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________________ २१२], भगवान पार्श्वनाथ । मित्र और तृण-कंचन सबमें समभाव रखकर उन्होंने अपने सब वस्त्राभूषण उतार डाले। इतनेमें शचीने वहींपर एक वटवृक्षके तले' स्थित चन्द्रकांत शिलाको 'स्वस्तिका' से अलंकृत कर दिया। भगवान् पूर्वकी ओर मुख करके उसी स्फटिकमणी पाषाण शिलापर बिरान गए और हाथ जोड़कर ' नमः सिद्धेभ्यः' कहकर उन्होंने सिद्धोंको नमस्कार किया। फिर बाह्याभ्यंतर परिग्रहको तनकर पंचमुष्टि लोंच किया। इस प्रकार दिगम्बर मुद्राको धारण करके वे ध्यानलीन होगये। नरनारी और देवसमूह भी भगवानकी अभिवंदना करके अपने२ स्थानोंको चले गये। उस दिगम्बर मुद्रामें भगवान् बड़े ही सुन्दर नंचने लगे । कवि भी यही कहते हैं: 'सोहै भूषन वसन बिन, जातरूप जिनदेह । इन्द्र नीलमनिकौं किधौं, तेजपुंज सुभ येह ॥ । पोह प्रथम एकादशी, प्रथम प्रहर शुभ वार । पद्मासन श्री पार्सजिन, लियौ महाव्रत भार ॥ और तीनसै छत्रपति, प्रभु साहस अविलोय । राज छोरि संयम धरयौ, दुख दावानल-तोय ॥ तब सुरेश जिनकेश सुचि, छीरसमुद पहुंचाय । कर थुति साध नियोग सब, गयौ सुरग सुरराय ॥" भगवान् वीतरागमयी ध्यान अवस्थामें लीन होगये । तीन दिन तक वे वहीं उसी ध्यानमग्न दशामें स्थित रहे । उन्होंने तेला-उपवास कर लिया ! मुनियोंके अट्ठाईस मूलगुण और चौरा १-पार्श्वपुराण पृ० ११९ । २-चंद्रकीर्ति आचार्य-पार्श्वचरित अ० १० श्लो. ११३ । ३-पार्श्वचरित पृ. ३८४ । ४-पार्श्वपुराण १२० ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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