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________________ २६४ ] भगवान् पार्श्वनाथ | पाले और अपने दैनिक मौजान रोज लगा ले । षट्लेश्यायें आत्माकी विविध दशाओंका स्पष्ट दिग्दर्शन करा देती हैं। इनके कारण आत्मामें - कुछ अन्तर नहीं पड़ता है । आत्मा तो मूलमें दर्शन ज्ञानमई और निरावरण हैं । यह लेश्यायें उसके सांसारिक दशाकी हीनता और उन्नतावस्थाको बतलानेवाली हैं । यह एक कांटा है, जिसपर मनुष्य जीवन की अच्छाई और बुराई हमेशा अन्दाजी जासकती है। कुछ -लोग इन षट्लेश्योंको मक्खलिगोशालके छह अभिजाति सिद्धान्तके अनुसार समझते हैं; परन्तु यह भ्रम है । गोशाल जीवात्माओं का काय अपेक्षा विभाग करता है और उसकी सादृश्यत। भगवान के बताये हुये जीवोंके षट् काय भेदसे किचित् अवश्य होती है ' यह षट्लेश्यायें कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्लरूप बतलाई गई हैं । पहलेकी तीन तो निःकृष्ट है और शेष शुभरूप हैं । इनका भाव समझानेके लिये जैनशास्त्रों में छह मनुष्योंका उदाहरण दिया हुआ मिलता है । कहा जाता है कि छह मनुष्य आमों का मजा चखनेके लिये एक मित्र के बगीचे में पहुंचे । मित्र साहब बड़े सन्तोषी और शांतिप्रिय जीव थे | उनने वहां पर स्वतः गिरे हुये जो आम पड़े हुये थे उनको ग्रहण करके अपनी तृप्ति कर ली। इनके एक घनिष्ट मित्र जिनपर इनका प्रभाव किचित् अधिक पड़ा हुआ था, इनहीके पास खड़े रहकर पेड़को हिला२ कर आम लेने लगे । इनसे हटकर एक दूसरे मित्र थे, उनको इतने से १० के शास्त्रोंमें कहा गया है कि भगवान महावीरके पिता नृप सिद्धार्थ काय जीवोंकी पूर्ण रक्षा करते थे । देखो प्री० बुद्धिस्टिक -इन्डियन फिलासफी पृ० ३०३ ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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