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________________ भगवान पार्थ व महावीरजी। [४०३ नीलाकाश शोभता है, त्यों ही वे भगवान अपने नीलवर्ण शरीरमें अपूर्व सुन्दरताको पारहे थे ! उनका सौन्दर्य अपूर्व था ! सौन्दर्य ही केवल नहीं, बल्कि अनन्त गुणोंसे पूर्ण उनका चारित्र अनुपम था । इसलिये वे खूबसूरत और खूब सीरत दोनों थे । सब लोगोंको वे प्रिय थे । सब उनको अपना स्वामी कहते थे। अपने जीवनमें ही वे इस परम पूज्य प्रभुताको पहुंच चुके थे। उस समयके लोग ही उन्हें अपना परम हितेच्छ समझते थे यही बात नहीं थी, बल्कि आज भी उनका नाम और काम उसी तरह पुन रहा है और सचमुच जबतक आस्तिकताका अस्तित्व धरातल पर रहेगा तबतक वह बराबर पुनता रहेगा। जीवित परमात्माके गुणगान भला कैसे भुलाये जासक्ते हैं ? उनके गुण उनका उपदेश और उनका स्वरूप हर समय और हर परिस्थितिके प्राणियोंको सुखदाई है उनका दिव्य चरित्र इस व्याख्याकी प्रगट साक्षी है। वे अनुपम थे उनसे अकेले वे ही एक थे ! कमालमें द्विधा भावकों जगह मिलना असम्भव है ! कानोंसे ह नारों नाम सुने जाते हैं । परन्तु प्रभू पार्थ जैसा नाम कहीं सुननेमें नहीं आता ! युगसे वीत गये पर वह नाम आन भी जीता जागता चमक रहा है । उनके दिब्य दर्शन पानेका सौभाग्य इस युगके किसी भी भव्यात्माको प्राप्त नहीं हुआ है, पर तो भी उनके नामकी माला एक नहीं दो नहीं हजारों लाखों प्राणी जपा करते हैं। सो भी केवल भारतीय ही नहीं ! उनके चरणकमलोंका स्मरण करनेवाले अंगरेन भी हैंजर्मन भी हैं। पूर्व और पश्चिम, दुनियांके दोनों भागोंमें भगवान के गुणगान गाये जाते हैं ! यह क्यों ? क्यों सर्व दिशायें प्रभू पायकी
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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