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________________ भगवान् पार्श्वनाथ । ( उत्तराई ) भगवानू का दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । साकेत नगरे सोऽथ जयसेनाख्य भूपतिः । धर्मप्रीत्यान्यदासौ प्राहिणोछी पार्श्व सन्निध ।। निःसृष्टार्थ महादूत कृत्स्न कार्यकरं हितं । भगलादेशसंजातहयादिपाभृतः समं ।। --श्री सकलकीर्तिः । राजकुमार पार्श्वनाथ आनन्दसे कालयापन कर रहे थे। पिताके राजकार्यमें वे उनका हाथ बटाये हुये थे । युवावस्थाको प्राप्त होचुके थे । युवक वयसके ओन पूर्ण रसने. उनके शरीरको ऐसा खिला दिया था कि मानों कामदेव भी वहां आते खिन रहा है। भगवान तो जन्मसे ही अतीव सुन्दर और सुदृढ़ शरीरके धारी थे, पर इस समय उनकी शोभा देखे नहीं बनती थी । नीलाकाशमें जैसे शरद-पूनोंका चन्द्रमा अपनी सानी नहीं रखता, वैसे ही भगवानके नीलवर्णके सुन्दर शरीरमें यौवन अन्यत्र उस उपमाको नहीं पाता था । भगवान् जिस ओरसे होकर निकल जाते थे उस ओरके. लोग उनके रूप सौन्दर्यपर बावले होजाते थे। स्त्रियोंको यह भी पता नहीं रहता था कि हमारा अंचल वक्षःस्थलसे कब स्खलित
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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