SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५२ ] भगवान पार्श्वनाथ । । एक समय मंत्रियोंने करकंडुसे कहा कि-'हे देव, द्राविड़, चेरम्, चोल, पांड्य आदि देशके राजा आपका शासन नहीं स्वीकार करते हैं; यद्यपि अन्यथा आपका शासन निष्कण्टक दिगन्तव्यापी होरहा है । इसलिये हे प्रभु, उनको जीतना चाहिये ।'' करकंडुके मनमें भी यह सलाह चढ़ गई और उसने सेना सुसज्जित कराकर दक्षिण भारतकी ओर पयान कर दिया ! कुछ दिनोंमें यह लोग तेरपुर नामक नगरमें पहुंच गये । करकंडु वहीं डेरा डालकर ठहर गया। दूसरे रोज इन्होंने एक प्रतीहारसे पूछा कि वहां कोई रमणीक देखनेयोग्य स्थान भी है । उसने बड़े हर्षसे वहीं पासमें पश्चिमकी और एक दर्शनीय पर्वत बतला दिया। करकंडु फौरन ही उसके दर्शन करनेको गये । पर्वतके ऊपर उन्होंने एक मनोहर वापी देखी और गुफाके भीतर श्री वीतराग जिनेन्द्रभगवानकी मनोज्ञ प्रतिमाके दर्शन किये। उन्होंने दर्शनवंदना करके अपना जन्म सफल माना ! उपरांत वह दूसरे पर्वतपर भी शीघ्र चढ़ गये ! वहां उन्होंने देखा कि एक कुण्डमें जल भरा हुआ है और कमल खिल रहे हैं । एक हाथी उनमेंसे एक कमलको तोड़कर बापीके हारपर चढ़ा रहा है । इस कृत्यको देखकर करकंडुको यह विश्वास १-“सो मह्वरुप भणइ देव देव, तुज्जमहियलु सयलुविकरइ सेव । पारीदोवड़देसेणिव अथिघिट्ठ, तेणमहिंणकासु विद्दिणइदुट्ठ । सिरि चोड़िपंडिणमेण चेर, णउ करहिं तुहारी देव केर । "२-ए अग्घिदेव पछिमदिसाहि, अइणिय दुउ पव्वउ रम्मुताहि। ३-पुणु दिट्ठउ तें जिण वीयराउ, संथुणणहिं लग्गउ साणु राउं । पुण्याश्रवमें पहले लड़ाई हुई बतलाई है । पृ. २3. ४-जिणेसहवादवि पछिव वेविगिरिंदहो उप्परि सिग्घ चडेवि । णिहालयतेहिं दिस्सहं मुहाई, मणाम्म णिवाहई जाइ सुहाइं । इत्यादि.
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy