे पाचुके थे, समस्त प्राणी उनके चरणों के आश्र में रह रहे हैं ! भगवान् पार्श्वनाथजीके मोक्ष प्राप्त करते ही इंद्रादि देवों ने उनके निर्वाणकल्याणकी पूजा की और बड़ी भक्तिसे उन प्रभुकी वंदना करने लगे । उपरांत उन्होंने श्री जिनेन्द्र भगवान् के दिव्य देहकी दग्धक्रिया की ; यथा: " तब इंद्रादिक सुरसमुदाय, मोख गये जाने जिनराय । श्री निर्वानकल्यानक काज, आये निज निज बाहन साज ॥ परमपवित्त जानि जिनदेह, मुनिसिविकापर थापी तेह | करी महापूजा तिहिं बार, लिये अगर चंदन घनसार ॥३०७॥ और सुगंध दरव सुचि लाय, नमें सुरासुर सीस नमाय । अगनिकुमार इंद्र तैं ताम, मुकुटानल प्रगटी अभिराम ||३०८|| ततखिन भस्म भई जिनकाय, परमसुगंध. दसौं दिसिथाय । सो तन भस्म सुरासुर लई, कंठ हिये कर मस्तक ठई ।। ३०९ ॥ भक्तिभरे सुर चतुरनिकाय, इह विध महा पुण्य उपजाय । कर आनंद निरत बहू भेव, निज निज थान गये सब देव ॥ ३१०||" १- किन्हीं लोगोंका कहना है कि तीर्थंकर भगवान्की दिव्यदेह काफूकी तरह खिर जाती है और देवलोग अपनी भक्तिको प्रदर्शित करनेके लिये मायामई शरीर रचते एवं उसकी दग्ध क्रिया करते हैं । तथा नखशिखको लेजाकर वे क्षीरसमुद्रमें स्थापन करते हैं ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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