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________________ २०८] भगवान पार्श्वनाथ । मी ममत्व न रहा ! सांसारिक सम्पत्ति और विषयभोग उनको महादुःखदायी भासने लगे। विवेक नेत्रोंके बल वह उनमें दुःख ही दुःख भरा देखने लगे! वे ज्ञानवान थे। तीन ज्ञानके धारी जन्मसे थे-वे इंद्रियननित विषय-सुखोंके इन्द्रायण सरीखे असली रूपको जानते थे ! फिर भला उनके लिये यह कैसे सम्भव था कि वह और अधिक समय गृहस्थ अवस्थामें बने रहते ! विषसे अनभिज्ञ मनुष्य भले ही विष भक्षण कर ले; परन्तु जो विषको जानता है वह उसको कैसे खा सक्ता है ? राजकुमार पार्श्वनाथ जन्मसे ही निर्मल सम्यग्दर्शनके ज्ञाता थे-गृहस्थ दशामें भी वे संयमी जीवन व्यतीत करनेके इच्छुक थे, वे उत्तम मार्गका ही अनुसरण करना जानते थे, इसलिये उन्हें अपने स्वरूप रूप मुक्ति-धाम पानेकी योजना करना प्राकृत आवश्यक थी। वैराग्यका गाढ़ा रंग उनके मनको सखोर कर देगा, यह सर्वथा सुसंगत था । अनेक दोषोंके घर स्वरूप और त्याज्य विषयभोगोंसे पीछा छुड़ा लेना और परमार्थ सिद्धिके मग लग जाना ही बुद्धिमानोंका कार्य है। राजकुमार पार्श्वनाथने सोचा कि जब स्वर्गोके सुखोंसे विषयतृष्णाकी तृप्ति न हुई, तो अब मनुष्यपदमें उसकी शांति क्या होगी ? एक कवि यही लिखते हैं: 'जो सागरके जलसेती, न बुझी तिसना तिस एती। सो डाभ-अनीके पानी, पीवत अब कसे जानी ? इंधनसौं आगि न धापै, नदियौं नहिं समापै । यों भोग विषै अति भारी, तृपते न कभी तन धारी!" यही विचार करके राजकुमार पार्श्वनाथ संसारसे बिल्कुल
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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